Saturday, September 24, 2011

रेशम कैसे पैदा किया जाता है ? (Sericulture)

 पिछले अक्टू 2011 को हमारा जाना मेरे ब्रदर-इन-ला प्रदीपजी के यहाँ हुआ था. प्रदीपजी रेशम विभाग में हैं. वे बागबाहरा जिला रायपुर(छत्ति.) में पदस्थ हैं. मुझे यह तो मालूम था की वे रेशम विभाग में हैं. किन्तु , रेशम कैसे पैदा किया जाता है, यह मालूम नहीं था. प्रदीपजी भी उनके रेशम फार्म्स मुझे दिखाने काफी उत्सुक थे. उन्हें मालूम था, मैं लेखक हूँ. उन्हें यकीं था की जरुर मैं इस पर कोई लेख तैयार करूंगा.तो जनाब, लेख प्रस्तुत है, जैसे मैंने देखा और इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त किया-
     
 रेशम वास्तव में प्राकृतिक रेशा है. इस कपड़े की चमक, दरअसल रेशम रेशे के तिकोने प्रिज्म रूपी स्ट्रक्टचर के कारण होती है जिससे सूर्य की किरणे परावर्तित होती है. रेशम के उत्पादन अर्थात खेती को सेरिकल्चर (sericultur) कहा जाता है.
 
 रेशम का उत्पादन चीन में ईसा पूर्व 3500 साल में किये जाने का उल्लेख है. आपने 'चिनाम्बरा '(Chinambara) का नाम तो सुना होगा. चिनाम्बरा का मतलब है- सुनहरे रंग का चीन में निर्मित धागा. हमारे देश में रेशम के व्यापर का उल्लेख हमें सर्वप्रथम मगध राज्य के राजा अजातशत्रु के शासन काल में मिलता है. इसका भी उल्लेख मिलता है कि ईस्वी 320-480  के दौरान बिहार के भागलपुर क्षेत्र में रेशम का व्यापार अपने चरम पर था.
     
आज चीन के बाद भारत, विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेशम-उत्पादक देश है. इसके बावजूद भी स्थानीय मांग की पूर्ति नहीं हो पाती है तभी तो दूसरे देशों से मॉल मांगना पड़ता है. हमारे यहाँ अधिकत्तम रेशम मैसूर और उत्तरी बंगलौर (कर्नाटक) में पैदा किया जाता है. इसके बाद भूदान पोचमपल्ली, धरमावाराम (आन्ध्र.) कांचीपुरम (तमिलनाडू),बनारस मुर्शिदाबाद-मालदा (पश्चिम बंगाल) और आसाम तथा कश्मीर में रेशम का उत्पादन किया जाता है.
    
आप सभी ने रेशम के कपड़े जरूर पहने होंगे. वस्त्र उद्योग में रेशम का महत्त्वपूर्ण स्थान है. कोई भी, फिर आदमी हो या महिला; रेशम के कपड़े पहन कर कुछ खास महसूस करता है. जाहिर है, देश और विदेशों में रेशम की बड़ी मांग है. रेशम का धागा सुनहरा, मुलायम और लुभावना होता है. इसके बुने हुए वस्त्र पहनने में आरामदायक और मौसम के अनुकूल होने की क्षमता रखते हैं.

रेशम को प्राचीन काल से ही आदिवासी संस्कृति से जोड़ कर देखा जाता है. वनांचलों में रहने वाले आदिवासी प्राकृतिक रूप से उत्पादित कोसे को एकत्र कर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे. यद्यपि आज यह उद्योग काफी विकसित हो चुका है तथापि यह आज भी स्पष्ट तौर पर आदिवासी और वन-क्षेत्र पर ही ज्यादा निर्भर है.
रेशम की किश्में-उत्पादन की प्रक्रिया के परिपेक्ष्य में रेशम दो प्रकार का होता है- शहतूती रेशम (Mulberry Silk)  और गैर-शहतुती रेशम  (Non-Mulberry Silk).
 1.शहतूती रेशम (Mulberry Silk)- शहतूत (मलबरी) पौधों की पत्ती खा कर रेशम-कृमि (कीड़ा) जो रेशम बनाता है,  उसे शहतूती रेशम कहा जाता है.शहतूत की पत्तियां प्राप्त के लिए शहतूत के पौधों की खेती की जाती है. इस विधि में कृमि(कीड़ा )पालन घर के अन्दर किया जाता है.  
2. गैर शहतुती रेशम - इसके अंतर्गत तसर (कोसा) तथा मूंगा और एरी(अरंडी) रेशम आते हैं.
 I.   तसर (कोसा) रेशम -इस कृमि के खाद्य वृक्ष साल, अर्जुन इत्यादि है. इन वृक्षों की पत्तियां खा कर रेशम
कृमि जो रेशम बनाता है, वह तसर या कोसा रेशम कहलाता है. इस विधि में कृमि पालन खुले आकाश 
 में किया जाता है. इस लेख में तसर रेशम कैसे पैदा किया जाता है, इसे ही दिखाया गया है.
 II.  ओक तसर रेशम -यह बाज आदि पौधों की पत्तियों पर आधारित है.
 IIIमूंगा रेशम - इस रेशम के कृमि के खाद्य वृक्ष सोम तथा सोलू है जो मुख्यत: आसाम में पाए जाते हैं.
 IV. एरी या अरंडी रेशम-इस रेशम के कृमि का कृमि पालन अरंडी के पौधों पर किया जाता है.

