Saturday, June 30, 2018

अवलोकितेस्वर

हम बुद्ध को जानते हैं, बोधिसत्व के नाम से भी परिचित हैं। लेकिन ये अवलोकितेश्वर क्या है ? मंजुश्री कौन है, वज्र पाणि कौन है ? तारा कौन हैं ?
बुद्ध, ईश्वर, आत्मा नहीं मानते। वे इसका निषेध करते हैं। थेरवादी मानते हैं कि  जो सत है, वह क्षणिक है।  महायानी तो क्षण को भी वास्तव सत्ता नहीं स्वीकारते। शून्यता, नि:स्वभावता में विहरते हैं । फिर, इनमे इतना बड़ा देव परिवार कैसे बना ? इसका औचित्य क्या है ? संगती कैसे है((लेख  महायान बौद्ध परम्परा; स्वरूप और प्रयोजन : कृष्ण नाथ ) ?

गुह्य समाज तन्त्रम बौद्ध तंत्र का आधारभूत ग्रन्थ है। इसका बौद्ध तांत्रिक साहित्य में प्रामाण्य है। इस पर अनेक टीकाएँ हुई हैं।  इसकी साधना विधि गुह्य है। कहा गया है की इसका विधिवत अभ्यास करने से ही फल प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं(वही)।

अवलोकितेश्वर करुणा
अवलोकितेश्वर करुणा का प्रतीक है। सद्धध्म्मपुण्डरीकसुत्त के 24वें परिवर्त में इसका वर्णन है। इस परिवर्त को ‘समन्तमुख परिवर्त’ कहा गया है। समन्त का अर्थ है- प्रत्येक दिसा में, चहुं-ओर मौजूद । और इसलिए अवलोकितेश्वर समन्तमुख है।

अलोकितेश्वर के अनेक रूप-
आर्य अवलोकितेश्वर को लोकेश्वर भी कहते हैं। परम्परागत तिब्बती विद्वानों के अनुसार अवलोकितेस्वर के करीब 15 प्रकार के चित्र प्राप्त होते हैं। गुह्य समाज सूत्रं की भूमिका में श्री विनय तोष भट्टाचार्य लिखते हैं कि नेपाल में इसको कम-से-कम 108 रूपों में बनाते हैं।

अलोकितेश्वर के अनेक हाथ, सिर और आँख
खसर्पण लोकेश्वर दो हाथ वाले होते हैं। चार हाथ लोकेश्वर के दो हाथ जुड़े होते हैं। उनके बीच में मणि होती है। एक हाथ में स्फटिक की माला और एक हाथ में पद्म होता है। फिर छह हाथ और एक सिर भी बनते हैं। नौ या ग्यारह सिर और एक हजार हाथ वाला अवलोकेतेश्वर भी बनाते हैं। हजार हाथों में से हरेक में आँख होती है। आर्य आँखों से तो देखते ही हैं, हाथों की आँख से भी देखते हैं और करुणा करते हैं।

अलोकितेश्वर की पोशाक और लिबास-
अवलोकितेस्वर को सफेद रंग से बनाते हैं। मंजुश्री को पीला रंग । वज्र पाणि को नीला।  इनके आठ अलंकार और पांच वस्त्र लिखते हैं। तिब्बती ज-म-लोक में इसका पूरा वर्णन है(बौद्ध निबंधावली: समाज और संस्कृति : कृष्ण नाथ : वाणी प्रकाशन)।

अलोकितेश्वर के गुरू अमित देव
अवलोकितेश्वर सिर के उपर 'अमित देव' होते हैं। कभी इनका रुद्र रूप होता है। अमितदेव अलोकितेश्वर के गुरू माने जाते हैं ।

अलोकितेश्वर का स्थान
अवलोकितेस्वर का स्थान पोतलक पर्वत है।

गंडव्यूह सूत्र में सेट्ठी सुधन ने बोधिचित का उत्पाद कर लिया है। किन्तु वह बोधिसत्व की चर्या नहीं जानता । इसके जानने के लिए वह अनेक 'कल्याण मित्रों' के पास जाता है। इसी सिलसिले में वह अवलोकितेश्वर के भी पहुंचता है।

