Wednesday, April 29, 2020

जानिये, अपने धम्म-ग्रंथों को

जानिये, अपने धम्म-ग्रंथों को-
ईसा की पहली सदी तक बुद्ध-उपदेश मौखिक ही रहे। किन्तु बाद में इनके संग्रह की आवश्यकता हुई और इस प्रकार ति-पिटक की रचना हुई। बुद्ध-वचनों के संग्रह के लिए बुद्ध के महापरिनिर्वाण से लेकर वर्तमान युग तक संगीतियों का आयोजन होता रहा है, जिसमें पहली संगीति तो बुद्ध महापरिनिर्वाण के तीन मास पश्चात ही हुई थी। चतुर्थ संगीति के समय सिंहलद्वीप के शासक वट्ट गामणि(ई. पू. 29-17) के शासन तिपिटक और इस पर लिखी अट्ठकथाओं को पहली बार लिपिबद्ध किया गया(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 1-2ः राहुल सांकृत्यायन)।
1. सुत्त-पिटक के 5 निकाय- दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय , अंगुत्तरनिकाय , खुद्दकनिकाय.

दीघ-निकाय- इसके तीन वग्ग(वर्ग); सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग और पथिकवग्ग में ब्रह्मजाल, सामञ्ञफल सुत्त, अम्बट्ठसुत्त, पोट्ठपाद सुत्त, महापदान सुत्त, महापरिनिब्बान सुत्त, लक्खनसुत्त, सिंगालोवाद सुत्त आदि 34 सुत्तों का संग्रह हैं। इसके कई सुत्त जैसे ‘आटानाटियसुत्त’ जिसमें भूतप्रेत संबंधी बाते हैं, काफी बाद के हैं(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 7ः राहुल सांकृत्यायन)।

मज्झिम-निकाय- इसके तीन पण्णासक(भाग); मूल-पण्णासक, मज्झिम-पण्णासक और उपरि-पण्णासक हैं। प्रथम दो पण्णासकों में 50-50 और अन्तिम में 52, इस प्रकार अलगद्दूपमसुत्त, अरियपरियेसनसुत्त, रट्ठपालसुत्त, अंगुलिमालसुत्त, अस्सलायनसुत्त, सुभसुत्त आदि कुल 152 सुत्त हैं। इसका घोटमुखसुत्त स्पष्ट रूप से बुद्ध महापरिनिर्वाण के बाद का है(वही, पृ. 12)।

परिवर्ती काल में बौद्ध-धर्म तथा दर्शन के विचारों के संबंध में मतभेद होने लगा था।  प्रारम्भ में थेरवाद(स्थिरवाद) और महासांघिक दो निकाय थे, किन्तु बाद में कई निकाय हो गए। अशोक के समय(ई. पू. 247-232) इसके 18 निकाय हो चुके थे(वही, पृ. 3)।

सुत्तपिटक में दीघ, मज्झिम, संयुत्त तथा अंगुत्तर ये चारों निकाय और पांचवें खुद्दक निकाय के खुद्दक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक और सुत्तनिपात अधिक प्रमाणिक है। सुत्त पिटक में आयी वे सभी गाथाएं जिन्हें बुद्ध के मुख से निकला ‘उदान’ नहीं कहा गया है, पीछे की प्रक्षिप्त ज्ञात होती है। इनके अतिरिक्त भगवान बुद्ध उनके शिष्यों की दिव्य शक्तियां और स्वर्ग, नरक, देव तथा असुर की अतिशयोक्तिपूर्ण कथाओं को भी प्रक्षिप्त ही माना जा सकता है(वही, पृ. 12)।

संयुत्त-निकाय- यह ग्रंथ 5 वग्ग(सगाथवग्ग, निदानवग्ग, खन्धवग्ग, सळायतनवग्ग और महावग्ग) तथा 56 संयुत्तों में विभक्त है। सगाथवग्ग में गाथाएं हैं। निदानवग्ग में प्रतीत्यसमुत्पादवाद के नाम से संसार-चक्र की व्याख्या की गई है। खन्धकवग्ग में पंच-स्कन्ध का विवेचन है। सळायतनवग्ग में पंच-स्कन्धवाद तथा सळायतनवाद प्रतिपादित है। महावग्ग में बौद्ध-धर्म, दर्शन और साधना के महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर व्याख्यान विद्यमान है(वही, पृ. 98)।

अंगुत्तर-निकाय- इसमें संख्या क्रम में 11 निपात हैं जो 160 वग्गों(वर्गों) में विभक्त हैं। कालामसुत्त, मल्लिकासुत्त, सीहनादसुत्त आदि इसके प्रसिद्ध सुत्त हैं। इसका 11 वां निपात स्पष्ट रूप से अप्रमाणिक है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 232)।

क्रमश: 2.
खुद्दक-निकाय-  इसके 15 ग्रंथ हैं-
1. खुद्दक-पाठ.  यह छोटा-सा ग्रंथ है, जिसमें ति-सरण, दस शिक्षा-पद, मंगलसुत्त, रतनसुत्त आदि पाठ हैं।
2. धम्मपद- 423 गाथाओं के इस लघु-ग्रंथ में बुद्ध के उपदेशों का सार है, जो यमकवग्ग, चितवग्ग, लोकवग्ग आदि 26 वग्गों में संगृहित है।
3. उदान- आठ वग्गों में विभाजित 80 सुत्तों का लघुग्रंथ है।
4. इतिवुत्तक- इस लघु-ग्रंथ में 112 सुत्त, 4 निपात में संगृहित हैं जिसके प्रत्येक सुत्त में ‘इतिवुत्तं भगवता’(ऐसा भगवान ने कहा) पद बार-बार आता है।
5. सुत्तनिपात- यह प्राचीन ग्रंथ पांच वग्ग; उरगवग्ग, चूलवग्ग, महावग्ग, अट्ठकवग्ग और पारायणवग्ग में विभक्त है जिसमें मेत्तसुत्त, पराभवसुत्त, रतनसुत्त, मंगलसुत्त, धम्मिकसुत्त, सल्लसुत्त, सारिपुत्त आदि अनेक सुत्तों का संग्रह हैं।
6. विमानवत्थु- इसके ‘इत्थिविमान’ और ‘पुरिसविमान’ दो भाग हैं। इसमें देवताओं के विमान(चलते प्रासादों) के वैभव का वर्णन है। यह बुद्ध-भाषित प्रतित नहीं होता।
7. पेतवत्थु- नरक के दुक्खों का वर्णन करते, इस लघु-ग्रंथ के 4 वग्गों में 51 वत्थु(कथा) हैं। यह स्पष्ट ही परवर्ती ग्रंथ है।
8. थेरगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में महाकच्चायन, कालुदायी आदि 1279 थेरों की गाथाएं हैं।
9. थेरीगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में पुण्णा, अम्बपालि आदि 522 थेरियों की गाथाएं संग्रहित हैं।
10. जातक कथा- इसमें बुद्धकाल के प्रचलित 547 लोक-कथाओं का संग्रह है। भारतीय कथा-साहित्य का यह सबसे प्राचीन संग्रह है।
11. निद्देस- ‘चूलनिद्देस’ और ‘महानिद्देस’ दो भागों में यह सुत्तनिपात की टीका हैं। महानिद्देस से बुद्धकालिन बहुत-से देशों तथा बंदरगाहों का भोगोलिक वर्णन प्राप्त होता है।
12. पटिसम्मिदामग्ग- इसमें अर्हत के प्रतिसंविद(आध्यात्मिक और साक्षात्कारात्मक ज्ञान) की व्याख्या है। यह ‘अभिधम्म’ की शैली में 10 परिच्छेदों में हैं।
13. अपदान- अपदान(अवदान) चरित को कहते हैं। इसके दो भाग; थेरापदान और थेरीपदान में पद्यमय गाथाओं का संग्रह है।
14. बुद्धवंस- यह पद्यात्मक ग्रंथ 28 परिच्छेदों का है और जिनमें 24 बुद्धों का वर्णन है। बौद्ध-परम्परा इसे बुद्ध-वचन नहीं मानती।
15. चरियापिटक- यह भी बुद्धवंस की शैली का है।(पालि साहित्य का इतिहासः पृ. 120-147)।

क्रमशः 3.
विनय-पिटक-
इसमें भिक्खु-भिक्खुणियों के आचार नियम है। इसके 5 भाग; पाराजिक, पाचित्तिय, महावग्ग, चुल्लवग्ग और परिवार हैं। पाराजिक और पाचित्तिय जिसे ‘विभंग’ कहा गया है, में भिक्खुओं तथा भिक्खुणियों से संबंधित नियम हैं। महावग्ग और चुलवग्ग को संयुक्त रूप से ‘खन्धक’ कहा जाता है। परिवार, सिंहल में रचा गया यह 21 परिच्छेदों का ग्रंथ बहुत बाद का है(वही, पृ. 164)।

अभिधम्मपिटक- इसके मूल को पहले ‘मातिका’ कहा जाता था। यह दार्शनिक ग्रंथ अतिविशाल है। मातिकाओं को छोड़कर सारा अभिधम्म-पिटक पीछे का है। इसका एक ग्रंथ ‘कथावत्थु’ तो तृतीय संगीति के प्रधान मोग्गल्लिपुत्त तिस्स ने स्थविरवादी-विरोधी निकायों के खण्डन के लिए लिखा था।
अभिधम्मपिटक 7 भागों में हैं-
1. धम्म-संगणि- इसको अभिधम्म का मूल माना जा सकता है। इसमें नाम(मन) और रूप-जगत की व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
2. विभंग- इसमें रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान स्कन्धों की व्याख्या दी गई है।
3. धातु-कथा- इस ग्रंथ में स्कन्ध, आयतन और धातु का संबंध धर्मों के साथ किस प्रकार से हैं, इसे व्याख्यायित किया गया हैं।
4. पुग्गल-पञ्ञति- पुग्गल(पुद्गल) की पञ्ञति(प्रज्ञप्ति) करना इस ग्रंथ का विषय है। इसमें व्यक्तियों का नाना प्रकार से विवेचन है।
5. कथा-वत्थू- इसके 23 अध्यायों में 18 निकायों के सिद्धांतों को प्रश्न और उसका समाधान के रूप में स्थविरवादी सिद्धांत की स्थापना की गई है।
6. यमक- इस ग्रंथ में प्रश्नों को यमक(जोड़े) के रूप में रख कर विषय को प्रस्तुत किया गया है।
7. पट्ठान- यह आकार में बहुत बड़ा अत्यन्त दुरूह शैली का ग्रंथ हैं। इसके 4 भाग हैं। इस ग्रंथ में धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का विधानात्मक और निषेघात्क अध्ययन प्रस्तुत किया गया है(वही, पृ. 167-179)।

क्रमश: 4.
अट्ठकथा- तिपिटक पर जो समय-समय पर टीका लिखी गई, उसे अट्ठकथा कहते हैं। अट्ठ अर्थात् अर्थ। ये अट्ठकथाएं कई देशों में कई लिपियों में प्राप्त हैं। सिंहल की प्राचीन अट्ठकथाओं में ‘महा-अट्ठकथा’(सुत्त-पिटक), ‘कुरुन्दी’(विनय-पिटक), ‘महा-पच्चरि’(अभिधम्मपिटक) का नाम आता है। इसके अलावा अन्धक-अट्ठकथा, संखेप-अट्ठकथा का भी उल्लेख है। महावंस के अनुसार, महेन्द्र सिंहल में पालि-तिपिटक के साथ अट्ठकथाएं भी लाए थे।
अकेले बुद्धघोस(50 ईस्वी) ने इन अट्ठकथाओं पर जो अट्ठकथाएं लिखी, वे दृष्टव्य हैं-  सुत्त-पिटक अट्ठकथाएं :- सुमंगल-विलासिनी(दीघनिकाय), पपञ्च-सूदनी(मज्झिमनिकाय), मनोरथ-पूरणी(अंगुत्तर निकाय), सारत्थ-पकासिनी(संयुत्त निकाय)। खुद्दक-निकाय की अट्ठकथाएं- परमत्थजोतिका(1. खुद्दक-पाठ 2. सुत्तनिपात 3. जातक)। धम्मपदअट्ठकथा। विनय-पिटक अट्ठकथाएं- समन्तपासादिका, कंखावितरणी(पातिमोक्ख), अट्ठसालिनी(धम्मसंगणी), सम्मोह विनोदिनी(विभंग), धातुकथाप्पकरण-अट्ठकथा, पुग्गल-पञ्ञतिप्पकरण-अट्ठकथा, कत्थावत्थुप्पकरण-अट्ठकथा, यमकप्पकरण-अट्ठकथा, पट्ठानप्पकरण-अट्ठकथा। अभिधम्म-पिटक की अट्ठकथाएं- 1. अत्थसालिनी(धम्म-संगणि) 2. सम्मोहविनोदिनी(विभंग) 3. परमत्थदीपनी/पञ्चप्पकरण अट्ठकथा(धातु-कथा, पुग्गल-पञ्ञति, कथा-वत्थु, यमक, पट्ठान)। संदर्भ- बुध्दघोस की रचनाएंः भूमिकाः विशुद्धिमग्ग भाग- 1)।

क्रमश: 5
थेरवादी साहित्य पालि में निबद्ध है और इसका यह विशेष महत्व है कि किसी भी अन्य बौद्ध सम्प्रदाय का साहित्य इतने प्राचीन और सर्वांग-सम्पूर्ण रूप से मूल भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं है। यह निर्विवाद है कि अन्य सम्प्रदायों के प्राचीन साहित्य के चीनी अथवा तिब्बति अनुवादों के मूल का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ. 227)।

अन्य प्रसिध्द बौद्ध ग्रंथ- विसुद्धिमग्ग(बुद्धघोस), मिलिन्द-पञ्ह, दीपवंस और महावंस(दोनों सिंहलद्वीप के प्रसिद्ध ग्रंथ), महावत्थु, ललितविस्तर, बुद्धचरित(अश्वघोस) आदि।
मिलिन्द-पञ्ह-  मिलिन्द-पञ्ह में यवन राजा मिनान्डर और भिक्खु नागसेन(ई. पू. 150) के मध्य सम्पन्न संलाप संगृहित है। थेरवाद की सिंहली परंपरा इसे अनु-पिटक और म्यांमार तथा थाई परम्परा ति-पिटक मानती है। मिलिन्द-पञ्ह के 6 परिच्छेदों में पहले तीन ही प्राचीन लगते हैं(दर्शन-दिग्गदर्शन, पृ. 550)।

विसुद्धिमग्ग- यह तीन भागों और तेईस परिच्छेदों में विभक्त है। ग्रंथ का प्रधान विषय योग है। पहला भाग शील-निर्देश है, जिसमें शील और धुतांगों का वर्णन है। दूसरे भाग में समाधि-निर्देश है, जिसमें छह अनुस्मृति, समाधि आदि 11 परिच्छेद हैं। तीसरा भाग प्रज्ञा-निर्देश है, जिसमें स्कन्ध, आयतन-धातु, इंन्द्रिय-सत्य, पटिच्च समुप्पाद आदि 10 परिच्छेदों का समावेश है।
 
