Thursday, December 26, 2019

सच्ची और सीधी बात

एक दलित नेता से, जिन्होंने कुछ ही दिनों पूर्व बीजेपी ज्वाईन की थी, हमने कहा- "आपसे यह अपेक्षा नहीं थी. आपने सभी दलित संघटनों में एकता स्थापित करने के लिए अखिल भारतीय परिसंघ बनाया है. आप उच्च पदाधिकारी रह चुके हैं. बौद्ध धर्मान्तरण के बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित कर चुके हैं, राष्ट्रिय-अन्तराष्ट्रीय स्तर पर आपकी ख्याति है और आपने इस सब पर पानी फेरते हुए बीजेपी ज्वाईन कर ली ? आपको शर्म आनी चाहिए ?" वे बोले- "सर, परिसंघ और धम्म का कार्य करने पैसा भी तो लगता है ? आप लोग कितना चंदा देते है ?"

धम्मदेसना-थम्भो, एरई (दतिया)

धम्मदेसना-थम्भो, एरई (दतिया)

अस्स थम्भस्स निम्माणं एकस्सा इतिहासप्पसिद्धाय घटनाय पतीकत्तेन कारितं वत्तति। अयं हि गामो एरई डा. आनन्दस्स पितुगामो विज्जति। तस्स बाल्यकालो एतम्हि गामे येव वीतिनामितो। पितुम्हा आवुस्मा जागनसीहस्मा मातुया च उपासिकाय हरबो बाई तो 01 नवम्बर, 1965 तमे काले जातस्स आनन्दस्स पितरा साधारणा कम्मन्तिका आसुं। तेहि अच्चन्तं परिस्समेन स्वस्स पुत्तस्स अज्झयनं कारितं। तस्स पाथमिकी मज्झमिकी च सिक्खा एतस्मिं येव गामे सम्पन्ना। अग्गिमाय सिक्खाय सो दतियाजिलामुख्यालये पेसितो अभवि। यम्हा सो 1985 तमे वस्से पी.एम.टी. परीक्खं उत्तीण्णं अकरि। 1990 तमे वस्से मेडिकल कॉलेज रीवा (मज्झप्पदेस) तो  एम.बी.बी.एस. अथ च 1994 तमे वस्से नेत्ततिकिच्छाविञ्ञाणे एम.एस. ति उपाधयो पापुणि।
सो संकप्पं अकरि यं ‘नाहं विवाहं करिस्सामि, न च मे नाम्ना काचि सम्पत्ति वा भविस्सतीति।’ ततो सो सम्पुण्णे देसस्मिं निद्धनानं बालानं सिक्खाय परिवत्तनविज्झालये उग्घाटितवा। ततो सो 08 जुलाई, 2017 तमे दिनांके  सामणेरो सञ्जातो तथा च 05 नवम्बर,  2017 तमे दिनांके धम्मदेसनं दातुं पठमवारं स्वीये पितुग्गामे समागतो, यत्थ समत्था गामवासिनो तस्स सोस्साहं अभिनन्दनं करिंसु। एतस्सेव पतीकरूपेण समत्था गामवासिनो सिक्खामिसनस्स समप्पितेहि च करियकत्तारेहि अञ्ञमञ्ञं मिलित्वा जनसहकारभावनाय अस्स धम्मदेसनाथम्भस्स (कमसंख्या-1 इच्चस्स) निम्माणं कारापितं, यस्स 19 अप्पिल, 2020 तमे दिनांके उग्घाटनं  अभवि।
तेहि संकप्पितं यं यत्थ यत्थ एतादिसा धम्म-देसनायो आयोजिता भविस्सन्ति, पच्चेकं ठाने एतादिसानं धम्मदेसनाथम्भानं निम्माणं कारापितं भविस्सतीति।

इस स्तम्भ का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना के उपलक्ष्य में कराया गया। यह गाँव एरई डा. आनन्द का पैतृक-गाँव है। उनका बचपन इसी गाँव में बीता। पिता आयुष्मान् जागन सिंह एवं माता आयुष्मति हरबो बाई से 01 नवम्बर, 1965 को जन्मे आनन्द के माता-पिता बेहद साधारण मजदूर थे। बड़ी मेहनत करके उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाया। उनकी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा भी इसी गाँव में हुई। आगे की पढ़ाई के लिये उन्हें दतिया जिला मुख्यालय भेज दिया। जहाँ से उन्होंने सन् 1985 में पी.एम.टी. की परीक्षा पास की। सन् 1990 में मेडिकल कॉलेज रीवा (म.प्र.) से एम.बी.बी.एस. तथा सन् 1994 में नेत्रा चिकित्सा विज्ञान में एम. एस. की उपाधियाँ प्राप्त कीं।
उन्होंने संकल्प लिया था कि ‘न मैं शादी करूँगा और न मेरे नाम कोई सम्पत्ति होगी।’ फिर उन्होंने पूरे देश में गरीब बच्चों के लिए परिवर्तन मिशन स्कूल खोलें। 08 जुलाई, 2017 को वे श्रामणेर बने तथा 05 नवम्बर,  2017 को धम्मदेसना हेतु प्रथम बार अपने पैतृक गाँव पहुँचे, जहाँ समस्त ग्रामवासियों ने उनका बड़े उत्साह से अभिनन्दन किया। इसी उपलक्ष्य में समस्त ग्रामवासियों एवं शिक्षा मिशन के समर्पित कार्यकर्ताओं ने आपसी सहयोग से इस ‘धम्मदेसना स्तम्भ क्रमांक-1’ का निर्माण कराया। जिसका 19 अप्रैल, 2020 को उद्घाटन किया गया।
उन्होंने संकल्प लिया कि जहाँ-जहाँ इस तरह की धम्म-देसनाएँ होंगी, हर जगह इसी तरह के ‘धम्मदेसना स्तम्भों’ का निर्माण कराया जायेगा।

Wednesday, December 25, 2019

मायावती सरकार की उपलब्धियां


बसपा सरकार ने उत्तर प्रदेश के विकास के लिए किये गये योगदान (2007-2012)
1) 88
हजार बी टी सी शिक्षकों की भर्ती की गयी |
2) 41
हज़ार कांस्टेबल की भर्ती हुई |
3) "
कांशीराम शहरी आवास योजना" के तहत एक लाख एक हज़ार लोगों को आवास मिले |
4)
जिला गौतम बुद्ध नगर में "गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय" की स्थापना की गयी |
5)108848
सफाईकर्मियों की भर्ती की गयी |
6)
बुंदेलखंड में आई टी पॉलिटेक्निक की स्थापना की गयी |
7)
महामाया तकनीकी विश्वविद्यालय गौतम बुद्ध नगर में स्थापित हुआ |
8)
गरीब बस्तियों में 2000 सामुदायिक केंद्र खोले गए ।
9)
प्रदेश के 20 जिलो में अम्बेडकर पी जी छात्रावास की स्थापना की गयी |
10)
पंचशील बालक इंटर कॉलेज नॉएडा में खुला |
11)महामाया बालिका इंटर कॉलेज गौतम बुद्ध नगर में स्थापित हुआ |
12) डॉ भीमराव आंबेडकर मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल , नॉएडा
13) मान्यवर कांशीराम जी यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी , बाँदा
14) मान्यवर कांशीराम गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज , गाज़ियाबाद
15)
कांशीराम मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल , नॉएडा
16)
नॉएडा एक्सप्रेसवे का निर्माण हुआ |
17 )
गंगा एक्सप्रेसवे का निर्माण हुआ |
18)
यमुना एक्सप्रेसवे का निर्माण हुआ |
19)
महामाया फ्लाईओवर का नॉएडा में निर्माण हुआ ।
20) 2195
गाँव में 3332 km की सड़को का निर्माण हुआ।
21)
मान्यवर श्री कांशीराम जी उर्दू अरबी फ़ारसी यूनिवर्सिटी , लखनऊ
22)
जौनपुर,
गाजियाबाद , कांशीरामनगर,कुशीनगर, बिजनौर, कन्नौज, फर्रुखाबाद ,मैनपुरी ,श्रावस्ती में राजकीय महाविद्यालय खोले गए
| 23)
आतंकवाद से निपटने के लिए एटीएस(ATS) का गठन 2007 में किया गया था
24)
लखनऊ जिला कारागार , आदर्श कारागार एवं नारी बंदी निकेतन का लोकार्पण मोहनलालगंज-गोसाईगंज मार्ग पर किया गया ।
25)
कांशीरामजी राजकीय मेडिकल कॉलेज , सहारनपुर
26)
मान्यवर श्री कांशीराम यूपी इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी ,लखनऊ
27)
नगवा , वाराणसी में संत रविदास घाट का निर्माण
28)
कन्नौज ,,बागपत , महाराजगंज , कौशाम्बी , बलरामपुर , सोनभद्र में जिला कारागार का निर्माण हुआ ।
29)
मान्यवर कांशीराम जी इंस्टिट्यूट ऑफ़ पैरामेडिकल साइंसेज , झाँसी
30) 5
नए मेडिकल कॉलेज उरई ,कन्नौज ,आजमगढ़ ,बाँदा
31) सावित्रीबाई फुले गर्ल्स हॉस्टल , कानपुर
32) एससी ,एस टी गर्ल्स के लिए हॉस्टल का निर्माण हुआ , नॉएडा
33) भारत का पहला फार्मूला वन रेसिंग ट्रैक "बुद्धा इन्टर्नेशनल सर्किट" बनाया गया ।
34) मान्यवर श्री कांशीराम मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल , लखनऊ
35)
मान्यवर श्री कांशीराम इंटरनेशनल कन्वेंशन सेण्टर का निर्माण हुआ ।
36)
मान्यवर श्री कांशीराम मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल , ग्रेटर नॉएडा
37)
डॉ शकुंतला मिश्रा उत्तर प्रदेश विकलांग विश्वविद्यालय ,लखनऊ
38)
वृद्ध कल्याण नीति के अंतर्गत 60 वर्ष के ऊपर सभी बी पी एल व्यक्तियों को वृद्धावस्था पेंशन दिया गया ।
39) "
सावित्री बाई फुले बालिका शिक्षा मदद योजना" के अंतर्गत बी पी एल परिवारों की बालिकाओं को आर्थिक सहायता तथा साइकिल प्रदान की गयी ।
40)
वृद्ध महिलाओं के लिए प्रत्येक मंडल स्तर पर महिला भरण पोषण की दर 1800 से बढाकर 3600 रूपये वार्षिक की गयी ।
41) बेरोजगारों के लाभ हेतु कौशाम्बी , कन्नौज , औरैया , चित्रकूट , श्रावस्ती , बलरामपुर , संत कबीरनगर , ज्योतिबा फुले नगर , चंदौली तथा बागपत में रजिस्ट्रेशन सेंटर स्थापित किये गए ।
42) नवनिर्मित जनपद मान्यवर कांशीराम नगर में एम्प्लॉयमेंट ऑफिस स्थापित किया गया ।
43)
मत्स्य प्रशिक्षण केंद्र लखनऊ में स्थापित
44)
प्रदेश में 60 जनपदों के परिवहन कार्यालय इंटरनेट की सुविधा से जोड़े जा चुके हैं ।
45)
गोरखपुर तथा अलीगढ में होमियोपैथीक मेडिकल कॉलेज स्थापित किये गए ।
46) 153
नए राजकीय होमियोपैथी चिकित्सालयो की स्थापना ।
47) 1052
विकलांगो को उचित दर की दुकाने आवंटित की गयी ।
48 )
कन्नौज , बागपत , महाराजगंज , कौशाम्बी , बलरामपुर व सोनभद्र में जिला कारागारों का निर्माण हुआ ।
49 )
होमगार्ड स्वयंसेवको को दुर्घटना बीमा राशि 2 लाख से बढाकर 3 लाख की गयी ।
50 )
आशा योजना पूरे प्रदेश में लागू है । इस योजना के तहत 2007-10 तक 1,36,183 महिलाओं को उनके स्वास्थ्य के लिए इसका लाभ मिला |

