Monday, September 24, 2018

कर्म और पुनर्जन्म

कर्म और पुनर्जन्म की सैद्धांतिकी पर बुद्धिस्ट कुछ बंटे हुए प्रतीत होते हैं। मोटे तौर पर इन्हे तीन समूह में रखा जा सकता है-  अम्बेडकरवादी, विपस्सनावादी और परम्परागत बुद्धिस्ट । अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट बाबासाहब डॉ अम्बेडकर को अपना मुक्ति दाता और बुद्ध के धम्म को सामाजिक मुक्ति का मार्ग बतलाते हैं जबकि विपस्सनावादी और परम्परागत बुद्धिस्ट अम्बेड़कर को नहीं मानते। वे बुद्ध को मानते हैं। बुद्ध को मानने का उनका तरीका करीब-करीब हिन्दुओं जैसा है।

अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट-
अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट पुनर्जन्म को सिरे से ख़ारिज करते हैं। उनका कहना है कि हमें शुभ/कुशल कर्म इसलिए करना है कि पडोसी खुश रहे, समाज खुश रहे, न कि मरने के बाद 'स्वर्ग' मिले। बुद्ध के द्वारा बतलाए गए मार्ग का अनुशीलन करते हुए वे इसे 'निर्वाण' अर्थात व्यक्तिगत मुक्ति के बनिस्पत सामाजिक मुक्ति का हेतु मानते हैं। दरअसल, बुद्ध का मार्ग सामाजिक मुक्ति के लिए ही है। धम्म का केंद्र आदमी है। धम्म का केंद्र समाज है। बुद्ध के धम्म का अर्थ एक आदमी का दूसरे आदमी के संबंधों से है।

कुशल कर्मों से पुनर्जन्म का कोई सम्बन्ध नहीं-
कुशल कर्मों सेआदमी सुखी और संतुष्ट रहता है, आपके अपने सब सगे-सम्बन्धी निरोग और सुखी रहते हुए सत्पथ की समृद्धि को प्राप्त होते हैं। शुभ कर्मों का फल दान, शील और संयम होता है, इसलिए शुभ कर्मों को बार-बार किया जाना चाहिए। सदाचरण से आदमी शीलवान होता है(बुद्ध और उनका धम्म, पृ  388-93 )।

मरने के बाद क्या होता है ? - इस तरह के प्रश्नों को बुद्ध ने व्यर्थ बताया क्योंकि इस तरह के प्रश्नों से मनुष्य का कुछ भी लाभ नहीं(बुद्ध और उनका धम्म, पृ  403 )।

बुद्ध ने लोगों को यह नहीं कहा कि उनके धम्म का उद्देश्य किसी 'काल्पनिक स्वर्ग' की स्थापना करना है। उनका कहना था कि 'धम्म का राज्य' इस पृथ्वी पर ही है और वह धम्म-पथ पर चल कर ही  प्राप्त किया जा सकता है।  उन्होंने लोगों से कहा कि यदि तुम अपने दुक्ख का अंत करना चाहते हो तो हर किसी को दूसरे के साथ न्याय-संगत, धम्म-संगत व्यवहार करना होगा।  तभी यह पृथ्वी 'धम्म का राज्य' बन सकेगी (बुद्ध और उनका धम्म  पृ  294 )।

वर्तमान दुक्ख को पुनर्जन्म से जोड़ कर देखा जाता है।  कहा जाता है की अमुक व्यक्ति ने पूर्व-जन्म में पाप  किया होगा इसलिए वह अब भोग रहा है। यह सरासर गलत है। बुद्ध ने जिस दुक्ख का निरूपण किया, वह सांसारिक दुक्ख है।  बुद्ध वचनों में इसके अनेक प्रमाण हैं। बौद्ध धर्म अन्य धर्मों की भांति आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध पर आधारित नहीं है। दुक्ख का पारलौकिक अर्थ लगा कर पुनर्जन्म से उसका सम्बन्ध जोड़ना बुद्ध मत के विरुद्ध है(काठमांडू विश्व बौद्ध सम्मलेन में नव. 1956  को डॉ आंबेडकर का भाषण )।

बुद्ध ने पञ्चशील पर जोर दिया। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग और पारमिताओं पर जोर दिया। बुद्ध ने इन्हें अपने धम्म का आधार इसलिए बनाया क्योंकि यह एक ऐसी जीवन-विधि है कि आदमी सदाचारी बने। बुद्ध ने कहा कि आदमी का आदमी के प्रति जो अनुचित व्यवहार है, वही दुक्ख का कारण है। इसलिए आदमी का सदाचारी होना आवश्यक है। उसके द्वारा कुशल कर्मों का किया जाना आवश्यक है(बुद्ध और उनका धम्म  पृ  294 -95 )।     
देवदह सुत्त(मज्झिम निकाय) में पुनर्जन्म के कर्मों पर विश्वास  करने वाले जैनियों को लताड़ते हुए बुद्ध ने उनकी जम कर खबर ली थी(बुद्ध और उनका धम्म, पृ  295- 96 )। इसी प्रकार 'जन्म जन्मांतर तक चित्त अपरिवर्तित अवस्था में विद्यमान रहता है'  -उनकी देशना को इस प्रकार समझने पर बुद्ध ने भिक्खु साती केवट्ठ पुत्त को जम कर  डांटा था(महातण्हा संखय सुत्त: मज्झिम निकाय)।

कर्म का बौद्ध सिद्धांत कहता है कि मनुष्य के आनुवंशिक सम्बन्ध नहीं, बल्कि उसका परिवेश महत्वपूर्ण होता है। कोई भी मनुष्य अपने श्रम और सम्यक प्रयासों के बल पर अपने वर्तमान जीवन को बदल सकता है।
अंगुत्तर निकाय में बुद्ध कहते हैं-   हे भिक्खुओं, यदि कोई यह कहे कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के अनुसार फल भोगना होता है तो उस स्थिति में दुक्ख के समग्र निरोध के लिए कोई अवसर उपलब्ध होता है। किन्तु यदि कोई यह कहे कि कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार फल भोगता है तो दुक्ख के समग्र निरोध के लिए उसे अवसर उपलब्ध होते हैं(डी  सी अहीर: प्राक्कथन: बुद्ध और उनका धम्म: सम्यक प्रका.)

क्या बुद्ध का 'कर्म' सिद्धांत 'ब्राह्मणी कर्म' के सिद्धांत के समान है ? बुद्ध का कर्म का सिद्धांत- शाब्दिक समानता कितनी ही हो, ब्राह्मणी कर्म के सिद्धांत से सर्वथा भिन्न है। हिन्दू कर्म के सिद्धांत के अनुसार जब कोई कर्म करता है, तो उसका प्रभाव उसकी आत्मा पर पड़ता है। वह उससे संस्कारित हो जाती है। चूँकि बुद्ध ने 'आत्मा' को ही नकार दिया है, इसलिए कर्म के बौद्ध सिद्धांत के बारे में यह बात सच नहीं(बुद्ध और उनका धम्म पृ  344-45 )।

क्या बुद्ध मानते थे कि पूर्व कर्म का भविष्य के जन्म पर प्रभाव पड़ता है ? बुद्ध के कर्म के सिद्धांत का सम्बन्ध मात्र कर्म से था और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से(वही, पृ  346 )।

गैर-अम्बेडकरवादी/विपस्सना वादी बुद्धिस्ट-
दूसरी ओर, गैर-अम्बेडकरवादी/विपस्सना वादी बुद्धिस्ट हिन्दुओं के पुनर्जन्म को कुछेक  'अगर-मगर' के जस- का तस मानते हैं। बोधिसत्व की पुनर्जन्म वाली संकल्पना को वे स्वीकारते हैं। यहाँ तक कि स्वर्ग लोक(तुषित लोक) सहित अट्ठविसति बुद्ध के अवतारों को भी वे महायानियों की तरह मानते हैं।

'कर्म' और 'पुनर्जन्म' पर बुद्ध-
बुद्ध ने 'कर्म' और 'पुनर्जन्म' के बारे में अपना स्पष्ट मत व्यक्त किया। बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पथार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। प्रश्न है कि जब शरीर का मरण होता है तो इन चार महा भूतों का क्या होता है ? बुद्ध ने कहा कि आकाश में जो सामान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमें मिल जाते हैं। बुद्ध का पुनर्जन्म से यही अभिप्राय था।  इन भौतिक पदार्थों के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे उसी शरीर के हो जिसका मरण हो चुका है। वे नाना मृत-शरीरों के भौतिक अंश हो सकते हैं। (बुद्ध और उनका धम्म पृ  337 )।

"ऐसी कितनी चीजें हैं जिनके मुक्त होने पर ही शरीर मरा हुआ समझा जा कर सूखे काठ की तरह फेंक दिया जाता है ?" -महाकोट्ठित-सारिपुत्त संवाद में सारिपुत्त जवाब देते हैं -  "उष्णता और विज्ञानं। " इस संवाद को आगे बढ़ाते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते है, मृत्यु के दो अर्थ हैं-  एक ओर  इसका अर्थ है कि नई शक्ति की उत्पत्ति रुक जाना, दूसरी ओर इसका अर्थ है, शक्ति का शरीर से निकल कर विश्व में जो शक्ति-पुंज संचरण कर रहा है, उसमें मिल जाना(वही, पृ  339)। शक्ति कभी 'शून्य' में परिणित नहीं होती। बुद्ध नाम(रूप) की पुनरुत्पत्ति में  विश्वास रखते थे, आत्मा के पुनर्जन्म में नहीं। बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि इस तरह बुद्ध का मत वर्तमान विज्ञान के सर्वथा अनुकूल है। केवल इसी अर्थ में कहा जा सकता है कि बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास करते थे(पृ  340)।

'क्या वही मरा हुआ आदमी जन्म ग्रहण करता है ?' इसकी बुद्ध के अनुसार कम-से-कम संभावना है। यदि मृत आदमी के देह के सभी भौतिक अंश पुन: नए सिरे से मिलकर नए शरीर का निर्माण कर सकें, तभी यह मानना संभव है की उसी आदमी का पुनर्जन्म हुआ। यदि भिन्न-भिन्न मृत शरीरों के अंशों के मेल से एक नया शरीर बना तो यह पुनर्जन्म तो हुआ, लेकिन यह उसी आदमी का पुनर्जन्म नहीं हुआ(पृ  340 )।   