महावत्थु- इसे महासांघिकों का विनय-पिटक कहा जाता है। इसके 3 भाग है। पहले में दीपंकर आदि नाना अतीत बुद्धों के समय में बोधिसत्व की चर्या का वर्णन है, दूसरे में  तुषित-लोक में बोधिसत्व के जन्म-ग्रहण से प्रारम्भ कर सम्बोधि-लाभ तक का विवरण है। तीसरे भाग में ‘महावग्ग’ के सदृश्य संघ के प्रारम्भिक उदय का वर्णन है(वही, पृ. 326)।

ललितविस्तर- बुद्ध-जीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्रा(प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्षुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र प्रवर्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(वही,  पृ. 327)।

क्रमशः 6

प्रसिद्ध महायानी सूत्र- प्रज्ञापारमिता, सद्धम्म-पुण्डरिक, सुखावतीव्यूह, मध्यमक-कारिका(नागार्जुन- 175 ई.), लंकावतारसूत्र, महायान-सूत्रालंकार(असंग- 375 ई.), योगाचारभूमिशास्त्रा, विज्ञप्तिमात्रातासिद्धि(वसुबन्धु- 375 ई.), न्यायप्रवेश(दिग्नाग- 425 ई.), प्रमाणवार्तिक(धर्मकीर्ति- 600 ई.), बोधिचर्यावतार(शांन्तिदेव- 690-740 ई.), तत्वसंग्रह(शान्तरक्षित- 750 ई.), रत्नकूट, दिव्यादान, मंजुश्री-मूलकल्प(तांत्रिक-ग्रंथ) आदि।
इन सूत्रों में एक ओर शून्यता के प्रतिपादन के द्वारा विशुद्ध निर्विकल्प ज्ञान का उपदेश किया गया है; दूसरी ओर, बुद्ध की महिमा और करुणा के प्रतिपादन के द्वारा भक्ति उपदिष्ट है(वही, पृ. 339)। महायानी सूत्रों का रचनाकाल ई.पू. प्रथम सदी से चौथी सदी तक मानना चाहिए(वही,  पृ. 328-333)।

कंजूर-तंजूर- यह तिब्बति ति-पिटक का नाम है। कंजूर में 1108 और तंजूर में 3458 ग्रंथ संग्रहित हैं(वही, पृ. 332)।
प्रज्ञापारमिता- इसमें शून्यता का अनेकधा प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापामितासूत्रों के अनेक छोटे-बड़े संस्करण प्राप्त होते हैं। यथा दशसाहस्त्रिका, अष्टसाहस्त्रिका, पञ्चविंशतिसाहस्त्रिाका,  शतसाहस्त्रिाका, पंचशतिका, सप्तशतिका, अष्टशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा आदि हैं(वही, 334)।

अवतंसकसूत्र- इस नाम से चीनी ति-पिटक और कंजूर में विपुलाकार सूत्र उपलब्ध होते हैं। चीनी ति-पिटक में अवतंसकसूत्र तीन शाखाओं में मिलता है जो कि क्रमशः 80, 60 और 40 जिल्दों में हैं(वही, पृ. 336)।

क्रमशः 7
रत्नकूट- चीनी और तिब्बति ति-पिटकों में ‘रत्नकूट’ नाम से 49 सूत्रों का संग्रह उपलब्ध है। असंग(350 ई.) और शांतिदेव(690-740 ई.) के द्वारा रत्नकूट के उध्दरण प्राप्त होते हैं। बुद्धोन के अनुसार रत्नकूट के मूलतः 100,000 अध्याय थे जिनमें से केवल 49 शेष हैं(वही, पृ. 337)।

सुखावतीव्यूह- इस नाम से संस्कृत में 2 ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। दोनों में अमिताभ बुद्ध का गुणगान है। ये सूत्र जापान के ‘जोड़ो’ अथवा चीनी ‘चि’ एवं ‘शिन’ सम्प्रदाय के प्रधान ग्रंथ हैं (वही, पृ. 337)।

कारण्डव्यूह- इस ग्रंथ में ‘अवलोकितेश्वर’ की महिमा का विस्तार है। यहां एक प्रकार का ईश्वरवाद वर्णित है क्योंकि उसमें ‘आदिबुद्ध’ को ही ध्यान के द्वारा जगत-स्त्रष्टा कहा गया है। ‘आदिबुद्ध’ से ही अवलोकितेश्वर का आविर्भाव हुआ तथा अवलोकितेश्वर की देह से ‘देवताओं’ का। अवलोकितेश्वर पंचाक्षरी विद्या ‘ओम मणि पद्मे हूँ ’ को धारण करते हैं।

लंकावतारसूत्र- यह योगाचार का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सब कुछ प्रतिभासात्माक अथवा विकल्पात्मक भ्रान्तिमात्र है, केवल निराभास एवं निर्विकल्प चित्त ही सत्य है- ग्रंथ का यह प्रतिपाद्य विषय दूसरे से सातवें परिवर्त(अध्याय) तक वर्णित है(वही, पृ. 339)।

सद्धम्मपुण्डरिक- इस ग्रंथ में निदान, उपाय कौशल्य, ओपम्य, अधिमुक्ति, औषधि; आदि कुल सत्ताईस परिवर्त हैं। मैत्री, प्रज्ञा पारमिता ग्रंथ का प्रमुख विषय है। इसके रचयिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसी मान्यता है कि ईसा की पहली सदी में इस महायानी ग्रंथ की रचना की गई। भारत के बाहर नेपाल, तिब्बत, चीन जापान, मंगोलिया,भूटान, तायवान आदि देशों में यह एक पवित्र ग्रंथ है। बीसवीं सदी में जापान के निचिरेन बौद्ध सम्प्रदाय के प्रसिध्द्ध आचार्य फ्युजी गुरुजी- जिन्होंने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की भयानकता के दृष्टिगत कई देशों में बुध्द का शांति संदेश देते हुए विश्व-शांति स्तूपों का निर्माण किया; के प्रेणास्रोत सद्धम्मपुण्डरिक सूत्रा रहे हैं(प्रस्तावनाः सद्धम्मपुण्डरिकसूत्र: प्रो. डॉ. विमलकीर्ति)।

धर्मादेश

धर्मादेश-
भारत के विख्यात फिल्म निदेशक गुलजार पंजाब के हैं। मैं उन्हें हिन्दी में खत लिखता था और वे अंग्रेजी में जवाब देते थे क्योंकि वे उर्दू भाषा के कवि-लेखक रहे हैं और मैं उर्दू बिलकुल नहीं जानता।
एक बार मैंने खीजकर उन्हें लिखा कि इतने दिनों बाद भी तुमने हिन्दी क्यों नहीं सीखी? इस पर गुलजार का जो जवाब आया वह महत्वपूर्ण है। गुलजार ने व्यंग में लिखा था-
‘‘तुम तो जानते हो, पंजाब का मर्द उर्दू लिखता है और पंजाबी बोलता है।’’
दरअसल, हिन्दी पंजाब में औरतों को पढ़ाई जाती है ताकि वे रामचरितमानस पढ़ सकें। औरतों को रामचरितमानस इसलिए पढ़ाई जाती रही है कि वे ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी’ को धर्मादेश की रूप में स्वीकार करती रहें (मुद्राराक्षसः धर्मोंग्रंथों का पुर्नपाठ, पृ. 156)।

अंतर्राष्ट्रीय सपोर्ट

अंतर्राष्ट्रीय सपोर्ट
मुस्लिमों के विरुद्ध सतत उगलती घृणा पर आखिरकार मोदीजी को, एक-एक कर मुस्लिम राष्ट्राध्यक्षों को बताना पड़ा कि भारत में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यह है अंतर्राष्ट्रीय दबाव।
हजारों, लाखों भारतीय इन मुस्लिम देशों में रोजी-रोटी के लिए काम करते हैं. अगर यहाँ मुस्लिमों के विरुद्ध घृणा फैलाई जाती है, उन पर अत्याचार होता है, तो हमारे भाई उन देशों में कैसे सुरक्षित रह सकते हैं ?
यही वही अंतर्राष्ट्रीय सपोर्ट है, जिसकी प्रत्याशा में बाबासाहब अम्बेडकर ने बुद्धिज़्म को चुना। हम यह नहीं कहते कि यही मात्र कारण है, किन्तु प्रमुख कारण है, इसमें संदेह नहीं।
जो लोग बाबासाहब के धर्मांतरण को कम आंकते हैं, या व्यक्ति को धर्म की जरुरत नहीं समझते उन्हें अपने कांसेप्ट को दुरुस्त करने की जरुरत है.
बौद्ध धर्म, नैतिकता का नाम है, जैसे कि बाबासाहब अम्बेडकर ने कहा. व्यक्ति अकेले है तो उसे नैतिकता की भी क्या जरुरत है ?  नैतिकता की जरुरत तब पड़ती है जब परस्पर व्यवहार की बात आती है. अर्थात अगर व्यक्ति समाज में रहता है तो उसे नैतिकता अर्थात धर्म की जरुरत होगी।  

Tuesday, April 28, 2020

'बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' और डॉ अम्बेडकर

बुद्धचरित और डॉ अम्बेडकर
1. भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग की दिलचस्पी बौद्ध धर्म में बढ़ती जा रही थी(बाबासाहब डॉ. अम्बेडकरः परिचयः बुद्धा एण्ड हिज धम्मा)। बाबासाहब स्वयं भी उत्तरोतर बुद्ध के धर्म की ओर आकृष्ट हो रहे थे। स्वाभाविक रूप से बुद्ध के चरित्र और उनकी शिक्षाओं के संबंध में एक ऐसे ग्रंथ की आवश्यकता थी, जो विशेषतया उस वर्ग की अपेक्षाओं की पूर्ति करें जो हिन्दुओं की हठधर्मी से निराश हो चुका था।
2. बुद्ध के चरित्र और शिक्षाओं के संबंध में डॉ. अम्बेडकर के पास ति-पिटक ग्रंथ थे। दीघनिकाय आदि पालि ग्रंथों के आधार पर बुद्ध का जीवन चरित्र लिखना सहज नहीं था(वही)।
3. यह कहने में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं कि संसार में जितने भी धर्मों के संस्थापक हुए हैं, उनमें बुद्ध का चरित और उनकी शिक्षाएं अनुपम है, अनुत्तर है।
4. दीघनिकाय के ‘महापदान सुत्त’ में गौतम बुद्ध से पहले के छह बुद्धों और गौतम बुद्ध के चरित्र दिए गए हैं। गौतम बुद्ध से पहले सिखी, विपस्सी, वेस्सभू, ककुसंघ, कोणागमन और कस्सप ये छह बुद्धों का वर्णन हैं। इसमें  पौराणिक विपस्सी बुद्ध का वर्णन विस्तार से और शेष पांच बुद्धों का वर्णन संक्षेप में दिया गया है(धर्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्ध जीवन और दर्शनः परिशिष्ट- 1ः पृ. 205)।
5. ति-पिटक में एक ही स्थान पर बुद्धचरित नहीं है। वह जातक अट्ठकथा की निदान कथा में मिलता है। यह अट्ठकथा संभवतया बुद्धघोष(340-440 ईस्वी) के समकाल में लिखी गई थी। उससे पहले की सिंहली अट्ठकथाओं से बहुत सी बातें इस अट्ठकथा में आयी है। यह बुद्धचरित प्रधानतया ललितविस्तर के आधार पर लिखा गया है(धर्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन पृ. 22)।
6. विपस्सी बुद्ध की जीवनी बहुत विस्तार के साथ दी गई और उस जीवन पर से ललितविस्तरकार ने अपने पुराण की रचना की है। इस प्रकार गौतम बुद्ध के जीवन चरित में बहुत सी असंगत उटपटांग बातें घुस गई है(धर्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन पृ. 22)।
7. ललितविस्तर ग्रंथ सम्भवतया ईसा की प्रथम शताब्दी में या उससे कुछ वर्ष पहले लिखा गया था। यह महायान का ग्रंथ है(वही)।
8. 6. ललितविस्तर में वर्णित बुद्धजीवनी के कुछ ही समय बाद अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ लिखा। शायद, ललितविस्तर से ही प्रेरणा ले कर। यह भी संस्कृत महाकाव्य है।
7. अश्वघोष, सम्राट कनिष्क (78-120 इस्वी) के समकालीन थे। संस्कृत महाकाव्य ‘बुद्धचरित’ की रचना उन्होंने कनिष्क के दरबार में रहते हुए की थी। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार, इस ग्रंथ का पाठ भारत के अलावा जावा, सुमात्रा और उनके निकटवर्ती द्वीपों में भी होता था(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिकाः बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
10. बुद्धचरित के संबंध में बौद्ध वांगमय के अन्तर्गत हम अन्य स्रोत पर विचार करें तो अश्वघोष कृत ‘बुद्धचरित’ और अट्ठकथाओं के ‘निदान कथा’ में कुछ कम तथ्यहीन कथानक हैं(धर्मानन्द कोसम्बी : भगवान बुद्ध, पृ. 109)। स्मरण रहे, बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में अश्वघोष के ‘बुद्धचरित’ से जगह-जगह उद्धरण लिए हैं।
11.  सिंहली बौद्ध भिक्खु  वनरतन मेघंकर जो सिंहल अधिपति भुवनेक बाहु प्रथम (1277-1288 ईस्वी) के समकालीन थे, ने 'जिनचरित' नाम से बुद्ध जीवनी अपनी मात मातृ-भाषा सिंहली में लिख कर भगवान बुद्ध की भाषा पालि में  लिखी थी.
12. पौराणिक कथाओं पर आधारित काव्यमय चित्र अंग्रेजी लेखक सर एकविन आरनोल्ड कृत ‘लाइट ऑफ एशिया’ था। यह मूलत: अंग्रेजी रचना है जो 1879 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी. इसको बड़ी ख्याति मिली। विश्व की अनेको भाषाओँ में इसका अनुवाद हुआ था.  हिंदी इसका पद्यानुवाद 'बुद्धचरित' शीर्षक से सन1922 में रामचंद्र शुक्ल ने  किया था।
13.  डॉ अम्बेडकर ने अपनी कृति 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' मूल रूप से अंग्रेजी में, संदर्भित ग्रंथों का बिना उल्लेख किये लिखी थी किन्तु हिंदी अनुवाद करते समय डॉ भदंत आनंद कोसल्यायान ने शीघ्र ही इसकी प्रतिपूर्ति कर दी. इसके अनुसार, डॉ आंबेडकर ने प्रधानतया अश्वघोष का बुद्धचरित, दीघनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, संयुक्तनिकाय. अट्ठकथा, जातकनिदान अट्ठकथा, महासच्चक सुत्त मज्झिमनिकाय, चुलवग्ग, महावग्ग(विनयपिटक), धम्मपद, थेरगाथा, थेरगाथा अट्ठकथा आदि हैं.