स्कूल-कालेजों मे पालि पढ़ाये जाने बाबद; शासन से मांग-पत्र

मांग-पत्र


सेवा में
आदरणीय कमलनाथ जी
माननीय मुख्यमन्त्री महोदय
मध्यप्रदेश शासन, भोपाल

विषय-  स्कूल-कालेजों में उ. प्र., बिहार, महाराष्ट्र आदि राज्यों की तरह संस्कृत के साथ पालि पढ़ाने  एवं पालि भाषा के संवर्धन हेतु  ‘मध्यप्रदेश पालि संस्थान’ की स्थापना बाबद।

महोदय!
पालि भाषा भारत-वर्ष की अत्यन्त पुरातन और अतीव महत्त्वपूर्ण भाषा है। इस देश की संस्कृति, इतिहास और दर्शन पालि-भाषा से पूर्णतः प्रभावित और अभिसिंचित हैं। भारत-वर्ष के प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि इस देश में पुरातन काल में पालि-भाषा एक ‘जनभाषा’ थी। समाज के सभी वर्गों के लोग इस भाषा के माध्यम से अपने विचारों तथा सांस्कृतिक-विरासत का आदान-प्रदान किया करते थे। इसी भाषा को तथागत भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों की माध्यम-भाषा बनाया, ताकि समाज के सभी वर्गों के लोग उनकी शिक्षा को समझ सके तथा तदनुसार उन्हें ग्रहण कर आचरण में उतार सके। एक समय ऐसा भी था कि जनभाषा होने तथा लोकप्रियता के कारण यह भाषा ‘राष्ट्र-भाषा’ का गौरव प्राप्त किये हुए थी। फिर समय बदला और धीरे-धीरे इस भाषा का देश से विलोप ही हो गया, किन्तु पड़ौसी देशों ने इसे बड़ा ही सम्भाल कर रखा तथा इसका संवर्धन भी किया। आज से लगभग 110 वर्ष पूर्व भारत के महान् मनीषियों एवं विद्वानों के माध्यम से इसका भारत में पुनरागमन हुआ है तथा आज अनेक विश्वविद्यालयों में इसके स्वतन्त्रा विभाग संचालित हो रहे हैं।
यद्यपि पालि भाषा का समाज में आज अधिक प्रचलन नहीं हो पाया है। आज नागरिक पालि के विषय में अधिक नहीं जानते हैं, किन्तु भारतीय भाषाओं में पालि भाषा के शब्द तथा धातुएँ बड़ी संख्या में प्राप्त होते हैं। विलुप्त होने के बावजूद पालि भाषा की सुगन्ध को यहाँ की विभिन्न भाषाओं (मराठी, भोजपुरी, हिन्दी, उड़िया, तेलुगु, गुजराती इत्यादि) में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यूरोप तथा एशिया महाद्वीप सहित विश्व के अनेक देशों में पालि-भाषा का समाज में अत्यन्त सम्मानजनक स्थान है। अनेक देशों में पालि-भाषा के अध्ययन-अध्यापन की अच्छी व्यवस्था है। पालि के अध्ययन-अध्यापन के लिए वहां स्वतन्त्रा विश्वविद्यालय तक हैं। भारत में पालि की स्थिति अच्छी नहीं है।
यहाँ समाज का एक बड़ा वर्ग (बौद्ध-जनसमुदाय) आज पालि-भाषा के माध्यम से अपने संस्कार करता आ रहा है। बौद्धों में परित्त-पाठ मूलतः पालि में ही सम्पन्न किया जाता है। लेकिन इसके बावजूद पालि के संवर्धन, अनुसन्धान और प्रचार-प्रसार हेतु कार्य करने वाली एक भी शासकीय संस्था पूरे देश में नहीं है। समाज का प्रबुद्ध वर्ग पालि के प्रचार-प्रसार के लिए थोड़ा प्रयासरत भी दिखाई दे रहा है; किन्तु यह अपर्याप्त ही है। हाँ, विपस्सना के प्रचार के साथ धीरे-धीरे समाज में पालि के प्रति जागरुकता बढ़ रही है तथा लोग पालि को पाठ्यक्रम में शामिल कराते हुए अपने बच्चों को इसका अध्यापन कराने के इच्छुक हैं, क्योंकि समस्त पालि साहित्य में नैतिक-शिक्षा, शील-सदाचार और शुद्ध-धर्म का स्वरूप ही विद्यमान है। यदि बच्चों को पालि पढ़ाना शुरु कर दिया जाये, तो आने वाली पीढ़ी शील-सदाचार और चारित्रिक दृष्टि से अधिक बलवती होगी। वहीं, मध्य प्रदेश एक बहु-सांस्कृतिक तथा विविधता से परिपूर्ण प्रदेश है। यहाँ इस भाषा तथा संस्कृति से सम्बद्ध अनेक पुरातात्विक-धरोहरें भी हैं। मध्यप्रदेश के उज्जैन में बौद्ध-धर्म की अनेक धरोहरें मौजूद हैं। साँची सम्पूर्ण विश्व में यहाँ के बौद्ध-स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है। भरहुत की बौद्ध कला के विषय में कौन नहीं जानता। मध्यप्रदेश की बाघ की गुफाएँ भी विश्व-प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार अनेक स्थान हैं; जो बौद्ध-कला, स्थापत्य और इससे सम्बद्ध हैं। मध्यप्रदेश किसी समय कला और शिक्षा का बड़ा केन्द्र रह चुका है। भगवान् बुद्ध की शिक्षा का मध्यप्रदेश की धरा से पूरे विश्व में शान्ति स्थापना के लिए सन्देश सम्प्रेरित किया गया।
अतः मध्यप्रदेश में पालि भाषा के संवर्धन, अनुसन्धान, अध्ययन-अध्यापन और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से स्कूल-कालेजों में पालि पढ़ने-पढ़ाने की सुविधा देना आवश्यक है वहीं, राज्य की राजधानी भोपाल में ‘मध्यप्रदेश पालि संस्थान’ की स्थापना परम आवश्यक है। अनेक देशों के नागरिक श्रद्धापूर्वक मध्यप्रदेश की पावन धरा में स्थित धम्म-स्थलों के दर्शन और अनुसन्धान हेतु आते हैं। इस कारण ‘मध्यप्रदेश पालि संस्थान’ के माध्यम से पालि को वास्तविक रूप में वैश्विक-प्रसार प्राप्त होगा तथा अन्तर्राष्ट्रीय रोजगार की दृष्टि से भी यह अतीव लाभदायक सिद्ध होगा। पालि भाषा के विकास से अवश्य ही मध्यप्रदेश को विश्व के मानचित्र में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होगा। ‘मध्यप्रदेश पालि संस्थान’ की स्थापना के पश्चात् यह भी आवश्यक है कि यह संस्था वास्तविक रूप में पालि के विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार की दृष्टि से कार्य करें। इस हेतु इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विभागों, प्रभागों तथा केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिए, जिससे भारत का प्राचीन इतिहास पुनर्जीवित हो सकेगा ।
अतः निवेदन है कि  तत्सम्बंध में आवश्यक कार्रवाई कर, की गई कार्रवाही से अवगत कराने का कष्ट करें। धन्यवाद।

दिनाँक

निवेदक
दी इंस्टीट्यूट ऑफ़ पालि स्टडीज एंड ट्रेनिंग
(IPST) कोर ग्रुप, भोपाल: म. प्र.