 गलतफहमी के कारण-
'कर्म' और 'पुनर्जन्म' की थ्योरी चूँकि 'ब्राह्मणी धर्म' की रीढ़ है, इसलिए उसकी अनेकों बार गलत रिपोर्टिंग हुई। चूँकि बुद्ध की तत्सम्बन्धी यह नई थ्योरी को सुनने वाले चीवरधारी ब्राह्मण ही थे, इसलिए इसमें जमकर 'खिचड़ी' पकाई गई(बुद्धा एंड  हिज धम्मा, पृ 357)। 

भदन्त आनंद कौसल्यायन की 'खिचड़ी'-
आज की तारीख में, बुद्ध के पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धांत को हिन्दू पुनर्जन्म के चश्मे से देखने का प्रयास भदन्त आनंद कौसल्यायन ने किया। चूँकि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कृत  'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का हिंदी अनुवाद करने का प्रथम अवसर भदन्तजी को मिला अतएव भदन्तजी जो कुछ कहते गए, बाबासाहब के अनुयायी उसे दिल-दिमाग से मानते रहे।

भदन्तजी कहते हैं-  बौद्ध नाम-रूप मात्र को मानते हैं। चित्त और शरीर को, उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षण परिवर्तित होते हुए भी स्थित रहती है।  वह जैसी की तैसी तो नहीं रहती, किन्तु किसी न किसी रूप में बनी ही रहती है।  चित्त, विज्ञान या मन ये तीनों पर्याय हैं। भौतिक पदार्थों की तरह बौद्ध चित्त को भी क्षण-क्षण में परिवर्तनशील मानते हुए उसके किसी न किसी रूप में बने रहने को स्वीकार करते हैं, जैसे नदी का स्रोत या दीपक की लौ। नैरात्मवादी होने पर भी पुनर्जन्म वादी बौद्धों का कहना है यदि पुनर्जन्म को ही अस्वीकार कर दिया जाए तो आदमी के द्वारा किए गए कुशलाकुशल कर्मों का कुछ भी महत्त्व नहीं रहता। तब जीवन का अंत मरण ही है और मरणान्तर पुनर्जीवन है ही नहीं, तब कुशल कर्म किए तब क्या और अकुशल कर्म किए तब क्या (भदन्त आनंद कौसल्यायन: वेद से मार्क्स तक पृ 88)?

डॉ अम्बेडकर और 'कर्म' तथा 'पुनर्जन्म'-
हिन्दू कर्म के सिद्धांत को बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने अस्वीकार कर दिया। हिन्दू कर्म सिद्धांत 'आत्मा' के आवागमन पर आधारित है। आज कोई व्यक्ति जिस स्थिति में है, वह इसलिए है कि उसने पिछले जन्म में वैसे ही कर्म कर्म होंगे। डॉ अम्बेडकर इसे बदले पर आधारित सिद्धांत मानते हैं क्योंकि निर्धन या अमीर परिवार में जन्म लेना, लंगड़ा, लूला होना आदि पिछले जन्मों के कर्मों का फल है। हिन्दू कर्म का सिद्धांत, इस दृष्टी से, समानता तथा सामाजिकता पर आधारित नहीं है। डॉ अम्बेडकर ने लिखा है' इसका एक मात्र उद्देश्य जिसके बारे में कोई सोच सकता है, समाज और राज्य को उस उत्तरदायित्व से मुक्त करना है जो उन्हें निर्धनों और निम्न श्रेणियों के लोगों के साथ निभाना है, अन्यथा इस प्रकार का अन्याय पूर्ण तथा असमान सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया गया होता(डॉ. डी. आर. जाटव: डॉ अम्बेडकर का नैतिक दर्शन, पृ 119)।

परस्पर विरोधी बुद्ध वचन

परस्पर विरोधी बुद्ध वचन
प्रतीत्य समुत्पाद का नियम कहीं तो कहता है कि अविद्या के होने से संस्कार होता हैं और कहीं कहता है कि संस्कारों के होने से अविद्या होती है(आनंद कौसल्यायन: दर्शन वेद से मार्क्स पृ 55 )। इन दोनों कथनों में जो विरोधाभास होता है, वह विशेष महत्त्व का नहीं। क्योंकि इससे सारभूत भाव तो निकल आता ही है।

बुद्ध की नजर में 'ब्रह्म'

बुद्ध की नजर में 'ब्रह्म'
बुद्ध ने 'ब्रह्म' की तुलना 'नगरवधू' से कर उसका भयानक उपहास किया। बुद्ध कहते हैं, कुछ लोगों का कहना होता है कि हम अमुक जनपद कल्याणी को बहुत चाहते हैं। उनसे पूछ जाए कि वह जनपद-कल्याणी कैसी है- गोरी है, काली है या गेहुवे रंग की है ? वे कहते हैं हम नहीं जानते किन्तु हम उसे बहुत चाहते हैं ! उनसे पूछा जाए कि वह लम्बे कद की है, मंझले कद की है या छोटे कद की है ? वे कहते हैं हम नहीं जानते किन्तु हम उसे बहुत चाहते हैं ! उनसे पूछा जाए कि वह ब्राह्मणी है, क्षत्राणी है या वैश्यानि है ?  वे कहते हैं हम नहीं जानते किन्तु हम उसे बहुत चाहते हैं !
भिक्खुओं, यही हाल इन 'ब्रह्म' के पीछे भटकने वालों का है।  जब उनसे पूछ जाए कि ब्रह्म कैसा है तो वे नेति, नेति अर्थात अनिर्वचनीय कहते/बतलाते हैं(भदन्त आनंद कौसल्यायन : दर्शन  वेद से मार्क्स तक: पृ  53-54 )।  

Sunday, September 23, 2018

ॐ पद्मे हूँ

ॐ पद्मे हूँ
गायत्री जिस 'ब्रह्म' का गायन करती है, कठोपनिषद में(दूसरी वल्लरी  16 ) ॐ  को उसी का पर्याय माना गया है। उपनिषदों में कहीं 'ब्रह्म' आत्मा में घुलमिल जाता है, कहीं आत्मा 'ब्रह्म' में।  इन दोनों के घोल को सम्मिलित रूप से 'आत्म-तत्व' कहा जा सकता है।  इसी 'आत्म-तत्व' की व्याख्या है- अक्षरों और मात्राओं में उस 'आत्म-तत्व' का वर्णन किया जाए तो उसे ओंकार कहते है। अक्षर और मात्रा में कोई खास भेद नहीं है। अक्षर ही मात्रा है और मात्रा ही अक्षर है। वे अक्षर व  मात्राएँ 'अकार', 'उकार' तथा 'मकार' हैं।

'अकार' प्रथम मात्रा है।  यह जीवात्मा' तथा 'ब्रह्म' के स्वप्न स्थान की, जिसका 'तेजस' शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है। 'उकार' द्वितीय मात्रा है। यह जीवात्मा' तथा 'ब्रह्म' के जाग्रत स्थान की, जिसका 'वैश्वानर' शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है। 'मकार' तृतीय मात्रा है। यह जीवात्मा' तथा 'ब्रह्म' के सुषुप्त  स्थान की, जिस को  'प्राज्ञ' शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है।

माण्डुक उपनिषद(8, 10, 11, 12 ) के अनुसार, मात्रा रहित ओंकार चतुर्थ है। जैसे शरीर की जागृत अवस्था तथा सुषुप्ता अवस्था में से निकल कर जीवात्मा अपने चतुर्थ रूप में आ जाता है-  वैसे अ, उ, म तीन मात्राओं से प्रथम ओंकार का अमात्र रूप भी है। वह रूप व्यवहार में नहीं आता। वह शिव है, अद्वैत है, वहां संसार के प्रपंच का उपशमन हो जाता है।  जो ओंकार के इस रूप को जानता है, वह बाहर न भटक कर आत्म-ज्ञान द्वारा अन्तरात्मा में प्रवेश कर जाता है(आनंद कौसल्यायन : दर्शन, वेद से मार्क्स, पृ  42  )।



ॐ यानि ओम, जिसे 'ओंकार' या 'प्रणव' भी कहा जाता है। ॐ  है तो ढाई अक्षर का शब्द किन्तु  इसमें ब्रम्हांड समाया, बताया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड में भौतिक पदार्थों के अस्तित्व में आने के पहले जो प्राकृतिक अनुगूँज थी, वह ॐ की ध्वनि थी।

हिन्दू,  ॐ को संस्कृत का शब्द बताते हैं। वे इसके तीन हिज्जे करते हैं - अ, उ, म। 'अ' ध्वनि गले के पीछे से मुंह खोलते ही निकलती है। मुंह खोलने पर  'उ  की ध्वनि निकलती है और बंद करने पर  'म' मुंह के बंद होने की स्थिति में निकलती है। इसलिए 'अ' को ब्रह्मा(निर्माता), 'उ' को विष्णु(परिरक्षक) और 'म' को शिव(विध्वंशक) से दर्शाया जाता है।

सामूहिक निर्णय का अभाव

सामूहिक निर्णय का अभाव
बीएसपी में सामूहिक निर्णय का अभाव है। यहाँ मेरा आशय इस वक्त बहनजी के नेतृत्व पर ऊँगली उठाना नहीं है, वरन सामूहिक नेतृत्व की महत्ता को रेखांकित करना है। किसी मसले पर निर्णय लेना एक बड़ी चुनौति हुआ करता है, यहाँ तक की किसी व्यक्ति/विचारधारा के जीवन-मरण का प्रश्न इससे जुड़ जाता है। ऐसी स्थिति में आपके द्वारा लिए गए निर्णय बेहद संवेदनशील होने के साथ ही दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाले भी होते हैं।

मुझे याद आता है कुछ वर्ष पहले म. प्र चुनाव में फूलसिंह बरैया को हटाने का फैसला। वह फैसला जिन परिस्थितियों में लिया गया, हम उस पर कुछ टिपण्णी न कर इतना जरूर कहना चाहेंगे कि इसके परिणाम बड़े दूरगामी और अनिष्टकारी सिद्ध हुए। लोग, अभी भी उस सदमे से नहीं उबरे हैं। जो आदमी खून-पसीना बहाता है तो उसे अपनी शक्ति का एहसास भी होता है। इसके साथ ही केंद्रीय नेतृत्व को यह डर भी स्वाभाविक है कि वह उसके नेतृत्व को कहीं चुनौति न हो । किन्तु इसके लिए दलित समाज को बलि का बकरा बनाने का क्या तुक है ?