 तसर कृमि का जीवन-चक्र-
तसर रेशम के कृमि चार अवस्थाओं से गुजर कर जीवन चक्र पूरा करते हैं.
       1. अंडा                                                          2.  इल्ली या लार्वा 
       3. संखी या प्यूपा                                           4. शलभ या मंथ 
तसर कृमि के अंडे के अन्दर उसके भ्रूण का विकाश होता है जिससे छोटी-छोटी इल्ली या लार्वा बाहर निकलते  हैं जो तसर कृमि के भोज्य पौधों यथा आसन, अर्जुन, साल आदि की पत्तियां खाकर वृद्धि करते हैं. लार्वा परिपक्व हो कर अपने मुहं से एक विशेष प्रकार की लार निकालते हैं, जो हवा के सम्पर्क में आ कर रेशम धागा बन जाता है. लार्वा अपने चारों तरफ एक कवच या कोसा (cacoon) बना कर उसके अन्दर प्यूपा में रूपांतरित हो जाता है. कोसा के अन्दर प्यूपा निष्क्रिय-सा दीखता है.लेकिन इसके अन्दर अनेकों जैविक क्रियाएं चलती रहती हैं. जिसमें उसके अंगों का विघटन,तथा प्रजनन अंग बनाना प्रमुख होते हैं. कोसा के अन्दर ही प्यूपा माथ में परिवर्तित होता है जो बाद में कोसा को भेद कर बाहर निकलती है. माथ की उपयोगिता मात्र प्रजनन के लिए होती है. नर तथा मादा मेटिंग करते हैं तथा इसके बाद मादा अंडे देती है. इस तरह इनका जीवन चक्र चलता है.


 तसर कृमि की मादा माथ एक बार में 150 से 250 तक अंडे देती है. निषेचित अण्डों में से अंडा देने के  9 से 10  दिन बाद मौसम के अनुरूप नवजात लार्वा निकलते हैं. अंडे से बाहर निकलते से ही लारवा खाद्य पौधों की पत्तियां खाना प्रारंभ करके शरीर की वृध्दि करते हैं. इस वृध्दि के समय लार्वा 5 अवस्थाओं से गुजरता है. लार्वा पांचवीं अवस्था में परिपक्व होने पर अपने मुह से लार निकालते हुए कोसा बनाते हैं, जो हवा के सम्पर्क में आ कर कठोर हो जाता है. 
 लार्वा पत्ती को किनारे से खाना शुरू करते हैं. लार्वा अपनी पांचवीं अवस्था के अंतिम समय में पत्ती खाना बंद कर देता है. वह अपनी आंत से भोजन के सभी अपशिष्टों को शरीर से बाहर निकालता है तथा अपने मुंह से लार निकलते हुए कोसा बनाता है, जो हवा के सम्पर्क में आ कर कठोर हो जाता है. तसर कृमि का एक लार्वा अपने जीवन काल में कोसा बनाने तक लगभग 300 ग्राम पत्तियां खाता है.
   
संखि या प्यूपा, तसर कृमि के लार्वा द्वारा  निर्मित कोसा कवच (cocoon ) के अन्दर स्थित होता  है.प्यूपा तसर कृमि की एक महत्वपूर्ण लेकिन निष्क्रिय अवस्था है जिसकी चयापचय (metabolism) की गति अत्यंत धीमी होती है. इस अवस्था में ही भोजन अंग एवं प्रजनन अंग बनते हैं.