हस्ताक्षर
संस्था का नाम और पता
------------------------------ -----------------------------------------------------------------
निवेदक- IPST (दी इन्सटीट्यूट ऑफ पालि स्टडीज एण्ड ट्रेनिंग कोर ग्रुप)
भोपाल
पत्र व्यवहार- अ. ला. उके
डी. 05 डूप्लेक्स : फारचुन सोम्या हेरिटेज
मिसरोदः होशंगाबाद रोड़ः भोपाल
मोब. 9630826117

   
संलग्नक-
1. ‘मध्यप्रदेश पालि संस्थान’ द्वारा पालि-भाषा के प्रचार-प्रसार, अनुसन्धान और संवर्धन के लिए करणीय कार्यों की प्रस्ताविका (16 पृष्ठ)
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सेवा में
आदरणीय भूपेश बघेलजी
माननीय मुख्यमन्त्राी महोदय,
छत्तीसगढ़ (रायपुर)

विषय- स्कूल-कालेजों में महाराष्ट्र आदि राज्यों की तरह संस्कृत के साथ पालि भाषा पढ़ाये जाने एवं पालि भाषा की उन्नति के लिए ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ की स्थापना बाबद।

महोदय!
पालि भाषा भारत-वर्ष की अत्यन्त पुरातन और अतीव महत्त्वपूर्ण भाषा है। इस देश की संस्कृति, इतिहास और दर्शन पालि-भाषा से पूर्णतः प्रभावित और अभिसिंचित हैं। भारत-वर्ष के प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि इस देश में पुरातन काल में पालि-भाषा एक ‘जनभाषा’ थी। समाज के सभी वर्गों के लोग इस भाषा के माध्यम से अपने विचारों तथा सांस्कृतिक-विरासत का आदान-प्रदान किया करते थे। इसी भाषा को तथागत भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों की माध्यम-भाषा बनाया, ताकि समाज के सभी वर्गों के लोग उनकी शिक्षा को समझ सके तथा तदनुसार उन्हें ग्रहण कर आचरण में उतार सके। एक समय ऐसा भी था कि जनभाषा होने तथा लोकप्रियता के कारण यह भाषा ‘राष्ट्र-भाषा’ का गौरव प्राप्त किये हुए थी। फिर समय बदला और धीरे-धीरे इस भाषा का देश से विलोप ही हो गया, किन्तु पड़ौसी देशों ने इसे बड़ा ही सम्भाल कर रखा तथा इसका संवर्धन भी किया। आज से लगभग 110 वर्ष पूर्व भारत के महान् मनीषियों एवं विद्वानों के माध्यम से इसका भारत में पुनरागमन हुआ है तथा आज अनेक विश्वविद्यालयों में इसके स्वतन्त्रा विभाग संचालित हो रहे हैं।
यद्यपि पालि भाषा का समाज में आज अधिक प्रचलन नहीं हो पाया है। आज नागरिक पालि के विषय में अधिक नहीं जानते हैं, किन्तु भारतीय भाषाओं में पालि भाषा के शब्द तथा धातुएँ बड़ी संख्या में प्राप्त होते हैं। विलुप्त होने के बावजूद पालि भाषा की सुगन्ध को यहाँ की विभिन्न भाषाओं (मराठी, भोजपुरी, हिन्दी, उड़िया, तेलुगु, गुजराती इत्यादि) में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यूरोप तथा एशिया महाद्वीप सहित विश्व के अनेक देशों में पालि-भाषा का समाज में अत्यन्त सम्मानजनक स्थान है। अनेक देशों में पालि-भाषा के अध्ययन-अध्यापन की अच्छी व्यवस्था है। पालि के अध्ययन-अध्यापन के लिए वहां स्वतन्त्रा विश्वविद्यालय तक हैं। भारत में पालि की स्थिति अच्छी नहीं है।
यहाँ समाज का एक बड़ा वर्ग (बौद्ध-जनसमुदाय) आज पालि-भाषा के माध्यम से अपने संस्कार करता आ रहा है। बौद्धों में परित्त-पाठ मूलतः पालि में ही सम्पन्न किया जाता है। लेकिन इसके बावजूद पालि के संवर्धन, अनुसन्धान और प्रचार-प्रसार हेतु कार्य करने वाली एक भी शासकीय संस्था पूरे देश में नहीं है। समाज का प्रबुद्ध वर्ग पालि के प्रचार-प्रसार के लिए थोड़ा प्रयासरत भी दिखाई दे रहा है; किन्तु यह अपर्याप्त ही है। हाँ, विपस्सना के प्रचार के साथ धीरे-धीरे समाज में पालि के प्रति जागरुकता बढ़ रही है तथा लोग पालि को पाठ्यक्रम में शामिल कराते हुए अपने बच्चों को इसका अध्यापन कराने के इच्छुक हैं, क्योंकि समस्त पालि साहित्य में नैतिक-शिक्षा, शील-सदाचार और शुद्ध-धर्म का स्वरूप ही विद्यमान है। यदि बच्चों को पालि पढ़ाना शुरु कर दिया जाये, तो आने वाली पीढ़ी शील-सदाचार और चारित्रिक दृष्टि से अधिक बलवती होगी। वहीं, छत्तीसगढ़ एक बहु-सांस्कृतिक तथा विविधता से परिपूर्ण प्रदेश है। यहाँ इस भाषा तथा संस्कृति से सम्बद्ध अनेक पुरातात्विक-धरोहरें भी हैं। छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में बौद्ध-धर्म की अनेक धरोहरें मौजूद हैं। सिरपुर सम्पूर्ण विश्व में यहाँ के बौद्ध-स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है। मल्हार(बिलासपुर) में प्राप्त 7 से 12 वीं सदी का बौद्धकालीन इतिहास अपनी समृद्धता की दास्तान स्वयं कहता है। इसी प्रकार का साक्ष्य पुरातात्विक खनन से प्राप्त भोंगपाल(बस्तर) का बौद्धकालीन इतिहास देता है। दुर्ग की प्रज्ञागिरी पहाड़ी पर स्थित 30 फुट उंची बुद्ध प्रतिमा शांति और करुणा का संदेश चहुं ओर प्रकाशित करती है। तिब्बति बौद्ध परम्परा का केन्द्र बना मेनपाट; आदि अनेक स्थान हैं, जो बौद्ध-कला, स्थापत्य और इससे सम्बद्ध हैं। जैसे कि सिरपुर साक्षी है, छत्तीसगढ़ किसी समय कला और शिक्षा का बड़ा केन्द्र रह चुका है। भगवान बुद्ध की शिक्षा का छत्तीसगढ़ की धरा से पूरे विश्व में शान्ति स्थापना के लिए सन्देश सम्प्रेरित किया गया।
अतः छत्तीसगढ़ में पालि भाषा के संवर्धन, अनुसन्धान, अध्ययन-अध्यापन और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से स्कूल-कालेजों में पालि पढ़ने-पढ़ाने की सुविधा देना आवश्यक है वहीं, राज्य की राजधानी रायपुर अथवा प्राचीन बुद्धिस्ट स्थल सिरपुर में ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ की स्थापना परम आवश्यक है। अनेक देशों के नागरिक श्रद्धापूर्वक छत्तीसगढ़ की पावन धरा में स्थित धम्म-स्थलों के दर्शन और अनुसन्धान हेतु आते हैं। इस कारण ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ के माध्यम से पालि को वास्तविक रूप में वैश्विक-प्रसार प्राप्त होगा तथा अन्तर्राष्ट्रीय रोजगार की दृष्टि से भी यह अतीव लाभदायक सिद्ध होगा। पालि भाषा के विकास से अवश्य ही छत्तीगढ़ को विश्व के मानचित्रा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होगा। ‘छत्तीसगढ़ पालि प्रतिष्ठान’ की स्थापना के पश्चात् यह भी आवश्यक है कि यह संस्था वास्तविक रूप में पालि के विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार की दृष्टि से कार्य करें। इस हेतु इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विभागों, प्रभागों तथा केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिए, जिससे भारत का प्राचीन इतिहास पुनर्जीवित हो सकेगा ।
  तत्सम्बन्ध में अनुरूप कार्रवाई की अपेक्षा में। धन्यवाद।