विरोध की धार सतत कुंद करते विपस्सना संस्थान-

विरोध की धार सतत कुंद करते विपस्सना संस्थान-
1. जो अम्बेडकर के अनुयायी हैं, उनमें व्यवस्था के प्रति जबदस्त असहमति है.
2. यह अम्बेडकर के अनुयायी ही हैं जो विरोध कर सकते हैं, व्यवस्था में परिवर्तन कर सकते हैं.
3. तमाम असहमति होने के बावजूद ये अम्बेडकर के अनुयायी ही हैं जो खामोश हैं. उनमें एक अजीब-सी शांति है. 4. वे कौन-से तत्व हैं, जो अंदर की असहमति को बाहर आने से रोक रहे हैं ?
4. बेशक, हमारे बीच कुछ तत्व हैं जो परिवर्तन की धार को कुंद कर रहे हैं, लोगों को गोल-बंद होने से रोक रहे हैं ?
5. यह कोई दबी बात नहीं हैं कि हिन्दू संस्थाएं आदिवासियों के बीच ही नहीं, अम्बेडकरियों के बीच घुस कर उनका विश्वास हाशिल कर उनके विरोध को 'राजनीतिक ' कह कर नकार रहीं हैं। 6. और ये संस्थाएं एक सुदृढ़ नेटवर्क की तरह कार्य करते 'विपस्सना केंद्र' हैं, जहाँ न तो जयभीम बोला जाता है और न अम्बेडकर को पढाया जाता है। जहाँ 'जयभीम' बोलने को एतराज हो, वे सामाजिक बदलाव के मिशन में हमारे सहायक कैसे हो सकते है ? 7. कई सामाजिक चिंतकों और विचारकॉ इन संस्थानों की गतिविधियों पर उंगली उठाया हैं. निस्संदेह जो सामाजिक बदलाव के हिमायती हैं, उन्हें इस विषय पर गौर करना चाहिए। 8. आन्दोलन करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना आन्दोलन की राह में बिछाए गए काँटों को हटाना।

Monday, April 27, 2020

बुद्ध के शरीर में 32 लक्षण

बुद्ध के शरीर में  32 लक्षण
बाबासाहब अम्बेडकर कृत ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में बुद्ध के शरीर में बत्तीस महापुरुष-लक्षण का प्रसंग बालक सिद्धार्थ के जन्म के समय 'असित ऋषि के आगमन' से होता है-
1. जिस समय बालक का जन्म हुआ, उस समय हिमालय में असित नाम के एक बड़े ऋषि रहते थे।
2. असित ने सुना कि आकाश-स्थित देवता ‘‘बुद्ध’’ शब्द की घोषणा कर रहे हैं। उन्होंने देखा कि वह अपने वस्त्रों को उपर उछाल-उछाल कर प्रसन्नता के मारे इधर-उधर घूम रहे हैं। वह सोचने लगा कि मैं वहां क्यों न जाउ, जहां ‘बुद्ध’ ने जन्म ग्रहण किया है।
3. जब असित ऋषि ने समस्त जम्बूद्वीप पर अपनी दिव्य दृष्टि डाली, तो देखा कि शुद्धोदन के घर एक दिव्य बालक ने जन्म ग्रहण किया है और देवताओं को भी इतनी प्रसन्नता का यही कारण है।
14. असित ने देखा कि बालक बत्तीस महापुरुष लक्षणों  तथा अस्सी अनु-व्यंजनों से युक्त है। उसने देखा कि उसका शरीर शुक्र और ब्रह्मा के शरीर से भी अधिक दीप्त है और उसका तेजो-मण्डल उनके तेजोमण्डल से लाख गुणा प्रदीप्त है। उसके मुख से तुरन्त यह वाक्य निकला- ‘‘निस्संदेह यह अद्भूत पुरुष है।’’ वे अपने आसन से उठे, दोनों हाथ जोड़े और उसके पेरों पर गिर पड़े। उनहोंने बालक की परिक्रमा की और उसे अपने हाथों में लेकर विचार-मग्न हो गए।
15. असित ऋषि पुरानी भविष्यवाणी से परिचित थे कि जिसके शरीर में गौतम की तरह के बत्तीस महापुरुष-लक्षण होंगे, वह इन दो गतियों में से एक को निश्चित रूप से प्राप्त होगा, तीसरी को नहीं- ‘‘यदि वह गृहस्थ रहेगा, तो वह चक्रवर्ती नरेश होगा। लेकिन यदि वह गृह-त्याग कर प्रव्रजित हो जाएगा तो वह सम्यक सम्बुद्ध होगा।’’

तत्संबंध की चर्चा करते हुए धर्मानन्द कोसम्बी लिखते हैं- इस प्रकार के विस्तृत वर्णन ‘जातक’ की निदान कथा, ललितविस्तर’ और बुद्धचरित’ काव्य में आए हैं। ति-पिटक वांग्मय में अनेक स्थानों पर उनका विस्तृत उल्लेख आया है। पोक्खरसाति ब्राहमण ने तरुण अम्बष्ठ को यह देखने के लिए भेजा था कि बुद्ध के शरीर पर ये लक्षण स्पष्ट रूप से देखे। परन्तु उसे वे लक्षण दिखाई नहीं दिए। बुद्ध ने उसे वे अद्भूत चमत्कार दिखाये(दीघनिकायः अम्बट्ठ सुत्त)। इस प्रकार ‘बुद्धचरित’ के साथ इन लक्षणों का यत्र-तत्र संबंध दिखाया गया है। चूंकि बुद्ध का बड़कप्पन दिखाने का यह भक्त जनों का प्रयत्न होता है, अतयव उसमें विशेष तथ्य है, ऐसा समझने की आवश्यकता नहीं है(भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, पृ. 79 )।

स्मरण रहे, दीघनिकाय के महापदान  सुत्त में गौतम बुद्ध से पहले के छह बुद्धों और गौतम बुद्ध के चरित्र प्रारम्भ में संक्षेप में दिए हैं। गौतम बुद्ध से पहले सिखी, विपस्सी, वेस्सभू, ककुसंघ , कोणागमन, और कस्सप ये छह बुद्ध हो गए। इन में से पहले तीन क्षत्रिय और शेष ब्राह्मण थे।
भदन्तजी के अनुसार, बुद्धकालीन ब्राहमणों में इन लक्षणों का बहुत महत्व माना जाता था। अतयव यह दिखाने के लिए कि बुद्ध के शरीर पर ये सारे लक्षण थे, बुद्ध के पश्चात एक दो शताब्दियों के अनन्तर ये सुत्त बनाए गए होंगे और फिर इस ‘महापदान’सुत्त(दीघनिकाय) में दाखिल किए गए होंगे। गौतम बोधिसत्व के बुद्ध हो जाने पर ब्राहमण पंडित उनके लक्षण देखते थे। पर इस सुत्त में यह बतलाया गया है कि विपस्सी कुमार के लक्षण उनके जन्म के पश्चात तुरन्त ही देखे गए। इससे एक बड़ी असंगति उत्पन्न हुई है। वह यह कि उसके चालिस दांत हैं, वे सीधे हैं, उनमें विवर नहीं है और उसकी दाढ़ें शुभ्र है- यह चार लक्षण उनमें वैसे ही रह गए। इस सुत्तकार को इस बात का स्मरण नहीं रहा कि किसी बच्चे के जन्म के साथ दांत नहीं होते हैं (वही, पृ. 212, परिशिष्ट- 1) ।

Sunday, April 26, 2020

आशंका

आशंका
बाबासाहब अम्बेडकर ब्राह्मणों से हमेशा आशंकित रहा करते थे। घटना तब की है, जब वे वायसराय कौंसिल के सदस्य थे। एक बार भदन्त कोसल्यायन बाबासाहब की कोठी पर मिलने आए। उन्होंने बाबासाहब से उनकी अंग्रेजी पुस्तक ‘हू वेअर दी अनटचेबल्स’ का हिन्दी में अनुवाद करने की अनुमति मांगी। बाबासाहब ने उसकी अनुमति दे दी।

जब भदन्तजी वापिस चले गए तो बाबासाहब मुझसे पूछने लगे कि यह साधु किस जाति से भिक्षु बना है। मुझे इनकी पुरानी जाति या वर्ण का ज्ञान नहीं था किन्तु राहुल सांकृत्यायन के बारे में जानता था कि वे जन्म-जाति के पांडे ब्राह्मण है। बाबासाहब बोले कि ब्राह्मणों के भिक्षु बन जाने पर भी मुझे संदेह रहता है, क्योंकि उनके मस्तिष्क किसी न किसी कोने में उनका वामणपन अवश्य जीवित रहता है। अतः वह विशुद्ध भिक्षु कभी नहीं बन सकते(सोहनलाल शास्त्री बाबासाहब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के सम्पर्क में पच्चीस वर्ष पृ. 115 )।

बाबासाहब की आशंका निर्मूल नहीं थी. चाहे बुद्धोत्तर काल हो अथवा अम्बेडकरोत्तर, ति-पिटक ग्रंथों के साथ 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का अनुवाद करने में, हम इसका स्पष्ट प्रभाव देख सकते हैं!

सप्तपदी

सप्तपदी-
आर्यों में लोगों का एक ऐसा वर्ग होता था, जिसे देव कहते थे, जो पद और पराक्रम में श्रेष्ठ माने जाते थे। अच्छी संतानोत्पत्ति के उद्देश्य से आर्य लोग देव वर्ग के किसी भी पुरुष के साथ अपनी स्त्रियों को संभोग करने की अनुमति देते थे। यह प्रथा इतने व्यापक रूप से प्रचलित थी कि देव लोग आर्य स्त्रियों के साथ पूर्वास्वादन को अपना आदेशात्मक अधिकार समझने लगे थे। किसी भी आर्य स्त्री का उस समय तक विवाह नहीं हो सकता था, जब तक कि वह पूर्वास्वादन के अधिकार से अथवा देवों के नियंत्रण से मुक्त नहीं कर दी जाती थी। तकनीकि भाषा में इसे ‘अवदान’ कहते थे। ‘लाज होम’ अनुष्ठान प्रत्येक हिन्दू परिवार में किया जाता है जिसका विवरण 'आश्वालयन गृह्य सूत्र' में मिलता है। ‘लाज होम’ देवों द्वारा आर्य स्त्री को पूर्वास्वादन के अधिकार से मुक्त किए जाने का स्मृति चिन्ह है। ‘लाज होम’ में ‘अवदान’ एक ऐसा अनुष्ठान है, जो देवों के वधू के उपर अधिकार को समापन करता है।
सप्तपदी सभी हिन्दू विवाहों का सबसे अनिवार्य धर्मानुष्ठान है जिसके बिना हिन्दू विवाह को मानूनी मान्यता नहीं मिलती। सप्तपदी का देवों के पूर्वास्वादन के अधिकार से अंगभूत संबंध है। सप्तपदी का अर्थ है, वर का वधू के साथ सात कदम चलना।
यह क्यों अनिवार्य है? इसका उत्तर यह है कि यदि देव क्षतिपूर्ति से असंतुष्ट हो तो वे सातवे कदम से पहले दुल्हन पर अपना अधिकार जता सकते हैं। सांतवा फेरा लेने के बाद 'देवों' का अधिकार समाप्त हो जाता था और वर, वधू को ले जाकर दोनों पति और पत्नि की तरह रह सकते थे। इसके बाद देव न कोई अड़चन डाल सकते थे और न ही कोई छेड़कानी कर सकते थे(प्राचीन शासन प्रणालीः आर्यों की सामाजिक स्थितिः पृ. 20.21ः डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर सम्पूर्ण वामय खण्ड- 7ः डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान प्रकाशन दिल्ली)।

अधिकांश ब्राह्मण बौद्ध विचारक महायानी

अधिकांश ब्राह्मण बौद्ध विचारक महायानी-
आपको यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अधिकांश महत्वपूर्ण ब्राह्मण बौद्ध विचारक हीनयान से नहीं महायान से जुड़े थे। दरअसल, हीनयान बौद्ध रूढ़ियों पर ज्यादा निर्भर था जबकि ज्यादा प्रचारित महायान पूजा-पाठ में ब्राह्मण-चर्याओं जैसा हो गया था।(मुद्रा राक्षस: धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ, वही, पृ. 159)
बौद्ध न्याय-शास्त्र के सबसे बड़े विचारक दिङनाग पांचवी सदी में हुए थे और वे ब्राह्मण ही थे। कहते हैं कि न्याय-शास्त्र पर दिङनाग ने 100 से भी उपर किताबें लिखी थी। अपेक्षाकृत कम विख्याात दिङनाग के शिष्य धर्मकीर्ति को भारत का 'इमैनुअल कान्ट' कहा जाता है। दरअसल सही अर्थों में धर्मकीर्ति,  बुद्ध विवेक के ज्यादा निकट थे। बुद्ध का विख्यात वचन है- ‘अत्त दीपो भव’ यानि अपनी रोशनी खुद बनो। धर्मकीर्ति (सातवीं शताब्दी) ने इस अवधारणा का व्यापक विस्तार किया था(वही)। दिलचस्प है कि बीसवीं सदी के मध्य ते धर्मकीर्ति के बारे में  किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं था। राहुल सांस्कृत्यायन उनकी सबसे बड़ी कृति  ‘प्रमाणवार्तिक’ की पाण्डुलिपि तिब्बत से लाए थे जो 1953 में पहली बार प्रकाशित हुई थी(वही)। तब लोगों को उनके बारे में पता चला.

