Wednesday, October 31, 2018

डबल स्टेंडर्ड

डबल स्टेंडर्ड
'स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी' के नाम पर सरदार वल्लभ भाई पटेल की विशालत्तम मूर्ति प्रधानमंत्री मोदीजी जब देश को लोकार्पित करते हैं, तब प्रिंट मीडिया कवरेज से अख़बारों के पन्ने रंग देता है, टीवी चेनल्स दिन-रात तत्संबंधी 'ग्राऊंड रिपोर्ट' प्रसारित करते हैं, किन्तु बहन मायावती जब अम्बेडकर और कांसीराम पार्क बनाती है तब यही मीडिया सरकारी पैसे की बर्बादी का रोना रोते हुए छाती पिटती है. क्या यह डबल स्टेंडर्ड नहीं है ?

गृह त्याग के पूर्व सिद्धार्थ गोतम की मन-स्थिति

परम्परागत मान्यता है कि सिद्धार्थ गोतम ने एक बूढ़े, रोगी, एक मृत तथा एक साधु को देख कर गृह-त्याग किया। यह कुत्सित और हास्यास्पद प्रचार जान-बूझ कर किया गया। यह और इस तरह के कई प्रसंग बुद्ध की जीवनी में न सिर्फ जोड़े गए वरन स्कूल-कालेजीय पाठ्यक्रमों में शामिल कर बुद्धोपदेशों  के प्रति यूवा-पीढ़ी को  भ्रमित किया गया। उद्देश्य साफ था, बुद्ध की सोच से आम जन लाभान्वित न हो । जिन अंतर्विरोधों और फन से ब्राह्मण-ग्रन्थ और दार्शनिक भरे पड़े हैं, वे चाहते हैं कि वह भ्रम बना रहे । 'अंडा और मुर्गी' के चक्कर लगाते रहे।

यदि '29 वर्ष की आयु होने तक भी सिद्धार्थ एक बूढ़े, एक रोगी और एक मृत व्यक्ति को न देखें' तो यह हास्यास्पद नहीं तो क्या है ? जिसका हेतु ही गंभीर नहीं है, उसका देशना गंभीर कैसे हो सकती है ? और इसलिए, बुद्ध के चार अरिय सत्य को उन्होंने  'निराशाजनक' घोषित कर दिया ! बोधि वृक्ष 'भूत-प्रेतों का डेरा' बन गया ! बुद्ध  'लाफिंग बुद्धा' बन गया ! 'मुंडे-मुंडे मति भिन्ने' की कहावत चरितार्थ हुई ? बुद्ध का अर्थ 'मुर्ख' बतलाया गया !

डॉ भदंत आनंद कोसल्यायान के अनुसार अट्ठकथाओं को छोड़ कर सारे ति-पिटक में इस कथानक की साक्षी नहीं है(बुद्धा एंड धम्मा: नम्र निवेदन )। अट्ठ- कथाएँ जो बुद्ध के 1000 वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्ठ कथाओं का आश्रय ग्रहण कर लिखी गई थी, में इस तरह का कथानक जान-बूझ कर कल्पित किया गया था । और अट्ठ- कथाएँ ही क्यों, दीघनिकाय सहित सारे-ति-पिटक में इस तरह के ढेरों कथानक, जो बोधिसत्व को देवताओं की इच्छानुसार तुषित लोक से च्युत होकर माता की कोख में प्रविष्ट होने('महापदान सुत्त) या तुषित लोक में जा कर माता को उपदेश देने जैसी गप्प कथाओं से भरे पड़े हैं।

जाहिर है, इन कपोल काल्पनिक कथानकों को उपनिषदों और पुराणों की तर्ज पर बुद्धचरित में, चाहे बुद्धघोस/ अश्वघोस द्वारा या आचार्य शान्तिदेव द्वारा हो, जान-बूझ कर घुसेड़ा गया ताकि दुक्ख के मूलोच्छेद के निमित्त बुद्ध द्वारा  किए गए 'उपाय-कोसल्य' की धार कुंद हो सकें, और आम जन भाग्य और भगवान के भरोसे रहने को विवश हों । यह स्थापित तथ्य है कि 'ब्राह्मणवाद' की जड़ 'भाग्य' और 'भगवान' है। जब तक ये जड़ें लोगों के दिमाग में घुसी रहेगी, चाहे जो हो, 'ब्राह्मणवाद' फलता-फूलता रहेगा।

सिद्धार्थ गोतम के गृह त्याग के पूर्व उनकी मन-स्थिति का विश्लेषण करते प्रतीत होती कुछ गाथाएँ ति-पिटक (सुत्त निपात: अट्ठ वग्ग : अत्तदंड सुत्त) उदृत करते हुए भदंत आनंद कोसल्यायान, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के मत(वाही, बुद्धा एंड धम्मा ) से अपनी सहमति प्रगट करते हैं। पहले गाथा देखें-
अत्त दंडा भयं जातं,
दण्ड धारण भयावह लगा,
जनं पस्सथ मेधगं।
लोगों का कलह(मेधगं) देखो(पस्सथ)।
संवेग कित्तयिस्सामि,
संवेग का कारण बतलाता हूँ
यथा संविजितं मया ।।1।।
जैसे मुझ में उत्पन्न हुआ ।

फंदमानं पजं दिस्वा,
देख कर फंदे में फंसते हुए(फंदमानं) प्रजा(पजं),
मच्छे अप्पोदके यथा
जैसे अल्प-जल के पोखर में(अप्पोदके) मछलियाँ
अञ्ञमञ्ञेहि व्यारुद्धे,
परस्पर(अञ्ञमञ्ञेहि) विरोध कर तड़फड़ाती है,
दिस्वा  मं भयमाविसि।।2।।
देख कर(दिस्वा) मुझे(मं) भय उत्पन्न हुआ (भयमाविसि)।

समन्तमसरो लोको,
चारों ओर असारता से(समन्तमसरो) जगत की,
दिसा सब्बा समेरिता।
जैसे सब दिशाएं कांप रही हो(समेरिता)।
इच्छं भवनमत्तमो,
और उसमें आश्रय का स्थान(भवनमत्तमो),
नाद्दसामि अनोसितं।।3।।
खोजने पर कहीं नहीं देखता मैं(ना-द्दसामि) ।

ओसाने त्वेव व्यारुद्धे,
अंत तक(ओसाने) जारी यह परस्पर कलह,
दिस्वा मे अरति अहु।
देखकर मुझे(मे) अरति हुई(अहु )
अथेत्थ सल्लं  अद्दक्खिं,
इस तरह पीड़ा(सल्ल) देख(अद्दक्खिं),
दुद्दसं ह्रदय निस्सितं।।4।।
ह्रदय विदीर्ण हुआ

भदन्तजी द्वारा उदृत उपर्युक्त गाथा के तुरंत बाद की एक और गाथा दिलचस्प है-
येन सल्लेन ओतिण्णो,
उस(येन) दुक्ख से पीड़ित(ओतिण्णो) मनुष्य,
दिसा सब्बा वि-धावति।
सब दिशाओं में भागता है
तमेव सल्लं अब्बुय्ह,
परन्तु कांटा निकलने पर(अब्बुय्ह)
न धावति निसीदति।।5।।
न भाग शांत बैठ(निसीदति) जाता है ।


क्रमश:-----
-अ  ला ऊके  मो. 9630826117     @amritlalukey.blogspot.com

  

Tuesday, October 30, 2018

सिद्धार्थ गोतम का बोधि-लाभ

सिद्धार्थ गोतम का बोधि-लाभ
यह कहना कि सिद्धार्थ को ध्यान-साधना से बोधि हुआ, बुद्ध और उनके धम्म को समझने में सम्यक दृष्टि का अभाव ही कहा जा सकता है।

आइए, पहले यह विचार करे कि सिद्धार्थ के सामने वे कौन-से प्रश्न थे, जिनसे वे जूझ रहे थे ?  वे कौन-से कारण थे, जिनके चलते उन्हें गृह त्याग करना पड़ा ?  परम्परागत मान्यता है कि एक बूढ़े, एक रोगी, एक मृत तथा एक साधु को देख कर उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया। किन्तु इस मान्यता को, जो पालि अट्ठकथाओं पर आधारित थी, जिन्हें बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद बुद्धघोस जैसे बौद्धाचार्यों ने परम्परागत सिंहल अट्ठकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पालि भाषा में लिखा था,  बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने अस्वीकार किया(नम्र निवेदन: भदन्त आनंद कौसल्यायन: बुद्ध और उनका धम्म पृ 14)।