   तसर कोसा या ककून का रंग भूरा-पीला होता है. तसर लार्वा परिपक्व हो कर जब कोसा बनाने के लिए तैयार होता है,  तब वह  3-4  पत्तियों के समूह का हेमक (Hammock) बनाने के लिए चयन करता है. हेमक बनाने के लिए वह पत्तियों को जोड़ता है तथा अनियमित रूप से रेशम धागा छोड़ता है. लार्वा लगभग 6 घंटा हेमक बनाने में लगाता है.
             कोसा के अन्दर प्यूपा, माथ में रूपांतरित हो जाता है. प्यूपा एक विशेष प्रकार का एंजाइम निकालता है जिससे कोसे के अन्दर की सतह  गीली हो  जाती है तथा कोसे के धागे ढीले हो जाते हैं. इसमें माथ को कोसे से बाहर निकलने में आसानी होती है.


तसर कोसे का उपयोग दो प्रकार से किया जाता है-प्रजनन हेतु अर्थात डोडा निर्माण के लिए तथा दूसरे, रेशम धागा बनाने के लिए. 

माथ, तसर कृमि की वयस्क अवस्था होती है. इसके मुखांग विकसित नहीं होते. अत: यह भोजन नहीं करता है. इसका कार्य मात्र प्रजनन करना तथा अंडा देना होता है. यह मात्र  7 -10 दिनों तक ही जीवित रहता है.


तसर कोसा से माथ मुख्यत: रात/सुबह में निकलती है तथा कोसा के बाहर आते ही मेटिंग (mating) शुरू हो जाता है.

वृक्षों से कोसा की कटाई उसके कोसा बनाने के  6-7 दिन बाद, जब कोसा के अन्दर शंखी बन जाती है, किया जाता है. कोसे को उसके छल्ले के समीप से काट कर टहनियों से अलग किया जाता है. कोसा कटाई के बाद बीज(Grainage) हेतु अच्छा कोसा छांट कर अलग किया जाता है और शेष को धागाकरण के लिए इकट्ठा किया जाता है. रेशम निकलने का प्रतिशत 40-45% अर्थात  0.20 गाम प्रति कोसा के करीब है.

तसर कर्मी के भोज्य पौधे-  तसर कृमि एक बहुभक्षी कृमि है. अर्थात वह अनेक प्रकार के पौधों की पत्तियां खा कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं. जैसे आसन या साज(Tomentosa) तथा अर्जुन(Arjuna) की पत्तियां खा कर गुणवत्ता युक्त कोसा बनता है. इसके आलावा वह साल(Shorea Robusta), सिध्दा,जामुन, बेर इत्यादि अनेक पौधों की पत्तियां भी खाता है. लेकिन इस पर उत्पादित कोसा की गुणवत्ता कम होती है.
  

Tuesday, September 20, 2011

Visit of Raipur; the new Capital project


          यूरोप जैसे उन्नत और विकशित देशों में तीन माह बिताने के बाद हमारा यह रायपुर (म.प्र) प्रवास है.रायपुर आने की वजह वह फ्लेट था जो रिटायरमेंट के बाद बसने के लिए हमने चुना था.
           हमारे देश में आजकल प्रदेशों के प्रदेश,जिलों के जिले और तहसीलों के तहसील बनाने का धंधा बड़े जोरों से चल रहा है.धंधा इस मायने में कि प्रदेश हो या जिला या फिर तहसील,प्रथम पंक्ति के नेताओं के भाई-भतीजों को नयी-नयी जिम्मेदारियां मिल जाती है.आखिर एक प्रदेश में दो-चार मुख्यमंत्री तो नहीं हो सकते न ? 
      तो प्रदेशों के प्रदेश बनाने से सिलसिले में, जैसे की आप जानते हैं,मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा काटकर सन 2002  में 'छतीसगढ़' एक नया राज्य बनाया गया.नया स्टेट बना तो उसकी नयी राजधानी बननी थी. चूँकि हमने बसने के लिए रायपुर चुना था अत: नयी राजधानी विकसित किये जा रहे फ्लेट्स में हमने मकान बुक करना मुनासिब समझा.इसी फ्लेट की रजिस्ट्री करने हेतु हमारा यह प्रवास था.
        हम 3 सित. को रायपुर आये थे. नया रायपुर में फ्लेट्स बनाने का स्टेटस वही था जो पिछले वर्ष था.बेहद स्लो स्पीड से काम चल रहा था. लोग बता रहे थे कि अगले दो-तीन वर्ष में क्वार्टर्स रहने लायक हो पाएंगे.गवर्नमेंट प्रोजेक्ट प्राय : ऐसे ही गति से चलते हैं.अपनी खीज निकालते हुए जब मैंने यह बात हाऊसिंग बोर्ड के एक अफसर से पूछा तो उसने कहा- "डिले (देरी) होने की स्थिति में कंजूमर को इंटरेस्ट देने का प्रावधान है." मुझे लगा, बड़ा क्रन्तिकारी प्रावधान है ! वह इसलिए कि हकीकत में सारे नियम और कानून-कायदे गवर्मेंट और उसके संस्थानों के फेवर में होते हैं.