जो उत्पन्न हुआ है, मरता ही है।

जो उत्पन्न हुआ है, मरता ही है।
कृशा गोतमी का एकलौता पुत्र था। वह किसी बीमारी से मर गया। इससे कृशा गोतमी अति व्याकुल हो गई। वह अपने मरे हुए बच्चे को लेकर इधर-उधर पागल-सी घूमती थी। ‘बच्चे को जिन्दा कर दो’ कहते हुए वह रोती थी।
किसी ने उसे बुद्ध के पास जाने की सलाह दी। तब भगवान जेतवन में विहर रहे थे। भगवान के पास कुछ दूरी पर मरे बच्चे को रखकर ‘मेरे बच्चे को जीवित कर दो’ ऐसा आग्रह करने लगी।
तब बुद्ध ने कहा- ‘‘कृशा! तू नगर में जा और जिस घर में कोई मरा न हो, वहां से एक मुट्ठी पीली सरसो ला।’’
बदहवाश-सी कृशा कई घर गई और एक मुट्ठी पीली सरसो मांगी। बोली- तुम्हारे घर में कोई मरा नहीं होगा तो यह पीली सरसो मेरे मृत पुत्र को जीवित कर देगी। सभी ने यही जवाब दिया- ‘‘कोई घर बिना मृत्यु का नहीं है।’’
जल्दी ही कृशा को होश आया। उसे इस शाश्वत सत्य का ज्ञान हुआ कि ‘जो उत्पन्न हुआ है, वह मरता ही है(स्रोत- भदन्त धर्मकीर्तिः भगवान बुद्ध का इतिहास और धम्मदर्शन, पृ. 96)।’  

Saturday, April 25, 2020

पानी चाहिए, जाति नहीं

पानी चाहिए, जाति नहीं
उस समय, सावस्थी में बुद्ध के शिष्य आनन्द चारिका कर रहे थे। उन्हें प्यास लगी। उन्होंने देखा कि एक लड़की सिर पर पानी का घड़ा लिए जा रही है। उसका नाम प्रकृति था। उन्होंने आवाज देकर उसे रोका और पानी मांगा।
‘‘मैं ‘अच्छूत’ हूं, भंतेजी, आपको पानी कैसे दे सकती हूं?’’ प्रकृति ने बड़े संकोच से कहा।
‘‘मुझे पानी चाहिए, तेरी जाति नहीं।’’ -आनन्द ने उत्तर दिया।
स्रोत- भदन्त धर्मकीर्तिः भगवान बुद्ध का इतिहास और धम्मदर्शन पृ. 91

Thursday, April 23, 2020

दीक्षा-भूमि नागपुर में डॉ अम्बेडकर ने एक 'धम्म-प्रचारक' रूप में 'धम्म-दीक्षा' दिलाई थी-

दीक्षा-भूमि नागपुर में डॉ अम्बेडकर ने एक 'धम्म-प्रचारक' रूप में लोगों को 'धम्म-दीक्षा' दिलाई थी-
घटना 1950 की है। सिंहलद्वीप में विश्व बौद्ध सम्मेलन का प्रथम अधिवेश आयोजित हुआ था। बाबासाहब अम्बेडकर उसमें एक मान्य अतिथि के रूप में शरीक हुए थे।
केंडी के एक बड़े होटल में बाबासाहब को ठहराया था। वे कुछ अस्वस्थ थे, यह जानकर भदन्त आनन्द कोसल्यायन उनसे मिलने गए थे। वहां बाबासाहब से उनका जो संवाद हुआ था, अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘यदि बाबा न होते!’ में भदन्तजी बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है-
‘‘डा. साहब, भारत के समाचार पत्रों में छपा था कि आपने नई दिल्ली के बौद्ध विहार में ति-शरण पंचशील ग्रहण किया है। किन्तु यहां के समाचार पत्रों में लिखा है कि आप बौद्ध धर्म का 'अध्ययन' कर रहे हैं? मैं इसलिए यह पूछ रहा हूं कि यदि कोई मुझसे यही प्रश्न पूछे तो मैं सही उत्तर दे सकूं !’’
‘‘और कोई समझे न समझे, आपको तो समझना चाहिए। मैं तो ‘बौद्ध’ से भी कुछ अधिक, बौद्ध धर्म का प्रचारक हूं। यदि मैं अपने बौद्ध होने की घोषणा कर दूं तो लोग मेरे सरल-सीधे भाईयों को जाकर कहेंगे कि डॉ. अम्बेडकर तो अब ‘बौद्ध’ हो गया है, तुम्हे उससे क्या लेना-देना। इसलिए मैंने तय किया है कि अभी थोड़े समय मैं बौद्ध धर्म का प्रचार करता रहूंगा। जब मैं देखूंगा कि एक पर्याप्त संख्या मेरे साथ आने के लिए तैयार है, तभी मैं ‘बौद्ध’ होने की सार्वजनिक घोषणा कर दूंगा।’’- डॉ. अम्बेडकर का जवाब था।

Wednesday, April 22, 2020

सतिपट्ठान

सतिपट्ठान
भंते या विपस्सना आचार्यों से हम बहुधा ‘सतिपट्ठान’ का नाम सुनते हैं। वे इसका उल्लेख किसी ‘गुह्य सूत्र’ की तरह करते हैं। 'गुह्य-सूत्र' महायान की उपज है, जो हिन्दू उपनिषदों में वर्णित 'ब्रह्म सूत्रों' की नक़ल है। किन्तु बुद्ध ने किसी 'गुह्य सूत्र' की देशना नहीं की । डॉ अम्बेडकर के अनुसार, जो कथन जन साधारण की समझ के बाहर हो , वह बुद्ध वचन हो ही नहीं सकता।
सतिपट्ठान अर्थात  'स्मृति-प्रस्थान' के आख्यान में चार प्रस्थान यथा- 'कायानुपस्सना', 'वेदनानुपस्सना', 'चित्तानुपस्सना', 'धम्मानुपस्सना' पर आधारित जिस समाज लिए बुद्ध प्रयासरत थे, उस पांचवे  'समाजनुपस्सना' का इसमें कोई विवेचन नहीं है. इन 'चार प्रस्थानों' के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे 'साधक' को समाज से कोई सरोकार नहीं है.
क्या बुद्ध ऐसे हैं ? क्या बुद्ध का व्यक्तित्व ऐसा है ? क्या बुद्ध की देशना ऐसी है ? आखिर क्यों 'चरत भिक्खवे चारिकं' की देशना करने वाले बुद्ध को 'विपस्सी' (महापदान सुत्त : दीघ निकाय) बना दिया गया ?  आखिर क्यों बुद्ध को, जो कलामों को आँख खोलकर चलने की हिदायत देता हो,  आँख मूंदने को मजबूर किया गया ?
संयुक्त निकाय (महावग्ग) का सेदक सुत्त इस 'रहस्य' से पर्दा खोलता है-

‘‘अत्तानं, भिक्खवे, रक्खिस्सामि ति सतिपट्ठानं सेवितब्बं, परं रक्खिस्सामि ति सतिपट्ठानं सेवितब्बं।
‘‘भिक्खुओं! अपनी रक्षा करूंगा- ऐसे सतिपट्ठान का अभ्यास करना चाहिए। दूसरे की रक्षा करूंगा- ऐसे सतिपट्ठान का अभ्यास करना चाहिए।
अत्तानं भिक्खवे, रक्खन्तो परं रक्खति, परं रक्खन्तो अत्तानं रक्खति।’’
भिक्खुओं! अपनी रक्षा करने वाला दूसरे की रक्षा करता है और दूसरे की रक्षा करने वाला अपनी रक्षा करता है।
‘‘कथं च भिक्खवे, अत्तानं रक्खन्तो परं रक्खति? आसेवनाय, भावनाय, बहुलीकम्मेन- एवं खो भिक्खवे, अत्तानं रक्खन्तो परं रक्खति।
‘‘भिक्खुओं! कैसे अपनी रक्षा करने वाला दूसरे की रक्षा करता है? सेवन करने से, भावना करने से, अभ्यास करने से।
‘‘ कथं च भिक्खवे, परं रक्खन्तो अत्तानं रक्खति? खन्तिया, अविहिंसाय, मेत्तचित्ताय, अनुदयाताय-
भिक्खुओं! कैसे दूसरे की रक्षा करने वाला अपनी रक्षा करता है? क्षमा-सीलता से, हिंसा-रहित होने से, मैत्री से, दया से।
भिक्खुओं! इसी तरह दूसरे की रक्षा करने वाला अपनी रक्षा करता है।
एवं खो भिक्खवे, परं रक्खन्तो अत्तानं रक्खति।’’ @amritlalukey.blogspot.com

बुद्धवचनों की कसौटी

बुद्धवचनों की कसौटी
188.
भिक्खुओं, यदि कोई भिक्खु ऐसा कहे-
"इध, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य-
आवुसो ! मैंने इसे भगवान के मुख से सुना,
सम्मुखं एतं, आवुसो, भगवतो सुत्तं,
मुख से ग्रहण किया है;
पटिग्गाहितं
यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का उपदेश है
अयं धम्मो, अयं विनयो , इदं सत्थु सासनं'ति
तो भिक्खुओं! उस भिक्खु के भाषण का
तस्स भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं
न अभिन्दन करना, न निन्दा करना।
न पटिक्कोसितब्बं.
अभिनन्दन न कर, निन्दा  न कर उन पद-व्यंजनों को
अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा तानि पद व्यंजनानि
अच्छी तरह सीख कर सूत्र से तुलना करना,
साधुकं उग्गहित्वा सुत्ते ओसारेतब्बानि
विनय में देखना ।
विनये सन्दस्सेतब्बानि
यदि वह सूत्र से तुलना करने पर, विनय में देखने पर
तानि चे सुत्ते ओसारेमानानि, विनये सन्दस्सियमानानि   
न सूत्र में उतरते हैं न विनय में दिखायी देते हैं
न चेव सुत्ते ओसरन्ति, न च विनये सन्दिस्सन्ति
तो विश्वास करना कि
निट्ठमेत्थ गन्तब्बं-
अवश्य ही भगवान का वचन नहीं है,
अद्धा, इदं न च येव तस्स भगवतो वचनं
इस भिक्खु का ही दुगृहित है।
इमस्स भिक्खुनो दुग्गाहितं
ऐसा होने पर भिक्खुओ! उसको छोड़ देना।
इति हेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ.

यदि वह सूत्र से  तुलना करने पर, विनय में देखने पर
तानि चे सुत्ते ओसारेमानानि, विनये सन्दस्सियमानानि   
सूत्र में भी खरा उतरता है, विनय में भी दिखाई देता है,
सुत्ते चेव ओसरन्ति, विनये येव सन्दिस्सन्ति
तो विश्वास करना -
निट्ठमेत्थ गन्तब्बं-
इस भिक्खु का वह सुगृहीत है।
इमस्स च भिक्खुनो सुग्गहितं
भिक्खुओ! इसे धारण करना
इदं भिक्खवे, धारेय्याथ।
(महापरिनिब्बान सुत्त: दीघनिकाय)।
---------------------------
ओसारेति- पुनर्नियुक्त करना .
सन्दिस्सति- दिखाई देना.

Monday, April 20, 2020

बौद्धों की 'पूजा-पाठ' हिन्दुओं का अनुकरण

बौद्धों की 'पूजा-पाठ' हिन्दुओं का अनुकरण
वर्तमान में, हमारे यहाँ जो 'बुद्ध वंदना' की जाती है, चाहे घरों में हो या बुद्ध विहारों में, उसका विधि-विधान हिन्दुओं का अनुकरण है, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है. यद्यपि इस बात से खुश हुआ जा सकता है कि बौद्ध 'पूजा-पाठ' में उपासक कुछ माँगता नहीं है  जैसे एक हिन्दू अपने इष्ट देवता से मांगता है. अधिक से अधिक बौद्ध उपासक अपने या अपने परिवार के मंगल होने की कामना करता है जैसे 'भवतु मे जय मंगलं' से प्रतीत होता है.

दरअसल, बौद्धों में बुद्ध को 'भगवान' या 'देवता' नहीं समझा जाता।  और, जब बुद्ध 'भगवान' या 'देवता' नहीं है तो उसके पास वह 'शक्ति' भी नहीं है कि किसी की मांग पूरी हो. बौद्धों में चमत्कार और रहस्यों को हीन दृष्टी से देखा जाता है. बुद्ध स्वत: ही चमत्कारों और रहस्यों के विरुद्ध देशना करते हैं. ति-पिटक ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग हैं जिनसे इसकी पुष्टि होती है.

बौद्धों पर, चाहे वे भारत के हो या अन्य देशों के, उनकी पूजा-पद्दति पर हिन्दुओं का प्रभाव साफ  देखा जा सकता है और यह स्वाभाविक भी है. कारण यह है कि 'बुद्धिस्ट कल्चर' जिसे एक तरह से भारत से पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया था, उसका पुनरुद्धार जो बाबासाहब के धर्मांतरण के बाद हुआ, उसका 'संस्करण' या तो बाहरी बुद्धिस्ट देशों से आया है अथवा हिन्दुओं के अनुकरण से . 

बाबासाहब अम्बेडकर, जब वे बुद्धिज़्म की ओर प्रवृत हुए, कई बार बुद्धिस्ट देशों की यात्रा पर गए थे और उनके पूजा विधि-विधानों का अध्ययन कर तत्सम्बंध में एक पुस्तिका भी तैयार की. उन्होंने उनमें से कई 'अपच' चीजें निकालने का प्रयास भी किया। भारत जैसे 'हिन्दू संस्कृति' प्रधान देश में बाबा साहब अम्बेडकर 'पूजा' का महत्त्व अच्छी तरह समझते थे. तात्कालिक रूप से उन्हें अपने समाज के लोगों के लिए 'हिन्दू संस्कृति' का विस्थापन चाहिए था. अपेक्षित सुधार तो बाद में भी किया जा सकता था. 

और इसलिए वर्तमान में, हमारे यहाँ  'बुद्ध वंदना' के नाम पर जो भी 'पूजा-पाठ' किया जाता है, उस पर हिन्दू 'पूजा-पाठ' का असर साफ-साफ देखा जा सकता है. ति-रत्न वंदना के पहले जो पुष्प पूजा, धूप पूजा, सुगंधी पूजा पदीप पूजा, बोधि पूजा आदि की जाती हैं, उसमें कई स्थानों पर 'पूजा' शब्द आता है. यथा 'पूजयामि मुनिंदस्स सिरिपाद सरोरूहे आदि. यह हिन्दू पूजा-पाठ का अनुकरण नहीं तो क्या है ?  
यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु 'परित्राण पाठ' क्या है ? इसमें बाकायदा देवताओं का आव्हान किया जाता है! 'परित्राण-पाठ', जो सिंहल द्वीप, म्यामार आदि से आयात हुआ है, वह 'सत्य नारायण की कथा' से कम नहीं है! इसमें 'ब्रह्मा' आदि देवताओं को नमन किया जाता है ! स्वर्ग-नरक का उपदेश दिया जाता है ! अगर कुछ 'सुधार'  की बात करो तो  'बाहरी दुश्मनों' का भय दिखा कर चुप करा दिया जाता है ?  

धम्मप्रचारक इसे भली-भांति जानते हैं किन्तु, निहित स्वार्थ-वश यह 'खेल' चलता रहता है। धम्मप्रचारक किसी न किसी 'धम्म-प्रतिष्ठान' से सम्बद्ध होते हैं. धम्म-प्रचारकों की प्रतिष्ठा इन प्रतिष्ठानों से होती है. 'परित्राण-पाठ' न करने से धम्म-प्रचारकों की मांग कम होती है जो इन प्रतिष्ठानों की सेहत के लिए अरुचिकर है. चूँकि इन प्रतिष्ठानों में 'हिन्दू मिशनरियों' का काफी पैसा लगा होता है और इसलिए ये 'खेल' मिली-भगत से चलता रहता है.

बाबासाहब अम्बेडकर इन प्रतिष्ठानों/बुद्धविहारों को शिक्षा के केंद्र बनाना चाहते थे. किन्तु वर्तमान में ये प्रतिष्ठान विपस्सना और पूजा के  केंद्र बन कर रह गए हैं. यहाँ सामाजिक-शैक्षणिक बातें करना यहाँ के प्रबंधकों को 'राजनीति' की बातें लगती है !  वे तुरंत इस विषय पर बात करने को मना कर देते हैं !