भदन्त आनंद कौसल्यायन भी अट्ठकथा आधारित उक्त मत को कमतर आंकते हुए ति-पिटक के अंतर्गत ही सुत्तनिपात(खुद्दक निकाय) के अत्तदंड सुत्त(अठ्वग्ग ) का सन्दर्भ देते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के मत को पुष्ट करते हैं। स्मरण रहे, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने प्रो. धर्मानंद कोसंबी का समर्थन करते हुए जनता के दुक्ख के कारणों की गहराई में जाकर उन कारणों को नष्ट करने का उपाय जान कर, जनता को उसकी जानकारी करा कर दुक्ख का मूलोच्छेद करने के उद्देश्य से ही गृह त्याग किया था(वही, पृ  15-16 )।  इस स्थापना के बाद, अब हम आसानी से सिद्धार्थ गौतम की जद्दो-जहद और बोधि-लाभ को समझ सकते हैं।

क्योंकि, बूढ़े, रोगी, मृत और साधु को देख सिद्धार्थ गोतम का अभिनिष्क्रमण, उनके घर से निकलने के घटना-क्रम को न सिर्फ बड़े हलके में पेश करता है, बल्कि, बोधि-लाभ के बाद उनके द्वारा दी गए उपदेशों की धार भी कुंद करता है। क्योंकि, जिसका हेतु ही हास्यास्पद हो, विवेक-बुद्धि पर खरा न उतरता हो, उसका परिणाम भी स्वाभाविक रूप से हास्यास्पद होगा।              

यह सच है कि 'नए प्रकाश की खोज में' सिद्धार्थ गौतम भृगु ऋषि से लेकर आलार काळम और उद्दक रामपुत्त के आश्रम में रह कर ध्यान-साधना और चित्त की एकाग्रता की तमाम प्रचलित कष्ट-दायक समाधि-मार्ग का अभ्यास किया (बुद्ध और उनका धम्म पृ 105 - 109)। तदुपरांत,  यह भी सच है कि सिद्धार्थ गौतम ने सांख्य मार्ग और समाधि मार्ग के परीक्षण के साथ तपश्चर्या और आत्म-पीडन के बड़े ही उग्र रूप का छः वर्ष के लम्बे अरसे तक अभ्यास किया। तब भी उसे कोई नया-प्रकाश दिखाई नहीं दिया और संसार में जो दुक्ख की समस्या है, जिस पर उसका मन केंद्रित था, उस समस्या का कोई हल उसे दिखाई नहीं दिया(वही, पृ  111-112 )।

अब सिद्धार्थ के पास विकल्प सिर्फ चिंतन और मनन था न कि ध्यान-साधना का । निस्संदेह, सिद्धार्थ सांख्य मत से प्रभावित थे। कपिल ही एक ऐसा दार्शनिक था जिसकी शिक्षाएं सिद्धार्थ को तर्क-संगत और कुछ कुछ यथार्थ पर आश्रित जान पड़ी। उन्हें यह बात मान्य थी कि सत्य प्रमाणित होना चाहिए। यथार्थता का आधार बुद्धिवाद होना चाहिए। उन्हें यह बात मान्य थी कि किसी ईश्वर के अस्तित्व व उसके सृष्टिकर्ता होने का कोई तर्कानुकूल व यथार्थताश्रित कारण विद्मान नहीं है। उन्हें यह बात मान्य थी कि संसार में दुक्ख है। इसके आलावा कपिल की शेष शिक्षाओं की बुद्ध उपेक्षा की, क्योंकि उनका उनके लिए कोई उपयोग न था(बुद्ध और उनका धम्म,  पृ  126 )।

वेद, उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों में सिद्धार्थ गौतम को ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया जो मानव के नैतिक उत्थान में सहायक हो। उन्होंने वैदिक दर्शन को बेकार जान उसकी सम्पूर्ण रूप से अवहेलना की(वही, पृ  123 )। उपनिषदों की मुख्य स्थापना यह थी कि 'ब्रह्म'  ही सत्य है तथा 'आत्मा' और 'ब्रह्म' एक ही है। सिद्धार्थ गौतम को 'ब्रह्म' की वास्तविकता का  कोई प्रमाण नहीं मिला इसलिए उन्होंने उपनिषदों की स्थापना को अस्वीकार कर दिया।

सिद्धार्थ गौतम ने ब्राह्मणों के इस सिद्धांत का खंडन किया कि वेद अपौरुषेय है और उन पर प्रश्न चिन्ह नहीं लग सकता(वही, पृ  126 -127 )। उनकी सम्मति में कोई बात ऐसी हो ही नहीं सकती जो गलत होने की संभावना से परे हो। सिद्धार्थ गौतम  के लिए विचार-स्वातंत्र्य सर्वाधिक महत्त्व की बात थी। उन्हें इस बात का निश्चय था कि विचार स्वातंत्र्य ही सत्य को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।  वेदों की अपौरुषेयता को मान लेने का मतलब था विचार-स्वातंत्र्य को अस्वीकार कर देना (वही, पृ  129 )।

चातुर्वर्ण के नाम पर ब्राह्मणवाद ने जिस प्रकार के समाज-संगठन की कल्पना की, सिद्धार्थ गौतम को सर्वथा अप्राकृतिक लगा । वे एक खुले और स्वतन्त्र समाज के पक्षधर थे (वही, पृ  129 )। इसका उद्देश्य कमजोरों को दबाना, उनका शोषण करना तथा उन्हें सर्वथा गुलाम बनाए रखना था।

सिद्धार्थ गौतम की दृष्टि में जिस कर्म-वाद की ब्राह्मणों ने रचना की है वह विद्रोह की भावना को सर्वथा दबाने के लिए ही है। शूद्र और स्त्रियां- जिनकी मानवता को ब्राह्मणवाद ने बुरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया था, सर्वथा शक्तिहीन थी।  वह इस पद्यति के विरुद्ध जरा भी सर न उठा सकती थी।  ब्राह्मणवाद के अधीन बेचारे शूद्र स्वार्थी ब्राह्मणों, शक्तिशाली क्षत्रियों और धनी वैश्यों के एक भयानक षड्यंत्र के शिकार-मात्र बन कर रह गए। इन्हीं कारणों से सिद्धार्थ ने ब्राह्मणवाद को सद्धर्म का, जीवन के सच्चे धर्म का परम विरोधी मान कर अस्वीकार कर दिया((वही, पृ  131 )।

अपने समकालीन चाहे पुराण कस्सप, पकुध कच्चायन, मक्खलि गोसाल, अजित केसकम्बल, संजय बेलट्ठिपुत्त अथवा निगंठ नाथपुत्त: सिद्धार्थ गौतम को इन दार्शनिकों का कोई एक मत भी अच्छा नहीं लगा। उनको ऐसा लगा की ये सब ऐसे आदमियों के ही विचार थे जो या तो निराशावादी थे या असहाय थे या किसी भी भले-बुरे परिणाम की और से सर्वथा उदासीन थे।  इसलिए उन्होंने अन्यत्र ही कहीं से प्रकाश पाने की आशा रखी(वही, पृ  136 )।

अपने चिंतन-मनन की प्रक्रिया में सिद्धार्थ गौतम ने इनमे कुछ बातों को छांट कर अलग रखते हुए उन्हें सिरे से ख़ारिज किया।  वेदों को स्वयं प्रमाण मानना, आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास, पूर्वजन्म के कर्म में विश्वास को सिद्धार्थ गौतम ने सर्वथा त्याग किया। उन्होंने इस सिद्धांत का खंडन किया कि  किसी ईश्वर ने आदमी का निर्माण किया अथवा वह किसी 'ब्रह्म' के शरीर का अंश है(वही, पृ  137 -138 )।

सिद्धार्थ गौतम ने स्वीकार किया कि अच्छा या बुरा जो भी है, उसका पूर्वगामी मन है। इसलिए सबसे मुख्य बात मन को साधना है (वही, पृ  139) । क्रोध या आवेश में प्राय: अनर्थ हो जाता है, इसलिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है। शाक्य सेनापति के तेवर सिद्धार्थ के जेहन में तैर रहे थे। सिद्धार्थ चिंतन करने लगे कि वे कौन-से कारण थे कि मध्यस्थता की बात उसके गले नहीं उतरी ? सिद्धार्थ सोच रहे थे कि शक्ति का प्रयोग उचित नहीं है। इसमें  स्थायी समाधान नहीं है । चिंतन की निरंतर प्रक्रिया से गुजरते हुए सिद्धार्थ गोतम निर्णय पर पहुंचे कि अतिवाद से बचा जाना चाहिए, चाहे उसका स्वरूप  निगंठनाथ पुत्तों की शारीरिक कष्ट-साध्य पीड़ा हो या चार्वाकीय चिंतन का भौतिकवाद ।

धम्म क्या है,  का उत्तर देते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि बुद्ध का धम्म न ध्यान-साधना अथवा विपस्सना हैं और न कोई रहस्यवाद अथवा संसार से स्वार्थ-पूर्ण पलायन। बुद्ध के धम्म का एक 'सामाजिक सन्देश' है । और, यह 'सामाजिक सन्देश' ही बुद्ध की शिक्षा है। लेकिन इसे आधुनिक लेखकों ने दफना दिया(वही, पृ 241)। क्योंकि, इतिहास लिखने का एकाधिकार ब्राह्मणों के पास था। बाद में कुछ विदेशियों ने भी इतिहास लिखा किन्तु अधिकांश वही, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बताया। ब्राह्मणों ने सिलेक्टिवली बुद्ध के इतिहास को तोडा, मरोड़ा।  क्योंकि, बुद्धिज़्म, ब्राह्मणिज्म का एन्टीडोट है. यह उसके आधार भूत ढांचे पर ही वार करता है।
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Monday, October 29, 2018