 मुझे लगता है कि  इस सम्बन्ध में हमें बीजेपी और कांग्रेस से सीख लेनी की जरुरत है। बीजेपी और कांग्रेस में लिए गए निर्णय की जवाबदारी सामूहिक होती है। कम्युनिस्ट पार्टियों में तो सामूहिक नेतृत्व की ही संरचना है। बीजेपी में तो काउंटर चैक करने आरएसएस भी है। हमें सामूहिक नेतृत्व की संस्कृति विकसित करनी होगी। सामूहिक नेतृत्व में दो व्यक्तियों की टकराहट बेमानी हो जाती है।          

Saturday, September 22, 2018

धम्म से 'कचड़ा' निकालना जरुरी है

धम्म से 'कचड़ा' निकालना जरुरी है
धर्म की आवश्यकता पर बल देते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने कहा है कि समाज को अपनी एकता बनाए रखने के लिए या तो कानून का आश्रय लेना पड़ेगा या फिर नैतिकता का। दोनों के बिना समाज टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। सभी समाजों में कानून का हस्तक्षेप बहुत कम होता है। विघटनकारी तत्वों को नियंत्रण में रखना  कानून का उद्देश्य है, लेकिन बहुसंख्य लोगों को अपना सामाजिक जीवन बिताने के लिए नैतिक संबंधों, मौलिक सिद्धांतों और नैतिकता के अनुमोदन पर छोड़ दिया जाता है और छोड़ देना पड़ता है।  इसलिए धर्म को नैतिकता के अर्थों में प्रत्येक समाज के शासता के रूप में बना रहना चाहिए('बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य': डॉ भीमराव अम्बेडकर )।

दूसरे, धर्म को विज्ञान के अनुकूल होनी चाहिए। यदि धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है तो यह मजाक या हंसी का विषय हो सकता है। इस प्रकार जीवन के सिद्धांत के रूप में उसका महत्त्व बिलकुल समाप्त हो सकता है और समय आने पर वह समाज से लुप्त भी हो सकता है।  अन्य शब्दों में धर्म को यदि वास्तव में कार्य करना है तो उसे बुद्धि या तर्क पर आधारित होना चाहिए जिसका दूसरा नाम विज्ञान ही है(वही)।

तीसरे, डॉ अम्बेडकर ने कहा कि किसी धर्म के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है कि उसमें नैतिकता हो। उस नैतिकता को जीवन के मूलभूत सिद्धांतों स्वतंत्रता, समानता तथा भातृत्व को मानना चाहिए।  कोई धर्म जब इन सामाजिक सिद्धांतों को मान्यता नहीं देगा, उसका भविष्य अंधकारमय ही बना रहेगा(वही)।

चौथे, दलित-पीड़ितों के हित चिंतक डॉ अम्बेडकर ने कहा कि धर्म को निर्धनता का अनुमोदन नहीं करना चाहिए। जिन लोगों के पास धन है, उनके द्वारा परित्याग करना बहुत अच्छी बात है। यह शुभ अवस्था हो सकती है, लेकिन निर्धनता की अवस्था कभी भी शुभ नहीं हो सकती। निर्धनता को शुभ अवस्था घोषित करना, धर्म को भृष्ट करने के समान है, बुरे तथा अपराध को बढ़ावा देना है और इस संसार को नरक के समान बनाना है(वही)।

कौन-सा धर्म इन आवश्यकताओं को पूरा करता है ? यह सवाल उठाते हुए डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि इस बात को याद रखना चाहिए कि महात्माओं के दिन लद गए और संसार में कोई नया धर्म जन्म नहीं ले सकता। संसार को मौजूदा धर्मों में से ही किसी एक को चुनना होगा। इसलिए प्रश्न को मौजूदा धर्मों तक ही सीमित रखना पड़ेगा(वही)।

हो सकता है, मौजूदा धर्मों में से कोई उपरोक्त माप-दंडों में से एक पर पूरा उतरे और कोई दो पर।  प्रश्न यह यह कि क्या कोई ऐसा धर्म है जो इन तमाम माप-दंडों पर पूरा उतरे ? बाबासाहब इसका उत्तर देते हुए कहते हैं- जहाँ तक मेरी जानकारी है, केवल एक ही ऐसा धर्म है जो इन तमाम माप-दंडों पर पूरा उतरता है और वह है बुद्ध का धर्म।  दूसरे शब्दों में, बुद्ध का  धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसे संसार अपना सकता है। यदि नए संसार; यह ध्यान रहे कि यह संसार पुराने संसार से बहुत भिन्न है, को कोई धर्म जरुर अपनाना चाहिए और, आने वाले संसार के लिए पुराने संसार की अपेक्षा धर्म की कहीं अधिक जरुरत है, तो यह केवल बुद्ध का धर्म ही हो सकता है(वही))।

भारत में बुद्ध के धर्म की बहाली के मुद्दे पर आश्वस्त होते हुए डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि हिन्दुओं का एक वर्ग जान चुका है कि उनके धर्म में कुछ कमी है। बात केवल यह है कि इसकी खुल कर निंदा करने तैयार नहीं। यह व्यवहार समझ में आता है। धर्म किसी व्यक्ति के सामाजिक उत्तराधिकार का एक अंग है। किसी का जीवन, शान और गौरव इससे बंधे होते हैं। अपने धर्म का त्याग करना किसी के लिए सहज नहीं(वही )।

डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि हिन्दू,  अपने धर्म का त्याग करने की बजाए उससे बच निकलने की खोज में रहते हैं। कुछ तो इस ख्याल से अपनी ढाढस बांध लेते हैं कि सभी धर्मों के कुछ न कुछ  गलत है। इसलिए अपने धर्म के बारे में परेशानी कैसी(वही)?

हम बुद्धिष्ट हैं। हमारे मसीहा और उद्धारक बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध की तरफ  हाथ उठा कर बतलाया कि यह तुम्हारे जीवन का तरीका है । इसके लिए उन्होंने सभी धर्मों का निरंतर 25 वर्षों तक गंभीर अध्ययन किया। बाबासाहब ने पाया कि बुद्ध का मार्ग हमें वह सब देता है, जिसकी हमें जरुरत  है। यथा- धार्मिक जड़ता से मुक्ति, समता, बौद्धिक स्वतंत्रता और बंधुता। सदियों की गुलामी से छुटकारा पाने हमें यही तो चाहिए था।

हमें धार्मिक अंधविश्वास से मुक्ति चाहिए थी, क्योंकि हमारी अवनति का यही सबसे बड़ा कारण था। देवी-देवता, पुनर्जन्म की थोथी कल्पना और स्वर्ग-नरक के भय ने हमारे आँख खोल कर देखने के तमाम रास्ते बंद कर दिए थे। हमें रोशनी की तलाश थी। बुद्ध का मार्ग 'अत्त दीपो भव' का सन्देश लेकर आया था।। जाति-पाँति की गैर- बराबरी से उठा कर बुद्ध ने हमें समता का रास्ता दिखाया। धार्मिक जड़ता से मुक्ति हमारा हेतु था। सामाजिक सड़ांध से बाहर निकलना लक्ष्य था।

किन्तु क्या हम सामाजिक मुक्ति के पथ पर अग्रसर है ? क्या हमने बुद्ध को सामाजिक मुक्तिदाता के रूप में लिया है ? क्या हम धार्मिक जड़ता से निकले ?  क्या हमारे मुक्तिदाता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर हमें किन्हीं देवताओं की छात्र-छाया में रखना चाहते थे ? बुद्ध वंदना में 'पुरिस-दम्म सारथि, सत्था 'देव' मनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति' में यह 'देव' कौन है ?  आशीर्वचन के रूप में भंतेजी द्वारा कही गयी गाथा  'भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब देवता' में ये कौन-से  'देवता'  हैं जिनसे रक्षा की हम दिन-रात गुहार करते हैं ? 'सब्बेसु चक्कवालेसु, यक्खा 'देवा' च 'ब्रह्मुनो'। यं अम्हे हि कतं पुञ्ञेन, सब्ब संपत्ति साधकं' में ये कौन-से 'यक्ष',  'देव' और 'ब्रह्मा' हैं, जिनको हम अपने द्वारा किए गए पुण्यों में भागीदार बनाना चाहते हैं ?

 हम, कब तक हमारे घरों में संपन्न 'परित्राण पाठ' के प्रारंभ में   'समन्ता चक्क वालेसु, अत्रागच्छन्तु 'देवता', सद्धम्म मुनिराजस्स, सुणन्तु सग्ग मोक्खदं'  भंतेजी द्वारा  'देवताओं' को आव्हान कराते रहेंगे और  'अच्छ, तच्छ, सुकर, महिस, यक्ख, रक्खस' आदि गाथाओं से सूअर भालू तो ठीक है, किन्तु यक्ष और राक्षसों से अपनी रक्षा की भीख माँगते रहेंगे ?

अट्ठावीस बुद्ध-
अट्ठवीसति परित्त में  'तण्हंकरो महावीरो,  मेघंकरो महायसो। सरणकरो लोकहितो,  दीपंकरो जुतिन्धरो' आदि   जिन 28 बुद्धों की हम महिमा का वर्णन करते हैं, वे कब और कहाँ  पैदा हुए ? क्या हमने 'अवतारवाद' मान लिया हैं। कब, कैसे  ?  और अगर ये ठीक है तो फिर यह जैन और हिन्दुओं के अवतारवाद से किस तरह भिन्न हैं। स्मरण रहे, खुद्दक निकाय के 'बुद्धवंश' में 24 बुद्धों का वर्णन हैं(बौद्ध धर्म; एक अध्ययन: पृ 310-11 : डॉ अवधेशसिंह )। सिंहलद्वीप के इतिहास ग्रन्थ  'महावंश' में 28 बुद्धों का स्मरण और उनकी वंदना की गई है।

ब्रह्म की नपुसंकता
'ब्रह्म' को कबीर ने  "'ब्रह्म' शब्द तो नपुंसक वर्णु" कह कर 'बीजक' में इसका उपहास किया है। बुद्ध, कबीर से एक कदम पीछे नहीं रहे। बुद्ध ने  'जनपद कल्याणी' अर्थात 'नगरवधू' कह  महा उपहास किया है। किन्तु धम्म ग्रंथों में  जगह-जगह उसका गुण गान किया गया है, महत्ता दिखायी गई है। यथा- अष्ट शीलों में देखे-  "'ब्रह्मचरिया' वेरमणी, सिक्खा पदं समादियामि" अथवा  'करणीयमेत्तं सुत्त' में- "'एतं सतिं अधिट्ठेय्य, 'ब्रह्ममेत्तं' विहार इध आहु" या  "'सब्बेसु चक्कवालेसु, यक्खा 'देवा' च 'ब्रह्मुनो'। यं अम्हे हि कतं पुञ्ञेन, सब्ब संपत्ति साधकं" आदि।