जो नव दीक्षित बौद्ध हैं, वे तो बहुत कुछ ठीक है, तिब्बती जैसे परम्परागत बुद्धिस्टों की पूजा-पाठ तो हिन्दुओं से भी अधिक लम्बी है. आप अधिक दूर नहीं,  बुद्धगया अथवा सारनाथ जाईए, वहां आप भारत में ही होकर किसी 'दिव्य लोक' में होते हैं. हाँ, मगर इन बुद्ध विहारों में एक शुकून भरी शांति दिखाई देती है जो हिन्दू मंदिरों में नदारत है. 
__________________________
डॉ अम्बेड कर द्वारा बौद्ध देशों की यात्रा-
1950  सिंहल द्वीप में संपन्न प्रथम विश्व बौद्ध सम्मलेन
1952 रंगून विश्व बौद्ध सम्मलेन 
1956 नेपाल काठमांडू  विश्व बौद्ध बौद्ध सम्मलेन 

न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं

न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं

तेन समयेन तक्कसिलायं
उस समय तक्षशिला में
दिसा-पामोक्खो वेज्जो पटिवसति।
दिशाओं में प्रसिद्ध एक वैद्य रहता था।
तं पटिसुत्वा राजगहस्स कोमारभच्चो, जीवको
उसे सुनकर राजगृह का कौमार-भृत्य, जीवक
तं वेज्जस्स संन्तिके गच्छन्तं एतदवोच।
उस वैद्य के पास जा यह बोला-
‘‘इच्छामहं आचरिय, सिप्पं सिक्खितुं ’’ति
‘‘इच्छा है, आचार्य! शिल्प सीखने की।’’
‘‘तेन हि भणे जीवक! सिक्खस्सुं’’ति।
‘‘तो भणे जीवक! सीखो।’’

अथ खो जीवको कोमारभच्चो
तब जीवक कौमार-भृत्य
बहुं च गण्हाति लहुं च गण्हाति,
बहुत धारण करता था, जल्दी धारण करता था,
सुट्ठं च उपधारेति
और उत्तम समझता था
गहितं च तस्स न सम्मुस्सति।
धारण किए हुए को भूलता न था।

सत्तन्नं वस्सानं अच्चयेन
सात वर्ष के अनन्तर
अथ खो जीवको कोमारभच्चो
तब, जीवक कौमार-भृत्य ने
तं वेज्जं एतदवोच-
उस वैद्य से यह कहा-
‘‘अहं खो आचरिय,
‘‘मैं अब आचार्य
बहु च गण्हाति, लहुं च गण्हाति,
बहुत ग्रहण करता था, शीघ्रता से ग्रहण करता था
सुट्ठं च उपधारेति
और उत्तम धारण करता था
गहितं तं मे न सम्मुस्सति,
ग्रहण किए हुए को मैं न भूलता था.

सत्त च मे वस्सानि अधियन्तस्स,
सात वर्ष मेरे अध्ययन करते हुए
सिप्पस्स अन्तो न पञ्ञायति।
शिल्प का अन्त जान नहीं पड़ता।

कदा इमस्स सिप्पस्स अन्तो पञ्ञायिस्सति’’ति?
कब इस शिल्प का अन्त जान पड़ेगा?’’

‘‘तेनहि भणे, जीवक! खणितिं आदाय
‘‘तो भणे जीवक! खणति(कुदाल) लेकर
तक्क्सिलाय समन्ता योजनं आहिण्डित्वा
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर घूमकर
यं किञ्चि अभेसज्जं पस्सेय्यासि, तं आहरा’’ति
जो कुछ अ-भेषज्ज(दवा के अयोग्य) देखो, ले आओ।’’

‘‘एवं आचरिया!’’ ति खो जीवको, कोमारभच्चो
‘‘अच्छा आचार्य!’’ कह जीवक, कौमार-भृत्य
तस्स वेज्जस्स पटिसुणित्वा खणित्तिं आदाय
उस वैद्य को सुन खणिति(कुदाल) लेकर
तक्कसिलाय समन्ता योजनं आहिण्डितो
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर घूमकर
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दस।
कुछ भी अ-भेषज्ज न देखा।

अथ खो जीवको, कोमारभच्चो
तब जीवक कौमार-भृत्य
येन सो वेज्जो तेनुपसंकमि।
जहां वह वैद्य थे, गया।

उपसंकमित्वा तं वेज्जं एतदवोच-
पास जाकर उस वैद्य को यह कहा-
‘‘आहिण्डिन्तोम्हि, आचरिय
‘‘धूम आया हूं, आचार्य
तक्कसिलाय समन्ता योजनं
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं’’ति।
किन्तु कुछ भी अ-भेषज्ज न देखा।’’

‘‘सक्खितो, भणे जीवक,
‘‘सीख चुके भणे जीवक,
अलं ते एत्तकं जीविकाया’’ति।
यह तुम्हारी जीविका के लिए प्रयाप्त है।’’
स्रोत- महावग्गः विनय पिटक

Sunday, April 19, 2020

गोतमी सुत्तं

गोतमी सुत्तं
एकं समयं भगवा सक्केसु(साक्यों के जनपद में) विहरति कपिलवत्थुस्मिं(कपिलवत्थु में स्थित) निगोधारामे(निग्रोधाराम विहार में)। अथ खो महापजापती गोतमी येन(जहां) भगवा तेनुपसंकमि(पहुंची); उपसंकमित्वा(पहुंच कर) भगवन्तं (भगवान को)अभिवादेत्वा(अभिवादन कर) एकमन्तं(एक ओर) अट्ठासि(खड़ी हो गई)। एकमन्तं ठिता(खड़ी) खो महापजापती गोतमी भगवन्तं एकतदवोच(ऐसा कहा)-

‘‘साधु(अच्छा हो), भन्ते, लभेय्य(लाभ हो) मातुगामो(महिलाओं को) तथागत -उप्पवेदिते(तथागत द्वारा उपदिष्ट) धम्मविनये(धम्म-विनय में) अगारस्मा(घर से) अनगारियं(बे-घर हुए को) पब्बज्जं’’न्ति(प्रव्रज्जा)।
‘‘अलं(बस), गोतमी! मा(न) ते(तुम्हे) रुच्चि(रुचिकर हो) मातुगामस्स(महिलाओं का) तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति। दुतियम्पि खो पे..... ततियम्पि खो महापजापती गोतमी भगवन्तं एतदवोच- ‘साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति। ‘‘अलं, गोतमी! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
अथ खो महापजापती गोतमी ‘न भगवा अनुजानाति(अनुज्ञा देते हैं) मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’न्ति दुक्खी दुम्मना(दुक्खी-मन) अस्सुमुखी(अश्रु-मुख) रुदमाना(रोते हुए) भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं(प्रणाम) कत्वा (कर) पक्कामि(चली गई)।
अथ खो भगवा कपिलवत्थुस्मिं यथाअभिरन्तं(इच्छानुसार) विहरित्वा येन वेसाली तेन चारिकं पक्कामि। तत्थ भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं।
अथ खो महापजापती गोतमी केसे(केस) छेदापेत्वा(कटवा कर) कासायानि(कासाय) वत्थानि(वस्त्रों को) अच्छादेत्वा(ओढ़ कर) सम्बहुलानि(कुछ) साकियानिहि(साक्य महिलाओं के) सद्धिं(साथ) येन वेसाली तेन पक्कामि। अथ खो महापजापती गोतमी सूनेहि(सूजे हुए) पादेहि(पैरों से) रजोकिण्णेन गत्तेन(धूल-धूसरित देह से) दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहिद्वारकोट्ठके(कमरे के बाहरी दरवाजे में) अट्ठासि(खड़ी हो गई)।
 अद्दस्सा(देखा) खो आयस्मा आनन्दो(आयु. आनन्द ने) महापजापतिं गोतमिं(गोतमी को) ‘‘किं(क्यों) नु त्वं(तुम), गोतमि,  सूनेहि पादेहि रजोकिण्णेन गत्तेन दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहीद्वाराकोट्ठके ठिता’’ति?
‘‘तथा हि पन(क्योंकि), भन्ते आनन्द, न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
‘‘तेन(तब) ही त्वं, गोतमि, मुहुत्तं(उचित समय) इध एव(यहीं) ताव होहि(आप ठहरें), याव(तब तक) अहं(मैं) भगवन्तं याचामि(याचना करता हूं)।
अथ खो आनन्दो येन भगवा तेन उपसंकमि; उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो  आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एमदवोच-
‘‘ऐसा, भन्ते, महापजापती गोतमी सूनेहि पादेहि रजोकिण्णेन गत्तेन दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहिद्वारकोट्ठके ठिता- ‘न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स  तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’’न्ति। साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागत-उप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
‘‘अलं, आनन्द! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
दुतियम्पि खो पे.....ततियम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच- ‘‘साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति। ‘‘अलं, आनन्द! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि- ‘‘न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागत-उप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं। यंनूनाहं अञ्ञेन पि परियायेन भगवन्तं याचेय्यं मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’’न्ति। अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच-
‘‘भब्बो नु खो,  भन्ते,  मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफलं वा सच्छिकातु‘‘न्ति?
‘‘भब्बो, आनन्द,  मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफल वा सच्छिकातु‘‘न्ति?
‘‘सचे भन्ते, भब्बो  मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफलं वा सच्छिकातुं । बहुकारा(बहुत उपकार करने वाली है) भन्ते, महापजापति गोतमी भगवतो मातुच्छा(मौसी) आपादिका(दाई/अभिभाविका) पोसिका(पोसण करने वाली) खीरस्स दायिका(दूध देने वाली); भगवन्तं जनेत्तिया(भगवान की जननी के) कालं-कताय(मरने के बाद) थञ्ञं  पायेसि(स्तन-पान कराया है)। साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
सच्चे(यदि) आनन्द, महापजापती गोतमी अट्ठ(आठ) गरुं(गम्भीर) धम्मे(बातें) पटिगण्हाति(स्वीकार करती है), सा तस्सा(यही उसकी) होतु उपसम्पदा(उपसम्पदा हो)।
1. वस्स(वर्ष) सत(सौ) उपसम्पन्नाय(उप-सम्पन्न), भिक्खुनिया(भिक्खुनियों को) तद(उसी दिन) उपसम्पन्नस्स(उप-सम्पन्न) भिक्खुनो(भिक्खु को) अभिवादनं  पच्चुट्ठानं(प्रत्युप-स्थान) अंजलिकम्मं(अंजलि-बद्ध प्रणाम) सामिचिकम्मं(योग्य कर्म) कत्तब्बं(करना पड़ेगा)।
2. न भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) अभिक्खुके आवासे(अ-भिक्खु आवास/गांव में) वस्सं उप-गन्तब्बं(रहना होगा)।
3. अन्वड्ढ मासं(आधे मास पर/पन्द्रहवें दिन) भिक्खुनिया(भिक्खुनियों को) भिक्खु-संघतो(भिक्खु-संघ से) द्वे धम्मा(दो बातों की) पच्चासोसितब्बा(प्रत्यासा करनी होगी) उपोसथ पुच्छकं(उपोसथ संबंधी पुच्छताछ) च ओवाद उपसंकमं(और उपदेश सुनने) च।
4. वस्सं वुट्ठाय(वर्षा-वास उठने/समाप्ति पर) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) उभतो संघे(दोनों संघों में) तीहि ठाने(तीनों स्थानों में अर्थात देखे, सुने और संदिग्ध प्रकार के दोषों को लेकर) ही पवारेतब्बं(पवारणा करनी होगी)।
5. गरुधम्मं(गम्भीर अपराध अर्थात संघादिसेस को) अज्झापनाय(सीखने-पढ़ने) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) उभतो(दोनों) संघे(संघों में) पक्ख-मानत्तं(पक्ष भर का मानत्व अर्थात प्रायश्चित) चरितब्बं(करनी होगा)।
6. द्वे वस्सानि(दो वर्षा-वास तक) छसु धम्मेसु(छह शीलों में) सिक्खितं(शि क्षित) सिक्खाय(सीखने) सिक्ख मानाय(शिक्षा मानने) उभतो संघे उप-सम्पदा परियेसितब्बा(खोजना होगा)।
7. न केनचि(किसी भी) परियायेन(कारण से) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) भिक्खु(भिक्खु को) अक्कोसितब्बो(आक्रोश करना होगा) परिभासितब्बो((बुरा-भला कहना होगा)।
8. ‘‘अज्जतग्गे(आज से) ओवटो(रास्ता बन्द हुआ) भिक्खुनीनं (भिक्खुणियों का) भिक्खूसु(भिक्खुओं पर) वचनपथो(वचनबद्ध), अन-ओवटो (खुला) भिक्खूनं(भिक्खुओं का) भिक्खुनीसु(भिक्खुणियों पर) वचनपथो(वचनबद्ध)।
अयं(यह) अपि धम्मो सक्कत्वा(स्वीकार कर) गरुं कत्वा(गर्व कर) मानेत्वा (मान कर) पूजेत्वा(पूज-कर) यावजीवं(जीवन भर) अनतिक्कमनीयो(अतिक्रमण नहीं करना है)।
सच्चे(यदि) आनन्द! महापजापती गोतमी, इमे अट्ठ(आठ) गरुं(गम्भीर) धम्मे(बातें) पटिगण्हाति(स्वीकार करती है), सा-अस्सा(यही उसकी) होतु उपसम्पदा’ति(उपसम्पदा हो)।
सेय्याथापि(जैसे) भंते आनन्द! इत्थी(स्त्री) वा(या) पुरिसो(पुरुस) वा दहरो(तरुण)  सीसं(सिर से) न्हातो(स्नान करने के अनन्तर) उप्पल मालं(उप्पल माला) वा(या) वस्सिक मालं(जूही माला) वा मुत्तकं मालं(मोतियों की माला) वा लभित्वा(प्राप्त कर) उभोहि हत्थेहि(दोनों ही हाथों से) पटिग्गहेत्वा(लेकर) उत्तमङगे सिरस्मिं(उत्तम अंग सिर पर) पतिटठापेय्य(धारण करें),
एवमेव खो (इस प्रकार) आनन्द, इमे(ये) अट्ठ(आठ) गरु धम्मे(गरु धर्म्मों को) पटिग्गण्हामि(स्वीकार करती हूं) यावजीवं(जीवन भर) अनतिक्कमनीया’’ति(अतिक्रमण न करने के लिए)।
अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवा एतदवोच- "पटिग्गहिता, भन्ते! महापजापतिया गोतमिया अट्ठ गरुं धम्मा यावजीवं अतिकम्मनीया"ति।
तब आनन्द ने भगवान से यह कहा- "भंते! महाप्रजापति गोतमी ने आठों गंभीर धर्मों को जीवन भर पालन करने के लिए अंगीकार कर लिया है।"
‘‘सचे आनन्द, नालभिस्स मातुगामो तथागत उपवेदिते धम्म-विनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं, चिरट्ठितिकं अभविस्स।
"आनन्द! यदि स्त्रियों को तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म के अनुसार घर से बेघर होने की अनुमति न मिली होती तो यह श्रेष्ठ धम्म विनय चिरस्थायी होता।
यतो च खो आनन्द! मातुगामो तथागत उपवेदिते धम्म-विनयं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, न इदानि आनन्द, चिरट्ठितिकं भविस्सति। पञ्चेव इदानि आनन्द, वस्ससतानि सद्धम्मो ठस्सति।
लेकिन क्योंकि आनन्द! अब स्त्रियां तथागत के उपदिष्ट धर्म-विनय शासन में  घर से बेघर हो प्रव्रजित हो गई, तो अब यह श्रेष्ठ विनय चिरस्थायी नहीं होगा। अब यह सद्धर्म केवल पांच सौ वर्षों तक ही स्थिर रहेगा।
सेय्याथापि आनन्द, यानि कानि चि कुलानि बहुत्थिकानि अप्पुरिसकानि, तानि सुप्पधंसियानि होन्ति। एवमेव खो आनन्द, यस्मिं धम्मविनये लभति मातुगामो अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं, न तं चिरट्ठितिकं होति।"
आनन्द! जैसे एक कुल को जिसमें पुरुष कम हों और स्त्रियां अधिक हों, नष्ट कर डालता है, उसी प्रकार धर्म-विनय संगठन में स्त्रियों को घर से बेघर हो प्रव्रजित होने की अनुज्ञा मिल जाती है, वह श्रेष्ठ जीवन चिरस्थायी नहीं होता "(अट्ठक निपातोः अंगुत्तर निकाय)।
स्त्रियों के प्रति भिक्खु-संघ के नजरिये  को एक बार समझा भी जा सकता है. क्योंकि कदम-कदम पर उन्हें फिसलने का खतरा रहता था. किन्तु बुद्ध का नजरिया ?  बुद्ध के मुख से जो कुछ कहलवाया गया है, मन व्यथित हो उठता है ! तत्सम्बंध में बुद्ध से कहलवाया गया है कि स्त्रियों को संघ में प्रव्रजित कर उनके धम्म का भविष्य अन्धकारमय हो गया है ! हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि बौद्ध धर्म के इस भारत भूमि से ख़त्म होने के बाह्य कम अंतर्भूत कारण अधिक थे. बुद्ध विरोधी तत्वों, जो निस्संदेह ब्राह्मण थे,  ने इसमें घुस कर इसे नष्ट किया था.

