Wednesday, November 17, 2010

साधू बाबा जिवलंगदास

         महाराष्ट्र संत-महात्माओं की धरती रही है. यहाँ के संत-महात्माओं ने जाति-पातीं की ऊंच-नीचता और धार्मिक कर्म-कांडों के विरुद्ध जो सामाजिक-चेतना का जन-आन्दोलन चलाया, वह पूरे देश में कश्मीर से कन्याकुमारी स्तुतिय है. सामाजिक चेतना के इन जन-आन्दोलनों में अमरावती के साधू बाबा जिवलंगदास हमेशा याद किये जाते रहेंगे.इतिहास के गर्भ में ऐसे कई महापुरुष होंगे जिन पर इतिहास लिखने वालों की इनायत न हुई हो.साधू बाबा जिवलंगदास शायद ऐसे ही हैं.
      सन 1992 के दौरान जब में अपने पूज्य गुरु महंत बालकदास साहेब के कृतित्व पर 'साक्षात्कार' नामक ग्रन्थ लिख रहा था तो गुरूजी ने अवश्य साधू बाबा का जिक्र किया था. मगर चूँकि उस समय मेरे अध्ययन का केंद्र गुरूजी थे, अत साधू बाबा के बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं जान पाया.आज न तो गुरूजी हैं और न ही साधू बाबा मगर, मुझे लगता है, साधू बाबा के बारे में लिख कर मैं न सिर्फ अपनी गलती सुधार रहा हूँ बल्कि, इतिहास के इन पृष्ठों से लोगों को रूबरु  करा रहा हूँ जो शायद अभी तक अनपलटे हैं.
       एक बात और, इतिहास कोई एक आदमी नहीं लिखता. वास्तव में इतिहास घटनाओं का सिलसिला हैं, जो कई लोगों के द्वारा विभिन्न समय में लिखा जाता है. यह एक लेखन प्रवाह है, जो चलते रहता है. प्रस्तुत लेख के माध्यम से गुजारिश होगी कि जिन पाठकों को साधू बाबा के बारे में अधिक जानकारी हैं, कृपया वे मुझे अप-डेट कर इस कार्य को आगे बढ़ाये.
        साधू बाबा महाराष्ट्र के जिला अमरावती के हैं. आपका जन्म महार जाति के राउरकर परिवार में हुआ था. बाबा  कद-काठी के ऊंचे-तगड़े और आचार-विचार में सदाचारी के थे. उनके हाथ में हमेशा चिमटा और कुबजी तथा पैर में खडाऊं रहते थे. वे पंचीकरण* के सिद्धहस्त योगी  थे.
       साधू बाबा, सामाजिक-चेतना के कार्यों के अलावा जीवन-व्यापन के लिए छोटा-मोटा धंधा किया करते थे.अमरावती और इसके आस-पास कपास की खेती होती है. बाबाजी के पास एक ऊँट था.बाबाजी आस-पास के गांवों से कपास फुटकर में खरीदते और ऊँट की पीठ पर लाद कर दूर तुमसर की कपास मंडी में बेच आते .बाबाजी की एक बहन सुकडी में रहती थी.बाबाजी जब भी कपास लेकर तुमसर मंडी आते, अक्सर अपनी बहन के यहाँ मुकाम करते थे.मगर, यह तो एक माध्यम था. वास्तव में, साधू बाबा अमरावती से तुमसर तक की यात्रा में जगह-जगह संत-महात्माओं के बीच बैठकर सामाजिक-चेतना की अलख जगाते थे.
      साधू  की नजर साधू को तलाश  करती है. शायद, इसी तलाश में सन 1937 के दरमियान साधू बाबा की नजर बपेरा के एक तेजस्वी बालक पर पड़ी जो 12-13 वर्ष की उम्र से ही साधू वेष में रहता था.
       जल्दी ही साधू बाबा की कृपा इस बालक पर हुई.  यही बालक, जो आगे चल कर ' कबीर पंथ के महंत गुरु बालकदास' के नाम से प्रख्यात हुए, को साधू बाबा ने योग्य उत्तराधिकारी जान गुरु परम्परा से प्राप्त रामानंद पंथ की गद्दी सौंप दी और खुद को धन्य समझा. क्योंकि, योग्य उत्तराधिकारी भाग्य से ही मिलता है. यह घटना सन 1941 की है.
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*पांच तत्वों के गुण,क्रिया,धर्म आदि विस्तार के अध्ययन को 'पंचीकरण' कहते हैं.