दलाईलामा, अवलोकितेश्वर के अवतार
दलाईलामा अवलोकितेश्वर के अवतार माने जाते हैं। इनका स्थान भी पोतलक है।

अलोकितेश्वर बोधिसत्व
अवलोकितेश्वर बोधिसत्व हैं। सुधन को बताते हैं कि वे महा करुणा मुखावलंबन नाम की बोधिचर्या जानते हैं।  इनके द्वारा सभी सत्वों को सब प्रकार के भय से मुक्त करते हैं(वही )।

अलोकितेश्वर का मन्त्र  'ॐ मणि पद्मे हूॅं'
 'ॐ मणि पद्मे हूॅं’ अवलोकितेश्वर का मंत्र है। इसका अर्थ है- ‘मुझे लोकोत्तर शक्ति दीजिए’। इसमें मणि ‘उपाय’ और पद्म 'प्रज्ञा' का प्रतीक है । इसके छह अक्षर छह प्रज्ञापामिताओं को दर्शाते हैं। इससे छह मल-क्लेश दूर होते हैं। तिब्बत में बौद्ध धर्म के संस्थापक कहे जाने वाले‘सोंगचेन’ गम्पो( सातवीं सदी) के ग्रंथ ‘मणि-क-बुम’ में इस मंत्र की सविस्तार महत्ता बतलायी गई है। महायानी लोग इसका जाप करते पाएं जाते हैं। तंत्र में ॐ का बड़ा महात्म्य है।

अलोकितेश्वर की ध्यान-भावना
ध्यान भावना में महायानी प्रथम ‘ति-सरणागमन’ के बाद ‘चित-उत्पाद’ गाथा का पाठ करते हैं। इस गाथा का अर्थ है- ‘मैंने दान आदि जिन पुण्यों का अर्जन किया है, उनके फलस्वरूप प्राणियों के हित के लिए मुझे बुद्धत्व प्राप्त हो’। तत्पश्चात  अपने सिर के ऊपर अथवा सामने पास में लोकेश्वर की भावना करते हैं। यहां साधक भावना करता है कि सभी प्राणियों सहित उसके सिर पर श्वेत कमल है। श्वेत कमल के ऊपर चन्द्रमा है। चन्द्रमा के ऊपर 'ह्री' अक्षर है। इस 'ह्री' अक्षर से ही अवलोकितेश्वर उत्पन्न है। शुभ और स्वच्छ देह से पांच प्रकार की प्रभास्वर श्वेत किरणें निकल रही हैं।  चेहरे पर मुस्कान है। करुणा की दृष्टी से देख रहे हैं। चार हाथों में से पहले दो हाथ जिदे हैं और उनके बीच मणि है और नीचे दो हाथों में से एक में स्फटिक की माला और एक में सफेद कमल है।  वस्त्र और अलंकार से अलंकृत हैं।  मृग-चर्म धारण किए हुए हैं।  निर्मल चन्द्रमा की टेक लगाए हुए हैं।  समस्त शरण-स्थलों के पुंज स्वरूप हैं।  मैं समस्त प्राणियों के साथ अभिन्न होकर भावना करता हूँ(वही)।

शान्तीदेव ने 'बोधिचर्यावतार' के 9 परिच्छेदों में इस चर्या का वर्णन किया है। 10वें परिच्छेद में वे परिणामना करते हैं- यह हो, वह हो। तंत्र के लिए पारमिता और बोधिचित आवश्यक अंग है।


कारण्ड व्यूह में अवलोकितेश्वर की महिमा का विस्तार है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास : डॉ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय पृ 338)।  

Friday, June 29, 2018

लोहिच्च सुत्त(दी. नि.)