'पूजा-पाठ' अर्थात बुद्ध-वचनों का पाठ

'पूजा-पाठ' अर्थात बुद्ध-वचनों का पाठ-
1. ब्राम्हणों में हवन यज्ञ करने की प्रथा थी(हिंदी बा.डा.अ.स.वा.खंड- 7: "क्रांति प्रतिक्रांति")।
2. बौद्ध धर्म को परास्त करने के लिए ब्राम्हणो ने धम्मपद का रूपांतरण भागवत गीता में किया(डा.बा.बा.रा.ए.स्पी.18: भाग-3)।
अर्थात बुद्ध वचन (पूजा वंदना) पढ़ने की परंपरा बौद्ध धर्म में पहले से ही है।

'भगवत गीता' का निर्माण होने के पश्चात 'सत्यनारायण की कथा' ब्राम्हणों ने प्रारंभ किया, बौद्ध धर्म को नष्ट करने के लिए।
इसलिए बुद्ध धम्म में पुरोहित वाद का कोई मतलब नहीं रह जाता ।
बुद्ध का धम्म पालन करने वाले लोगों के समूह को 'बुध्द संघ' कहा जाता है।
जो लोग धम्म-आचरण नहीं करते वे 'बुद्ध संघ' के सदस्य नहीं हो सकते। बुद्ध के धम्म-आचरण करने के लिए 'बुध्द-धम्म-संघ' को अनुसरण करके आचरण करना होता है। उसके लिए शांत सुगंधित वातावरण में बुध्द की शिक्षाओ को पढ़कर आचरण करने का नियम है। बुद्ध वंदना (बुद्ध वचनों पठन) करना यह धम्म पालन करने की प्रथम सिढी है।

बाबासाहेब आंबेडकर इस बात भली-भांति परिचित थे और जानते थे। इस लिए अपने निवास राजगृह पर 'पूजा वंदना' का स्थान बनाया था। -भंते धम्मशिखर ज्योतिदेव

Saturday, April 18, 2020

'दीघनिकाय' ही जिम्मेदार है, सारे गड़बड़झाले के लिए

'दीघनिकाय' ही जिम्मेदार है, सारे गड़बड़झाले के लिए-
अवदान साहित्य और अट्ठ-कथाएं नहीं, 'दीघनिकाय' ही जिम्मेदार है, बुद्ध के संबंध में अनर्थपूर्ण और चमत्कारी बातें फैलाने के लिए-
1. अकसर, बुद्ध के संबंध में अनर्थपूर्ण और चमत्कारी बातें फैलाने के लिए हम वंश साहित्य, अवदान चरित, जातक अट्ठ-कथा आदि के मत्थे दोष मढ़कर बरी हो जाते हैं। किन्तु यह सच नहीं है। वास्तव में, इसके जिम्मेदार दीघनिकाय आदि प्रमुख ग्रंथ ही है।
2. बौद्ध विद्वान अधिकतर ति-पिटकाधीन प्रमुख ग्रंथों को दोष रहित बतलाते हैं। उनके विचार से बौद्ध ग्रंथों में हिन्दू पौराणिक कथाओं की तर्ज पर जो मनगढ़न्त काल्पनिक कथाएं आई हैं, वे परवर्तित काल में वंश साहित्य, अवदान चरित, अट्ठकथा आदि साहित्य रचने के दौरान आई है।
3. प्रश्न है कि तब. ईसा की पहली सदी में बुद्धजीवनी पर लिखे गए संस्कृत महाकाव्य, फिर चाहे ‘ललितविस्तर’ हो या अश्वघोष कृत ‘बृद्धचरित’; इनमें मनगढ़न्त कथाएं कहां से आई? पौराणिक कथाओं पर आधारित साहित्य तो बहुत बाद में रचा गया ।
4. ये सारी अद्भूत कथाएं बोधिसत्व के जीवन में दीघनिकाय के महापदानसुत्त से आयी(धम्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, पृ. 84 )।
5. दीघनिकाय के महापदानसुत्त में पूर्वयुगीन 6 और गौतम बुद्ध को मिलाकर 7 बुद्धों के जीवन-चरित्र संक्षेप में देकर फिर विपस्सी बुद्ध का जीवन-चरित्र विस्तार से दिया गया है।
6. अट्ठकथाकार कहते हैं कि वह एक नमूना है और उसी के अनुसार अन्य बुद्धों की जीवनियों का वर्णन करना चाहिए। इस वर्णन के अधिकांश भाग इस सुत्त की रचना से पहले या अनन्तर गौतम बुद्ध की जीवनी में दाखिल कर लिए गए और वे स्वयं ति-पिटक में विभिन्न स्थानों पर पाए जाते हैं(वही, पाद टिपण्णी)।
7. और इसलिए ईसा की पहली सदी में बुद्धजीवनी पर लिखे गए संस्कृत महाकाव्य, फिर चाहे ‘ललितविस्तर’ हो या अश्वघोष कृत ‘बृद्धचरित’; सभी में इन कथाओं का समावेश किया गया है(वही)।
8. यद्यपि राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, दीघनिकाय के कई सुत्त जैसे आटानाटियसुत्त जिसमें भूत-प्रेत सम्बन्धी बातें हैं, काफी बाद के हैं(पालि का इतिहास, पृ. 7)। ये सुत्त बाद के हो या पूर्व के किन्तु दीघनिकाय जैसे ति-पिटकाधीन प्रमुख ग्रंथ में बुद्ध के नाम पर ऐसे उपदेश प्रश्न तो खड़ा करते ही है ?
9. डा. बाबासाहब अम्बेडकर के शब्दों में- किसी भी अबौद्ध के लिए यह कार्य अत्यन्त कठिन है कि वह भगवान बुद्ध के चरित्र और उनकी शिक्षाओं को एक ऐसे रूप में पेश कर सके कि उनमें सम्पूर्णता के साथ साथ कुछ भी असंगति न रहे(परिचयः ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’)।
10. जब हम दीघनिकाय आदि पालि ग्रंथों के आधार पर भगवान बुद्ध का जीवन-चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं तो हमें यह कार्य सहज नहीं प्रतीत होता और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है(वही)।
11. यर्थाथ बात है और ऐसा कहने में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं कि कि संसार में जितने भी धर्मों के संस्थापक हुए हैं, उनमें भगवान बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्याएं पैदा करता है, जिनका निराकरण यदि असंभव नहीं तो अत्यन्त कठीन अवश्य है (वही)।
10. क्या यह आवश्यक नहीं कि इन समस्याओं का निराकरण किया जाए और बौद्ध धर्म को समझने-समझाने के मार्ग को निष्कण्टक किया जाए? क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि बौद्धजन उन समस्याओं को लें, उन पर खुला विचार-विमर्श करे और उन पर जितना भी प्रकाश डाला जा सके, डालने का प्रयास करें (वही)?

Friday, April 17, 2020

सिद्धार्थ का महाभिनिष्क्रमण

सिद्धार्थ का महाभिनिष्क्रमण-
1. परम्परागत मान्यता के अनुसार बूढ़े, रोगी, वृद्ध, मृत और सन्यासी को देखकर सिद्धार्थ गौतम को गृह-त्याग का संवेग उत्पन्न हुआ था। इस मान्यता का स्रोत बौद्ध-वांगमय में बुद्धजीवनी पर लिखा ग्रंथ ‘ललितविस्तर’ है, जो ‘महायान परम्परा’ का है ।
2. स्मरण रहे, ललितविस्तर, ईसा की पहली शताब्दी में लिखा गया ग्रंथ है, इसके लेखक का नाम अभी तक ज्ञात नहीं है।
3. बुद्धजीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्रा (प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्खुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र-पवत्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(राहुल सांकृत्यायनः दर्शन-दिग्दर्शन पृ. 327)।
4. ललितविस्तर में बोधिसत्व के जन्म के बारे में यह भी कथन है- बोधिसत्व हीन कुलों में, चाण्डाल कुलों में, वेणुकार(बकसोर) कुलों में, रथकार(बढ़ई) कुलों में, पुक्कस(निषाद से शूद्रों में उत्पन्न शंकर जाति) कुलों में नहीं उत्पन्न होते हैं। किन्तु दो कुलों में ही- ब्राह्मण कुल में और क्षत्राीय कुल में उत्पन्न होते हैं। जब लोक में ब्राह्मण बढ़े-चढ़े होते हैं तब ब्राहमण कुल में उत्पन्न होते हैं। जब लोक में क्षत्राीय बढ़े-चढ़े होते है तो क्षत्रीय कुल में उत्पन्न होते हैं। हे भिक्षुओं! इस समय क्षत्रीय बढ़े-चढ़े हैं, इसलिए बोधिसत्व क्षत्रीय कुल में उत्पन्न होते हैं(ललितविस्तरः कुलशुद्धि परिवर्त, पृ. 60-61)।
5. नीच-उच्च की समाज-व्यवस्था न केवल ब्राह्मणों ने इजाद की वरन इसे धर्म और दर्शन का जामा भी इन्होंने ही पहनाया। किन्तु यह विचित्र ही है कि इस तरह की सामाजिक वैमनश्यता बौद्ध-ग्रंथों में होने के बावजूद न तो उन पर किसी ने टीका-टिप्पणी की और न ही वे सामाजिक विमर्श के विषय बनें।
6. ललितविस्तर में वर्णित बुद्धजीवनी के कुछ ही समय बाद अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ लिखा। शायद, ललितविस्तर से ही प्रेरणा ले कर। यह भी संस्कृत महाकाव्य है।
7. अश्वघोष, सम्राट कनिष्क (78-120 इस्वी) के समकालीन थे। संस्कृत महाकाव्य ‘बुद्धचरित’ की रचना उन्होंने कनिष्क के दरबार में रहते हुए की थी। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार, इस ग्रंथ का पाठ भारत के अलावा जावा, सुमात्रा और उनके निकटवर्ती द्वीपों में भी होता था(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिकाः बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
8. ति-पिटक के अन्तर्गत आने वाले किसी भी ग्रंथ में इस बूढ़े, रोगी, मृत और सन्यासी को देखकर सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण किए जाने वाले कथानक का उल्लेख नहीं है। हमारी सीमित जानकारी में कहीं भी नहीं है(नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायनः भगवान बुद्ध और उनका धम्म, पृ 13)।
9. यदि 29 वर्ष की आयु होने तक भी सिद्धार्थ द्वारा एक बूढ़े, एक रोगी और मृत व्यक्ति को न देखे रहने की बात का ‘ऐतिहासिक सत्य’ ऐसा ही सत्य होगा जिस पर हर विचारवान का प्रश्नचिन्ह लगेगा और अवश्य लगेगा (वही)।
10. बुद्धचरित के संबंध में बौद्ध वांगमय के अन्तर्गत हम अन्य स्रोत पर विचार करें तो अश्वघोष कृत ‘बुद्धचरित’ और अट्ठकथाओं के ‘निदान कथा’ में कुछ कम तथ्यहीन कथानक हैं(धर्मानन्द कोसम्बी : भगवान बुद्ध, पृ. 109)। स्मरण रहे, बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में अश्वघोष के ‘बुद्धचरित’ से जगह-जगह उद्धरण लिए हैं।
11. अट्टकथा का अर्थ है, अर्थ कथा। ति-पिटकाधीन सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक के अन्तर्गत बौद्ध-ग्रंथों पर बौद्ध भिक्खुओं और आचार्यों द्वारा समय-समय पर जो टीकाएं अर्थात अर्थ-कथाएं लिखी गई, वे ही अट्ठकथाएं है। ये अट्ठकथाएं विभिन्न देशों में विभिन्न लिपियों में लिखी गई।
12. तदन्तर, बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद बुद्धघोष और अन्य आचार्यों ने परम्परागत सिंहली अट्ठकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पुनः पालि भाषा में अट्ठकथाएं लिखी(नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायनः भगवान बुद्ध और उनका धर्म पृ. 13)।
13. बुद्धचरित के संबंध में छुट-पुट जो ति-पिटकाधीन मज्झिमनिकाय के अरियपरियेसन सुत्त में बुद्ध के मुख से गृह-त्याग का- ‘अपने आप्तों द्वारा एक-दूसरे से लड़ने के लिए शस्त्र धारण किए जाने से उन्हें भय लगा’- आदि जो कथानक कहलवाया गया है, वह भी अपेक्षाकृत कम तथ्यहीन है। इन वर्णित कारणों की संगति बिठाई जा सकती है(धर्मानन्द कोसम्बी : भगवान बुद्ध, पृ. 107)।
14. दीघनिकाय के महापदान सुत्त में अनैतिहासिक विपस्सी बुद्ध के जाति, गोत्र, गर्भ में आने का लक्षण, गृह-त्याग, प्रव्रज्या, बुद्धत्व प्राप्ति, धम्मचक्क पवत्तन आदि की कथा है, बुद्धजीवनी के आधार पर वर्णित है(राहुल सांकृत्यायनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 36।
15. खुद्दक निकाय के सुत्तनिपात का अत्तदण्डसुत्त(अट्ठकवग्ग) हो या पब्बज्जासुत्त(महावग्ग); इसमें अपेक्षातया ठीक कारण व्यक्त हुआ प्रतीत होता है(वही, नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायन)।
16. धम्मानन्द कोसम्बी की ही मान्यता का समर्थन करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने सिद्धार्थ की प्रव्रज्या या अभिनिष्क्रमण का जो रूपक चित्रित किया, निस्संदेह वह ति-पिटक में उनके प्रव्रजित होने के कारणों की ओर जो भी छुट-पुट संकेत है, वह ‘बूढ़े, रोगी, मृत, साधू’ कथानक की अपेक्षा इस ‘एक दूसरे के विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर’ कथानक से मेल खाते हैं(वही, पृ. 14)।
17. ति-पिटकाधीन ग्रंथों से बुद्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व का गहन अध्ययन करने के उपरान्त बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘बृद्धा एण्ड हिज धम्मा’ लिखा। उन्हें वे कारण जो उनके अभिनिष्क्रमण के लिए बताए गए हैं, काव्यमय, मनगढन्त और औचित्यहीन लगे। उन्होंने कहा कि परम्परागत गृह-त्याग के कारण बुद्ध के व्यक्तित्व से कतई मेल नहीं खाते।
18. बाबासाहब की यह टिप्पणी बुद्धिज्म के हजारों वर्षों के इतिहास में अद्वितीय और अभूतपूर्व है। इससे पहले लोग परम्परागत बचकानी बातों को ही दुहराते रहते थे। वे यह सोचने के लिए न कभी रुके थे, न साहस ही जुटा पाए थे कि क्या 29 वर्ष का कोई स्वस्थ आदमी ऐसा होता है जिसे न बिमारी का पता हो, न बुढ़ापे का और न मृत्यु का। जिसे 29 वर्ष तक यही ज्ञात न होगा, वह 6 वर्ष में ही बुद्ध कैसे बन सकता है(डॉ. सुरेन्द्र अज्ञातः एशिया का प्रकाश, पृ. 18)।
19. सिद्धार्थ के जन्म का प्रसंग हो, गृह-त्याग का या फिर या सम्बोधि प्राप्ति का, बाबासाहब आम्बेडकर ने अपने ग्रंथ ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में जो व्यवहारिक और युक्तिसंगत दृष्टिकोण अपनाया है, निस्संदेह वह अनुकरणीय है। यह एक स्वस्थ वैज्ञानिक आलोचनात्मक दृष्किोण है जो कथानक को निरन्तर परखता है।
20. धर्म-ग्रंथों को परखने की यह आलोचनात्मक पद्यति, धर्म और उसके अनुयायियों दोनों के हित में है। क्योंकि यह धर्म को रद्द नहीं करती बल्कि धार्मिक साहित्य को धर्म विशेष के बुनियादी उसूलों व दावों के प्रकाश में परखती हैै(डॉ. सुरेन्द्र अज्ञातः भूमिकाः एशिया का प्रकाश)। हमें लगता है, धम्म के शुभ चिन्तक और अनुयायी इन पहलुओं पर गंभीरता से विचार करेंगे और जो धम्म-सैद्धांतिकी बाबासाहब ने अपनाई है, उसका अनुपालन करेंगे।