Friday, September 9, 2011

पूजा-पाठ

           आजकल नौकरी और बिजनेश के सिलसिले में कहीं भी रहना पड़ता हैं.किराये का क्वार्टर लेने या मकान बनाने के दौरान इस बात की कतई परवाह नहीं होती कि पास-पड़ोस में अपने समाज के लोग रहते भी हैं या नहीं .बल्कि,इस तरह की सोच रखना एक तरह से जाहिली और मुर्खता की बात समझते हैं. परन्तु सामाजिक/धार्मिक फंक्शन और संस्कार जो घर के आस-पास आये दिन होते हैं, में हमें मजबूरन शामिल होना पड़ता है. आप नहीं गए तो बच्चें तो जाते ही हैं.और इस तरह वे धार्मिक संस्कार न चाहते हुए भी आपकी पारिवारिक और सामाजिक  संस्कृति का हिस्सा बनने लगते हैं.ये दो भिन्न समुदायों का सांस्कृतिक-करण सामाजिक समरसता के लिए तो ठीक है मगर, अगर आप किसी सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षरत है, तो इससे आपके कराये-धराये पर पानी पड़ सकता है.
        एक मेरे साथी है.उन्होंने एक लम्बे समय से सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुत कछ किया है,काफी कुछ खोया है.भाई साहब का स्थानांतरण दूसरी जगह हुआ. वहां आस-पास पूजा-पाठ होती थी.कभी दुर्गा-पूजा तो कभी गणपति- पूजा. एक दिन उनके यहाँ मैडम बताने लगी-  हमारे यहाँ का बब्लू कहने लगा कि मम्मी; हम भी गणेश जी अपने यहाँ रखेंगे ? अब मैडम प्रश्न-वाचक दृष्टी से मेरी ओर देखने लगी !
        लोगों को कुछ-न-कुछ चाहिए ही पूजा-पाठ करने के लिए.धर्म के ठेकेदारों ने सिस्टम ऐसा बनाया ही है कि लोगों को साँस लेने कि फुर्सत न हो.मंदिरों का नेट-वर्क और तीज-त्यौहार एक-दूसरे से इतने लगे-लगाए रहते हैं कि एक उपवास महिलाओं का ख़तम हुआ ही नहीं कि दूसरा शुरू हो जाता है.समाज के ठेकेदार जानते हैं कि अगर आपने लोगों को बीजी नहीं रखा तो वे उनकी दैनिक जरूरतों के लिए आपका जीना हराम कर देंगे.

Thursday, September 8, 2011

Deeksha Bhoomi Nagpur

Deeksha Bhoomi Nagpu


         Recently during my Nagpur visit in the month of April, we Dhamma Chakra Stupa and compassionate, towards Dr. Ambedkar and his movement.Lacs of people from each corner of India as well as abroad comes every year on this historic place and raised their hands to salute this courageous personality Baba sahib Dr B. R. Ambedkar.People wearing blue cap on their heads came in flocks from train, buses and conveyances whatever they get.They comes hundreds miles away with singing songs of their emancipator Dr. Baba sahib Ambedkar.The day 'Deeksha Deevas' i.e. 14 Oct. is being celebrated each year as Ashok Vijaya Dashmi day got opportunity to made the visit of  'Deeksha-Bhoomi'.However, we have came here 5 to 6 times earlier,but it was under construction at that time.Now, it is mostly completed.Any one feel glazed looking to the towering monument known as
          The 'Deeksha Bhoomi' is the place where Dr B.R. Ambedkar; the architect-er of Indian constitution and 1st Law minister of Govt of India, embraced Buddhism with his lacs of followers leaving Hinduism where he was born.As he found, Hinduism is the main obstruction towards emancipation of the his downtrodden mass of dalit who is forced to live worse than animal in Hindu fold. Dr Ambedkar had already declared in 1935 that although, he was born as a Hindu but he would not die as Hindu.After this declaration, he studies various solution and found Buddhism as the way of life for his followers. He selected Nagpur for his conversion ceremony,as he explained in his speech at that occasion, because Nagpur was the homeland of Nag people who embraced Buddhism  and supported it  with great effort in its early period.
        A wide space near Ramdaspeth was declared for the ceremony. On 14 Oct. 1956 Baba Sahib Ambedkar and his wife Savita Ambedkar embraced Buddhism in presence of lac's of his followers. He took oath of three Jewels and five Precepts from a renowned Buddhist monk of Burma(Myanmar) Ven  Mahasthavir U Chandramani.After taking oath, he then gave the oath of three Jewels, five precepts and 22 Vows to his followers.
Dr Ambedkar died on 6 Dec.1956 just one and half month after this ceremony.After his death, 'Dr Ambedkar Smarak Committee' was formed to take up the task of Deeksha Bhoomi development. The committee had decided to build a monument as the memorial of that mass conversion to Buddhism.It was decided that the monument would be in line of  Shachi Buddha Stu pa.