ऐसा मैंने सुना, एक समय भगवान
एवं में सुत्तं, एकं  समयं भगवा
500  भिक्खु-संघ के बड़े भिक्खु-संघ के साथ
महत्ता भिक्खु-संघेन सद्धिं पञ्चमत्ते भिक्खु सतेहि
कोसल (देश) में चरिका करते हुए
कोसलेसु चारिकं चरमानो
जहाँ सालवतिका थी, वहां पहुंचे।
येन सालवातिका तदवसरि
उस समय लोहिच्च ब्राह्मण,
तेन खो पन  समयेन लोहिच्चो ब्राह्मणो
राजा पसेनदि कोसल द्वारा प्रदत्त
रञ्ञा पसेनदि कोसलेन दिन्नं
धन-धान्य संपन्न सालविता का स्वामी होकर रहता था।
सधञ्ञं  सालवतिकं अज्झावसति।

उस समय लोहिच्च  ब्राह्मण को
तेन खो पन समयेन लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स
यह बुरी धारणा उत्पन्न हुई थी।
एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उपन्नंं  होति-
संसार में ऐसा समण या ब्राह्मण
इध समणो वा ब्राह्मणो वा
नहीं है जो अच्छे धर्म को जाने
न कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य।
और जान कर अच्छे धर्म को दूसरों को बतलाए।
अपि च कुसलं धम्मं अधिगंत्वा न परस्स आरोचेय्य।
भला दूसरा, दूसरे के लिए क्या करेगा ?
किञ्हि परो परस्स करिस्सति ?

जैसे एक पुराने बंधन को काट कर
सेय्याथापि, नाम पुराण बंधनं छिन्दित्वा
दूसरा एक नया बंधन दाल दे;
अञ्ञंं नव बन्धनं करेय्य
इस प्रकार इस (समन या ब्राह्मणों के समझाने को)
एवं सम्पदं इदं
पाप(बुरा) और लोभ की बात मैं समझता हूँ।
पापकं लोभ धम्मं वदामि। 


लोहिच्च ब्राह्मण ने सुना-
अस्सोसि खो लोहिच्च ब्राह्मणो-
समण गोतम साक्य पुत्त
समणाो खलु, भो, गोतमो, सक्य पुत्तो
साक्य कुल से पब्बज्जित हो
सक्य कुला पब्बज्जितो
पांच सौ भिक्खुओं के बड़े संघ के साथ
पञ्चमत्तेहि भिक्खु सतेहि महता भिक्खु संघेहि
सालवतिका में आए हुए हैं।
सालबतिकं अनुप्पत्तो।
उन गोतम की
तं खो पन भवन्तं गोतमं
एवं कल्याणो कित्ति सद्दो अब्भुग्गतो-
ऐसी कल्याण कारी कीर्ति फैली हुई है-
वे भगवान, अर्हत, सम्यक-सम्बुद्ध
इतिपि  सो भगवा अरहं सम्मा सम्बुद्धो
विद्या आचरण संपन्न
विज्जा चरण सम्पन्नो
सुगत लोकविदू ,अनुपम, पुरुस दम्य सारथी
सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिस दम्म सारथि
स्त्री-पुरुषों के सत्था बुद्ध भगवान है
सत्था इत्थी पुरिस्सानं  बुद्धो भगवा'ति । 
इस प्रकार के अर्हतों का दर्शन अच्छा होता है
साधु खो पन तथा रूपानं अरहंतं दस्सनं ।

तब लोहिच्च ब्राह्मण ने रोसिक नामक नाई को बुलाकर कहा-
अथ खो लोहिच्च ब्राह्मणो रोसिकं न्हापितं आमंतेसि-
सुनो भद्र रोसिक, जहाँ समन गोतम हैं,
एहि त्वं सम्म रोसिके, येन समणो गोतमो तेनुपसंकम
जाकर मेरी ओर से
उपसंकमित्वा मम वचनेन
समण गोतम का कुशल-क्षेम पूछो-
समणं गोतमं फासु विहारं पुच्छ-
हे गोतम! लोहिच्च ब्राह्मण भगवान गोतम का
भो गोतम,  लोहिच्चो ब्राह्मणो भवन्तं गोतमं
कुशल मंगल पूछता है, और कहो-
फासु विहारं पुच्छति, एवं वदेहि-
'भगवान अपने भिक्खु-संघ के साथ
'अधिवासेतु भवं गोतमो सद्धिं भिक्खु संघेन
कल लोहिच्च ब्राह्मण के घर पर भोजन करना स्वीकार करें'
लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय (कल दे लिए)  भत्तंं