दीघनिकाय, ति-पिटक के सुत्त पिटक के पांच निकायों में बुद्धवचन के रूप में प्रथम निकाय है। इसके प्रथम स्थान से ही इस ग्रन्थ की महत्ता स्वयं सिद्ध है। इसके 14 वें 'महापदानसुत्त' में पूर्व-जन्म सम्बन्धी धार्मिक-कथा के माध्यम से 'विपस्सी आदि पुराने छह बुद्धों' का चमत्कारी वर्णन जिस तरह बुद्ध में मुख से कहलवाया गया हैं, वह दीघनिकाय के विश्वनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। इसी प्रकार, 17 वें  'महासुदस्सनसुत्त' में चक्रवर्ती राजा के रूप में बुद्ध के जन्म का रहस्यमयी वर्णन है।

 विनय पिटक के 'महावग्ग' में इस तरह का वर्णन एक बार नजरअंदाज भी किया जा सकता है क्योंकि कहा जाता है कि 'विभंग' अर्थात भिक्खु-भिक्खुनियों के नियमों  के अतिरिक्त इस के दूसरे भाग अर्थात 'खंधक'  में आयी सारी बातें बाद की है(राहुल सांकृत्यायन: पालि साहित्य का इतिहास पृ 152)। किन्तु दीघनिकाय में बुद्ध के जन्म का ऐसा वर्णन संदेह पैदा करता है। दीघनिकाय, जो सबसे अधिक विश्वनीय और प्राचीन समझा जाता है, की हालत यह है। इसी से अन्य ति-पिटक ग्रंथों का अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है !

बुद्धवचनों के रूप में इस तरह स्थापित कथनों को कटघरे में खड़ा करने का साहस हमें 'अंगुत्तरनिकाय' का 'केसपुत्तिय सुत्त' देता है जिस में बुद्ध स्वयं किसी भी कथन को, चाहे उनका अपना कथन ही क्यों न हो, तौल कर ग्रहण करने का उपदेश देते हैं। बुद्ध ने जिस तरह किसी 'ईश्वर' की सत्ता को नकारा है,  पुनर्जन्म और भाग्य को पलटा है, 'ईश्वर' और  'आत्मा' के  अमरत्व  के स्थान पर प्रकृति की  'अनित्यता' को स्थापित किया है, बुद्ध के आधारभूत सिद्धांतों को पकड़ने हमें किसी 'अगर-मगर' की जरुरत नहीं होती। 

यह सत्य है कि हमारे मुक्तिदाता ने हमें बुद्ध का मार्ग दिया किन्तु साथ ही हमें उन बातों से सावधान भी किया   जिन्होंने समय के साथ-साथ बुद्ध वचनों को संक्रमणित कर दिया, जिनसे छुटकारा पाने हमने बुद्ध का मार्ग अपनाया था। और यही कारण है कि हमारे मुक्तिदाता ने हर कदम पर हमें इसमें न फंसने से सचेत किया है। किन्तु क्या हम अपने मुक्तिदाता की चेतावनी से सावधान हैं ? क्या हम 'देवी-देवताओं' को पहचान पा रहे हैं ? क्या हम पुन पुनर्जन्म के पचड़े में नहीं फंस रहे हैं ? और क्या हम स्वर्ग-नरक से अलग हो रहे हैं ?
-अ ला ऊके  मो. 9630826117/ @amritlalukey.blogspot.com
  

Friday, September 21, 2018

भगवान का चमत्कार

भगवान का चमत्कार

चार साल हो गए, 
बेटे को नौकरी नहीं लगी। 
पंडितजी,  इसके लिए
संविधान को गरियाते हैं- 
ये सब SC/ST और OBC के
आरक्षण की वजह से ऐसा हो रहा है।

दूसरी ओर,
कल दीनानाथ के बेटे को
B.E. करने के चार साल बाद
नौकरी लगी।
दीनानाथजी,
दौड़े-दौड़े गए और
मंदिर में नारियल चढ़ा आएं !

बाप का नाम

भगवान श्रीराम का दरबार लगा हुआ था। कटघरे में एक विधवा थी जो चार माह के पेट से थी। गुरु विश्वामित्र ने विधवा की ओर मुखातिब हो उसके पेट में पल रहे नाजायज बच्चे के पिता का नाम जानना चाहा। विधवा को गुरु विश्वामित्र के प्रश्न से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। उसने कहा कि वह बच्चे के पिता नाम नहीं बतला सकती क्योंकि वह एक प्रतिष्ठित आदमी है। गुरु विश्वामित्र ने तब भी उसे बच्चे के पिता का नाम बतलाने को कहा।
जवाब में विधवा ने कहा- "मुनिवर, मेरे बच्चे के पिता का नाम पूछ रहे हैं। किन्तु क्या वे स्वयं अपने पिता का नाम जानते हैं ? विधवा के इतना पूछते ही दरबार में सन्नाटा छा गया। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। स्थिति संभालते हुए भगवान राम झल्लाकर बोले- हम अपने राजगुरु की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकते ? विधवा सहम गई। किसी तरह साहस बटोर उसने धीरे से कहा कि भगवान राम ही अपने असली पिता का नाम बता दें ? इतना सुनना था कि छोटे भाई लक्ष्मण ने म्यान से तलवार निकाल ली और कहा-  तुने बडे भाई का अपमान किया है, तुझे जिन्दा नही छोडूँगा ? 
विधवा सिर से पाँव तक काँप गई। तब भी उसने हिम्मत बटोर कर कहा- क्या छोटे भ्राता लक्ष्मण अपने असली पिता का नाम जानते हैं ? दरबार में सभी किसी भयानक आशंका से बुरी तरह सहमे हुए थे। अब स्थिति संभालने की बारी सीता की थी। स्त्रीगत मनोदशा को भांपते हुए सीता ने कहा- तब भी तुझे देवर लक्ष्मण का अपमान करने की धृष्टा करने की जरुरत नहीं थी। 
इस पर  विधवा ने कहा- ठीक है किन्तु क्या देवी सीता अपने पिता का नाम गुरु विश्वामित्र को बतलाएगी ? विधवा की हिम्मत देख पवनसुत कहे जाने वाले हनुमान ने मोर्चा संभाला- तूने तीनों लोकों के नियंता भगवान राम के साथ जनक नंदनी माता सीता का अपमान किया है। मैं इसी गदा से तुझे अभी यहीं जमीन मे जिन्दा गाड़ दूंगा। 
इस पर फुंफकारते हुए विधवा ने कहा- जरुर गाड़ देना किन्तु यहाँ बैठे लोगों को पहले अपने पिता का नाम तो बता दो ?  और  सधे कदमों से विधवा उठी और दरबार से निकलते हुए कहा-  "यहाँ सबके सब नाजायज बाप की औलाद हैं और मेरे बच्चे के बाप का नाम पूछ रहे हैं !

आदर

आदर
प्रसिद्द गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानंदजी महाराज ने एक दिन अपने कुछ ब्रह्मचारियों को कहा- "तुम्हारे मन में वेदों के लिए कुछ विशेष आदर नहीं है। "
ब्रह्मचारियों का उत्तर था- "स्वामीजी, यदि वेदों के बारे में आदर बनाए रखना था, तो आपने हमें उन्हें पढ़ाया ही क्यों (भदन्त आनंद कौसल्यायन: दर्शन; वेद से मार्क्स तक )?"

Friday, September 14, 2018

बोधिसत्व; महायानी संकल्पना

बुद्ध पूजा-
गौतम बुद्ध एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। परन्तु सद्धर्म के विकास के साथ उनके दैवीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उनके दैवी गुणों, बलों आदि की कल्पना की गयी। विकास के इसी क्रम में उनके स्मरण और उनकी पूजा की परम्परा प्रारम्भ हुई(चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म, एक अध्ययन, पृ 306: डॉ अवधेश सिंह )।
बोधिसत्व: महायानी संकल्पना-
बोधिसत्व का 'भावी बुद्ध' के लिए प्रयोग पालि-साहित्य में बहुत स्थानों पर उपलब्ध होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले इसका प्रयोग केवल सम्बोधि से पूर्व शाक्य मुनि को सूचित करने के लिए ही होता था। शाक्य मुनि के असंख्य पूर्व-जन्मों की जातक-साहित्य के द्वारा प्रसिद्धि होने पर बोधि-सत्व चरित भी विस्तृत हो गया। साथ ही
शाक्य मुनि के अतिरिक्त अन्य अतीत बुद्धों की कल्पना के कारण सम्बोधि से पूर्व की अवस्था में उनके लिए भी बोधिसत्व शब्द का प्रयोग हुआ । प्राचीन पालि सन्दर्भों में सात बुद्धों के नाम मिलते हैं- विपस्सी, सीखी, वेस्सभू, ककुसन्ध,  कोनागमन, कस्सप और गौतम। दीघनिकाय के 'महापदानसुत्त' में इन बुद्धों के विषय में सूचना दी गई  है तथा उनके उत्पाद का समय और उनकी जाति, गोत्र, आयु, बोधि-वृक्ष, सावक-युग, सावक-सन्निपात, अग्र-उपस्थाता, माता-पिता तथा जन्म-स्थान का उल्लेख है। इसके अनन्तर विपस्सी बुद्ध का जीवन-चरित विस्तार से बताया गया है, जो कि सभी मुख्य बातों में शाक्य-मुनि के सदृश्य है। यह कहा गया है कि सभी बुद्धों की जीवनी सामान होती हैं, केवल विस्तार-भेद ही उनमें पाया जाता है(बौद्ध धर्म के विकास का इतहास:  गोविंद चंद्र पांडेय, पृ  355 )।