   

Sunday, November 14, 2010

अरे, कौन टेंशन पाले ?

         मेरा एक सहकर्मी मित्र, तन से तो पहलवान है ही, भाषा से भी पहलवान है. एक दिन जयप्रकाश कर्दम द्वारा सम्पादित पुस्तक 'दलित साहित्य १९९९' जिसे पढ़ते-पढ़ते अन्य  कार्य में उलझने से मैंने टेबल पर रख दिया था, मित्र ने उठाया और काफ़ी देर तक उसके पन्ने उलटते-पलटते रहा.
      "सर, इसे पढ़ कर तो खून खौलने लगता है ?"-पन्ने पलटना जारी रखते हुए उसने मेरी ओर देख कर कहा.
 एकाएक जैसे मुझे विश्वास नहीं हुआ. स्तम्भित-सा उसे देखने लगा-
      "तब तुम ऐसा साहित्य पढ़ते क्यूँ नहीं हो ?" मैंने उनके चेहरे पर नजर जमाये पूछा.
       "अरे, कौन टेंशन पाले.मादरचो...  यहाँ अपने घर-परिवार का ही टेंशन क्या कम है." -पहलवान मित्र ने अपने हाथी जैसे शरीर का टेंशन रिलीज करते हुए कहा. (दिनांक ०७.०७.०२/लेखक की डायरी से)

Saturday, November 13, 2010

आर एस एस की सेंध

सहारा न्यूज(म प्र:छति) चैनल में प्रसारित खबर के अनुसार जगदलपुर(बस्तर) के पारम्परिक दशहरा उत्सव में आर एस एस और इससे जुड़े हिंदूवादी संगठनों  द्वारा सेंध लगायी है.
विदित हो कि वहां के आदिवासियों द्वारा परम्परा से मनाये जा रहे दशहरा उत्सव में रावण का वध नहीं किया जाता था. किन्तु , इस बार आर एस एस और इससे जुड़े भाजपा आदि हिंदूवादी संगठनों ने परम्परा से चले आ रहे इस उत्सव में सेंध लगा कर पहली बार रावण के पुतले का वध कराया है.

Sunday, November 7, 2010

अदब

     पूर्व पदस्थ कार्यालय में मेरी सहकर्मी एक महिला अधिकारी थी. सभी उन्हें उनके नाम से ही जानते थे. इधर कुछ दिनों से उन्होंने अपनी नेम प्लेट बदल ली थी. नेमप्लेट में अब उन्होंने अपने नाम के आगे 'श्रीमति' जोड़ लिया था. मुझे शरारत सूझी.
"मैडम, अगर आप 'श्रीमती' न भी लिखती तो कोई हर्ज नहीं था." -मैंने टोका.
 "इसमें हर्ज भी क्या है." मैडम मुस्कराई. वह मेरी कैफियत जानती थी.
"मैडम, आप अधिकारी है. आफिस में आपका दबदबा है. आपका अपना व्यक्तित्व है, आपकी अपनी पहचान है. 'श्रीमती' जतला कर कार्यालय में भी क्या आप पुरुष सरक्षण को नहीं ढो रही है ?" -मैंने कहा, 
मैडम हडबड़ाई. थोडा संयत होकर बोली- "यह तो हमारी परम्परा है."
हमारे देश की महिलाएं जो अब पढ़-लिख कर डा और इंजिनियर बन गई हैं,वर्षों से चली आ रही परम्पराओं का किस तरह अदब करती है...मैं सोच रहा था.

क्या कभी बदलाव आएगा ?