The towering Stu pa was designed by the famous architect Sheo Dan Mal (mokha). The construction work was started in July 1978 and after  completion, it was open for the people on 18 Dec 2001 following a formal inauguration by the then President of India K. R. Narayana
The Stupa is based upon the architecture of the world famous Sanchi Buddha Stupa but it is completely hollow from inside.It is said that it is the largest hollow Stupa among all Buddha Stupas in the world.
The towering monument has 120 ft. dia and 120 ft height. The ground floor hall has 211 x 211 ft square size approx. At the center of this hall, a Buddha statue is placed. Above the hall, there is a hollow dome.This dome is surrounded by veranda.On all four direction of dome, fountains are there.Above the dome,there is a small slab and a little decorative umbrella. A high quality marble from Dholpur(Rajasthan) are used for flooring of the Stu-pa.The Stu-pa has doors on four directions. The doors open in large arc, which are decorated with Ashok chakras and statues of horses, elephants and lions as ancient Buddhist tradition.There is also a library and photo exhibition on the life and mission of Dr Baba sahib Ambedkar.
Around the Stu-pa, there is a vast garden.The statues of Loard Buddha and Dr Baba Sahib Ambedkar are installed  on front of this Stu-pa.Buddha Vihar is there on right hand side of Stu-pa where Bhanteji have facility to stay.
Beside of Buddha Vihara, there is a sacred Bodhi Tree.This Bodhi Tree  was planted by Ven Bhadant Aanad  Kaushalyayan as the memoir of Buddha enlightenment. He had brought three branches of the Bodhi Tree from Anuradhapuram in Shri Lanka.
Today, Deeksha Bhoomi i.e. Ambedkar's conversion to Buddhism is a kindle light to Indian mass who is forced to live worse than cat and dog in Hindu society.On Ashok Vijaya Dashami Day, lacs of these people reach there and pay floral tributes towards their emancipator.

Friday, September 2, 2011

पाखंड

  .            जम्मू-कश्मीर में ठंड के दिनों में पानी जम कर बर्फ हो जाता है.एक गुफा के काफी अन्दर यह पानी  शिव जी के पिंडी की शक्ल अख्तियार कर लेता है. वाकई यह बड़ा मोहक प्राकृतिक दृश्य है.इसे अमरनाथ गुफा कहा जाता है.हिन्दू इसकी पूजा करते हैं. प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में हिन्दू यात्री यहाँ आते हैं.
                 एक साल कुछ कम ठंड पड़ी. लिहाजा, बर्फ कम जमी.कहा जाता है कि हिन्दू समुदाय की भावनाओं को देखते हुए सरकार को आर्टिफिसियल पिंडी बनानी पड़ी.तब कहीं लोग पूजा कर सके.पता नहीं प्रकृति लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ क्यों करती है ?
                       इधर, स्वामी अग्निवेश ने पता नहीं क्या कह दिया.अब स्वामीजी है भी एक अजब चीज.कहीं भी लपेटे में आ जाते हैं.अभी अन्ना हजारे के श्राप से मुक्त भी न हो पाए थे कि एक और कोप-भाजन का शिकार हो गए.एक खबर के अनुसार स्वामी अग्निवेश के विरुध्द  हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करने के जुर्म में गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ है.आरोप है कि स्वामी जी ने अमरनाथ गुफा को 'पाखंड' कहा था.