बुद्धों के जीवन की यह व्यापक समानता 'धम्मता' कही गई है।  यह धम्मता ही है कि बोधिसत्व तुषितलोक से च्युत होकर स्मृति-सम्प्रजन्य युक्त अवस्था में ही मातृ-कुक्षि में प्रवेश करते हैं।  बोधिसत्व के मातृ-कुक्षि में प्रवेश के समय समस्त लोकों में सहसा अनंत प्रकाश फ़ैल जाता है।  चार देव-पुत्र गर्भ में बोधिसत्व की रक्षा करते हैं।  उस समय उनकी माता शील का पालन करती है , काम-राग से मुक्त होती है और सब प्रकार से सुखी और निरोग होती है।  गर्भस्थ बोधिसत्व को उनकी माता स्पष्ट देख पति है। बोधिसत्व के जन्म के अनन्तर उनकी माता का देहांत हो जाता है और वह तुषित लोक में उत्पन्न होती है।  बोधिसत्व का जन्म ठीक दस मॉस गर्भ में रह कर होता है तथा उनके प्रसव के समय उनकी माता खड़ी रहती है। प्रसव के अनन्तर बोधिसत्व का पहले देवता और पीछे मनुष्य प्रति-ग्रहण करते हैं।  नवजात बोधिसत्व को चार देवपुत्र उनकी माता के सामने स्थापित करते हैं।  जब बोधिसत्व का जन्म होता है उन पर और उनकी माता पर अंतरिक्ष से दो उदक- धाराएं गिरती हैं- एक शीत और एक उष्ण।  तत्काल उत्पन्न बोधिसत्व सात पग धरते हैं तथा वाग उच्चारित करते हैं- 'मैं लोक में श्रेष्ठ हूँ, यह अंतिम जन्म है और अब पुनर्भव नहीं होगा।' उनके जन्म के समय पुन अनंत ज्योति प्रकट होती है((डॉ गोविंद चंद्र पांडेय, पृ  355, 356 )।

आगे चल कर लगभग दो दर्जन बुद्धों की कल्पना हुई।  खुद्दकनिकाय के अंतर्गत बुद्धवंश में शाक्य मुनि के पूर्व 24  बुद्धों का वर्णन किया गया है।  नए नाम इस प्रकार हैं - दीपंकर, कोण्डञ्ञ , मंगल, सुमन, रेवत, सोभित, अनोमदस्सी, पदुम, नारद, पदुमुत्तर, सुमेध, सुजात, पियदस्सी, अत्थदस्सी, धम्मदस्सी, सिद्धत्थ, तिस्स और फुस्स (डॉ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, पृ  356)।

बाद में असंख्य बुद्ध स्वीकार किए गए। बल्कि महायान सूत्रों में तो प्राय  यह वाक्य मिलता है कि गंगा के किनारे के बालू के कणों के समान बुद्ध असंख्य हैं। मानुषी बुद्ध केवल धार्मिक विश्वास में ही नहीं थे, बल्कि बाकायदा उनकी पूजा भी की जाति थी। साँची, भरहुत के स्तूपों में इनके भी प्रतीकों का अंकन है और अशोक के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने कनक मुनि के एक स्तूप का विस्तार करवाया था। शायद, मानुषी बुद्धों की कल्पना को आधार बना कर ही भविष्य में होने वाले मैत्रेय बुद्ध की कल्पना का विकास हुआ। इसका प्रथम उल्लेख दीघ निकाय में हुआ है। महायान सूत्रों में तो उनका प्राय उल्लेख है और लोक प्रियता में ये अवलोकितेस्वर और मंजुश्री आदि की समता करते हैं(डॉ अवधेश सिंह, 307)।

अनेक बुद्ध -
बुद्ध के साथ-साथ अनेक बुद्धों की कल्पना का भी विकास हुआ। अनेक बुद्धों की यह कल्पना बुद्ध के पूर्व-जन्मों की कल्पना से भिन्न है। पूर्व-जन्मों की कल्पना का आधार यह था की बौद्ध धर्म में पूर्व-जन्म का सिद्धांत स्वीकृत था और बुद्ध कल्पना के विकास के साथ साथ यह माना गया कि बुद्ध पद की प्राप्ति महत्वपूर्ण उपलब्धि है जो मात्र एक जन्म के प्रयास से संभव नहीं हो सकती(डॉ अवधेशसिंह, 306)।

गौतम बुद्ध ने पूर्व-जन्मों के ज्ञान एवं तपस्या से इस परम पद को प्राप्त किया था। बौद्ध परम्परा में बुद्ध को उनके पूर्व जन्मों की अवस्था में बोधिसत्व कहा जाता है। स्वतन्त्र  बुद्धों की कल्पना का आधार क्या था, इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ कह पाना कठिन है।  इसका कोई ऐतिहासिक आधार तो नहीं लगता परन्तु हो सकता है कि अन्य धर्मों में तीर्थंकरों की कल्पना के अनुकरण में बौद्धों ने यह विकास किया हो। यह भी संभव है कि सृष्टि के सन्दर्भ में बौद्धों की कल्पना का भी सम्बन्ध हो। विकसित बौद्ध धर्म में यह अनुमान था था कि संसार अनेक होते हैं, अतएव उन में अनेक बुद्ध संभव हैं(डॉ अवधेशसिंह, 306 )।

फाहियान(यात्रा काल  399-414 ई.) और व्हेन सांग(यात्रा काल  629 -645  ई.) ने बुद्ध के अनेक पूर्व-जन्मों में बोधिसत्व जीवन का अभ्यास करने और अपना शरीर दूसरे को प्रदान कर देने का उल्लेख किया है। उनके द्वारा कबूतर की रक्षा, एक व्यक्ति को आँख का दान, एक व्यक्ति को सर का दान आदि उल्लेखनीय है। बोधिसत्व जीवन का अभ्यास करते हुए बुद्ध को 42 प्रश्नों का उत्तर देना पड़ा था। और बोधिसत्व जीवन में ही उन्होंने एक लड़की से फूल का डंढल ख़रीदा था और उसने इस शर्त पर फूल बेचना स्वीकार किया था कि दूसरे जन्म में वह बुद्ध की पत्नी होगी(डॉ अवधेशसिंह, 307 )।

उल्लेखनीय है कि यह जीवन उन्होंने मात्र मनुष्य जीवन में ही नहीं बल्कि पशु रूप में भी व्यतीत किया था। विभिन्न पूर्व जन्मों में उनके द्वारा हस्ति, सर्प, मृग और तक्षशिला के चन्द्रप्रभा राजा के रूप में बोधिसत्व जीवन के अभ्यास का उल्लेख है। सारनाथ, कुशीनगर और बैशाली में उनके द्वारा बोधिसत्व जीवन का अभ्यास उल्लेख प्राप्त होता है। तक्षशिला में बोधि-दशा को शीघ्र प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपना मस्तक काट डाला था और या भीषण कर्म उन्होंने लगातार एक हजार वर्षों तक किया था(डॉ अवधेशसिंह, 308 )।

सभी हीनयानी मानते थे कि साधकों की तीन कोटियां हैं- सावक, प्रत्येक बुद्ध और बोधिसत्व। सावक पुण्यात्मा पुरुष है और बुद्ध का उपदेश प्राप्त करके अर्हत तक प्रगति करता है। प्रत्येक बुद्ध बोधि प्राप्त करते हैं, किन्तु वे न शिष्य होते हैं और न ही गुरु।  बोधिसत्व अनेक जन्मों में अर्जित पुण्य और ज्ञान के सहारे सम्यक सम्बुद्ध होकर अर्हत और प्रत्येक बुद्ध से विशिष्ट होते हैं(डॉ अवधेशसिंह, 308 )

बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के पहले बुद्ध भी बोधिसत्व ही थे। बोधिसत्व शब्द का अर्थ है, वह सत्व या व्यक्ति जो बुद्ध पद प्राप्त करने का अधिकारी हो। ऐसा पुरुष बुद्धत्व प्राप्ति के मार्ग में स्थित माना जाता है। फाहियान और व्हेनसांग ने मुख्य रूप से क्रकुछन्द, कनकमुनि और कस्सप के शरीरावशेष के ऊपर स्तूप निर्माण और अनेक स्थानों पर इनके पद-चिन्हों का वर्णन किया है(डॉ अवधेशसिंह, पृ.309 )।

महायान/हीनयान -
दोनों सामान विनय का अनुशरण करते थे। जो बोधिसत्वों की पूजा तथा महायानी सूत्रों का पाठ करते थे, वे महायानी कहलाते थे।  जो ऐसा नहीं करते थे, वे हीनयानी कहे जाते थे( डॉ गोविंदर चंद्र पांडेय, पृ  455 )।

नो राजवादं

‘‘भन्ते नागसेन! सल्लपिस्ससि(सास्त्रार्थ करोगे) मया(मेरे) सद्धिं(साथ)?’’ यवनो राजा मिलिन्दो आह।
‘‘भन्ते नागसेन! क्या आप मेरे साथ शास्त्रार्थ करेंगे?’’ -यवन राजा मिलिन्द ने कहा।
‘‘‘सचे त्वं महाराज! पण्डितवादं सल्लपिस्ससि, सल्लपिस्सामि।’’
‘महाराज! यदि आप पण्डितों की तरह शास्त्रार्थ करेंगे तो अवश्य करूंगा।’’
‘‘सचे पन राजवादं सल्लपिस्ससि, न सल्लपिस्सामि।’’
‘‘और यदि राजाओं की तरह शास्त्रार्थ करेंगे तो नहीं करूंगा।’’
‘‘कथं, भन्ते नागसेन, पण्डिता सल्लपन्ति?’’
‘‘भन्ते नागसेन! किस तरह पण्डित लोग शास्त्रार्थ करते हैं?’’
पण्डितानं खो, महाराज, सल्लापे आवेठनं अपि करियति, निब्बठेनं अपि करियति निग्गहनं अपि करियति, पटिकम्मं अपि करियति, विस्सासो अपि करियति, पटिविस्सासोपि करियति,  न च तेन पण्डिता कुप्पन्ति। एवं खो, महाराज, पण्डिता सल्लपन्ति।’’
‘‘महाराज! पण्डित शास्त्रार्थ में एक दूसरे को लपेट लेता है, एक दूसरे की लपेटन को खोल देता है। एक दूसरे को तर्कों से पकड़ लेता है, एक दूसरे की पकड़ से छूट जाता है। एक दूसरे के सामने तर्क रखता है। वह उसका खण्डन कर देता है। किन्तु इन सब के होने पर भी कोई गुस्सा नहीं करता।’’
‘‘कथं पन, भन्ते, राजानो सल्लपन्ति?’’
‘‘भन्ते! राजा लोग कैसे शास्त्रार्थ करते हैं?’’
‘‘राजानो खो, महाराज, सल्लापे एकं वत्थुं पटिजानन्ति। यो तं वत्थु विलोमेति, तस्स दण्डं आणापेति। एवं खो, महाराज, राजानो सल्लपन्ति।’’
‘‘महाराज! राजाओं के शास्त्रार्थ में यदि कोई राजा का खण्डन करता है तो उसे तुरन्त दण्ड दिया जाता है। इस प्रकार महाराज, राजाओं का शास्त्रार्थ होता है।’’
‘‘पण्डितवादं अहं भन्ते, सल्लपिस्सामि, नो राजवादं। एवं विस्सट्ठो भदन्तो सल्लपतु मा भायतु।’’
‘‘भन्ते! मैं पण्डितो की तरह शास्त्रार्थ करूंगा, राजाओं की तरह नहीं। आप पूरे विस्वास से मेरे साथ शास्त्रार्थ करें। मतडरें।’’
‘‘सुट्ठु महाराजा‘ति थेरो अब्भानुमोदि।
‘‘बहुत अच्छा।’’ कह कर स्थविर ने स्वीकार किया।