सिद्धार्थ गौतम या आदित्य ?

सिद्धार्थ गौतम या आदित्य ?
1.  सिद्धार्थ के गोत्र की चर्चा करते हुए बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने लिखा है- परिवार का गोत्र ‘आदित्य’ था(प्रथम काण्डः पूर्वजः भगवान बुद्ध और उनका धम्म, पृ. 4)। आगे उन्होंने लिखा है- पांचवें दिन नामकरण संस्कार किया गया। बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। उसका गोत्र ‘गौतम’ था। इसलिए जन-साधारण में वह सिद्धार्थ गौतम नाम से प्रसिद्ध हुआ(वही, पृ. 9)।

2 .  प्रश्न है,  एक ही समय  ‘गौतम’ और 'आदित्य'  दो गोत्र कैसे हो सकते?  स्मरण रहे, 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' बाबासाहब अम्बेडकर की अंतिम कृति थी जिसका 'परिचय' लिख कर उन्होंने अंतिम सांस ली थी.  कई विद्वान उनके द्वारा वर्णित बुद्धजीवनी और  बुद्ध उपदेशों पर प्रश्न उठाते रहे हैं। निस्संदेह, कुछ वर्ष और वे जीवित रहते तो निस्संदेह,  उठती तमाम शंकाओं का समाधान वे स्वयं करते ।

 3. सिद्धार्थ के 'गौतम' या 'आदित्य' गोत्र सम्बन्धी प्रश्न पर भदंत धर्मानन्द कोसम्बी कहते हैं-
अमरकोश  में बोधिसत्व के छह नाम दिए गए हैं- शाक्यसिंह, सर्वार्थसिद्ध, शौद्धोदनि, गौतम, अर्कबंधु और मायादेवी-सुत। इनमें से शाक्यसिंह, शौद्धोदनि और मायादेवी-सुत ये तीन विशेषण हैं। प्रश्न है कि ‘सर्वार्थसिद्ध’ और ‘गौतम’ इन दो नामों में से उनका असली नाम कौन-सा था ? या ये दोनों ही नाम उनके थे(भगवान बुद्ध; जीवन और दर्शन(पृ. 79- 80)?

तिपिटक-वांग्मय में बोधिसत्व का नाम सर्वार्थसिद्ध था, ऐसा कहीं उल्लेख नहीं मिलता। केवल जातक अट्ठकथा के 'निदान-कथा' में सिद्धत्थ (सिद्धार्थ) नाम आया है जो शायद ‘ललितविस्तर से लिया गया है। ललितविस्तर में ‘बोधिसत्व’ को बार-बार ‘सिद्धार्थकुमार’ कहा गया है। उसी का पालि-रूपान्तर ‘सिद्धत्थ’ है। सर्वार्थसिद्ध का पालि-रूपान्तर ‘सब्बत्थ-सिद्ध’ होता है और वह विचित्र लगता है। इसलिए कदाचित जातक-अट्ठकथाकार ने ‘सिद्धत्थ’ नाम का प्रयोग किया है(वही)।

धर्मानन्द कोसम्बी आगे लिखते हैं-  इसमें शंका नहीं कि ‘बोधिसत्व’ का नाम ‘गौतम’ था। थेरीगाथा में महाप्रजापति गौतमी की जो गाथाएं हैं, उनमें से एक यह है-
‘बहूनं वत अत्थाय, माया जनयि गोतमं।
व्याधिमरणतुन्नानं, दुक्खक्खन्धं ब्यपानुदि।’
अर्थात, बहुतों के कल्याण के लिए माया ने गौतम को जन्म दिया। व्याधि और मरण से पीड़ित जनों की दुक्ख-राशि को उसने नष्ट किया।
परन्तु ‘महापदानसुत्त’ में बुद्ध को ‘गोतमो गोत्तेन’ कहा गया है। इसी प्रकार अपदान-ग्रंथों में अनेक स्थानों पर ‘गोतमो नाम नामेन’ ऐसे दो प्रकार के उल्लेख मिलते हैं। उनसे शंका पैदा होती है कि क्या बोधिसत्व का नाम और गोत्र एक ही था(वही) ?

भदन्तजी के अनुसार, परन्तु सुत्तनिपात की निम्न गाथा(पब्बज्जा सुत्तः गाथा 18-19) से वह शंका दूर हो जाती है-
उजुं  जनपदो  राजा  हिमवन्तस्स  पस्सतो।  धनिविरियेन   सम्पन्नो  कोसलेसु   निकेतिनो।
आदिच्चो नाम गोत्तेन साकियो नाम जातिया, तम्हा कुला पब्बजितोम्हि राज न कामे अभिपत्थयं।
उक्त गाथा में शाक्यों का गोत्र ‘आदित्य’ कहा गया है। चूंकि ‘सुत्तनिपात’ प्राचीनतम है, अतः ‘आदित्य’ ही शाक्यों का वास्तविक गोत्र होगा। अमरकोश में बुद्ध का जो नाम अर्कबन्धु आया है, वह उनका गोत्र-नाम समझना चाहिए। क्योंकि वह ' आदिच्चाे नाम गोत्तेन' वाक्य से ठीक मिलता है(वही).
4.  निस्संदेह, जैसे कि भदंत धम्मानंद  कोसम्बी ने सभी सम्बद्ध साक्ष्यों का विचार किया है,  शाक्य-वंश के कुल गुरु गौतम होने के कारण सिद्धार्थ आगे चलकर ' सिद्धार्थ गौतम' नाम से विश्व में प्रसिद्द हुए. इसकी पुष्टि भदन्त धर्मकीर्ति भी करते हैं-  जयसेन(सिद्धार्थ के प्रपितामह)  के परिवार का गोत्र आदित्य था. वंश शाक्य (सूर्यवंश) था. जाति  क्षत्रिय एवं गुरु के गोत्र से गौतम कहलाये जाते थे(भ. बुद्ध का इतिहास और धम्म दर्शन पृ 10) ।
5. अपने पारिवारिक कुल देवता, गुरु, गावं या जाति, वंश का नाम, अपने नाम के साथ जोड़ कर बतलाने की भिन्न-भिन्न क्षेत्र/प्रदेशों/देशों में भिन्न-भिन्न परम्पराएं हैं. यह आप पर निर्भर है कि आप अपने परिवार का गोत्र चलाते हैं या अपने गुरु का ? प्रतीत होता है, सिद्धार्थ के साथ गुरु का गोत्र आगे बढाया गया.