'बहुत अच्छा' कह रोसिक नाई
'एवं, भो'ति' खो रोसिका न्हापितो
लोहिच्च ब्राह्मण की बात मान
लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा
जहाँ भगवान थे, गया।
येन भगवा तेनुप संकमि, उप संकमित्वा
जा कर भगवान को अभिवादन करके एक ओर बैठ गया।
उपसंकमित्वा अभिवादेत्वा एकमंतंं निसीदि 
एक और बैठे हुए रोसिक नाई ने भगवान् से यह कहा-
एकमंतंं निसिन्नो खो रोसिको न्हापितो भगवन्तं एतद वोच-
भंते! लोहिच्च ब्राह्मण भगवान का
लोहिच्चो, भंते,  ब्राह्मणो भवन्तं गोतमं
कुशल मंगल पूछता है और कहता है-
फासु विहारं पुच्छति, एवं वदेति-
'भगवान अपने भिक्खुओं के साथ
'अधिवासेतु भंते, भगवा सद्धिं भिक्खु संघेन
कल लोहिच्च ब्राह्मण के घर भोजन स्वीकार करें।'
लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तंं
भगवान् ने मौन रह कर स्वीकार कर लिया।
अधिवासेति भगवा तुण्हिभावेन।

तब रोसिक नाई भगवान् की स्वीकृति को जान
अथ खो रोसिका न्हापितो भगवतो अधिवादनंं विदित्वा उत्थायासना
भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर
अभिवादेत्वा पदक्खिणंं कत्वा
जहाँ लोहिच्च ब्राह्मण था, वहां गया
येन लोहिच्च ब्राह्मणो तेनुप संकमि।
जा कर लोहिच्च ब्राह्मण से बोला-
उपसंकमित्वा लोहिच्चंं ब्राह्मणंं एतद वोच-
मैंने आपकी ओर से भगवान् से कहा-
अवोचुम्हा खो मयं भोतो वचनेन तं भगवन्तं-
भंते! लोहिच्च ब्राह्मण भगवान का
लोहिच्चो, भंते, ब्राह्मणो भवन्तं गोतमं
फासु विहारं पुच्छति, एवं वदेति-
भगवान अपने भिक्खुओं के साथ
'अधिवासेतु भंते, भगवा सद्धिं भिक्खु संघेन
कल लोहिच्च ब्राह्मण के घर भोजन स्वीकार करें।'
लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तंं
और भगवान ने स्वीकार कर लिया।
अधिवुत्थं च पन तेन भगवा।

तब लोहिच्च ब्राह्मण ने उस राट के बीतने पर
अथ लोहिच्चो ब्राहमणो अच्चयेन(बीतने पर) तस्सा रत्तिया
अपने घर में अच्छी-अच्छी खाने-पीने की चीजें तैयार करा करके
सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटि-आदापेत्वा
रोसिक नाई को बुला करके कहा-
रोसिकं न्हापितं आमंतेसि-
सुनो भद्र रोसिक ! जहाँ समन गोतम हैं, वहां जाओ
एहि त्वं सम्म रोसिके, येन समणो गोतमो तेनुपसंकम
जाकर समन गोतम को समय की सूचना दो-
उपसंक मित्वा समणस्स गोतमस्स कालं आरोचेहि-
हे गोतम! भोजन का समय हो गया है, भोजन तैयार है।
कालो भो गोतमो, निट्ठितं भत्तंं।
बहुत अच्छा' कह रोसिक नाई
'एवं भो'ति  रोसिका न्हापितो
लोहिच्च ब्राह्मण की बात मान
लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा
जहाँ भगवान थे, वहां गया
येन भगवा तेनुपसंकमि
जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक और खड़ा हो गया
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमंतंं  अट्ठासि।
एक और खड़ा हो रोसिक नाई ने भगवान से कहा-
एकमंतंं ठितो खो रोसिका भगवन्तं आरोचेसि-
भंते ! समय हो गया है।  भोजन तैयार है।
कालो भंते, निट्ठितं भत्तंं'ति।