राजा आह ‘‘भन्ते नागसेन, पुच्छिस्सामि।’’
राजा बोला- ‘‘भन्ते! मैं पूछता हूं।’’
‘‘पूच्छ महाराजा।’’
‘‘महाराज पूछें।’’
‘‘पूच्छितोसि मे भन्ते।’’
‘‘भन्ते! मैंने पूछा।’’
‘‘विस्सज्जितं महाराजा।’’
‘‘महाराज! तो मैंने उसका उत्तर भी दे दिया।’’
‘‘किं पन, भन्ते, तया विस्सज्जितं।’’
भन्ते! आपने क्या उत्तर दिया?’’
‘‘किं पन, महाराज, तया पूच्छितं?’’
‘‘महाराज! आपने क्या पूछा।’’
अथ खो मिलिन्दस्स रञ्ञो एतदहोसि- ‘‘ पण्डितो खो अयं भिक्खु पटिबलो मया सद्धिं सल्लपितुं !
तब, राजा के मन में यह बात आयी- ‘‘अरे! यह भिक्खु पण्डित है, मेरे साथ शास्त्रार्थ कर सकता है !  

Tuesday, September 11, 2018

सुखावती-व्यूह

सुखावती-व्यूह
संस्कृत के सुखावती-व्यूह नाम के दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, एक वृहत और एक संक्षिप्त। दोनों में अमिताभ बुद्ध का गुण गान है, वृहत सुखावती में कर्म का महत्त्व अक्षुण्ण है जबकि संक्षिप्त सुखावती में मृत्यु के समय अमित का नाम-चिंतन मात्र बुद्ध क्षेत्र में उत्पत्ति के लिए पर्याप्त समझा गया है।

बृहत सुखावती का प्राचीनतम चीनी अनुवाद 147-86  इस्वी के बीच हुआ था। संक्षिप्त सुखावती का प्राचीनतम चीनी अनुवाद कुमारजीव ने 402 ईस्वी में किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि सुखवती व्यूह को 'अमितायुस्सुत्त ' अथवा 'अमितायुव्यूर्व-सुत्त' भी कहा जाता है। ये सूत्र जापान के 'जोड़ो' अथवा 'चीनी 'चि' एवं 'शिन' सम्प्रदाय के प्रधान ग्रन्थ हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार तथागत ने सुखावती व्यूह का लोक में प्रकाश अपने परिनिर्वाण के कुछ ही पहले किया था(महायान का उदगम और साहित्य: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 337: गोविन्द चन्द्र पाण्डेय )।

सुखावती व्यूह और  'अमितायुव्यूर्व-सुत्त में बुद्ध अमिताभ के साथ बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का गुण-कीर्तन  किया गया है। कारंडव्यूह में अवलोकितेश्वर का गुण कीर्तन किया गया है। कारंडव्यूह अथवा अवलोकितेश्वर-गुण-कारंड व्यूह' का एक प्राचीन तर गद्य रूप है तथा दूसरा अपेक्षा कृत उत्तरकालीन पद्य रूप है। पद्यात्मक कारंडव्यूह में एक प्रकार का ईश्वरवाद वर्णित है क्योंकि उसमे 'आदिबुद्ध' को ही ध्यान के द्वारा जगत स्रष्टा कहा गया है। आदिबुद्ध से ही अवलोकितेश्वर का आविर्भाव हुआ तथा अवलोकितेश्वर की देह से देवताओं का। गद्यात्मक कारंड व्यूह में आदिबुद्ध का ऊलेख नहीं है। यहाँ अवलोकितेश्वर की करुणा का प्रभूत  विस्तार है। उनकी कृपा से अवीचि नरक का दिव्य रूपांतर हो जाता है तथा प्रेत भूख-प्यास से मुक्त हो जाते हैं।अवलोकि-तेश्वर पंचाक्षरी विद्या 'ॐ मणि पद्मे' हुँ'  -को धारण करते हैं((वही,  पृ  338)।

Friday, September 7, 2018

Buddha rejected the Brahmani c Re-birth Theory

Did the Buddha believe in Rebirth ?
There are four elements;  Prithvi, Apa, Tej and, Vayu which go to compose the body. When human body is dies, these four elements joins the mass of the similar elements floating in the space. The possibility of elements of the dead man meeting together and forming a new body of the same sentient being is very less, however not impossible. Further more, when human body is dies; death has two aspect (i) cessation of production of energy and(ii) new addition to the stock of the floating general mass of energy.
In this perspective, the question arises. Is there possibility to take Rebirth by the same dead person ?  The answer is most improbable( Dr. B. R. Ambedkar: Buddha & His Dhamma, Page 330).

Buddha does not believe Brahmanic  Rebirth theory-
There is big confusion over Rebirth theory among Buddhist. Traditionally Buddhist belongs to Mahayan thought of School, seems to have believed Rebirth and Law of Karma theory. But, people belongs to Theravada thought of School too are not clear over this issue. However, in ‘The Buddha & His Dhamma’, Dr B. R. Ambedkar clearly stated that there in no Rebirth theory in Buddhism what Brahminic literature said.
Is there Rebirth ? Buddha was affirmative. But this is not in accordance to what Hindu and other religions believe. Buddha affirmative reply was in accordance to science. Buddha was not annihilistic. Because,  infact, after death, the basic four elements joins the mass of similar elements floating in space. Secondly, body goes to stop to produce further energy, and  whatever energy escaped from the body,  joins the floating mass of enegy in the space. Thirdly, Buddha was not also eternalist because he was against soul.
One who was against soul, how he can believe in Rebirth ? Buddha’ Law of Karma applied only to Karma and its effect on present life(Page 338; Did the Buddha believe in past Karma having effect on future life ? The Buddha & His Dhamma: Dr. B. R. Ambedkar).

Thursday, September 6, 2018

'गुबार देखते रहे'- नीरज


।।कारवाँ गुज़र गया।।
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े, बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़--शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए, छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का, उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गलीगली
और हम लुटे-लुटे, वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरण,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण- चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी, गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से, दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
-
गोपालदास नीरज

धम्म ग्रंथों में 'देवता' -

धम्म ग्रंथों में 'देवता' -
पिछले रविवार अशोक बुद्ध विहार भोपाल में एक उपासक के प्रश्न पर कि बुद्ध-वंदना की गाथाओं में  'देवता' क्या  हैं, 'पारिवारिक धम्म संगोष्ठी' के एक प्रमुख कार्यकर्त्ता ने कह दिया कि संघ-वंदना में जो 'अट्ठ-पुरिस पुग्गला' है, वही 'देव' या  'देवता' हैं। मुझे उनकी व्याख्या प्रश्न से पिण्ड छुड़ाने की लगी।

यह सच है कि विनय पिटक, सुत्त पिटक, अभिधम्म पिटक आदि धम्म-ग्रंथों में बुद्ध का अभिनन्दन करते 'देवता' मिल जाएंगे, अपनी शंकाओं का समाधान करते  'देवता'  मिल जाएंगे। यहाँ तक कि दैनिक  बुद्ध वंदना सुत्त-गाथाओं में हमें आशीर्वाद देते 'देवता' मिल जाएंगे।

आप अगर बुद्धिस्ट है तो आपको इस कथित 'देवता' से रुबरुं होना ही पड़ेगा, उनका आशीर्वाद लेना ही पड़ेगा। आप कितना ही 'ब्राह्मणवाद' से घृणा करते रहे, 'देवता' की शरण में गए बगैर आप रह नहीं सकते। भले ही बाबासाहब डॉ आंबेडकर द्वारा प्रदत्त 22 प्रतिज्ञाओं को दिन में दस बार दुहराते रहे कि मैं किसी देवी/देवता को नहीं मानूंगा ' आपको "भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब 'देवता' कहना ही पड़ेगा !

यही 'ब्राह्मणवाद' है। मैं ब्राह्मणों की 'दिव्य-दृष्टि' से अभिभूत हूँ। ब्राह्मण, बुद्ध को हरा नहीं सकें, उनसे पार पा न सकें तो एक बहुत ही खतरनाक रास्ता अपनाया। यह खतरनाक रास्ता था, उस दर्शन में घुस कर उसे अपना बनाना और धीरे-धीरे उसकी रगों में ब्राह्मणवाद का जहर घोल देना । यह युक्ति ऐसी है कि इस में संदेह की गुंजाईश नहीं होती । और फिर, इसके असफल होने की संभावना भी नहीं होती। बाबासाहब ने 'हू वेयर शुद्राज' और रिडल्स ऑफ़ हिंदुइज्म' में  इस पर काफी कुछ लिखा है और पहचान कर इसे 'अतिवाद को अतिवाद से मारने' की स्ट्रेटेजी(युक्ति) कहा है ।

 यह ऐतिहासिक तथ्य है कि धम्म-ग्रंथो में आए देवी-देवता महायानी संकल्पना है। बौद्ध धर्म की महायानी विधारधारा, दरअसल हीनयान विधारधारा को ब्राह्मणवाद में तब्दील करने की साजिश है। सनद रहे, बाबासाहब बौद्ध धर्म की हीनयान विचारधारा से प्रभावित थे। दलितों को ब्राह्मणवाद से मुक्ति  चाहिए थी। हमें स्वर्ग-नरक से कोई लेना-देना नहीं था। मरने के बाद हमारा क्या होगा, से ज्यादा जरुरी था;  ब्राह्मणवाद से पीड़ित जानवरों से बदतर जिंदगी से मुक्ति। और इसलिए, जब हमारे मसीहा ने देखा कि दलित बिना धर्म के रह नहीं सकते और अगर रह भी गए तो ब्राह्मण उन्हें जीने नहीं देंगे और यह भी कि किसी नए धर्म की खोज संभव नहीं है अर्थात जो धर्म हैं, उन्हीं में से चुनना है, तो उन्हें बुद्ध का धम्म ही तुलनात्मक रूप से ठीक जंचा।