दिनाँक
   हस्ताक्षर

नाम व पता-
मोब. न.-
सम्बन्धित संस्था का नाम-

Saturday, December 21, 2019

धम्मलिपि न कि ब्राह्मीलिपि : अतुल भोसेकर

धम्मलिपि न कि ब्राह्मीलिपि
भारतामध्ये लिखाणाचा इतिहासाची सुरुवात होते ती सम्राट अशोकाच्या शिलालेखांपासून. त्याआधीच्या कुठल्याही लिखाणाचा पुरावा सापडत नाही. काही हरप्पन seals सापडले आहेत मात्र त्यावरची अक्षरे किंवा चित्रे यांच्या बद्दल अजूनही एकमत होत नाही. 
1836 साली जेम्स प्रिंसेप यांनी अशोकाच्या शिलालेखांचे सर्वात पहिल्यांदा लिप्यांतरण केले व त्यातील पालि प्राकृत भाषेच्या शिलालेखांचे सर्वात पहिल्यांदा वाचन झाले. या लिपीला काय म्हणावे हा प्रश्न प्रिन्सेपला देखील पडला होता, मात्र कुठल्याही पुराव्या अभावी त्याने या शिलालेखांच्या लिपिला Indic Script हे नाव दिले. कालांतराने जेव्हा त्याची खात्री झाली कि हे सर्व शिलालेख सम्राट अशोकाने लिहिले आहे त्यावेळेस त्याने या लिपिला Ashokan Script देखील म्हटले आहे.
पुढे Terrien de Lacouperie याने अशोकाच्या लिपिला "ब्राह्मी" हे नाव दिले. (काहीजण याला "ब्राम्ही" असे म्हणतात). त्याचा आधार होता "ललितविस्तार" या बौद्ध महायानी ग्रंथाचा आणि "समवायांगसूत्र" या जैन ग्रंथांचा. हे दोन्हीही ग्रंथ लिहिले आहेत अंदाजे इ.स. चवथ्या ते सहाव्या शतकात. या ग्रंथांचा आधार घेत Lacouperie लिहितात कि डावीकडून उजवीकडे लिहिली जाणारी ब्राह्मी लिपि आहे तर उजवीकडून डावीकडे लिहिली जाणारी खरोष्ठी लिपि आहे. हे असे का या प्रश्नाचे उत्तर Lacouperie ने दिले नाही किंवा नंतरच्या अभ्यासकांनी ते दिले नाही. (आणि ते देऊ शकणार नाही याची खात्री आहे!) अशोककालीन लिपिला Lacouperie ने आणि इतरांनी ब्राह्मी का म्हटले याची काही कारणे अशी आहेत -
1. जैन धर्माची अशी समजूत आहे कि भगवान ऋषभदेवाने त्यांच्या मुलीला (जिचे नाव बंभी होते), तिला शिकवताना ज्या लिपीचा उपयोग केला त्या लिपिला मुलीच्या नावावरून " बंभी" हे नाव दिले. याला कुठलाही पुरावा नाही.
2. 13व्या शतकात जन्मलेल्या सायनाचार्य (ज्यांनी निश्चितच आधीचे बौद्ध आणि जैन ग्रंथ वाचले असणार) लिहितात - "ब्राह्मी: ब्राह्मणप्रेरितः यही महत्य: ऋतस्य यज्ञस्य मातरः निर्मात्र्य: स्तुतय:" ब्राह्मणांनी उच्चरलेली आणि स्तुतींमध्ये प्रशंसेसाठी वापरलेली लिपि म्हणजेच ब्राह्मी लिपि होय. याचा आधार म्हणजे नारदस्मृती मध्ये उल्लेख केल्याप्रमाणे ब्रह्मदेवाने निर्माण केलेली लिपि म्हणजे ब्राह्मीलिपी होय.
3. Lacouperie चे म्हणणे बुह्लेर आणि इतर संशोधकांनी लगेच उचलून धरले (त्याला वेगळी कारणे आहेत ...ती नंतर केव्हा तरी).
४. प्रा. विश्वभरशरण पाठक या अर्वाचीन संस्कृततज्ञाने ऋग्वेद मध्ये आलेला "ब्रह्मी" शब्द हा वैदिक काळातील असून, अशोकाची लिपि ही वैदिक काळातील "ब्रह्मी" आहे आणि म्हणून तिला "ब्राह्मी" लिपि म्हणावे असे लिहिले आहे. म्हणजेच ब्राह्मी लिपि हिचे अस्तित्व वैदिक काळापासून आहे असे त्यांचे म्हणणे. (हे वैदिक ग्रंथ पहिल्यांदा केव्हा लिहिले गेले हा प्रश्न विचारायचा नाही!!!)
5. लगेचच "इथल्या" संशोधकांनी भारताच्या या प्राचीन लिपिला "ब्राह्मी" हे नाव देऊन मोकळे झाले ज्याची री पाश्चात्य (पुरस्कृत) संशोधकांनी ओढली.
आता काही facts -
1. ज्या जेम्स प्रिन्सेप ने ही अशोककालीन लिपि शोधून काढली त्याने कधीही या लिपीला ब्राह्मी म्हणून संबोधले नाही. उलट जेव्हा त्याच्या कार्यालयातील ब्राह्मणांनी त्याला हे नाव सुचविले तेव्हा त्याने पुराव्या अभावी धुडकावून लावले व त्याच्या प्रत्येक लिखाणात Indic script किंवा Ashokan script हे शब्द वापरले.
2. मुळातच ललितविस्तर किंवा समवायांगसूत्रात लिहिलेली ब्राह्मी व खरोष्ठी लिपि या अशोकालीन लिपीच आहेत याचे कुठलेही पुरावे Lacouperie ने दिलेला नाही. बरं, या दोन लिपि सोडून या ग्रंथामध्ये नवे टाकलेली इतर लिपि कोणत्या आणि त्याचे पुरावे काय तर हे महाशय आपले गप्प!
3. रिचर्ड सालोमन या प्रसिद्ध लिपीतज्ञाने "Indian Epigraphy" या ग्रंथात लिहिले आहे कि - .....it should be kept in mind that we do not know precisely what form or derivative of the script the authors of the early script lists were referring to as Brahmi nor whether this term was actually applied to the script used in the time of Ashok".
4. अशोकाने लिहिलेले काही शिलालेखांचे अंश आपण पाहू यात -
"इयं धंमलिपि देवानांप्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता.....", "यदा अयं धंमलिपि लिखिता.....", "एताये आठाये इयं धंमलिपि लेखिता.......", "अथाय अयं धंमलिपि लेखापिता किं च........", "अयं धंमलिपि देवानांप्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता........" - हे सर्व शिलालेख गिरनार येथील आहे.
"अयं च लिपि तिसनखतेन सोतविया......", "एताये आठाये इयं धंमलिपि लेखित....." - हे दोन्ही शिलालेख धौली येथील आहेत.
"इयं च लिपि आनुचातुंमासं सोतविया तिसेन......." - हा शिलालेख जौगड येथील आहे.
"हेदिसा च इका लिपि तुफाकंतिकं हुवाति संसलनसि निखिता इकं च लिपिं हेदिसमेव उपासकानंतिकं निखिपाथ......." - हा सारनाथ येथील लघुस्तंभ शिलालेख आहे.
"सडुवीसतिवस अभिसितेन मे इयं धंमलिपि लेखापिता......", "इयं धंमलिबि अत अथी सिलाथंभानि वा सिलाफलकानि वा तत कटाविया एन एस चिल ठीतिके सिया......" - हे शिलालेख टोपरा येथील स्तंभावर आहेत.
असे आणखी बरेच शिलालेख, स्तंभलेख अशोकाने आमच्यासाठी लिहून ठेवले आहेत. वरील शिलालेखाच्या काही उदाहरणावरून लक्षात येते कि यात "लिपि" आणि "लेखापिता" किंवा "लेखिता" हे शब्द वापरले आहेत. म्हणजेच अक्षर किंवा वाक्य किंवा लेख लिहिण्यासाठी अशोकाने "धम्मलिपी" चा उपयोग केला आहे. काही "स्वयंघोषित लिपितज्ञ" म्हणतात कि अशोकाच्या वाक्याचा अर्थ असा होतो कि ...हा "धम्मलेख" देवांचा प्रिय असलेल्या राजाने लिहिला आहे" म्हणजे त्यांना असे म्हणायचे आहे कि धम्मलिपी म्हणजे धम्मलेख! पण जर अशोकाला धम्मलिपी म्हणजेच धम्मलेख असे सुचवायचे होते तर त्याने स्पष्टपणे लिहिले असते कि "इयं धम्मलेख ......लेखापिता". त्याला मग धम्मलिपी लिहिण्याचे काही कारणच नव्हते! नाहीतरी लेख हा शब्द अशोकाला माहित होताच ना? दोन्ही ठिकाणी "लेख" लिहिला असतं तर काम झाले असते!
पण सम्राट अशोकाने "धम्मलिपि" हा शब्द लिहिला कारण त्याकाळी ज्या काही लिपि अस्तित्वात होत्या, त्यातली "धम्मलिपि" ही दगडावर लिहिण्यास अतिशय योग्य असावी आणि म्हणूनच अशोकाने या लिपित हे सर्व शिलालेख लिहिले. दुसरे महत्त्वाचे कारण म्हणजे त्याच्या राज्यातील सर्व लोकांना ही "धम्मलिपि" वाचता येत असावी अन्यथा अशोकाने सर्व राज्यभर वेगवेगळ्या लिपीत हे सारे लेख लिहिले असते. तिसरे महत्त्वाचे व्याकरणिक कारण म्हणजे लिपि आणि लेख या दोन्हीही शब्दाचे धातू वेगवेगळे आहेत. लिपि हा शब्द "लिप" धातूपासून तयार होतो तर लेख हा शब्द "लिख" धातूपासून तयार होतो. हे दोन्हीही शब्द अर्थाने आणि सूचकतेने वेगवेगळे आहेत. लिप म्हणजे लिहिणे आणि लेख म्हणजे जे लिहिले आहे ते. भाषा आणि लिपि यावर भाष्य करताना थोडा व्याकरणाचा देखील अभ्यास हवा!!!
सम्राट अशोकाच्या "धम्मलिपि" ला नाकारण्याचे मुख्य कारण म्हणजे येथील भाषातज्ञांना वा लिपीतज्ञांना सम्राट अशोकाच्या "धम्मलिपि" शब्दाबद्दल असलेली allergy! द्वेषमूलक मानसिकतेने पछाडलेले हे लोकं सम्राट अशोकला कुठलेच credit द्यायला तयार नाहीत. म्हणून तर "सहा सोनेरी पाने" मध्ये शुंगाचा जयजयकार आहे पण अशोकाचे नाव देखील नाही!
भारतात आजमितीस 2.5 कोटी हस्तलिखिते (भूर्जपत्रे, ताडपत्रे, कातडीपत्रे, इत्यादी), ताम्रपत्रे, शिलालेख, स्तंभलेख, प्रस्तरलेख, खापरा वरचे लेख, लाकडावरचे लेख, कापडीलेख,.... documented आहेत. माझ्या पाहणीत एकाही वरील माध्यमात "ब्राह्मी" हा शब्द लिपि साठी वापरण्यात आलेला नाही. विशेष म्हणजे अगदी कुटील लिपि, सिद्धमात्रिका लिपि, शारदा लिपि, देवनागरी लिपि अशी नावे अनेक हस्तलिखितांमध्ये येतात पण "ब्राह्मी" मात्र येत नाही! का? जर "ब्राह्मी" एवढी प्राचीन व पूजनीय आहे तर सम्राट अशोकानंतरच्या राजांनी का बरे तिचा उल्लेख केला नाही? जे बौद्ध आणि जैन ग्रंथांचा उल्लेख करतात, ते हे विसरतात कि हे ग्रंथ इ.स. चवथ्या शतका नंतर लिहिलेले आहेत आणि त्यात अनेक काल्पनिक मांडणी देखील आहे. आज उपलब्ध असलेल्या कुठल्याही ग्रंथापेक्षा अशोकाचे शिलालेख हे सर्वात प्राचीन आणि म्हणूनच विश्वसनिय आहेत. सम्राट अशोका नंतर आलेल्या राजांच्या काळात या धम्मलिपिच्या लिखाणात कालौघात फरक पडला आणि त्यांच्यातील फरक व्यवस्थित अभ्यास करता यावा म्हणून अभ्यासकांनी त्या त्या काळातील शिलालेखांना त्या त्या राज्यकाळाचे नाव दिले. उदा. शुंग लिपि, कुषाण लिपि, गुप्त लिपि....या सर्व लिपि सम्राट अशोकाच्या "धम्मलिपि" तूनच तयार झाल्या आहेत हे लक्षात घेतले पाहिजे. एका महाशयांनी खारवेलच्या शिलालेखाचा उल्लेख केला आहे. या शिलालेखात दुसऱ्या ओळीत लिहिले आहे कि या राजाने बालपणाच्या पंधरा वर्षात लेख, गणन, रुप्य व्यवहार, सामाजिक आणि धार्मिक न्याय शिकला होता. यात लेख म्हणजे लेखन कला, लिपि नव्हे!
आज भारतातील एकही भाषा संशोधक किंवा लिपीतज्ञ "ब्राह्मी" लिपि बद्दल योग्य उत्तर किंवा पुरावा देऊ शकत नाही, शकणार नाही.... मात्र तरीही ते ब्राह्मी लिपीच म्हणणार कारण ती त्यांची मानसिकता आहे. ब्रह्म किंवा धर्माशी जोडलेल्या शब्दाला ते नकार कसा देणार? मात्र जे अर्ध्या हळकुंडाने पिवळे झाले आहेत व जे "काही झालं तरी आम्ही या लिपिला ब्राह्मीच म्हणणार" असे जे म्हणतात त्यांच्या मनात सम्राट अशोका बद्दल किती अभिमान आहे हे दिसतेच आहे.... बाकी ज्यांना वरील मुद्दे पटत असतील, त्यांनी भारताच्या या प्राचीन लिपिला - सम्राट अशोकाने दिलेले नाव "धम्मलिपि" म्हणावे व त्याचा तसा प्रसार करावा. लेख: अतुल भोसेकर मोब. 09545277410