Wednesday, April 15, 2020

आनंद तेलतुंबड़े की गिरफ्तारी

क्या हमें आनंद तेलतुंबड़े की गिरफ्तारी पर खामोश रह जाना चाहिए ?
14 अप्रैल 2020 को जब देश बाबा साहब अम्बेडकर की 129 वी जयंती मना रहा था, तब नागरिक अधिकार कार्यकर्ता,चिंतक ,आलोचक व लेखक प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े को एनआईए ने हिरासत में ले लिया।
कौन है आनंद ?
आनंद तेलतुंबड़े भारत ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी चर्चित नाम है,वे अपनी तार्किक और सर्वथा मौलिक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं,उनकी 30 से अधिक किताबें प्रकाशित हुई है और उनके शोध पत्र,आलेख,समीक्षायें व कॉलम विश्व भर में छपते रहे हैं।
वे महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के राजुर गांव में जन्में,नागपुर के विश्वेश्वरैया नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से पढ़े,बाद में उन्होंने आई आई एम अहमदाबाद से प्रबंधन की पढ़ाई की और भारत पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड के एग्जीक्यूटिव प्रेसिडेंट बने,उनका कारपोरेट जगत से भी जुड़ाव रहा ,वे पेट्रोनेट के मैनेजिंग डायरेक्टर भी रह चुके हैं,उन्होंने आई आई टी खड़गपुर में अध्यापन भी किया और वर्तमान में वे गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में पढ़ाते थे। चर्चित बुद्धिजीवी के साथ ही उनका एक परिचय यह भी है कि वे बाबा साहब अम्बेडकर के परिवार के दामाद भी है,बाबा साहब के पौत्र प्रकाश अम्बेडकर के बहनोई ।
आनंद तेलतुंबड़े ने अपने कैरियर में कभी हिंसा जैसी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया है,वे स्वयं लिखते हैं - " मेरा पांच दशकों का बेदाग रिकॉर्ड है,मैंने कारपोरेट दुनिया मे एक शिक्षक ,नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी के तौर पर अलग अलग भूमिकाओं में देश की सेवा की है।"
निशाने पर रहे हैं तेलतुंबड़े !
चूंकि प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े बेहद मुखर आलोचक रहे हैं,वे हिंदुत्ववादी ताकतों के सदैव निशाने पर रहे है,सत्ता प्रतिष्ठान भी उनसे खफा रहा है,यहां तक कि अम्बेडकरवादी लोग भी उनकी असहमतियों से काफी असहज रहे हैं,ऐसे में आनंद तेलतुंबड़े निरन्तर सर्विलांस के शिकार होते आये हैं,जब वे आईआईटी खड़गपुर में शिक्षक थे,तब भी उनके फोन टेप किये गए है,दीगर वक्त में उनकी जासूसी तो होती ही रही है।
उनके द्वारा की जाने वाली आलोचनाओं और सरकारों पर उठाये जाने वाले सवालों ने उन पर राज्य की निगरानी और प्रताड़ना को भी निरन्तर किया है,लेकिन जिस तरह से उनके घर अगस्त 2018 में पुलिस ने छापा मारा और उनकी अनुपस्थिति में गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के परिसर स्थित उनके आवास में पुलिस सिक्योरिटी गार्ड से जबरन डुप्लीकेट चाबी लेकर घुसी,वह स्तब्ध कर देने वाली घटना थी।
जिस वक्त यह छापामारी हुई,आनंद और उनकी पत्नी मुम्बई में थे,बाद में उनकी ओर से गोवा के बिचोलिम थाने में यह शिकायत दर्ज करवाई गई कि उनकी गैरमौजूदगी में उनके घर में घुसी पुलिस ने अगर वहां कुछ भी प्लांट कर दिया तो वे इसके ज़िम्मेदार न होंगे।
31 अगस्त 2018 को पुलिस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बताया कि उनको भीमा कोरेगांव की यलगार परिषद के आयोजन की साज़िश मामले में गिरफ्तार लोगों में से एक के कम्प्यूटर में एक चिट्ठी मिली है,जिसमें देश के प्रधानमंत्री की हत्या का षड्यंत्र रचा गया है,इस चिट्ठी में कॉमरेड आनंद का नाम है,पुलिस के मुताबिक वह कॉमरेड आनंद दरअसल आनन्द तेलतुंबड़े ही है। जबकि दूसरी तरफ यह भी सच्चाई है कि आनंद तेलतुंबड़े के घर या कंप्यूटर से किसी तरह की कोई बरामदगी नहीं हुई है,फिर भी पुलिस ने सिर्फ नाम की साम्यता की वजह से आनन्द तेलतुंबड़े को साज़िश में शामिल मानते हुए पुणे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया,बाद में उच्चतम न्यायालय के दखल के बाद उन्हें और प्रसिद्ध पत्रकार गौतम नवलखा को रिहा किया गया।
आखिर मामला क्या है भीमा कोरेगांव यलगार परिषद का ?
वो कौन सी साज़िश है,जिसका इतना हल्ला मचाया जाता रहा है ?
जैसा कि सब जानते हैं कि पुणे के नजदीक भीमा कोरेगांव नामक स्थान पर अंग्रेज़ो व पेशवाओं के मध्य हुई लड़ाई में अंग्रेज फ़ौज की तरफ से अदम्य साहस का परिचय देते हुए महज 500 महार सैनिकों ने हजारों पेशवा सैनिकों को हरा दिया था,इस जंग में 49 लोग शहीद हो गए ,जिनकी याद में 1 जनवरी को हर साल एक उत्सव मनाया जाता रहा है ।
2017 में भीमा कोरेगांव युद्ध की 200 वी जयंती के मौके पर एक यलगार परिषद का आयोजन हुआ,जो 31 दिसम्बर 2017 को शुरू हुई और 1 जनवरी 2018 को समाप्त हुई,इस यलगार परिषद में शामिल होने आए लोग जब अपने घरों को लौट रहे थे,तब हिंदुत्ववादी भीड़ ने उनपर हिंसा की,इस हिंसा को फैलाने का आरोप दलित समुदाय ने संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे पर लगाया था,लेकिन महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इन्हें निर्दोष बताया।
इसके बाद पुणे के एक व्यवसायी तुषार तामगुडे ने पुणे यलगार परिषद के आयोजकों के खिलाफ हिंसा भड़काने और भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज करवाई गई,इस पर त्वरित कार्यवाही करते हुए पुणे पुलिस ने मानव अधिकार कार्यकर्ताओं ,एक्टिविस्टों व वकीलों को गिरफ्तार कर लिया,जिनमें सुधा भारद्वाज ,सोमा सेन,रोना विल्सन और सुरेंद्र गाडलिंग शामिल थे।
साज़िश का पत्र !
यलगार परिषद मामले में पुणे पुलिस ने साज़िश का एक पत्र मिलने का दावा करते हुए यह सनसनीखेज खुलासा किया कि उसमें भारत के प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश की गई थी। जब इस तरह की बात सामने आई तो मामला अत्यंत संवेदनशील व उच्च स्तरीय हो गया और व्यापक छानबीन के नाम पर माओवादी संपर्कों व अर्बन नक्सल की धरपकड़ का अभियान चलाया गया।
आनन्द तेलतुंबड़े को भी इसी पत्र के आधार पर आरोपी बनाया गया और उस वक्त भी गिरफ्तार किया गया,लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पर्याप्त सबूतों के अभाव में उनको रिहा करने का आदेश दिया था,अब उसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने द्वारा दी गयी राहत को समाप्त करते हुए आनन्द तेलतुंबड़े व गौतम नवलखा को आत्मसमर्पण करने को कहा है।जिसके फलस्वरूप आनन्द व नवलखा ने 14 अप्रैल को एनआईए के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
जब महाराष्ट्र में विकास अगाड़ी सरकार ने सत्ता ग्रहण की ,तब भीमा कोरेगांव के राजनीति प्रेरित मामले को वापस लेने की बातें सोशल मीडिया में काफी चली ,लेकिन फिर अचानक ही मामला केंद्रीय जांच एजेंसी एनआईए को सौंप दिया गया ,जिसके समक्ष 14 अप्रैल को आत्मसमर्पण किया गया।
अपनी बारी आने का इंतज़ार !
एनआईए की हिरासत में जाने से पहले प्रोफेसर आनन्द तेलतुंबड़े ने देशवासियों के नाम एक चिट्ठी लिखी,जिसमें उन्होंने लिखा -"बड़े पैमाने पर उन्माद को बढ़ावा मिल रहा है और शब्दों के अर्थ बदल दिये गये हैं,जहाँ राष्ट्र के विध्वंसक देशभक्त बन जाते हैं और लोगों की निस्वार्थ सेवा करने वाले देशद्रोही हो जाते हैं। जैसा कि मैं देख रहा हूँ मेरा भारत बर्बाद हो रहा है।मैं आपको इस तरह के डरावने क्षण में एक उम्मीद के साथ लिख रहा हूँ ।खैर मैं एनआईए की हिरासत में जाने वाला हूँ और मुझे नहीं पता कि मैं आपसे वापस कब बात कर पाऊंगा?हालांकि मुझे उम्मीद है कि आप अपनी बारी आने से पहले बोलेंगे "
अन्ततः 14 अप्रैल 20 को आनंद तेलतुंबड़े हिरासत में ले लिए गए,उन पर यूएपीए जैसा क्रूर कानून लागू किया गया है,यह पता नहीं है कि वे कब वापस लौट पाएंगे, क्योंकि इस तरह के कानूनों में वकील,दलील व अपील की संभावनाएं सीमित स्वरूप ग्रहण कर लेती है और न्यायिक सुनवाई में बहुत देर हो जाती है,इतनी देर की सिर्फ फैसले आते हैं,इंसाफ गौण हो जाता है। ऐसे विकट हालात में हमें प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े की चिट्ठी के अंतिम शब्दों में प्रकट खतरे को समझना होगा ।
क्या वाकई हमें अपनी बारी आने तक इंतजार करना चाहिए ? या यह खामोशी तोड़कर आनंद जैसी स्वतंत्र आवाज़ों को कुचलने के लिए इस फासीवादी फ़साओ वाद के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए ? मुझे लगता है कि इस उत्पीड़न और दमन के खिलाफ हमें मुखर स्वर में बोलना चाहिये, क्योंकि अपनी बारी आने तक चुप्पी साध लेना ऐतिहासिक भूल साबित हो सकती है,जब राज्य का दमनचक्र आनंद तेलतुंबड़े जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवी तक को कुचलने पर आमादा हो सकता है तो आम दलित वंचित की तो औकात ही क्या बचती है ?
-भंवर मेघवंशी
( लेखक शून्यकाल डॉटकॉम के संपादक है )
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कुछ मित्रों ने कहा हम तो 2018 से पहले डॉ आनंद तेलतुंबड़े को नही जानते थे ? क्या फर्क पड़ता है अचानक आप को जानकारी मिली कोई ऐसा बुद्धिजीवी है जो जाति के विनाश की बात करता है.. हिंदुत्व ब्राह्मण राष्ट्र के खतरे से आगाह करता हो!
डॉ बाबा साहेब आंबेडकर को पूरा अमेरिका इंग्लैंड के लोग जानते थे.. लेकिन अपने ही देश में महाराष्ट्र छोड़कर विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों में आंबेडकर को ब्राह्मण अख़बारों ने नदारद रखा था!
1980 में कांशीराम ने साइकिल यात्रा कर पूरे उत्तर भारत में डॉ आंबेडकर को जीवित किया.. लोग आश्चर्य चकित होकर बोले हम लोग सोचे नेहरू गांधी के अलावा कोई बड़ा नाम भारत में नही है.. नेहरू गांधी से भी बड़ा सामाजिक कार्य और संघर्ष डॉ आंबेडकर ने किया है !
डॉ आनंद तेलतुंबड़े डॉ आंबेडकर नही हैं, तेलतुंबड़े स्वतंत्र विचारक, शिक्षक, लेखक और डॉ आंबेडकर के विचारों में अपार श्रद्धा रखते हैं!
ब्राह्मण बनाम आंबेडकर की लड़ाई पुरानी है.
पेरियार ने तमिल भाषा में सच्ची रामायण लिखी.. ब्राह्मण थोड़ा बहुत चिंतित हुआ, लेकिन जैसे ही ललाई सिंह यादव ने सच्ची रामायण का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया ब्राह्मणों चिंतित हो उठे..
ब्राह्मण कांग्रेस ने किताब पर प्रतिबंध लगा दिया, ललाई यादव ने लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़ी.. लोग जानने लगे पेरियार जैसा भी कोई महान आदमी है जो ब्राह्मण धर्म से सेहमत नही है!
1980 के बाद उत्तर भारत में डॉ आंबेडकर द्वारा लिखी गई अधिकतर किताबों का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध होने लगा.. लोग पढ़कर सामाजिक न्याय की मशाल जलाने लगे!
डॉ तेलतुंबड़े की किताबें इंग्लिश में हैं.. Republic of caste, The Persistence of caste, The Redical in Ambedkar.. तेलतुंबड़े अपना व्यक्तव्य ज्यादातर इंग्लिश में देते हैं. पढ़े लिखे ओबीसी एससी एसटी युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं.. RSS और BJP को डर है कही ब्राह्मणवाद पर अम्बेडकारवाद विचार भारी ना पड़ जाए!
RSS और बीजेपी को आंबेडकर के विचारों को फैलने से रोकना है.. कल को अगर तेलतुंबड़े की किताबों का हिन्दी में अनुवाद हुआ तो ब्राह्मणवाद कमजोर होगा!
जौसे कांचा इलैया को कोई नही जानता था.. 2005 में लिखी किताबों का 2012 के बाद हिन्दी में अनुवाद हुआ.. ब्राह्मणवाद पर ऐसी चोट करी की उन्हें गिराफ्तार कर जेल भेजा गया.. जमानत पर रिहा हुए !
कांचा इलैया का कहना है भारत गाय नही भैंस का दूध पीता है.. आदर सम्मान भैंस का होना चाहिए. डॉ आनंद तेलतुंबड़े का कहना है जाति के विनाश के लिए आंदोलन चलाया जाए.. RSS BJP को जाति में मिठास मालूम पड़ती है !
RSS BJP जाति का विनाश नही चाहते इसलिए 70 पार कर चुके कांचा इलैया और डॉ तेलतुंबड़े जैसे स्वतंत्र विचारकों का विनाश करने के लिए झूठा केस बनाकर जेल भेज देते हैं!

Friday, April 10, 2020

आर्टिकल 370 और बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर'

'आर्टिकल 370 और बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर'
कश्मीर या पाकिस्तान के मामले में बाबासाहेब की सोच जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल या कान्ग्रेस वैचारिकी से कुछ मामलों में अलग थी। पाकिस्तान के बारे में उनकी बहुचर्चित किताब ‘थाट्स ऑन पाकिस्तान’ सर्वसुलभ है। उसे पढ़कर उनकी पाकिस्तान के सम्बन्ध मे राय समझी जा सकती है। कश्मीर मामले पर उस किताब मे भी टिप्पणियाँ हैं। इसके अलावा नेहरू कैबिनेट से 27 सितम्बर, 1951 को दिए डॉ. अम्बेडकर के इस्तीफ़े मे दर्ज कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों से भी कश्मीर पर उनके विचारों को समझा जा सकता है। उनका इस्तीफ़ा दस पृष्ठों का है। वह कोई मामूली त्यागपत्र नहीं है। यह उस वक्त की भारतीय राजनीति और वैचारिकी को समझने का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन चुका है।
नेहरू कैबिनेट से अपने इस्तीफ़े के लिए डॉ. अम्बेडकर ने कई प्रमुख कारण बताए।
इस्तीफ़े के तीसरे कारण मे उन्होंने नेहरू सरकार की #विदेश_नीति के कुछ ख़ास पहलुओं से असहमति जताई है। इस क्रम में डॉ. अम्बेडकर ने जॉर्ज बर्नाड शा और बिस्मार्क को भी उद्धृत किया है। वह बताते हैं, "भारत इस वक्त कुल 350 #करोड़_का_राजस्व_सालाना प्राप्त कर रहा है, इसमें 180 #करोड़_हम_सेना_पर_ख़र्च कर रहे हैं। यह बहुत बड़ा खर्च है और ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं और मिलेगा। #सेना_पर_यह_खर्चहमारी_विदेश_नीति_के_चलते_है। #हमारे_दोस्त_देश_नहीं_हैं#जिन_पर_हम_किसी_इमरजेंसी_मे_भरोसा_कर_सकें
क्या यह सही विदेश नीति है?
पाकिस्तान से हमारा झगड़ा विदेश नीति की विफलता का नतीजा है, जिससे मैं बुरी तरह क्षुब्ध रहा हूं। दो वजहें हैं, जिनके चलते हमारे पाकिस्तान से रिश्ते खराब हैं। पहली वजह कश्मीर और दूसरी वजह है पूर्वी बंगाल का इलाका।"
डॉ. अम्बेडकर कश्मीर पर साफ़ शब्दों मे कहते हैं कि जम्मू और लद्दाख के इलाके को अगर भारत अपने साथ रखे और पूरे कश्मीर को पाकिस्तान को सौंपे या कश्मीरी जनता पर छोड़े कि वहाँ के लोग क्या करना चाहते हैं? यह पाकिस्तान और कश्मीर के मुसलमानो के बीच का मामला है। वह यह भी कहते हैं कि जनमत-सँग्रह कराना है तो वह सिर्फ कश्मीर में कराया जाय!
#उर्मिलेश (वरिष्ठ पत्रकार)

निब्बुत

निब्बुता  नून सा माता, निब्बुताे नून सो पिता.
निब्बुता नून सा नारी, यस्सा इदिसो पति.
निवृत (अपने करणीय कर्मों से) है वह माता, निवृत है वह पिता.
निवृत है वह नारी,  जिसका है, ऐसा पति.

Thursday, April 9, 2020

कठौती में गंगा

एक बार पडोसी ने संत रविदास को हरिद्वार चलने के लिए कहा। रविदास अपने काम में मग्न थे. फिर भी उन्होंने पडोसी से पूछा-  हरिद्वार क्यों ? 
पड़ोसी ने कहा कि गंगा स्नान से सबके पाप धुल जाते है. इस पर रैदास बोले- "मन चंगा तो कठौती में गंगा" यानी मेरा मन साफ है तो कठौती का पानी ही गंगा के समान है‌।

ति-पिटक और बुद्ध

ति-पिटक और बुद्ध
एक भंते ने फेसबुक पर अपनी नाराजी कड़े शब्दों में व्यक्त की, कि किसी दूसरे भंते को बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर के पिता का नाम तक नहीं मालूम है. इस चर्चा के पक्ष-विपक्ष में कई बौद्ध भिक्खुओं के साथ कई बौद्ध उपासक भी शामिल दिखे.
धम्माधिकारी बौद्ध भिक्खुओं में बाबासाहब अम्बेडकर के प्रति यह आग्रह स्वागत योग्य है. वन्दनीय है. हम वंदना करते हैं उन धम्मध्वज वाहकों की, प्रचारकों की. और क्यों न हो, यह धम्म हमें बाबासाहब अम्बेडकर ने दिया. यह बाबासाहब अम्बेडकर हैं, जिन्होंने बतलाया कि हमें किस मार्ग पर जाना है. बुद्ध, हमारे लिए प्रेरणा के श्रोत है, जीवन जीने का मार्ग है तो अम्बेडकर उस मार्ग के पथ-प्रदर्शक हैं.
निस्संदेह, कुछ बौद्ध भिक्खुओं और बौद्ध उपासकों को हमने भी अम्बेडकर के स्थान पर विपस्सनाचार्य गुरु गोयनकाजी की वंदना करते देखा है. यह सच है कि गोयनकाजी इस देश और कई विदेशों में विपस्सना केन्द्रों का एक बड़ा नेट-वर्क स्थापित करने में सफल रहें हैं. हम समझ सकते हैं उनकी निष्ठा को. क्योंकि इन प्रतिष्ठानों की प्रतिष्ठा से ही उनकी प्रतिष्ठा और मान सम्मान है. किन्तु गोयनकाजी जिस बुद्धिज़्म की देशना करते हैं, वह बाबासाहब अम्बेडकर के 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' से सैद्धांतिक रूप से भिन्न है. कई हिन्दू संस्थाएं भी अपने-अपने कारणों के बुद्धिज़्म के प्रचार में रत हैं.
ति-पिटक में ब्राह्मणवाद भरा पड़ा है. और इसलिए बाबासाहब अम्बेडकर को 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' लिखना पड़ा. हमें बुद्ध तो चाहिए किन्तु ब्राह्मणवाद से अलग. ऊंच-नीच की घृणा से अलग. बौद्ध ग्रन्थ 'ललितविस्तर' में बुद्ध को 'ब्राह्मण या क्षत्रिय जैसे किसी 'उच्च कुल' में ही जन्म लेने की बात कही गई है, न कि किसी चंडाल जैसे 'नीच कुल' में. हमें ऐसे नीच-उंच्च की घृणा पर आधारित ब्राह्मणवाद से ग्रसित 'बुद्ध' की जरुरत नहीं है.