करवा चौथ

'करवा चौथ'
हेयर सेलून में बैठा मैं सेविंग करा रहा था। सेविंग कर रहे युवक  को मैंने कहा-
"अमित, बालों को कलर भी कर देना ।"
"ओके सर, पर अभी कलर उतना उड़ा नहीं है ?"
"ठीक है मगर, कर देना।"
"ठीक सर, कल करवा चौथ भी तो हैं ?"
"'करवा चौथ' !"
"जी, आपको नहीं मालूम क्या ?"
"नहीं, क्या होता है ?"
"जी, यह महिलाओं का त्यौहार है। महिलाऐं, पति की दीर्घायु के लिए व्रत रखती है। - अमित ने फेस पर क्रीम लगाते हुए कहा।"
"तो क्या तुम भी व्रत रखते हो ?"
"जी, नहीं।  वह महिलाओं का काम है।  और फिर, हम लोगों को फुर्सत कहाँ यह सब करने की ? -उसने जैसे व्रतादि से खुद को अलग करते हुए सफाई दी।"
"इसका मतलब, तुम पत्नी को प्रेम नहीं करते ?"
"जी, ऐसी बात नहीं है। हम लोगों को फुर्सत ही नहीं मिलती, यह सब करने की। 'उसने फिर विषय से पल्ला झाड़ते हुए सफाई दी।"


Saturday, October 27, 2018

बावीस प्रतिज्ञाओं की प्रासंगिकता

बावीस प्रतिज्ञाओं की प्रासंगिकता

एक दिल्ली के प्रोफ़ेसर है। वे धर्म अथवा 'धम्म' के मामले में तटस्थ है। किन्तु, उनका उदबोधन, चाहे सामाजिक सरोकार हो, धार्मिक अथवा राजनैतिक,  बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं से प्रारम्भ होता है। वे बड़ी ही रोचकता से बाबासाहब की इन बावीस प्रतिज्ञाओं को सामने रखती हैं। मंच पर बैठे विद्वत-जन, फिर चाहे जिस  बैनर और डॉयस  पर आसीन हस्तियां हो, साँस रोक कर उनका विश्लेषण और विषय-सम्बद्धता परखती हैं  और आश्चर्य, कि उस विषय-सम्बद्धता को वे आगे बढ़ाती हैं।

मेरे कुछ अन्य मित्र भी हैं, जो बर्मी गुरु सत्यनारायण गोयनकाजी की  विपस्सना से जुड़े हैं।  वे 22 प्रतिज्ञाओं पर बात करना पसंद नहीं करते। उनकी चर्चाओं में ये प्रतिज्ञाएं नदारत होती हैं। विपस्सना केन्दों में इन 22 प्रतिज्ञाओं की न तो चर्चा होती है और न ही इन पर चिंतन-मनन । मुझे यह खालीपन आश्चर्य-जनक रूप से चुभता है। मैंने अपनी यह पीड़ा अपने मित्रों से शेयर की। वे बड़े अजीब-से तर्क देतें हैं।  कहीं-कहीं तो वे बाबासाहब पर ही प्रश्न खड़ा करते हैं ?  बावीस प्रतिज्ञाओं की बात छोड़िए, वे बुद्धिज़्म सम्बन्धी बाबासाहब की पैठ पर ही ऊँगली उठाते हैं ?

सनद रहे, 14 अक्टू 1956 को धम्म दीक्षा के अवसर पर बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों ये 22 प्रतिज्ञाएँ कराई थी। धर्मान्तरित बौद्ध, इन प्रतिज्ञाओं को अपने मुतिदाता के अंतिम वचन मानते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे महापरिनिर्वाण सुत्त में आनंद को दिए गए उपदेश 'अत्त दीपो भव' को बुद्ध के अनुयायी मानते हैं। जिस तरह बुद्धानुयायी, पांच शीलों को जीवन की आचार- संहिता के तौर पर ग्रहण करते हैं, ठीक उसी प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर के अनुयायी भी इन 22 प्रतिज्ञाओं को जीवन की आचार-संहिता मानते हैं।

और, यह भी सच है कि बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये प्रतिज्ञाएँ, उन सड़े-गले आदर्शों से हमें बाहर निकालती है, जो हमारी सामाजिक अवनति के लिए जिम्मेदार है, उन उच्च आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित करती है जो समता, स्वतंत्रता और बधुता का आधार है। हमारे मसीहा और मुक्तिदाता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये 22 प्रतिज्ञाएँ, हमारी पहचान है। ये हमें अ-बौद्धों से अलग करती है, हमारे चरित्र और संस्कारों को गढ़ती है।

इन 22 प्रतिज्ञाओं का महत्त्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि विवाह के अवसर पर वर-वधु को दिलाई जाने वाली पांच-पांच- प्रतिज्ञाएं, जो असमानता पर आधारित होने के कारण बदलते परिवेश में असंगत प्रतीत हो रही थी, के स्थान पर अब, वर और वधु की घर और परिवार में समान आदर और हिस्सेदारी तय करते हुए समाज के सामने, दोनों को ये बावीस प्रतिज्ञाएं कराई जाती है।

प्रारंभ में, बुद्ध के  'ऐहि भिक्खु'  कहने मात्र से ही धम्म-दीक्षा हो जाती थी। तदन्तर, तथागत के महापरिनिर्वाण के बाद  'ति-सरण और पञ्चसील' धम्म-दीक्षा का अंग बना। भदन्त धर्मानंद कोसम्बी के अनुसार, शायद,  धम्म के संस्थापक होने के कारण,  'बुद्ध की सरण'  को जोड़ा गया(भ. बुद्ध, जीवन और दर्शन) । किन्तु बाबासाहब अम्बेडकर को जब, अपने 'छ करोड़ अनुयायियों' को 'धम्म-दीक्षा' देने का वक्त आया तो उन्होंने पारम्परिक  'ति-सरण' और 'पञ्च-सील' के साथ 'बावीस प्रतिज्ञाओं' को भी उस 'धम्म-दीक्षा' कार्य-विधि में सम्मिलित किया। 'महाबोधि सोसायटी ऑफ़ इंडिया' के जनरल सेक्रेटरी डी वलिंसिंहा को लिखे पत्र में बाबासाहब अम्बेडकर ने लिखा कि भारत से बुद्धिज़्म के गायब होने की वजह यह थी कि लोग बुद्ध के साथ अन्य देवी-देवताओं को भी पूजते थे जिन्हें ब्राह्मणों ने बुद्धिज़्म के विनाश के लिए खड़े किए थे(रिवायवल ऑफ़ बुद्धिज़्म: डॉ अम्बेडकर लाइफ एंड मिशन: धंनजय कीर )।

बावीस प्रतिज्ञाएँ,  बौद्ध जगत के लिए अनोखी नहीं हैं। ये बुद्ध की देशना में अंतर्भूत है । आज से 2500 हजार वर्ष पहले, बुद्ध ने वैदिक दर्शन और उसकी व्यवस्था से खुद को अलग करते हुए इनकी नीव रखी थी। ईश्वर में अविश्वास, आत्मा में अविश्वास, आत्मा के संसरण में अविश्वास, वेदों में अविश्वास, उपनिषदो में अविश्वास, ब्राह्मणी-ग्रंथों में अविश्वास, ब्रह्म में अविश्वास, ब्रह्मा के सृष्टि कर्ता होने में अविश्वास, कर्म-पुनर्जन्म में अविश्वास, चतुर्वर्ण-व्यवस्था में अविश्वास, ऊंच-नीच के घृणा पर आधारित जाति-पांति में अविश्वास(बुद्ध और उनका धम्म: खंड- 1 भाग - 5 से 7 ), ये बावीस प्रतिज्ञाओं में ही अंतर्भूत थी

चूँकि, ये 22 प्रतिज्ञाएँ धम्म का आधार है, धम्म में अंतर्भूत हैं, यह सवाल असंगत है कि बाबासाहब ने इन्हें धम्म-दीक्षा का अनिवार्य भाग क्यों बनाया ? बुद्ध ने अपनी किसी बात को 'गुप्त' नहीं रखा। बाबासाहब अम्बेडकर ने भी अपनी किसी बात को गुप्त नहीं रखा, जैसे ब्राह्मण और आरएसएस के लोग प्राय: करते हैं। वे दंभ तो 'वशुधैव कुटुम्बकं' का करते हैं किन्तु अपने जाति-बांधवों के साथ कुत्ते-बिल्लियों से भी बदतर व्यवहार करते हैं ! 'कास्ट इन इण्डिया' से लेकर, 'एन्हिलेशन आफ कास्ट', 'हू वेयर शूद्रा' से लेकर 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' तक बाबासाहब की सारी कृतियाँ इन बावीस प्रतिज्ञाओं का आगाज करती हैं, पुष्ट करती है।