B Shyamsundar(1908- 1975)

B. Shyam Sunder founder of Bheem Sena was born on 21st dec. 1908 in an untouchable community in Jalna, dist. Aurangabad Ms. His father was B. Manikyam. Shyamsunder obtained his degree in political science and economics and Law from Osmnia University. As a student leader he was elected as a Senate member to Osmania University. He founded Hyderabad Young Men's Association, he was elected as the President of the Literary Society and he was also elected as president , student wing of the Depressed Classes Association. He was the Andhra Pradesh Swadeshi Leage General Secretary. He was the first and foremost to raise a banner of militant revolt against the Hindu Caste System in the entire Hederabad dominion. He founded Hyderabad Depressed Classes Association for the enlistment of oppressed, suppressed and depressed class people of the caste-based society. He launched a relentless crusade war against the caste system to liberate untouchables from the yoke of unsociability.
He was elected to Hyderabad Legislative Assembly and also served as Deputy Speaker. Shyamsunder was popularly known as Qaid-e-Azam of Fasth-e-kahome in the Nizam State and his entrance in the public life is a red-letter day in the history of supressed, oppressed and depressed class movement in the Nizam State. He founded BheemSena on 29 th April 1968 (name after Bheemrao Ambedkar) in Gulbarga. Like Periyar he was a fiery orator with excellent command over Marathi Urdu Hindi English and Kannad. He became dyputy speaker of the Hyderabad Assembly and was five years a member of the Karnataka Vidhan Sabha. He was jailed many times for his intemperate speeches.
He was also as the Chairman of an educational trust started by Nizam government known as "one Crore Rupee Educational Trust Fund in 1932 for educational needs and care of Untouchables. He supported Babasaheb Ambedkar for founding 'Peoples Education Society' by managing to provide Rs. 12 Lakhs from Trust of Nizam Govt. and also for land in Aurangabad for educational institution.
ShyamSunder was the first post independent India's untouchable leader who spoke at the United Nation's Security Council in sept 1948 about the practice of untouchability and the plight of untouchables. But on his return to India, he was kept under house arrest at Poona for nine months and later he was freed. This was the time when Indian Army attacked Hyderabad on 13 sept. 1948 and Nizam surrendered on 17 sept. 1948. He was the pioneer of Dalit - Muslim Unity. He was remained unmarried for fighting the cause of oppressed, suppressed and depressed people. He was perfect Buddhist disciple led a bachelors life, spent whatever he had for the cause of upliftment of untouchables. Slept where ever his people made arrangement and eat without mincing a word. He attained parinirvan on Buddha(Waishakh) Purnima on 19 th may 1975 at Hyderabad in his Sister's resident.
We all salute to this proficient dedicated committed warrior who fought for suffering people throughout his whole life.