             बिलासपुर-कटनी रेल्वे रूट पर अनुपपुर,अमलाई,बुढ़ार ८-९ कि मी की दूरी पर पास-पास के स्टेशन हैं. बुढ़ार के बाद शहडोल ३० कि मी है.अनूपपुर तथा बुढ़ार छोटे-मोटे ओद्योगिक नगर हैं जबकि, अमलाई 'ओरियंट पेपर मिल' तथा 'कास्टिक सोडा फेक्टरी' के कारण फेमस है. दुसरे,चचाई जो रेल्वे रूट से हटकर अनुपपुर और अमलाई के बीच  दोनों से  करीब ८-९ की मी दूरी पर स्थित है, थर्मल पावर जनरेशन का बहुत बड़ा केंद्र हैं. और इससे बड़ी बात, ये सभी साऊथ- इस्टर्न कोल बेल्ट में होने के कारण ओद्योगिक क्षेत्र हैं.                
          मैंने अमलाई से ट्रेन पकड़ी थी और गन्तव्य स्टेशन बीरसिंहपुर था. स्टेशनों के  पास-पास होने से कभी-कभी बड़ी कोफ़्त होती है,खास कर जब ट्रेक में स्पीड कम हो.बुढ़ार के बाद अब सीधा शहडोल आना था. मगर, फिर ट्रेन रुकी.मैंने खिड़की के बाहर झाँका.कोई स्टेशन जैसी बात नहीं थी. तभी सिहंपुर का ध्यान आया,जो पिछले ५० वर्षों से बनने की अवस्था में ही चल रहा हैं.हमारे यहाँ स्टेशन बनने में बरसों लगते हैं. मैं दरवाजे के पास वाली बर्थ पर बैठा था. तभी टॉयलेट के तरफ वाले स्पेस से दस-बारह औरतें हडबडाहट में उतरते दिखी. औरतें,जिनमे जवान ज्यादा थी,मटमैले थैले और गठरियाँ सिर पर लादे ट्रेन से उतरी और रेल्वे ट्रेक पार करते हुए गाँव की पगडण्डी की ओर सरपट भागने लगी. दूर घरों से धुंआ उठते हुए कच्चे मकानों वाला गाँव, मैं खिड़की से देख रहा था.
           मगर, ये क्या ? औरतों के सिर पर थैले ओर गठरियों के अलावा चप्पलें भी लटक रही थी. प्रथम दृष्टया ये मुझे बेवकूफी नजर आयी. आखिर, चप्पलें सिर पर लटकाने की क्या जरूरत है ? ठीक है, उतरने की अफरा-तफरी में पैर से निकाल लिया होगा. मगर वे घर ही जा रही थी,ट्रेन से  उतर कर आराम से पहन सकती थी ?
            एकाएक मुझे ३०-३५ वर्ष पहले गाँव में बचपन के दिन याद आये.घर के सभी सदस्यों के बीच 'एसाइन किये गये वर्क' के तहत मेरा काम सबेरे उठ कर  मुंह-अँधेरे में जानवरों को बांधे जाने वाले कोठे से गाय-बैलों को निकाल आंगन में बांध वहां की साफ-सफाई करना था. इस चक्कर में, जानवरों के मूत्र से सना  घास और गोबर बड़े से डल्ले में सिर पर रख कर दूर बाड़ी  के किनारे बने घूरे में फैकना होता था. और ये कार्य मैं, बदन पर पहनी बनियान या शर्ट निकाल कर नंगे-बदन किया करता था फिर चाहे मौसम गर्मी का हो या ठण्ड  का. निश्चित रूप से वैसा उस समय मैं, सिर पर रखे गोबर-मूत्र के रिसाव से अपनी बनियान या शर्ट को गन्दा होने से बचाने के लिए करता था.प्रथम दृष्टया यह दृश्य किसी को भी बेवकूफी नजर आ सकता है.मगर, गाँव में साबुन-सोडा इतनी आसानी से मिलता कहाँ हैं ?