प्रथम आठ प्रतिज्ञाओं में अ-बौद्ध संस्कारों से दूर रहने की बात कही गई है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश या राम-कृष्ण अथवा गौरी-गणपति हिन्दू-देवी-देवताओं को मानना अ-बौद्ध चिंतन है। वेदों को प्रमाण मानना हो या जगत की उत्पत्ति और प्रलय की संकल्पना अथवा ईश्वर को सृष्टि-कर्ता और ब्रह्म को विश्व का मूलाधार सिद्ध करना; बुद्ध ने सिरे से ख़ारिज किया है। बुद्ध के अनुसार ईश्वराधीन धर्म कल्पनाश्रित है और इसके परिणामस्वरूप भ्रामक सोच पैदा होती है(बुद्धा एंड हिज धम्मा, खंड 1, भाग- 5 से 7 )। बुद्ध ने इसका भी खंडन किया कि ईश्वर ने आदमी का निर्माण किया है अथवा वह किसी ब्रह्म के शरीर का अंश है(तेविज्ज सुत्त:दीघ निकाय )। बुद्ध ने कहा कि विश्व विकास की प्रक्रिया की परिणति है और उसका स्वभाव सतत परिवर्तन है। चूँकि मनुष्य प्रकृति का अंग है, इसलिए निरंतर परिवर्तन मनुष्य का स्वभाव है( बुद्धा एंड हिज धम्मा: खंड- 3 : भाग- 4 )

भदंत आनंद कोसल्यायान के अनुसार, दरअसल, इसमें सृष्टि के निर्माण-पालन-संहार कर्ता अथवा किसी देवी-देवता का अपमान करने का उद्देश्य न होकर सत्य का अन्वेषण करते हुए देश के बहु-संख्यक हिन्दू समाज को तत्संबंधित अंध-श्रद्धा से मुक्त करना है। क्योंकि इस अँध-श्रद्धा का प्रभाव न चाहते हुए भी दलित-आदिवासी सहित अल्प-संख्यकों पर पड़ता ही है। और फिर, धर्मान्तरित बौद्ध ही क्यों, अ-धर्मान्तरित दलित-आदिवासी भी जो ब्राह्मणवाद के जाल में फंस कर धार्मिक उन्मांद के नशे में लिप्त हैं, उनके लिए ये बावीस प्रतिज्ञाएं जैसे उम्मीद की किरणे हैं। हिन्दू-देवी-देवताओं का उल्लेख का सीधा मतलब है, बाबासाहब इन प्रतिज्ञाओं को अंगीकार करने की परिणति का लाभ वे धर्मान्तरित बौद्धों तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। बाबासाहब जितने दलित और परिगणित जातियों के उत्थान के लिए चिंतित थे, उससे कहीं अधिक इस देश की सामाजिक एकता और सांप्रदायिक अखंडता के लिए चिंतित थे। क्योंकि, ये दोनों तत्व न सिर्फ सामाजिक-आर्थिक समृद्धता की ओर लोगों को ले जाते हैं वरन देश की अखंडता को भी मजबूत भी करते हैं ।

ब्राह्मण, जो संख्या में बहुत कम हैं, जानते हैं कि वे अधिक दिनों तक बहुसंख्यकों पर शासन नहीं कर सकते और इसलिए 'हिन्दू राष्ट्र' अथवा 'गर्व से कहो, हिन्दू है' जैसे नारे लगवा कर अपनी अल्प-संख्या को बहुसंख्या में तब्दील करते हैं । नए-नए देवी-देवताओं को रातों-रात खड़े कर धर्मान्धता का आलम पैदा करते हैं। कभी सूअर/गाय के नाम से तो कभी मंदिर/मस्जिद के नाम से आम जन को उत्तेजित करते हैं । ब्राह्मणों की इस 'चाल' का भंडाफोड़ करने बाबासाहब ने 'हू वेयर दी शूद्राज' नामक खोज-परक ग्रंथ लिखा। किन्तु देश का पिछड़ा और अन्य पिछड़ा वर्ग है कि 'गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं' के मद में बेसुध पड़ा है ! हिन्दू समाज का यह वर्ग 'श्रीरामचरित मानस' के साथ-साथ अगर इन बावीस प्रतिज्ञाओं को पढ़े तो शिक्षा और उन्नति का प्रकाश उनके घरों में भी पहुँच सकता है जैसे धर्मान्तरित बौद्धों के घरों में पहुंचा है।

प्रतिज्ञा क्र. 9 और 10 तक में समता और उसकी स्थापना के लिए सतत प्रयास की बात कही गई है। स्पष्ट रूप से ये प्रतिज्ञाएं बुद्ध के ऊंच-नीच की घृणा पर आधारित जाति-पांति और चातुर्वर्ण-व्यवस्था पर आधारित जन्मगत असमानता पर किए गए कठोर प्रहार से अनुप्रेरित हैं। देखे- दीघ निकाय का अम्बट्ठ सुत्त, लोहिच्च सुत्त, मज्झिम निकाय का मधुरिय सुत्त, कण्णत्थलक सुत्त, अस्सलायन सुत्त, ऐसुकारी सुत्त, वासेट्ठ सुत्त आदि गोया, बुद्ध के हर उपदेश में क्रांति नजर आती है, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्रांति। धार्मिक सड़ांध और सामाजिक कुरूतियों के विरुद्ध क्रांति। बुद्ध की देशना में 'शांति' तो कहीं नहीं दिखती जिसका बुद्ध को विष्णु का अवतार बताने वाले, प्रचार करते हैं। मुझे इनकी इस 'शांति' में किसी साजिश की बू आती है।

3 अक्टू 1954 को आकाशवाणी पर दिए अपने उदबोधन में बाबासाहब अम्बेडकर ने कहा था कि भारत के संविधान की उद्देशिका में समता, स्वतंत्रता, और बंधुता पर आधारित राजकीय ध्येय के आदर्श का प्रतिपादन किया गया है, किन्तु इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के सामाजिक आचार विचार इन आदर्शों को अस्वीकार करते हैं। बाबासाहब कहते हैं कि जब तक समाज में यह अंतर-विरोध जारी रहेगा, सामाजिक समता दु;स्वप्न ही होगी। निस्संदेह, ये प्रतिज्ञाएं धर्मान्तरि बौद्धों के लिए अनुकरणीय कदम है। चूँकि बाबासाहब के स्वप्नों का भारत बनाने की जिम्मेदारी इन्हीं के कन्धों पर हैं इसलिए यह उन्हीं का दायित्व है कि वे इस दिशा में समाज और देश का पथ-प्रदर्शन करें।

प्रतिज्ञा क्र.11 और 12 में अष्टांगिक मार्ग और दस पारमिता तथा प्रतिज्ञा क्र. 13 से 17 में पञ्चशील पालन की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 18 में प्रज्ञा, शील, करुणा को जीवन में अंगीकार करने की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 19 में असमानता और ऊंच-नीच पर आधारित हिन्दू धर्म को त्याग कर समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित धम्म को अपनाने की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 20, 21 और 22 में धम्म को एक नए जीवन के रूप में स्वीकारने और तदनुसार आचरण करने की वचन-बद्धता दुहराई गई है।
-अ ला उके मो 9630826117

Friday, October 26, 2018

राजाओं की कृपा पर मत रहो

राजाओं की कृपा पर मत रहो
एक बार बुद्ध राजगृह के वेळुवराम में ठहरे थे। तब कुछ भिक्खु, जहाँ तथागत थे, वहां आएं और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।  एक और बैठ कर उन भिक्खुओं ने तथागत को कहा-
"भंते, राजकुमार अजातसत्तु के आदमी पांच सौ बर्तनों में भोजन भर पांच सौ गाड़ियों में लाद कर देवदत्त के अनुयायियों को सुबह-शाम पहुंचाते हैं।" इस पर तथागत ने भिक्खुओं से कहा-
" भिक्खुओं, राजाओं से लाभ- सत्कार की सतत इच्छा मत करो। क्योंकि यह अंतत: थिनमिद्ध(आलसी) ही बनाता है, उद्यमी नहीं(स्रोत-  2. सामाजिक-राजनीतिक सवालों पर प्रवचन, भाग- 4 : बुद्धा एंड  हिज धम्मा। 2. रथ सुत्त: संयुक्त निकाय, भाग- 1,  16 -4 -6)
 -प्रस्तुति -  अ ला ऊके  मो 9630826117  