Monday, December 16, 2019

सुलगन

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'सुलगन'
वरिष्ठ साहित्यकार कैलाश वानखेड़े की सद्य प्रकाशित, बहु चर्चित कहानी संग्रह 'सुलगन' पर साहित्यिक परिचर्चा प्रोफ़ेसर डॉ हेमलता महिश्वर जामिया मिल्लिया इस्लामिया दिल्ली के मार्गदर्शन में दि. 15 दिस. 2019 को 'भोपाल साहित्य मंच' के तत्वाधान में हिंदी भवन भोपाल में संपन्न हुई.
Image may contain: 3 people, indoorआद. कैलाश वानखेड़े द्वारा सुलगन की एक कहानी का संक्षिप्त पाठ कर परिचर्चा का आरंभ हुआ. प्रो. हेमलता महिश्वर द्वारा पाठ की गई कहानी के साथ सुलगन की सभी कहानियों की समीक्षा की गई. इसके साथ ही आपने कैलाश वानखेड़े के व्यक्तित्व और कृतित्व से साहित्य-प्रेमियों को रूबरू कराया. मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार पंकज सुबीर और परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ गजल और साहित्यकार जहीर कुरेशी साहब द्वारा भी कैलाश वानखेड़े की कहानियों पर समीक्षात्मक वक्तव्य/आलेख दिए/पढ़े गए. रचनाकारों और पाठक के बीच संवाद के तहत तत्सम्बंध में उठते प्रश्नों का वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा समाधान किया गया. कार्यक्रम का सञ्चालन वरिष्ठ साहित्यकार और धम्मलिपि पर शोधरत मोतीलाल आलमचंद्र द्वारा बेहद सुन्दर तरीके से किया गया.
Image may contain: Kailash Wankhede, sittingसाहित्यकार का लक्ष्य समाज होता है. साहित्य का अर्थ परिवर्तन है. साहित्य में रचना है, तो समाज में भी संरचना है. साहित्य, समाज के लिए होता है. सामाजिक परिवर्तन उसका हेतु है. सामाजिक जड़ता को खंगालता साहित्य परिवर्तन चाहता है. समाज याने जीवन. जीवन अर्थात जीवंतता; मानवीय मूल्यों की जीवन्तता. इसका ध्वज-वाहक साहित्यकार के अलावा कौन हो सकता है ?
जिस प्रकार साहित्य, समाज के लिए होता है, ठीक उसी प्रकार साहित्यकार भी समाज के जीता है, मरता है. उसका हर क्षण, उसके लहू के हर कतरे में मानवीय मूल्यों का स्पंदन होता है. समाज के पास उस स्पंदन को महसूस करने की तमीज होनी ही चाहिए. यह परिचर्चा इसी के लिए थी.


Thursday, December 12, 2019

IIPT(The International Institute of Pali studies & Training)

Image may contain: one or more people, people sitting, table and indoorIIPT(The International Institute of Pali studies & Training)
Core group meeting: 15 Dec. 2019. Hindi Bhawan Bhopal
पारित प्रस्ताव-
Image may contain: 2 people, people sitting and indoorउपस्थित कोर ग्रुप सदस्य- आद. लखनलालजी, मोतीलाल आलमचंद्र, मिलिन्द बौद्ध, सुनिल बोरसे, राजेन्द्र मेश्राम, अनिल गोलाईत, दिलीप मोरे, ज्योति धराड़े, डॉ. राहुल सिंग दिल्ली, अ. ला. ऊके, बी. सी. सहारे,
Image may contain: one or more people, people sitting and indoor1. धम्मलिपि और पालि भाषा के अध्ययन-अध्यापन और प्रचार, प्रसार के लिए संस्थागत ढांचा अर्थात पाली विश्वविद्यालय की स्थापना साँची/ भोपाल में हो. इसकी शुरुआत महा-विद्यालय/कालेज स्थापित कर की जा सकती है.
2. प्रारम्भिक धन( seed money) संस्था के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स शेयर करें. इसके बाद शासन और जनता से मदद ली जाये.
3. महा-विद्यालय/कालेज में धम्मलिपि और पालि के विद्यार्थियों की संभावित आवश्यकता के मद्देनजर बुद्धविहारों में अथवा प्राईवेट कोचिंग क्लासेस के द्वारा बच्चों को पालि पढाने के कार्य में गति लाकर इसे विस्तार दिया जाये.

Tuesday, December 10, 2019

देश के 40 बुद्धिजीवियों की रिट याचिका

देश के 40 बुद्धिजीवियों की रिट याचिका
बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर विवाद पर देश के 40 बुद्धिजीवियों ने सुप्रीम कोर्ट में फिर से न्याय की गुहार लगाई हैं. बीजेपी की सांठ-गाठ के विरुद्ध खुल कर उतरना एक बड़ी बात है. 'देशद्रोही' का तमगा तो उन पर पहले से है, 'पाकिस्तान जाने का रास्ता' भी खुला है. अब इससे अधिक और क्या हो सकता है ? किन्तु इससे यह साबित तो होता है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग बाकायदा जिन्दा हैं !

Monday, December 9, 2019

'स्तन कर'

नंगेली का नाम केरल के बाहर शायद किसी ने न सुना हो. किसी स्कूल के इतिहास की किताब में उनका ज़िक्र या कोई तस्वीर भी नहीं मिलेगी.
लेकिन उनके साहस की मिसाल ऐसी है कि एक बार जानने पर कभी नहीं भूलेंगे, क्योंकि नंगेली ने स्तन ढकने के अधिकार के लिए अपने ही स्तन काट दिए थे.Image may contain: 2 people, people standing and outdoor
केरल के इतिहास के पन्नों में छिपी ये लगभग सौ से डेढ़ सौ साल पुरानी कहानी उस समय की है जब केरल के बड़े भाग में ब्राह्मण त्रावणकोर के राजा का शासन था.
जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उनके स्तन न ढकने का आदेश था. उल्लंघन करने पर उन्हें 'ब्रेस्ट टैक्स' यानी 'स्तन कर' देना पड़ता था.
केरल के श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय में जेंडर इकॉलॉजी और दलित स्टडीज़ की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. शीबा केएम बताती हैं कि ये वो समय था जब पहनावे के कायदे ऐसे थे कि एक व्यक्ति को देखते ही उसकी जाति की पहचान की जा सकती थी ।
डॉ. शीबा कहती हैं, "ब्रेस्ट टैक्स का मक़सद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था. ये एक तरह से एक औरत के निचली जाति से होने की कीमत थी. इस कर को बार-बार अदा कर पाना इन ग़रीब समुदायों के लिए मुमकिन नहीं था."
केरल के हिंदुओं में जाति के ढांचे में नायर जाति को शूद्र माना जाता था जिनसे निचले स्तर पर एड़वा और फिर दलित समुदायों को रखा जाता था ।
"कर मांगने आए अधिकारी ने जब नंगेली की बात को नहीं माना तो नंगेली ने अपने स्तन ख़ुद काटकर उसके सामने रख दिए."
लेकिन इस साहस के बाद ख़ून ज़्यादा बहने से नंगेली की मौत हो गई. बताया जाता है कि नंगेली के दाह संस्कार के दौरान उनके पति ने भी अग्नि में कूदकर अपनी जान दे दी ।
"उन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि सारी औरतों के लिए ये कदम उठाया था"
नंगेली आपकी अमर गाथा लिखी जाएगी सुनहरे अक्षरो मे मनुवाद और ब्राह्मणवाद का यह ऐसा कर्कश दृश्य था कि एक औरत को उसकी जाती के आधार पर उसके स्तन तक को न ढकने दिया हो । सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते है ।
*Note- ये कुप्रथा महान टीपूँ सुल्तान ने बंध करवाई थी।*

Tuesday, December 3, 2019

पहला बच्चा भिक्खु-संघ को-

पहला बच्चा भिक्खु-संघ को-
जब तक हम, अपना पहला बच्चा भिक्खु-संघ को दान नहीं करेंगे, धम-प्रचार की सारी बातें बेमानी है. जो पारिवारिक कारणों-वश घर से भाग कर चीवर धारण करते हैं, उनसे निस्वार्थ धम्म-प्रचार की आशा नहीं की जा सकती. अगर दूसरे बुद्धिस्ट देशों में छोटे-छोटे बच्चें सामणेर बनते हैं तो हमारे देश में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ?
भिक्खु-संघ से हम धम्म-प्रचार की अपेक्षा करते हैं. यह आदर्श ठीक है परन्तु, व्यवहारिक नहीं. या तो धम्म-प्रचार के लिए हम, भिक्खु-संघ की ओर देखना बंद कर दें या फिर, हर घर से कम-से कम एक बच्चा, चाहे लड़का हो या लड़की, संघ को दें.
प्रायोगिक रूप से इसके लिए, प्रत्येक बच्चा एक निश्चित अवधि के लिए सामणेर/ सामणेरा के रूप में धम्म का अध्ययन/संघ सेवा करें, ऐसी व्यवस्था भी बनाई जा सकती है. बौद्ध-पद्यति से विवाह के इच्छुक वर-वधु के लिए बुद्दिस्ट सोसायटी ऑफ़ इंडिया जैसी धार्मिक नियामक संस्थाओं द्वारा इस तरह के नियम 'बुद्धिस्ट आचार-संहिता' में जोड़े जा सकते हैं. जिस प्रकार वर-वधु के लिए श्वेत वस्त्र धारण करना आवश्यक है, ठीक उसी तरह निश्चित अवधि के सामणेर/ सामणेरा का सर्टिफिकेट भी आवश्यक बनाया जा सकता है.

बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर विवाद पर असंगत फैसला

बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर विवाद पर असंगत फैसला-
बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर के मुद्दे पर देश के सर्वोच्च न्यायलय के पांच जजों की बेंच के द्वारा दिया गया निर्णय असंवैधानिक, प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध और हिन्दू बहुसंख्यकों की आस्था से प्रभावित दिया गया फैसला है. हम, इस फैसले को अपनी पूरी शक्ति के साथ अस्वीकार करते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले, न सिर्फ सत्य और असत्य का निर्णय करते हैं, वरन, भविष्य में व्यक्तिगत अथवा जन-सामान्य से सम्बंधित मुद्दों/ विवादों पर न्यायालयीन विमर्श के लिए एक नजीर पेश करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सीधे-सीधे एक पक्षीय और देश में रहने वाले बुद्धिस्ट, मुस्लिम, कृश्चियन, सिक्ख आदि धार्मिक सम्प्रदायों के बीच विधि व्दारा स्थापित न्याय-प्रणाली/व्यवस्था के प्रति आशंका और अविश्वास पैदा करता है.
यह ठीक है कि न्यायालय के फैसलों की आलोचना होती रही है और होना भी चाहिए. यह स्वस्थ लोकतंत्र को मजबूत ही करता है. किन्तु सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला इसलिए भी निंदनीय है क्योंकि यह ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों को दर-किनार कर दिया गया फैसला है. यह बौद्धों के उस दावे को भी ख़ारिज करता है जो ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों से स्वयं-सिद्ध है !
प्रश्न यह भी है कि बहुसंख्यक हितों की आस्था के मद्दे-नजर दिया गया यह निर्णय, क्या क्या दीर्घ-कालीन समाधान कारक है ? क्या इससे उर्जा प्राप्त कर हिंदूवादी संस्थाएं आगे उन विवादस्पद धार्मिक मुद्दों को नहीं उठाएंगे, जो समय-समय पर उठाती रही हैं ? क्या यह एक 'वन टाइम सेटल-मेंट है ? जैसे कि पीएम नरेंद्र मोदी और श्री श्री रविशंकर वगैरे हिन्दू संत/मठाधीश निर्णय आने के कुछ ही दिनों पूर्व पैरवी कर रहे थे ?
और अगर, आस्था से ही निर्णय होना है तो विवाद कोर्ट में क्यों जाय ? धर्म-मठाधीश ही निर्णय कर लें ?

Friday, November 29, 2019

शासन और 'न्याय व्यवस्था' का भद्दा मजाक-

शासन और 'न्याय व्यवस्था' का भद्दा मजाक-
अजित पंवार पर 20-25 मामलों के सम्बन्ध में जांच बैठाना, फिर उनके सपोर्ट वाली चिट्ठी पर सरकार बनाना, उन्हें उप-मुख्य मंत्री का पद देना और मंत्री-पद की शपथ लेते ही उनके विरुद्ध 'कोई सबूत नहीं' कह सारे मामलें बंद कर देना; क्या यह शासन और 'न्याय व्यवस्था' का भद्दा मजाक नहीं है ?

पालि को जन-भाषा बनाने की कार्य-योजना-

पालि को जन-भाषा बनाने की कार्य-योजना- 
सीखने की क्षमता बच्चों में सर्वाधिक होती है. बच्चों को पालि पढ़ा कर कुछ ही वर्षों में इसे 'जन-भाषा' बनाया जा सकता है.
1- सामाजिक उत्थान में कार्य-रत  कुछ समाज-सेवी स्थान-स्थान पर कोचिंग क्लासेस चलाते रहते हैं. इसमें पालि भाषा एक अतिरिक्त विषय के रूप में पढ़ायी जा सकती है.
2. प्रत्येक रविवार को विभिन्न स्थानों पर स्थित बुद्ध विहारों में आस-पास में रहने वाले बच्चों को एकत्र कर एक घंटे की कोचिंग क्लास लगायी जा सकती है.
प्रो. प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे सक्षम अधिकारी द्वारा  वर्ग- 1 से वर्ग 5  तक की कक्षाओं के लिए रंग-बिरंगी सुन्दर पुस्तकें तैयार हैं. संस्कृत से अत्यंत सरल होने के कारण प्रारंभिक तौर पर पालि पढ़ाने किसी दक्षता की आवश्यकता नहीं है. सामान्य हिन्दी/संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षक भी पालि पढ़ा सकते हैं. स्मरण रहे, प्रो. गढ़पाल बीच-बीच में इस सम्बन्ध में 10 से 15 दिनों के 'पालि प्रशिक्षण शिविर' आयोजित करते रहते हैं. 
पालि' सीखना आवश्यक है.
भाषा, संस्कृति का हिस्सा है. बोल-भाषा और आचार-विचारों से ही संस्कृति का निर्माण होता है. हमारा देश बहु-भाषी देश है. निस्संदेह यहाँ संस्कृतियाँ अनेक हैं. हर समाज की अपनी भाषा और संस्कृति है.
पालि का सम्बन्ध जितना ति-पिटक से हैं, उससे कहीं अधिक सम्बन्ध बुद्ध की वाणी से है. पालि, बुद्ध की भाषा है. पालि बुद्ध के वचन है. आप पालि सीख कर बुद्ध वचनों को सीखते हैं.
जिस प्रकार, समाज और संस्कृति पर्यायवाची हैं, ठीक उसी प्रकार भाषा और संस्कृति पर्याय वाची है. आप संस्कृति से भाषा को अलग नहीं कर सकते. भाषा है तो संस्कृति है और संस्कृति है तो समाज है. और इसलिए बुद्ध को नष्ट करने के लिए सर्व-प्रथम उसकी भाषा अर्थात उसके ग्रंथों को जलाया गया. महीनों नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, जगद्दल आदि बौद्ध विश्वविद्यालयों के विशाल ग्रंथालय जलते रहे.
पालि हमारी संस्कृति है, हमारी अस्मिता है. यह हमारी संस्कार-भाषा है. सारे बौद्ध संस्कार हमारे पालि में होते हैं और इसलिए, बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा पुनर्स्थापित बुद्ध और उनके धम्म को बचाए रखना है, क्योंकि, तो पालि सीखना आवश्यक है.