बौद्ध महायान परम्परा से बाबासाहब खूब परिचित थे। और इसलिए उन्होंने हमें 'बुद्धा एंड धम्मा' देकर 'आसमान से गिरे और खजूर में अटके' वाली सम्भावना को ख़त्म करते हुए महायानी विचारधारा से   संक्रमणित हुए सद्धम्म को ब्राह्मणवाद से बचा लिया। यद्यपि उनका स्वास्थ्य यह ऐतिहासिक चुनौतीपूर्ण कार्य करने की उन्हें कतई अनुमति नहीं दे रहा था, तब भी मुंह फाडे ब्राह्मणवाद से दलितों को बचाने उनका यह प्रयास आवश्यक था।

महायानी परम्परा-
महायानी बौद्ध परम्परा में प्रज्ञापारमितासूत्र, सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र, ललितविस्तर,लंकावतार सूत्र, गण्डव्यूहसूत्र, तथागत गुह्यसूत्र आदि विशाल साहित्य है। यह सारा साहित्य संस्कृत में है।

 सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र-
इस में 'सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र' बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यद्यपि सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र की रचना भारत में हुई थी किन्तु यह ग्रन्थ भारत से लुप्त हो गया था। लेकिन भारत के बाहर के देशों में जहाँ जहाँ महायानी बौद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार हुआ, वहां वहां इस ग्रन्थ को बहुत ही सम्मान प्राप्त हुआ। इस ग्रन्थ को महायानी बौद्धों में 'बुद्ध वचन' का स्थान और महत्त्व प्राप्त है। नेपाल, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया, भूटान, ताइवान आदि देशों में यह पूज्यनीय ग्रन्थ है। उसी प्रकार भारत के हिमालयीन  पर्वतीय क्षेत्रों में बसे महायानी बौद्धों में भी इस ग्रन्थ को पूज्यनीय माना जाता है(प्रस्तावना: सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र: डॉ. विमलकीर्ति )।

चीनी भाषा में सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र का पहला अनुवाद ईस्वी 223 में हुआ था। भदन्तचार्य बसुबंधु ने 5 सदी में इस पर टीका लिखी थी। जापान के राजपुत्र ने इसका अनुवाद 6 सदी किया था। बड़ी जल्दी यह ग्रन्थ वहां घर-घर पूजा जाने लगा। यहाँ महायानी बौद्ध परम्परा के कई सम्प्रदाय हैं जिस में निचिरेन बौद्ध सम्प्रदाय अति प्रसिद्द है।  बीसवीं सदी में इसी निचिरेन बौद्ध संप्रदाय के प्रसिद्द आचार्य फ्यूजी गुरूजी हुए जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध और दूसरे विश्व युद्ध को भयानकता को देखते हुए जापान में, भारत में और भारत के बाहर कई देशों में विश्व शान्ति स्तूपों का निर्माण करके, करवा करके संसार के लोगों को बुद्ध के शांति सदेश देने का महान काम किया है।  फ्यूजी गुरूजी के इन कार्यों के मूल में इस सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र की ही प्रेरणा रही है(वही)।

सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र में बुद्ध को अलौकिक और लोकोत्तर में वर्णन-
सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र में बुद्ध को, जो ऐतिहासिक महापुरुष है, अलौकिक और लोकोत्तर पुरुष वर्णन किया गया है। इस में बोधिसत्व जीवन का और बुद्धत्व की प्राप्ति के महत्त्व का वर्णन किया गया है(वही)।

'अट्ठ पुरिस पुग्गला' और 'देवता' भिन्न भिन्न- 
अब मूल प्रश्न  'अट्ठ पुरिस पुग्गला' पर आते हैं। सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र के पहले ही अध्याय 'निदान परिवर्त' में
 'अट्ठ पुरिस पुग्गला' और 'देवता' को अलग-अलग श्रेणी में दर्शाया गया है- 'उस समय उन्होंने सोचा कि चार श्रेणियों वाले शिष्य, भिक्खु, भिक्खुणियां, उपासक, उपासिका और अनेक देवता, नाग, यक्ष, गन्धर्व, असुर, गरुड़, किन्नर, महासर्प,मनुष्य,  अमनुष्य आदि के मन में यह विचार आया कि भगवान  बुद्ध को उनके द्वारा प्रदर्शित महाचमत्कार के बारे में क्यों न पूछा जाए'(निदान परिवर्त: पृ. 16 )? यहाँ, 'चार श्रेणियों वाले शिष्य' निस्संदेह अट्ठ पुरिस पुग्गला' हैं। और भी इसके आलावा अनेक प्रसंग ग्रन्थ में हैं, जहाँ चार श्रेणियों वाले शिष्य' और 'देवता' को अलग-अलग दर्शाया गया है।

 'अट्ठ-पुरिस पुग्गला' क्या है ?
दरअसल,  'अट्ठ पुरिस पुग्गला' ध्यान-साधकों के प्रकार हैं। साधकों की यह अवधारणा महायानी बौद्ध-परम्परा में मिलती है (देखें- ‘पुग्गलपञ्ञतिः अभिधम्मपिटक)। महायान से ही लोकोत्तर, अनेक बुध्द, बोधिसत्व आदि की अवधारणा विकसित हुई और पूजा-पाठ आदि का महत्व बढ़ा।

पुग्गल भेद-
सोतापन्न- जो स्रोतापत्ति मार्ग की भावना करके सक्काय दिट्ठि(दृष्टि), विचिकिच्छा, सीलब्बत परामास(शीलव्रत-परामर्श) का प्रहाण करके अपाय-उत्पत्ति की संभावना समाप्त कर देता है और जिसका देवलोक या मनुष्य लोक में अधिक से अधिक सात बार जन्म होता है। सकदागामी- सकृतागामी मार्ग की भावना कर राग, द्वेष, मोह को क्षीण करने वाला। यह एक बार ही इस लोक में आता है। अनागामी- यह अनागामी मार्ग की भावना कर कामराग तथा व्यापाद का सर्वथा नाश करने वाला। यह फिर इस लोक में नहीं आता, केवल शुद्धावास देवलोक में ही जन्म ग्रहण करता है। अर्हत - अर्हत मार्ग की भावना कर क्लेशों का सर्वथा नाश करने वाला(भदन्त आनंद कौसल्यायन: अभिधम्मसंगहो,  पृ. 119- 120 )।

अभिधम्मपिटक - यह आसानी से न समझ आने वाला दार्शनिक ग्रन्थ है। भदन्त आनंद कौसल्यायन के शब्दों में,  'और फिर, वह दर्शन ही क्या, जो इतना सरल हो जाए कि आसानी से समझ में आ जाए (दर्शन, वेद से मार्क्स तक, पृ. 3) ! प्रथम और द्वितीय संगीतियों के वर्णन में धम्म तथा विनय के ही संगायन की चर्चा है। इससे यह स्पष्ट तया ज्ञात होता है कि पहले दो ही पिटक थे और अभिधम्मपिटक पीछे का है। अभिधम्मपिटक पर टिका चौथी सदी में आचार्य वसुबन्धु ने सर्वास्तिवाद के लिए किया था ( पालि  साहित्य का इतिहास, पृ. 167 : राहुल सांकृत्यायन)।।
अभिधम्मपिटक के अंतर्गत पुग्गल पञ्ञति, विभंग, धम्मसंगनि, धातुकथा, यमक, पट्ठान, कथावत्थु आदि ग्रन्थ रखे हैं। इसका एक ग्रन्थ कथावत्थु तो तृतीय संगीति के प्रधान मोग्गलिपुत्त तिस्स ने स्थिरवादी-विरोधी निकायों के खंडन के लिए लिखा था(वही)।

पुग्गल पञ्ञति-   पुग्गल(पुद्ग़ल)  का अर्थ होता है व्यक्ति, और व्यक्ति की प्रज्ञप्ति(पञ्ञति) करना इस ग्रन्थ का विषय है। इसमें व्यक्तियों का नाना प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और यह एक-एक प्रकार के व्यक्तियों से प्रारम्भ करके दस-दस प्रकार के व्यक्तियों के निर्देश तक चला गया है।  सर्व प्रथम प्रश्न किया गया है और बाद में उसी का उत्तर दिया गया है(पालि  साहित्य का इतिहास, पृ  174)। यथा-
प्रश्न- कौन सा व्यक्ति उस बदल के सामान है, जो गरजता है, पर बरसता नहीं ?
उत्तर- जो कहता बहुत है, पर करता कुछ नहीं।
प्रश्न- कौन सा व्यक्ति उस चूहे के समान है, जो अपना बिल तो खोद कर तैयार करता है, किन्तु उसमें रहता नहीं ?
उत्तर- जो व्यक्ति, सुत्त, गाथा, उड़ान, जातक आदि ग्रंथों के अभ्यास में रत तो रहता है, किन्तु चार आर्य सत्यों का साक्षात्कार नहीं करता, वही व्यक्ति उक्त चूहे के सामान है; आदि।

और, मैं यह फिर स्पष्ट कर दूँ की धम्म-ग्रन्थ चाहे महायानी ही क्यों न हो, मैं उन्हें उतना ही सम्मान देता हूँ जितना कि 'बुद्धा एंड  धम्मा'। मेरा आग्रह सिर्फ यह है कि हमारे लोग, धम्म की विवेचना में  'सम्यक दृष्टि' अपनाएं। कोई भी बात, चाहे ति-पिटक ग्रन्थ हो, या 'बुद्धा एंड धम्मा' श्रद्धातिरेक से न पढ़े। गलती, ग्रंथों के  पीढ़ी-दर-पीढ़ी होते अनुवाद से भी हो सकती है अथवा अनुवाद-कर्ता के अभि-संस्कृतिक संस्कारों से।

विश्व परिवर्तनशील है, तो समाज भी उसका हिस्सा है। सांस्कृतिक मूल्य बदलते रहते हैं और यह विकास की अंतहीन प्रक्रिया है। हमें दिमाग को खुला रखना है। जड़ता, सड़ने की प्रक्रिया है। धम्म-ग्रंथों में परिवर्तन होते रहे हैं। बौद्ध संगीतियाँ इसीलिए हुई थी। असंगत शब्दों को मुर्दों की मानिंद ढोते रहना, बंदरी के तरह अपने मरे बच्चे को छाती से चिपकाए रखना है। हमने अपने सद्य प्रकाशित ग्रन्थ 'धम्म परित्तं' में इस तरह के  'ब्रह्म',  'देवता' आदि अबौद्ध शब्दों की न सिर्फ विवेचना की है अपितु निराकरण भी सुझाया है।  यथा-  भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब अरहता। सब्ब बुद्धानुभावेन, सदा सोत्थि  भवन्तु ते। 
  