बेटी, बेटे से अच्छी

बेटी, बेटे से अच्छी
एक बार, कोसल नरेश पसेनदि, प्रसन्न-चित  बुद्ध के पास बैठे हुए थे ।  इसी बीच, सन्देश वाहक ने आकर सूचना दी कि महारानी ने बेटी को जन्म दिया है। यह जान महाराजा का मन खिन्न हो गया।
"महाराज, आप एकाएक दुक्खी हो गए ?" -बुद्ध ने राजा की ओर देख कर कहा।
 'भंते,  सन्देशवाहक ने सूचना दी कि महारानी मल्लिका को बेटी हुई है ।"
"तो इसमें दुक्ख की क्या बात  है ?  हो सकता है बेटी, बेटे से बुद्धिमान और सुशील निकले। वह सबका सम्मान और आदर करने वाली हो। आपकी माता की तरह आपके जैसे महाप्रतापी पुत्र को जन्म दे।"  -महाराज पसेनदि बुद्ध के चारों ओर फैली आभा को निहारते रहे और देखते रहे कि तरह माता महामाया और प्रजापति गौतमी अपने दोनों हाथ बुद्ध के सर पर रख आशीर्वचन कह रही हैं(स्रोत- 1. धीतु  सुत्त : संयुक्त निकाय, भाग- 1: 3. 2. 6 । 2. बुद्ध प्रवचन: भाग- 4 : बुद्ध और उनका धम्म)।
प्रस्तुति- अ  ला ऊके  मो. 9630826117       

Wednesday, October 24, 2018

धम्म-संयम

धम्म-संयम
"पुण्ण ! क़तरस्मिंं जनपदे विहरिस्ससि।"
"पुण्ण! किस जनपद में तुम विचरण करोगे ?" -सूनापरांत निवासी भिक्खु पुण्ण, जब विदा ले वापिस अपने जनपद लौटने लगे तो बुद्ध ने पूछा।
"भंते! सुनापरंतो नाम जनपदो, तत्थ अहं विहरिस्सामि।"
भंते! सूनापरांत नामक एक जनपद है, मैं वहां विचरण करूँगा।"
"चंण्डा च फरुसा, पुण्ण! सुनापरान्तका मनुस्सा । सचे ते, तं अक्कोसिस्सन्ति, परिभासिस्सन्ति , तत्थ किं भविस्सति ?"
"पुण्ण! सुनापरांत के लोग चंड और कठोर होते हैं। यदि वे तुम पर आक्रोशित होंगे,  गाली देंगे, तो क्या होगा ?'
"तत्थ भंते, एवं भविस्सति;  भद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नयिमे पाणिना पहारंं देन्ति।"
 "भंते ! मुझे यह होगा कि सुनापरांत के लोग भले हैं, बहुत भले हैं जो वे मुझे हाथ से नहीं मारते ।"
"सचे  पन  ते, पुण्ण,  सुनापरन्तका  मनुस्सा पाणिना पहारंं दस्सन्ति, तत्थ किं भविस्सति ?"
"यदि पुण्ण ! सुनापरांत के लोग तुझे हाथ से मार-पीट करें तो क्या होगा ?"
"तत्थ मे भंते, एवं भविस्सति; भद्दका सुनापरन्तका  मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नयिमे लेड्डुना  पहारंं देन्ति। "
"भंते ! मुझे यह होगा कि सुनापरांत के लोग भले हैं, बहुत भले हैं जो वे मुझे लाठी से नहीं मारते।"
"सचे  पन  ते, पुण्ण, लेड्डुना पहारंं दस्सन्ति, तत्थ किं भविस्सति ?"
"पुण्ण ! यदि वे लाठी से मारें तो क्या होगा ?"
"तत्थ मे भंते, एवं भविस्सति; भद्दका सुनापरन्तका  मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नायिमे सत्थेन पहारंं देन्ति। "
"भंते ! मुझे यह होगा कि सुनापरांत के मनुष्य भले हैं, बहुत भले हैं जो वे मुझे किसी शस्त्र से नहीं मारते।"
"सचे  पन  ते, पुण्ण, सत्थेन पहारंं देन्ति, तत्थ किं भविस्सति ?"
" पुण्ण ! यदि शस्त्र से मारे तो क्या होगा ?"
"तत्थ मे भंते, एवं भविस्सति; भद्दका सुनापरन्तका  मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नायिमे जीविता वोरोपेन्ति। "
"भंते ! यह होगा कि सुनापरंत  के मनुष्य भले हैं, बहुत भले हैं जो मुझे जान से नहीं मार डालते ।"
"साधु ! साधु ! साधु ! पुण्ण,  इमिना दमूपसमेन समन्नागतो सुनापरंतस्मिं जनपदे त्वं वत्थुं सक्खिस्ससि। " "साधु! साधु ! साधु !  पुण्ण ! इस धम्म-संयम से युक्त सुनापरंत जनपद में तुम निवास कर सकते हो (पुण्ण सुत्त: संयुक्त निकाय ।"
-अ. ला. उके  मो. 9630826117

धर्मान्तर, एक सामाजिक क्रांति

सन 1927 से 1956  का भारतीय इतिहास, दलित-शोषित और सदियों से हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत  पुरुष के हाथों पिस रही स्त्रियों के मुक्ति के संघर्ष हेतु बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर के जीवन-बलिदान के रूप में जाना जाता है। यहाँ तक कि सन 1932 में बाबासाहेब ने महात्मा गाँधी का जीवन बचाने अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार का बलिदान कर दिया था जबकि सिक्खों और मुस्लिम समुदाय को यह अधिकार प्राप्त हो गया था(डॉ  अम्बेडकर के आन्दोलन की भावी दिशा, पृ 38 : डॉ विमलकीर्ति)।

दूसरी ओर,  डॉ अम्बेडकर के संघर्ष का विरोध गांधीजी सहित कांग्रेस के तमाम नेता और हिन्दू महासभा के लोग पूरी शक्ति के साथ साम-दाम, दण्ड-भेद की नीति अपना कर रहे थे। सवर्ण हिन्दुओं ने उन पर मुकदमा चला कर उन्हें अभियुक्त तक ठहराया था(वही)।

 यह सुन कर आश्चर्य होगा कि डॉ अम्बेडकर की हत्या के लिए षड्यंत्र रचे गए थे जब वे छत्रपति शिवाजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने रायगढ़ गए थे। आन्दोलन के सिलसिले में जब डॉ अम्बेडकर से प्रश्न पूछे गए तो उन्होंने कहा कि अछूतों का मुख्य लक्ष्य सामाजिक क्रांति का आव्हान करना है। यदि सामाजिक क्रांति के क्रम में धार्मिक क्रांति की जरुरत पड़े तो इसको भी ले चलाना चाहिए।  डॉ अम्बेडकर के धर्मान्तर का यही मूल आधार है (वही )।

Monday, October 22, 2018

विपस्सना; मानसिक रोगियों के उपचार केंद्र

विपस्सना; मानसिक रोगियों के उपचार केंद्र
अभी पिछले दिनों अशोक बुद्ध विहार में साप्ताहिक कार्यक्रम के दौरान  एक महिला साधिका आई । उन्होंने छूटते ही जानना चाहा कि वहां कितने विपस्सी बैठे हैं ? आठ-दस लोगों ने हाथ उठाया।  वह आश्वस्त हो स्टीरियो टाइप शुरू जो गई । उन्होंने आँख बंद करने को कहा। मैं उन्हें देखता रहा।  उन्होंने भी मुझे देखा, पर कहा कुछ नहीं। इस दौरान वह अपना मोबाइल खोल कर अपडेट्स देखने लगी । उनकी स्टीरियो टाइप आवाज जैसे किसी गहरे कुऍ के से आ रही थी । कुछ देर बाद मुझे वक्त जाया करने जैसे लगा । मैं उठ कर बाहर आ गया।

पालि प्रशिक्षण शिविर, मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ये विपस्सना सेंटरों में ही क्यों आयोजित किए जाते हैं ? अभी तक जितने भी ऐसे शिविर हुए हैं, सब के सब वहीँ हुए हैं ! एक बात तो तय है कि इसे जुड़े लोग बड़े उदार और कर्मशील होते हैं। वे सेवा-भावना के तहत काम करते हैं। एकाध स्थान पर मैं लूज टेम्पर भी हुआ किसी बात पर किन्तु सम्बंधित 'सेवादार मेडम' ने बड़ी ही सहनशीलता का परिचय दिया। फिर, मैंने भी पालि प्रशिक्षण शिविर के नियंता डॉ प्रफुल्ल  गढ़पाल सर को अपनी ओर आता देख खुद को संयत किया। दरअसल, ये विपस्सना सेंटर आवश्यक सुख-सुविधाओं से संपन्न होते हैं।  पर इतना पैसा कहाँ से आता है, यह देखने की बात है ?  कुछ लोग कहते हैं कि यहाँ धन-संपन्न लोग आते हैं। सीधी-सी बात है फिर, धन की कमी क्यों होने लगी ?  और फिर, टेंशन से रिलीफ और मानसिक शांति भी तो उन्हें ही चाहिए ?