Thursday, November 28, 2019

महाराष्ट्राने खोदली नवपेशवाईची कबर:सुनील खोबरागडे

महाराष्ट्राने खोदली नवपेशवाईची कबर !
महाराष्ट्राचे १९ वे मुख्यमंत्री म्हणून शिवसेनेचे प्रमुख उध्दव ठाकरे यांनी शपथ घेतली आहे. शिवसेना-काँग्रेस-राष्ट्रवादी या तीन प्रमुख पक्षांच्या व अन्य लहानसहान पक्षांच्या सहभागातून स्थापन झालेल्या या महाविकास आघाडीचे हे सरकार ऐतिहासिक दृष्ट्या अत्यंत महत्वाचे आहे. मागील पाच वर्षात महाराष्ट्रात हैदोस घालणाऱ्या नवपेशवाईने महाराष्ट्रातील शुद्रातिशूद्र आणि अल्पसंख्याकांचे जिणे हराम केले होते. आज रा.स्व.संघ-भाजपच्या अभद्र मनसुब्यांना हाणून पाडुन स्थापन झालेले महाविकास आघाडीचे सरकार फडणवीस सरकारकडून पिडल्या-नाडल्या बहुजन समाजाच्या आशा-आकांक्षांना दिलासा देणारे आहे असे म्हणावे लागेल. महाराष्ट्र विधान सभेच्या निवडणुका पार पडल्यानंतर महाराष्ट्रात मागील महिनाभरात ज्या घडामोडी घडल्या त्या अविश्वसनीय वाटत असल्या तरी महाराष्ट्राच्या राजकीय आणि सामाजिक परिस्थितीला कलाटणी देणाऱ्या आहेत.
संसदीय लोकशाही व्यवस्थेत नियत कालावधीत निवडणुका होणे व त्यायोगे सत्ताबदल होणे ही काही नवीन गोष्ट नाही. मात्र शिवसेना-काँग्रेस-राष्ट्रवादी यांनी एकत्र येऊन नवीन सरकार स्थापन करणे हा केवळ साधारण राजकीय सत्ताबदल नाही. भारताच्या एकंदरीत राजकीय आणि सामाजिक स्थितीवर दीर्घकाळ परिणाम करू शकणारी ही एक क्रांतिकारक घटना आहे. शिवसेनेचा जन्म सत्तरच्या दशकात मुंबईतील समाजवादी-कम्युनिस्टांच्या नेतृत्वाखालील कामगार कष्टऱ्यांची चळवळ समाप्त करण्यासाठी झाला ही वास्तविकता आहे. यासाठी तत्कालीन कॉंग्रेस पक्षाने बाळ ठाकरे यांना बळ दिले. बाळ ठाकरे यांनी शिवसेनेची स्थापना करून कॉंग्रेस पक्षाला अपेक्षित कामगिरी पार पाडली. मात्र पुढील काळात शिवसेनेचे संस्थापक बाळ ठाकरे यांनी उघडपणे हिंदुत्व हेच भारतीयत्व ही भूमिका घेऊन महाराष्ट्रात ब्राह्मणशाही बळकट केली. आज महाराष्ट्रात रा.स्व.संघ-भाजपला जी समाजमान्यता लाभली आणि ब्राह्मणी उन्मत्तपणा बळकट झाला त्यास बऱ्याच प्रमाणात बाळ ठाकरे आणि शिवसेना जबाबदार आहे हे सत्य नाकारून चालणार नाही. २०१४ मध्ये भारताचे प्रधानमंत्री म्हणून रा.स्व.संघ-भाजपचे सेवक नरेंद्र मोदी विराजमान झाले. तेव्हापासून रा.स्व.संघ-भाजपने भारताच्या राजकीय पटलाची, संवैधानिक बांधणीची, सामाजिक सौहार्द्राची मागील पाऊण शतकात विणली गेलेली विण उसवून टाकण्याचा आततायी प्रयत्न चालविला होता. या प्रयत्नाला ज्यांची साथसोबत होती अशा प्रमुख पक्षांपैकी महाराष्ट्रातील शिवसेना हा एक पक्ष होता. मागील पाच वर्षात महाराष्ट्रात देवेंद्र फडणवीस यांच्या नेतृत्वात रा.स्व. संघाने पेशवाईचे पुनरुज्जीवन केले होते त्यात शिवसेना बरोबरीने सहभागी होती. पुढेही शिवसेना शेंडी-जाणव्याच्या अघोरी पाशातून मुक्त होणार नाही आणि ब्राह्मणशाही मजबूत करण्याच्या कृत्यात सर्वार्थाने सामील राहणार असेच वाटत होते. या स्थितीत भाजपचा चौखूर उधळलेला वारू रोखण्याचे आणि नवपेशवाई उलथुन टाकण्याचे सामर्थ्य कोणातही नाही अशी समाजधारणा तयार झाली होती. अशा परिस्थितीत महाराष्ट्रात शरद पवार नावाच्या एका ऐंशी वर्षाच्या वयोवृद्ध योद्ध्याने रा.स्व.संघ-भाजपला दाती तृण धरावयास लावून नव पेशवाई उलथुन टाकली आहे. शिवसेना आजवर बहुजन समाजातील आपल्या समर्थकांच्या खांद्यावर रा.स्व.संघाचा ब्राम्हणवाद पेलत राहिली आहे. तो खांदा शरद पवारांच्या मार्गदर्शनाखाली, उध्दव ठाकरेंनी काढून टाकला आहे. यामुळे मराठा,कुणबी,आगरी,कोळी,माळी यासारख्या शूद्र-ओबीसी,हिंदू दलित यांच्या ओठा-पोटात भिनलेला रा.स्व.संघ प्रणीत ब्राम्हणवाद या पुरोगामी राज्याच्या मानगुटीवरुन भिरकावल्या गेला आहे. एका अर्थाने महाराष्ट्रात प्रस्थापित झालेल्या नव पेशवाईची कबर पेशवाईचे जन्मस्थान असलेल्या महाराष्ट्रातच खोदली गेली आहे.याचे सर्व श्रेय शरद पवारांचे आहे. शिवसेनेला ब्राह्मणी पाशातून मुक्त करून प्रबोधनकार ठाकरेंचा वारसा पुनरुज्जीवित करण्याची आशा शरद पवारांनी जागृत केली आहे. या अर्थाने महाराष्ट्राने केलेली ही नवक्रांती आहे. या नवक्रांतीचे आम्ही अंतःकरण पूर्वक स्वागत करतो. महाराष्ट्रातील तमाम परिवर्तनवाद्यांनी या क्रांतीचे स्वागत केले पाहिजे अशी अपेक्षा बाळगतो.
सुनील खोबरागडे
संपादक दैनिक जनतेचा महानायक
मुंबई

Tuesday, November 26, 2019

औपचारिकता-

औपचारिकता-
"सर, मैं यहाँ बैठ जाऊं ?"
ट्रेन में, खाली जगह देख औपचारिकता-वश मैंने पूछ लिया.
"आगे बढ़ जाओ, पूरी ट्रेन खाली है."
तभी एक तिलकधारी पंडितजी आएं और बिना किसी की ओर देखे 'जय श्री राम' का जयघोष कर बैठ गए
शायद, औपचारिकता निभाना अशिष्टता थी !

Sunday, November 24, 2019

परिवर्तन के आसार

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मत
परेशां हों
लोग,
जानेंगे, समझेंगे

यकीन करो
कल
और आज में
बहुत अंतर है
लोग
समझ रहे हैं
आ रहे हैं
अपने इतिहास को
जान रहे हैं

पढ़ रहे हैं
बच्चों को
पढ़ा रहें हैं
व्यर्थ नहीं है, बाबा
"शिक्षित बनों"
तेरा मन्त्र.

और फिर,
इसके बिना
रास्ता भी तो
नहीं
दूसरा ?

Friday, November 22, 2019

डर


बुद्ध !
मंदिर में
जब कोई
तुझे पूजता है
तो मुझे डर
नहीं लगता

किसी
चौराहे पर
भी
तेरी मूर्ति
स्थापित कर
पूजता है
तो मुझे  डर
नहीं लगता

किन्तु
जब
कोई गोडसे
तुझे पूजता है
तो मैं
सिहर उठता हूँ
तेरी  मैत्री
और
करुणा
से 

Monday, October 21, 2019

विभत्ति पयोगा(1)

विभत्ति पयोगा
अथ विभित्ति पच्चया दीपियन्ते।

कत्ता(कर्ता)/पठमा कारक-
पठमात्थमत्ते
1. कर्ता के अर्थ में। यथा-
दारको पठति। लड़का पढ़ता है।
बुद्धो देसेति। बुद्ध धम्मोपदेश करते हैं।
बालको गच्छति। बालक जाता है।
कञ्ञा पठति। कन्या पढ़ती है।
सो राजा अहोसि। वह राजा हुआ करता था।
एसो दारको होति। यह लड़का होता है।

कम्मे दुतिया-
1. कर्म में अर्थ में-
दारको पोथकं पठति। लड़का पुस्तक पढ़ता है।
सुदो ओदनं पचति। रसोइया भोजन पकाता है।

2. समय में-
सामणेरो मासं विनयं पठति।
सामणेर महिना भर विनय पढ़ता है।
गेहो दिवसं सुञ्ञो तिट्ठति। घर दिन भर सुना रहता है।
सो इध तेमासं वसि। वह यहां तीन महीने रहा।
द्वी‘हं अतिक्कतं। दो दिन व्यतीत हो गए।

3. दूरी में-
वणिजो कोसं गच्छति। बनिया कोस भर जाता है।
कोसं पब्बतो। कोस भर पहाड़ है।
कोसं पच्चन्तं गामा। कोस भर सीमान्त गांव है।
योजनं दीघो पब्बतो। पर्वत एक योजन लम्बा है।
कोसं कुटिला नदी। नदी कोसं भर टेढ़ी-मेढ़ी है।

4. गत्यात्मक क्रियाओं के साथ-
सो गामं गच्छति। वह गावं जाता है।

5. क्रिया-विशेषण रूप में-
राजा सुखं वसति।
राजा सुख से रहता है।
पुञ्ञाकारी सुखं सुपति।
पुन्यकारी सुख से सोता है।
पापकारी दुखं सेति।
पापकारी दुक्खपूर्वक जीता है।

Wednesday, October 16, 2019

रसोई घरं

रसोई घरे किं किं अत्थि, किं किं नत्थि।
रसोई घर में क्या क्या है, क्या-क्या नहीं है?
कटच्छु(कड़छी) अत्थि, दब्बी(चमच) अत्थि।
कटाहो(कढाई) अत्थि, तेल-कुप्पी अत्थि।
छूरिका(चाक़ू) अत्थि, कत्तरिका(कैची) अत्थि।
आकड्ढको(संसी/चिमटा) अत्थि, थालिका(थाली) अत्थि।
जलं अत्थि, नळं अत्थि।
चसको(कप/गिलास) अत्थि, ‘काफी’ अत्थि।
कुम्भो(घड़ा) अत्थि, उदचनं(बाल्टी) अत्थि।
पत्तं(पात्र) अत्थि, जल-भाजनं(लोटा) अत्थि, 
ओदनं(भात) अत्थि, रोटिका अत्थि।
वेल्लनी अत्थि, ‘पाटा’ अत्थि।
गाजरं अत्थि, कक्कारी(ककड़ी) अत्थि।
कण्डोलिका(टोकरी) अत्थि, साकानि अत्थि।
‘गेस’ अत्थि, चुल्ली(चूल्हा) अत्थि।
तण्डुलं(चांवल) अत्थि, सिद्धत्थकं (सरसों के दाने)अत्थि।
कप्पलको(फ्राइंग पेन) अत्थि, तेज-पण्णं(तेज पान) अत्थि।
लसुणं अत्थि, अद्दकं अत्थि।
धानियं अत्थि, मेथिकं अत्थि।
तेलं अत्थि, लोणं(नमक)अत्थि।
हळिद्दं अत्थि, मरिचं(मिर्च)अत्थि।