तब भगवान जहाँ लोहिच्च ब्राह्मण का घर था, वहां गए।
अथ खो भगवा येन लोहिच्च ब्राह्मणस्स निवेसनं, तेनुपसंकमि
जा कर बिछे आसान पर बैठ गए।
उपसंक मित्वा पञ्ञते आसने निसीदि।
तब लोहिच्च ब्राह्मण ने बुद्ध सहित भिक्खु-संघ को
अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो बुद्ध पमुखं भिक्खु-संघं
अपने हाथ से अच्छी-अच्छी खाने और पीने की चीजें
पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था
परोस-परोस कर खिलाई।
संतप्पेसि, सम्पवारेसि।

तब लोहिच्च ब्राह्मण भगवान के
अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो भगवन्तं
भोजन समाप्त कर हाथ हटा लेने के बाद
भूताविं ओनित पत्त पाणिं
स्वयं एक दूसरा नीचा आसान लेकर
अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा
एक ओर बैठ गया।
एकमंतं निसीदि।
एक ओर बैठे लोहिच्च ब्राह्मण को
एकमंतं निसिन्नं खो लोहिच्च ब्राह्मणं
भगवान ने ऐसा कहा-
भगवा एतदवोच-

लोहिच्च, क्या यह सच्ची बात है, तुम्हें
सच्चं किर ते, लोहिच्च,
इस प्रकार की बुरी धारणा उत्पन्न हुई है-
एवरूपं पापकं दिट्ठि गतं उप्पन्नं-
यहाँ कोई समन वा ब्राह्मण नहीं
इध न समणो वा ब्राह्मणो
जो अच्छे धर्म को जाने---
यो कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य ---
हाँ गोतम, ऐसी ही बात है।
एवं भो गोतमं।

तुम क्या सोचते हो लोहिच्च!
तं किं मञ्ञसि लोहिच्च
तुम सालविता के स्वामी हो न ?
ननु त्वं सालविकं अज्झावससि ?
हाँ, हे गोतम।
एवं भो गोतम।
 जो कोई ऐसा कहे -
यो नु खो एवं वदेय्य
जो सालवतिका की आय है
या सालविकाय समुदय सञ्ञाति
उसे लोहिच्च ब्राह्मण अकेला ही उपभोग करें
लोहिच्च बाह्मणो येव तं एकको परिभुञ्जेय्य
दूसरों को कुछ नहीं दें
न अञ्ञेसं परि ददेय्य
यह हानिकरक है या नहीं  ?
तेसं  अयं अंतरायको वा न अंतरायको ?
हाँ, वह हानिकारक है, गोतम
अंतरायको, भो गोतम।

इसी तरह से, लोहिच्च !
एव मेव खो, लोहिच्च
जो ऐसा कहे -
यो एवं वदेय्य
भला दूसरा, दूसरे के लिए क्या करेगा ?
किञ्हि परो परस्स करिस्सति ?
यह हानिकरक है या नहीं  ?
अयं अंतरायको वा न अंतरायको ?
यह हानिकारक है, गोतम
अयं अंतरायको, भो गोतम(स्रोत- दीघ निकाय)।
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अज्झावसति - घर में रहता है।
तदवसरि- वह
स्वातनो- बीता कल
कालं आरोचेहि- समय की सूचना दो 

Thursday, June 28, 2018

केवट्ठ सुत्त(दी. नि.)