'आँख बंद कर देखना' विपस्सना का हिस्सा है। आप बिना आँख बंद किए विपस्सना में बैठ ही नहीं सकते। आँख बंद करने में कई फायदे हैं। आप वही देखते हैं, जो चाहते हैं। आँख खुली रखने में नुकसान है।  चाही, अनचाही चीजें आमने आ जाती हैं। हमारे आस-पास ऐसे कई चीजें हैं, जिन्हे हम देखना पसंद नहीं करते। आँख बंद करने में अनचाही चीजें देखने की बाध्यता ख़त्म हो जाती है। इसलिए गुरु गोयंकाजी, अपने स्टीरियो टाइप टेप में शुरू में ही कह देते हैं कि साधक, आँख बंद कर बैठें। आँख बंद करना ध्यान साधना का प्रथम सोपान है।

हमारे घर के सामने एक परिवार है।  वे गावं के हैं। गावं के तो हम भी हैं किन्तु  हमने गावं को वही छोड़ दिया है । कुछ लोग गावं को सिर पर रख कर चलते हैं। खैर, उनके यहाँ जो भी पुरुष गावं से आता है, महिलाएं हाथ भर घुंघट निकाल लेती हैं। अगर वे दो-चार दिन रहते हैं तो भी उनका घुंघट छोटा-बड़ा नहीं होता । मुझे बड़ी कोफ़्त होती है, महिलाओं को घुंघट में देख कर। सोचता हूँ, अगर मुझे घुंघट में रहना पड़े तो ? इससे तो वे महिलाएं अच्छी है जो बुर्के अथवा स्कार्फ में भी आँखें खुली रखती हैं। 

तब, मैंने अपने गुरु बालकदास साहेब को कहा था कि वे मुझे ध्यान-साधना सीखाए । किन्तु गुरूजी ने  बिलकुल ध्यान नहीं दिया । जब भी मैंने आग्रह किया, उन्होंने मुस्करा दिया। मेरे वरिष्ठ गुरु भाई खिनारम बोरकर बतालाते थे कि किसी ज़माने में गुरूजी, धूनी रामाया करते थे। उनके आस-पास संतों का जमावड़ा हुआ करता था । संतों का समागम तो मैंने भी देखा। बैनगंगा संगम पर उनकी सत्संग तब, महाराष्ट्र और म. प्र.  में चर्चा का सबब हुआ करती थी । एक दिन गुरूजी ने कहा- बेटा, समाधि मुक्ति का मार्ग नहीं है। अगर तू कुछ बनना चाहता है तो बाबासाहब डॉ अम्बेडकर बन ! मैं भरभरा कर गिर पड़ा।

हजारी प्रसाद द्विवेदी अगर न होते, तो कबीर को कोई नहीं जानता।  हमारे यहाँ जानने-जनाने का ठेका ब्राह्मण को जो है। वे जिसे चाहते हैं, जनवा देते हैं। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि इस ब्राह्मण लेखक को क्या आन पड़ी कि कबीर पर किताब लिख मारे ? कबीर, जो ब्राह्मण की चोटी पकड़ उसे दचके पर दचके देता है, ब्राह्मण को कैसे भा गया, यह राज है। खैर, इस पर फिर कभी चर्चा होगी, फिलहाल, इसे यही छोड़ते हैं ।

बात कबीर की हो रही थी। कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने 'रहस्यवाद का कवि ' कहा है। जबकि हर कदम पर, चाहे वह वेद-पुराणों का रहस्य हो या  ब्रह्म-आत्मा का या फिर,  पंडा-ताबीजों का; कबीर ने हर 'रहस्य को उलटे पैर पकड़ कर खूब धोया है । आलोच्य विषय 'विपस्सना' पर कबीर, जिसे बाबासाहब अम्बेडकर, बुद्ध के बाद अपना दूसरा गुरु मानते हैं; देखे क्या कहते हैं-  संतो, सहज समाधि  भलि  है। आँख न मुंदु कान न रुन्धु, काया कष्ट न धारूं।  खुले नयन साहिब देखूं, हंसी-हंसी बदन निहारूं। संतो, सहज.... । -अ  ला ऊके  मो. 96 30 826 117  

Friday, October 19, 2018

तुझा च गौतमा पडे प्रकाश अंतरी

तुझा च गौतमा पड़े प्रकाश अंतरी,
तुझे च धम्म-चक्र हे फिरे जगावरी। बुद्धं शरण गच्छामि...

कळ्या कळ्या फुले फुले तुला पुकारती,
पहा तुझी च चालली नभात आरती।
तुला दिशा निहारती यशोधरे परी,
तुझे च धम्म-चक्र हे फिरे जगावरी।

तुझ्या मुळे च जाहला अखेर फैसला,
दिलास धीर तोडल्या आम्ही च शृंखला।
आता भविष्य आमुचे असे तुझ्या करी,
तुझे च धम्म-चक्र हे फिरे जगावरी।

तुला च दुःख आमुचे तथागता कळे,
तुझी च सांत्वना अम्हा क्षणो-क्षणी मिळे।
निनाद पंचशील चा घुमे घरो-घरी,
तुझेच धम्म-चक्र हे फिरे जगावरी।

तुझ्या मुळे च मार्ग हा आम्हास लाभला,
तुझ्या मुळे च सूर्यही पुन्हा प्रकाशला।
तुझे च सत्य यापुढे लढेल संगरी,
तुझे च धम्म-चक्र हे फिरे जगावरी।

तुझ्या समान एकही नसे तुझ्या विना,
सदैव यापुढे करू तुझी च वंदना।
भरेल अमृता परी तुझी च वैखरी,
तुझे च धम्म-चक्र हे फिरे जगावरी।

तुझा च गौतमा पडे प्रकाश अंतरी,
तुझेच धम्म-चक्र हे फिरे जगावरी।  बुद्धं शरण गच्छामि...

गायक-  सुरेश भट्ट, कलाकार- अरविन्द कुमार सोज: इतिहास आहे साक्षी: मराठी एल्बम, 1999

विपस्सना, हिप्नोटाईज करने के केंद्र

विपस्सना, हिप्नोटाईज करने के केंद्र
एक विपस्सी साधक को मैंने पूछा-
"आपने गोयंकाजी को देखा है ?"
 उन्होंने कहा-  "जी नहीं, किन्तु विपस्सना केंद्रों में उनके कैसेट/सीडी  सुने हैं।"
"आपने विपस्सना की है ?" मेरा दूसरा प्रश्न था ।
"जी, मैंने कई दफा की है, 10  दिन से लेकर 30  दिन के शिविर तक। यह भगवान् बुद्ध का अनुपम मार्ग है, आप जरूर एक बार करिए।" -उसने लगे हाथों मुझे सलाह दे डाली।
मैंने जानना चाहा- "विपस्सना है क्या ?"
"जी, यह शरीर और मन की साधना है।"
"शरीर और मन को साधने की क्या जरुरत है ?"
"कि हम, अकुशल कर्म और अकुशल विचारों से बचें।"
"किन्तु इसके लिए तो पञ्चशील और अष्टांगिक मार्ग है ? विपस्सना की क्या जरुरत है ?"
 "जी, एकाग्रता के लिए। "
"अच्छा, यानि आप उठते-बैठते, कार्य करते हुए शरीर और मन को साध कर नहीं रख सकते ?"
"जी, एकाग्रता से शांति भी मिलती है।"
"तुम्हें 'शान्ति' क्यों चाहिए ?"
"जीवन-संघर्ष में सुकून प्राप्त करने।"
"तुम संघर्ष से डरते हो ?"
"जी, डरने जैसे कोई बात नहीं है किन्तु 'शांन्ति' तो चाहिए न ?"
"यानि अगर संघर्ष और 'शांति' में चुनाव हो तो तुम 'शांति' चुनोगे ?"
जी, संघर्ष कौन चाहेगा ?
"किन्तु बुद्ध ने तो संघर्ष का रास्ता चुना था। ? चाहे कोलियों से युद्ध न करने के मुद्दे पर अपने सेनानायक से संघर्ष हो या......"
"सर, भगवान बुद्ध ने हमेशा 'शान्ति' का मार्ग चुना। अभिनिष्क्रमण का उक्त कारण, जो आप बतला रहे हैं, हम ठीक नहीं मानते।"
"हम ठीक नहीं मानते, मतलब  ?"
"जी, गोयनकाजी  ठीक नहीं मानते।"
मैं उन्हें देखता रहा। वे बोलते रहे।  वे बीच में बार-बार 'आत्मानुभव' और इस तरह की बातें भी कर रहे थे। मैंने उन्हें सावधान किया कि बुद्ध तो किसी 'आत्मा' को नहीं मानते,  फिर वे 'आत्मा को बीच में क्यों लाते  हैं  ?
वे फिर, 'आत्मा' का अर्थ  'स्वयं/खुद' बताने लगे।  उसने कहा- "सर, जो बातें हमें मालुम हैं, वही बता रहे हैं।"
मैंने उसे ढाढंस बंधाते हुए कहा- "हमारा भी मकसद कुछ सीखने का ही है।"
उसने फिर सलाह दे डाली- "सर, आप 10  या 15  दिन का शिविर जरूर करें। आपको बहुत लाभ होगा।"
"किस चीज का लाभ ?" मैंने पूछा।
"जी आपके मनो-विकार सब दूर हो जाएंगे।"
"किस तरह के मनोविकार ?"
"जी, विपस्सना के प्रति आपकी जो धारणा है !"
"यानि विपस्सना के प्रति मुझे आशंका नहीं करनी चाहिए ?"
"बिलकुल नहीं, क्योंकि यह भगवान बुद्ध का मार्ग है।"  