Monday, September 3, 2018

आओ पाली सीखें(पूर्व किरिया)

आओ पाली सीखें -
'मारं ससेनं महति विजेत्वा।' में 'विजेत्वा' का अर्थ-  विजय प्राप्त कर  होता है । इसी प्रकार के अन्य शब्द हैं -
गहेत्वा- ग्रहण कर।                     छिन्दित्वा- छिन कर।            कत्वा/करित्वा- कर। 
गन्त्वा - जाकर।                         वत्वा- कह कर।                      अभिवादेत्वा- अभिवादन कर। 
निवासेत्वा- निवास कर।             पविसित्वा- प्रवेश कर।             सुत्वा- सुन कर। 
हुत्वा- होकर।                              ठत्वा- खड़ा होकर।                  समेत्वा- मिल कर।  
उपसङ्कमित्वा - पास जाकर।     आगत्वा- आ कर।                    पित्वा/पिबित्वा- पी कर             
पचित्वा- पका कर।                     चलित्वा- चल कर।                  खादित्वा/भुञ्जित्वा- खाकर।
चिन्तयित्वा- चिंता कर।              कीळित्वा- खेल कर।               रोदित्वा- रो कर।

वाक्यानि पयोगा (वाक्य में प्रयोग)-
सो मग्गे अभिधावित्वा विहारं गच्छति।
वह(वह) रास्ते पर(मग्गे) दौड़ते हुए बुद्ध विहार जाता है।
सो बाह्मणो पूरलासं अतिभुञ्जित्वा गिलानो जातो।
वह ब्राह्मण पकवान(पूरलासं) अत्यधिक खाकर बीमार(गिलानो) हुआ ।
तथागतो अनुकम्पं कत्वा धम्मं देसेति।
तथागत अनुकम्पा कर धम्म की देशना करते हैं।
भिक्खु तस्स उपकारं सरित्वा पब्बाजेसि।
भिक्खु उसका उपकार स्मरण कर(सरित्वा) पब्बज्जित करता है।
माणवा पातोव पबुज्झित्वा पोत्थके वाचन्ति।
माणवक(विद्यार्थी) प्रात ही(पातो-एव) समझ कर(पबुज्झित्वा) पुस्तकें पढ़ता है।
हत्थमत्तं भूमिं याचित्वा अपि नालद्धं।
हाथ भर भूमि याचना कर भी(अपि) नहीं प्राप्त हुई।
गोतमी कपिलवत्थुतो निक्खमित्वा बुद्ध सासने पब्बज्जं लभि।
गोतमी कपिलवस्तु से निकल कर बुद्ध शासन में (सासने) पब्बज्जा लाभित हुई।
महिला आपणं गन्त्वा आभरणं विक्किणाति।
महिला दुकान(आपणंं) जाकर आभूषण विक्री करती(विक्किणाति) है।
तच्छका रुक्खे छिन्दति, साखा-पलासे कन्तित्वा पीठं करोन्ति।
बढई(तक्छका) वृक्ष छांट कर शाखा- टहनियां काट कर कुर्सी(पीठं) बनाता है।
बोधिसत्तो गेहा निक्खमित्वा/निक्खम्म पदसा राजगहं अगमासि।
बोधिसत्व घर(गेहा) से निकल कर पैदल ही(पदसा) राजगृह आए(अगमासि) थे।
सुनखा अट्ठीनि गहेत्वा मग्गे धाविंसु।
कुता हड्डियों(अट्ठीनि) को पकड़ कर(गहेत्वा) रास्ते में दौड़ा था।
सकुणा खेत्तेसु वीहिं दिस्वा खादिंसु।
पक्षियों ने खेतों में(खेतों में) धान(वीहि) देख कर(दिस्वा) खाया/चुगा था।
अतिथि अम्हाकं घरं आगन्त्वा आहारं भुञ्जिसु ।
अतिथि ने हमारे घर आ कर आहार/भोजन किया था।
गहपतियो नरपतिनो पुरतो ठत्वा वदिंसु।
गृहपति यों ने नरपति के सामने(पुरतो) खड़े होकर(ठत्वा) बोला(वदिन्सु) था।
कपयो रुक्खं आरुहित्वा फलानि खादिंसु।
बंदरों(कपयो) ने वृक्ष पर(रुक्खं) चढ़ कर(आरुहित्वा) फलों को खाया था।
नरपति हत्थेन असिं गहेत्वा अस्सं आरुहि।
नरपति हाथ से तलवार पकड़ कर अश्व पर चढ़ा था(आरुहि)।
धम्मं सुत्वा गहपतीनं बुद्धे सद्धा उप्पज्जि।
धम्म सुन कर गृहपति को बुद्ध में श्रद्धा उपजी थी।       

Saturday, September 1, 2018

सवाल, हमारी आस्था का है ?

धम्म में चीवर पूज्य है।  चीवर को जो धारण करता है, वह पूज्य है। पूजा का यह भाव हमारी आस्था का प्रतीक है। धम्म हमारी आस्था है। यह आस्था बतलाती है कि हम किन विचारों से संचालित हैं। आस्था हमारी सोच और संस्कारों का प्रतीक है।

धम्म में हमारी आस्था है। किन्तु यह आस्था किसी अन्धविश्वास का समर्थन नहीं करती। हमारी आस्था का सम्बन्ध धार्मिक जड़ता से नहीं है। धम्म में हमारी आस्था विचार-स्वातंत्र्य को  खुला स्पेस देती है। और इसलिए हमारी आस्था गैर-बुद्धिस्टोंं से भिन्न है। बुद्ध का धम्म प्रज्ञा से संचालित है। प्रज्ञा के बिना धम्म उसी प्रकार अन-उपयोगी है जैसे रथ बिना अश्व । बुद्ध ने कहा- कुल्लुपं वो भिक्खवे, धम्म देसियामि। नित्थरणत्थाय नो गहणत्थाय। धम्मा'पि  पहातब्बा पगेव अधम्मा(अलगद्दुपम सुत्त: मज्झिम निकाय)।

जैसे मैंने कहा, चीवर पूज्य है। किन्तु चीवर तो मात्र वस्त्र है ? चीवर को धम्म का प्रतीक, चीवरधारी बनाता है। यह चीवरधारी ही है जो चीवर को विनय में रखता है, सील में रखता है। धम्म में सील का बड़ा महत्त्व है। बुद्ध कहते हैं कि धम्म ही सील है। सील ही धम्म है। जब तक सील है, धम्म टिका रहता है। सील भंग होते ही धम्म पर आंच आने लगती है। दरअसल सील धम्म का आधार स्तम्भ है। इसलिए  धम्मपद में कहा है-  कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो। मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो।

सील एक भिक्खु के लिए उतना ही मायने रखता है जितना एक बौद्ध उपासक के लिए। किन्तु उपासक के लिए सील अनुकरणीय है, जबकि भंते  के लिए बंधनकारी। और इसलिए, भंते को अत्यंत सावधान रहने की जरुरत  है। सीलोंं में 'कामेसु मिच्छाचारा वेरमणि'  एक ऐसा सील है जिसका भंग होना जीवन भर की कमाई को क्षण भर में दूषित और कलंकित कर देता है।

सद्धम्म से डिगाने के लिए कई तरह के प्रलोभन है, जिस में काम-भोग का प्रलोभन अत्यंत आकर्षक है। यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु यह शरीर की स्वाभाविक मांग के अनुकूल भी है। और इसलिए इसमें फिसलने की संभावना प्रबल रहती है। आप, जाने-अनजाने इसमें एक बार फिसले कि गए काम से। काम-भोग का प्रलोभन अत्यंत विनाशकारी है। और इसलिए एक भिक्खु को अपनी संघाटी का खास ख्याल रखना होता है।

हमारे यहाँ भिक्खु दो तरह के हैं। एक वे हैं जो गृहस्थी से दूर हैं और दूसरे, जिन्हें गृहस्थी छूटे नहीं छूटती। जो गृहस्थी से दूर हैं, उनके लिए उक्त तीसरा सील भयावह है। चूँकि, भिक्खु समाज में ही रहते हैं, इसलिए इस सील के भंग होने का खतरा बना रहता है। अपने ग्रन्थ विशुद्धिमग्ग में बौद्धाचार्य बुद्धघोस कहते हैं- सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञो, चित्तं पञ्ञं च भावयं । आतापि निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जटं(भाग- 1: सील निर्देश) । चीवर सोच-समझ कर ही धारण करें। और एक बार धारण कर लिया तो फिर,  'पतिट्ठाय नरो सपञ्ञो' अर्थात दृढ़ता से उस पर स्थित हो तभी वह इस जटा को सुलझा सकता है ।

मुझे फक्र है कि बालाघाट मेरी जन्म-भूमि है । बालाघाट, धम्म के मामले में बाबासाहब के मुव्हमेंट के समय से ही अग्रज रहा है, पथ-प्रदर्शक रहा है। बालाघाट में कभी भंते अनोमदस्सी हुआ करते थे। वे एक कड़क धम्मधारी और कर्मठ भंते के रूप में जाने जाते थे। धम्म की व्याख्या वे जिस तरह करते थे, मैं नतमस्तक था। लोगों को उनसे अपेक्षा थी। किन्तु अफ़सोस कि उन्होंने चीवर उतार दिया।  ठीक भी है, आप अगर सील की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं तो बेहतर है, चीवर उतार दीजिए । उनके प्रशंसक अभी भी उनके पास जाते हैं, किन्तु वे अदब से उन्हें टा टा कर देते हैं।

अभी कुछ ही दिनों पहले, टीवी चेनलों पर प्रसारित खबर में बुद्धगया स्थित एक भिक्खु को यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार करते हुए दिखाया गया। यह खबर डरावनी है। चाहे जिस देश की यह धर्मशाला हो, अपराध हिला देने वाला है। यह दिलासा कतई पर्याप्त नहीं है कि ऐसा ही कोई आरोप कुछ दिनों पूर्व किसी जैन मुनि पर लगा था। यह बुद्ध की भूमि है। यहाँ बाबासाहब की कर्म-भूमि है। और इसलिए अन्य बुद्धिस्ट देशों की तुलना में हमारी महती जिम्मेदारी है कि हमारी आस्था हर हालत में प्रश्नांकित न हो ।