Tuesday, October 16, 2018

धम्मचक्क पवत्तन दिवस

धम्मचक्क पवत्तन दिवस
धम्मचक्क पवत्तन दिवस का बौद्ध धर्मावलम्बियों में उतना ही महत्त्व है, जितना मुस्लिमों में ईद का, सिक्खों में बैसाखी का और हिन्दुओं में दीपावली । 14 अप्रेल अम्बेडकर जयंती के बाद अम्बेडकर अनुयायियों में यह दूसरा बड़ा त्यौहार है।

धम्मचक्क पवत्तन के दिन नागपुर में बाबासाहब के अनुयायियों का मार्च देखते ही बनता है। पूरे शहर में उस दिन जो भी टेक्सी, बस मिलेगी, दीक्षा भूमि की ओर जाते दिखती है। ऑटो, रिक्शा, टेक्टर, बसे नीली-नीली दिखती हैं। नीले रंग की टोपी या गमछा बांधे बाबासाहब के अनुयायियों से गलियां और सड़कें पट जाती हैं। दूर-दूर से आये अम्बेडकर अनुयायियों का नागपुर के लोग भी बिना किसी जाति भेद-भाव के जैसे स्वागत करते दिखाई देते हैं, जगह-जगह टेंट और तम्बुओं में उन्हें बैठा कर बिना मूल्य भोजन परोसते हैं ।

दीक्षा भूमि का दृश्य तो देखते ही बनता है। करीब 5 एकड़ के प्लाट में पांव रखने जगह नहीं होती। दीक्षा भूमि से जुडी सड़कें 'जयभीम' की गूंज से सरोबोर होती हैं। अम्बेडकरी और धम्म की पुस्तकें/सीडी/डीवीडी,, बाबासाहब का फोटो लगे हुए बेज/लॉकेट, धम्मचक्क पवत्तन का सफेद निशान लगी टोपियां, बाबासाहब का फोटो अथवा धम्मचक्क पवत्तन का निशान लिए गमछे, धम्मचक्क पवत्तन का निशान लिए नीले और पंचरंगी झंडे, अम्बेडकरी/बुद्धिस्ट त्यौहारों, तिथियों और दलित महापुरुषों को दर्शाते कैलेंडर, डायरियों से सजी दुकानें लाईन से सजी होती हैं। दीक्षा भूमि की चारों गेट खोल दी जाती हैं, बाबासाहब अनुयायियों के स्वागत में।

मगर, यहाँ कुछ नहीं होता है तो वह है पुलिस। बाबासाहब के लाखों अनुयायी बिना किसी पुलिस की सहायता के आते-जाते हैं। यहाँ तक की अंदर चारों प्रवेश द्वार से भी स्त्री- पुरुष- बच्चे-बूढें अपने-आप आते-जाते हैं मानों खड़े-खड़े रेंग रहे हों। कोई भीड़ नहीं, सब निहायत ही व्यवस्थित। हम देखते हैं कि अन्य धर्म-स्थलों में ऐसे मौकों पर, जबरदस्त पुलिस का बंदोबस्त होता है, तब भी दुर्घटनाएं होती हैं और बच्चें-बूढ़े और माँ-बहनें मौत के मुहं में चली जाती है।

एक और मीडिया है, जो यहाँ नहीं होता। न प्रेस या टीवी चैनलों में इसके बारे में कोई खबर होती है और न यहाँ संपन्न कार्य-क्रमों की कवरेज होती है। बाबा साहब के लाखों अनुयायी देश-विदेश से बिना अखबार/ टीवी खबरों के प्रति वर्ष यहाँ रेले के रेले आते हैं और बिना बेश्कीमती कैमरों की फलेश लाईट के दीक्षा भूमि के सामने खड़े हो कर मोबाईल से अपना फोटो खींच धन्य होते हैं।

हमारे देश में, धम्मचक्क पवत्तन दिवस समारोह14 अक्टू और अशोक विजया दशमी, दोनों ही दिन मनाने की परम्परा है। इसकी वजह यह है कि बाबा साहब ने अशोक विजय दशमी का दिन चुना था, इस ऐतिहासिक धर्मान्तर समारोह के लिए। स्मरण रहे, इसी दिन सम्राट अशोक ने कलिंग विजय के बाद बुद्ध के शांति सन्देश को न सिर्फ हृदयंगम किया था वरन, इसे विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाने का संकल्प भी लिया था। बाबासाहब इस घटना से जबरदस्त अनुप्रेरित थे और इसी कारण उन्होंने अपने अनुयायियों की धम्म-दीक्षा के लिए यह तिथि चुना था।

किन्तु, धर्मान्तरित बौद्धों के ह्रदय में बाबासाहब इतने रचे-बसे हैं कि वे 14 अक्टू के दिन को भी वे उतना ही महत्त्व देते हैं जितना बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध महापरिनिर्वाण के 200 वर्ष बाद इस उप-महाद्वीप को बुद्धमय करने के लिए सम्राट अशोक को दिया था। और, इसलिए अम्बेडकर अनुयायियों के लिए 14 अक्टू उतना ही महत्वपूर्ण है। इस दिन साफ-सफाई की जाती है, घरों/बौद्ध विहारों को सजाया है, रोशनी की जाती है और फटाके फोड़े जाते हैं .

धार्मिक और सामाजिक आजादी के रूप में उक्त दोनों तिथियों को सिलेब्रेट करने की आम सहमति और आग्रह बौद्ध अनुयायियों में एक मत से है। इसके अनुसार 14 अक्टू. को लोग स्थानीय स्तर पर अपने-अपने घरों अथवा बुद्ध विहारों या अम्बेडकर चौराहों पर जश्न मनाते हैं जबकि अशोक विजया दशमी के दिन नागपुर दीक्षा-भूमि जाकर, अपने मसीहा और मुक्तिदाता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं जिन्होंने उन्हें आदमी होने का अहसास दिलाया।

Monday, October 15, 2018

बावीस प्रतिज्ञाएँ धम्म की रीढ़

1956 में धम्म दीक्षा के अवसर पर नागपुर में बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों को 22 प्रतिज्ञाएँ कराई थी। धर्मान्तरित बौद्ध, इन प्रतिज्ञाओं को अपने मुतिदाता के अंतिम वचन मानते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे महापरिनिर्वाण सुत्त में आनंद को दिए गए उपदेश 'अत्त दीपो भव' को बुद्ध के अनुयायी मानते हैं। जिस तरह बुद्धानुयायी, पांच शीलों को जीवन की आचार- संहिता के तौर पर ग्रहण करते हैं, ठीक उसी प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर के अनुयायी भी इन 22 प्रतिज्ञाओं को जीवन की आचार-संहिता मानते हैं।

बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये प्रतिज्ञाएँ, उन सड़े-गले आदर्शों से हमें बाहर निकालती है, जो हमारी वैयक्तिक और सामाजिक अवनति के लिए जिम्मेदार है, वहीँ उन उच्च आदर्शों पर चलने को प्रेरित करती है जो समता, स्वतंत्रता और बधुता का आधार है. हमारे मुक्तिदाता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये 22 प्रतिज्ञाएँ, हमारी पहचान है। ये हमें दूसरों से अलग करती है, हमारे चरित्र और संस्कारों को गढ़ती है, गैरों से पृथक करती है.

बाबासाहेब द्वारा प्रदत्त 22 प्रतिज्ञाएं हमारे सोच को निर्धारित करती है। यह धम्म की रीढ़ है। यह बुद्ध के धम्म का केंद्र है। आज से 2500 हजार वर्ष पहले, बुद्ध ने हिन्दू सामाजिक व्यवस्था और ब्राह्मणी दर्शन से खुद को अलग करते हुए इन प्रतिज्ञाओं की नीव रखी थी। ईश्वर में अविश्वास, आत्मा में अविश्वास, आत्मा के संसरण में अविश्वास, वेदों में अविश्वास, उपनिषदो में अविश्वास, ब्राह्मणी-ग्रंथों में अविश्वास, ब्रह्म में अविश्वास, ब्रह्मा के सृष्टि कर्ता होने में अविश्वास, कर्म-पुनर्जन्म में अविश्वास, चतुर्वर्ण-व्यवस्था में अविश्वास, ऊंच-नीच के घृणा पर आधारित जाति-पांति में अविश्वास ... ये 22 प्रतिज्ञाएँ ही थी. बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर इन प्रतिज्ञाओं को आसमान से नहीं लाए थे। ये पूरी की पूरी उन्होंने बुद्ध से ली थी(भारत में बौद्ध आंदोलन की भावी दिशा: डॉ पी टी बोराले: संकलन डॉ विमलकीर्ति)। समता-स्वतंत्रता और बंधुता का ये दर्शन उन्होंने बुद्ध से लिया था।

नए जीवन में प्रवेश करने के मूलाधारों को प्रथम आठ प्रतिज्ञाओं में निहित रखा गया है जो उन्हें वर्तमान बौद्ध विरोधी कृत्यों से बचाते हैं और सभी मनुष्यों में एकता प्रतिपादित करने के लिए उत्साह प्रदान करते हैं। 9 से 10 तक में समता और उसके लिए प्रयास की बात है(वही)। 11 और 12 में अष्टांगिक मार्ग और दस पारमिता का पालन, 13 से 17 में पञ्च शील, 18 वीं प्रतिज्ञा में प्रज्ञा, शील, करुणा, ति-रत्न का उपदेश है। 19 वीं प्रतिज्ञा में मानव-मात्र के उत्थान के लिए हानिकारक और मनुष्य मात्र को ऊंच-नीच मानने वाले हिन्दू धर्म को छोड़ने तथा उसका परित्याग करने की बात कही गई है। 20, 21 और 22 वीं प्रतिज्ञा में बुद्ध धम्म को एक नए जीवन के रूप में स्वीकारने और तदनुसार आचरण करने की वचन-बद्धता दुहराई गई है।

बाबासाहेब डॉ आंबेडकर द्वारा प्रदत्त इन 22 प्रतिज्ञाओं का महत्त्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि विवाह के अवसर पर वर-वधु को दिलाई जाने वाली पांच-पांच- प्रतिज्ञाएं, जो असमानता पर आधारित होने के कारण बदलते परिवेश में असंगत हो गई थी, के स्थान पर, अब वर-वधु को समान मानते हुए घर- परिवार और समाज के सामने सामूहिक रूप से दोनों को ये बावीस प्रतिज्ञाएं कराई जाती है।

Saturday, October 13, 2018

लिटमस टेस्ट

14 अक्टू पर विशेष-

14 अक्टू 1956 को नागपुर में जब धम्म-दीक्षा का कार्य-क्रम संपन्न हुआ तो सवर्ण उच्च जातियां तो उत्तेजित थी ही, देश-विदेश का मीडिया भी कम उत्तेजित नहीं था ! वे सांस रोके इस ऐतिहासिक क्षण को देख रहे थे। 

इस अवसर पर परम्परागत बौद्ध भी कम आशंकित नहीं थे। बाबासाहेब ने नव. 1955 में  'बुध्द  एंड हिज गॉस्पेल'  नामक एक  पुस्तिका लिख कर अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। अपने भाषणों में वे निरंतर अपने अनुयायियों को इस सम्बन्ध में अवगत करा रहे थे। कुछेक ने इस पर टीका-टिपण्णी भी की थी।
 
शायद, इसी बात पर एक पत्रकार ने जब बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर से पूछा कि आप कैसे बौद्ध होंगे, हीनयानी या महायानी ? इस पर  बाबासाहेब ने मुस्कराते हुए जवाब दिया- हम बौद्ध होंगे, सिर्फ बौद्ध जिसका लिटमस टेस्ट होगा 'कालाम सुत्त'।  कोई भी वचन जो वैज्ञानिक न हो, तार्किक न हो और लोक कल्याणकारी न हो, बुद्ध के सिर  मढ़ा नहीं जा सकता। 

Monday, October 1, 2018

SC/ST एट्रोसिटी एक्ट के विरोध में लामबंद सवर्ण

SC/ST एट्रोसिटी एक्ट के विरोध में मुट्ठी भर सवर्ण जातियों का लामबंद होना देश की जातिय राजनीति के चेहरे को बड़े विभत्स तरीके से विश्व-पटल पर रखता है। विश्व-पटल पर इसलिए कि अब आयसोलेट रहने के दिन लद गए। चाहे मसला हिन्दू-मुस्लिम तनाव का हो या दलित- अत्याचारों का, विश्व-मंच पर आपको जवाब देना होता है। आप, देश का 'आतंरिक मसला' कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकते।

यह विचित्र ही लगता है कि SC/ST एट्रोसिटी एक्ट दलितों के लिए बना था, पुलिस और प्रशासन द्वारा उनकी आवाज न दबाने के लिए बना था। इसमें जो भी कमियां अथवा शिकायतें थी, दलितों को थी।  विरोध उन्हें करना था ? सड़क पर उन्हें उतरना था ? किन्तु इसके विरोध में सवर्ण जातियों का सड़क पर उतरना ?  निस्सन्देह हिन्दू-जाति व्यवस्था का यह वीभत्स और भयानक चेहरा है।

सभी जानते हैं, दलितों पर आए दिनों ब्राह्मणादि सवर्ण जातियां अत्याचार करती हैं।  पिछड़ी जातियों के लोग इन मुट्ठी भर सवर्ण जातियों के झांसे में आ कर दलित जातियों पर अत्याचार करने उनका मोहरा बनती हैं। पुलिस, जज जेलर आदि तमाम पदों पर इन्हीं जातियों के लोग होते हैं और वे पूरी तरह सवर्ण जातियों का बचाव करते हैं। किसी दलित की बेटी किसी उच्च जाति के बेटे की हवस की शिकार होती है तो अव्वल तो रिपोर्ट ही लिखी नहीं जाती और अगर खूब हो-हल्ला हुआ तो 'जांच' करने की बात कह कर साक्ष्यों को मिटाने का काम किया जाता है । इस बीच मार-पीट से लेकर खरीद-फरोख्त तक सारे कुकर्म किए जाते हैं। कोई सीने पर हाथ रख कर कह सकता है कि क्या ऐसा नहीं होता ? और तब, दलित की माँ-बेटी बिक जाती है, उसे बिकना पड़ता है।  बिकेगी नहीं तो जाएगी कहाँ ?

आज, देश में SC/ST एट्रोसिटी एक्ट के विरोध में सवर्ण और अवर्णों के बीच जो जातिय युद्ध छिड़ा है, वह हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता से भी भयंकर है। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता को हिन्दू,  बतौर बहुसंख्यक शक्ति से कुचल सकते हैं किन्तु सवर्ण-अवर्ण की आग को कैसे बुझा पाएंगे ? निस्संदेह, आगे आने वाले दिनों में ब्राह्मण आदि सवर्ण जाति के लोगों को खुश करने और भी आग लगाने वाले कार्य किए जाएंगे। क्योंकि आज भी, ब्राह्मण जाति वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही है। उसे अपने पावों तले अन्य जातियों को रखने की आदत जो है ?  वह समानता और समरसता का समझौता आसानी से नहीं करेगी। 

उंच-नीच की जाति-व्यवस्था निस्संदेह हिन्दू समाज पर कलंक है, जैसे की बाबासाहब डॉ आंबेडकर ने कहा। बाबासाहब ने जब देखा की उंच-नीचता हिन्दू धर्म में सिक्के के दो पहलू हैं, और तब उन्होंने नतीजा निकाला कि अगर सम्मान से जीना है तो इस दलदल से ही निकलना होगा। और तब उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया।  क्या यह सत्य नहीं ? बाबासाहब लगातार 20 वर्ष इन्तजार करते रहे कि हिन्दू अपनी इस उंच-नीचता के कलंक को धोने प्रयास करेंगे किन्तु गांधीजी सहित सब सवर्ण जाति के लोग आत्म-मुग्धता के नशे में ही डूबे  रहे।

बुद्ध का धम्म निस्संदेह उंच-नीच की जाति-व्यवस्था का एंटीडोट है, इलाज है। त्रैलोक्य सहाय्यक गण के  महास्थविर संघरक्खित के शब्दों में छ: या सात सौ वर्ष पूर्व, बौद्ध धर्म का भारत से प्राय: लुप्त होना यह उसके स्वयं के लिए केवल एक जबरदस्त धक्का नहीं था, वरन उस देश के लिए जबरदस्त धक्का था, जहाँ उसका जन्म हुआ(डॉ अम्बेडकर की धम्म क्रांति)। काश कि बौद्ध धर्म सतत जिन्दा रहता तो उंच-नीचता की यह सड़ांध कब की ख़त्म हो चुकी होती।

जो लोग देश की समृद्धता में विश्वास रखते हैं, निस्संदेह वे ऊंच-नीच की हजारों जातियों में बंटी इस चातुर्य वर्ण की व्यवस्था को ख़त्म देखना चाहेंगे, जातिवाद को मरते देखना चाहेंगे। ब्राह्मण जो बहुत कम संख्या में हैं, किन्तु तमाम बड़े-बड़े पदों पर विराजमान हैं, निस्संदेह हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के साथ दलित अत्याचारों के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं। वे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।  और बच भी गए तो कब तक ? इतिहास गवाह है,  रूस की जारशाही को एक दिन जाना ही पड़ा ।