दिव्य शक्तियों के विरुद्ध
ऐसा मैंने सुना, एक समय भगवान
एवं मे सुत्तं, एकं समयं भगवा
 नालन्दायं विहरति पावारिक अम्बवने।
 नालंदा के पास पावारिक अम्बवन में विहार करते थे। 
तब केवट्ठ गृहपति पुत्र जहाँ भगवान थे, वहां गया।
अथ खो केवट्ठो गह्पति पुत्तो येन भगवा तेनुपसंकमि।  
जा कर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तंं निसीदि। 
एक ओर बैठे  केवट्ठ गृहपति पुत्र ने भगवा से यह कहा-
एकमन्तंं निसिन्नो खो केवट्ठो गह्पति पुत्तो भगवन्तं एतदवोच-
भंते ! यह नालंदा समृद्ध, धन-धान्य पूर्ण और बहुत घनी बस्ती है।
भंते, अयं नालंदा इद्धा(समृद्ध) च येव फीता(धन-धान्य पूर्ण) च बहुजना।   
यहाँ के मनुष्य आपके प्रति बहुत श्रद्धालु हैं।
एत्थस्स  मनुस्सा भगवति अभिप्पसन्ना। 
भगवा कृपया एक भिक्खु को कहें कि
साधु, भंते, भगवा एकं भिक्खुंं  स-आदिसतु-
दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन करेगा ।
सो इद्धि(ऋद्धि) पटिहारियं(प्रदर्शन) करिस्सति।
इससे लोग भगवान के प्रति अत्यधिक श्रद्धालु होंगे।
एवं जना भगवन्तं अच्चतं अभिप्पसीदन्ति।  
ऐसा कहने पर भगवान ने केवट्ठ से यह कहा-
एवं वुत्ते भगवा केवट्ठंं  गहपति पुत्तं एतद वोच-
केवट्ठ, मैं भिक्खुओं को ऐसा उपदेश नहीं देता हूँ।
न खो अहं केवट्ठ, भिक्खूनं  एवं धम्मं देसेमि(स्रोत - दीघनिकाय)। 

Wednesday, June 27, 2018

विवेक और प्रज्ञा(मिलिन्द पञ्ह)

विवेक और प्रज्ञा
"ननु भंते, योनिसो मनसिकारो  येव पञ्ञा ?"
"भंते, विवेक और प्रज्ञा(ज्ञान) एक ही है न  ?"
"महाराज, अञ्ञ मनसिकारो, अञ्ञा पञ्ञा।"
महाराज, विवेक अलग है और प्रज्ञा अलग है .
"पसुना मनसिकारो अत्थि, पन पञ्ञा तेसं नत्थि।"
पशुओं में विवेक तो होता है किन्तु प्रज्ञा नहीं होती .
"मनुस्सानं मनसिकारो अपि च पञ्ञा दुवे सन्ति ।"
मानुषों में विवेक और प्रज्ञा दोनों होते हैं .
"किंं लक्खणो मनसिकारो, किंं लक्खणा  पञ्ञा ?"
क्या लक्षण हैं विवेक के और क्या लक्षण हैं प्रज्ञा के ?
"ऊहन(बोध हो जाना) लक्खणो खो महाराज, मनसिकारो,
बोध होना विवेक का लक्षण है, महाराज और
छेदन(काटना) लक्खणा पञ्ञा।"
काटना प्रज्ञा का लक्षण है।
स्रोत- मिलिंद पञ्ह

पटिसन्धि (मिलिन्द पञ्हो)

भंते नागसेन, अत्थि कोचि मतो न पटिसंदहति?
कोचि पटिसंहति, कोचि न पटिसंदहति। -थेरो आह।
को पटिसंदहति, को न पटिसंदहति ?
सकिलेसो पटिसंदहति महाराज, निक्किलेसो न पटिसंदहति।
त्वं पन भंते, नागसेन, पटिसंदहस्ससि ?
सचे महाराज, सउपादानो भाविस्सामि, पटिसंदहिस्सामि , सचे अनुपादो भाविस्सामि, न पटिसंदहिस्सामि।
कल्लोसि भंते, नागसेन। राजा मिलिन्दो आह। 

विस्सज्जितं(मिलिन्द पञ्ह)

‘भन्ते नागसेन, पुच्छिस्सामि(पूछूंगा)।’’
‘‘पुच्छ(पूछो) महाराजा।’’ भदन्त नागसेनो आह।
‘‘पुच्छितोसि(पूछा) भन्ते।’’
‘‘विस्सज्जितं(उत्तर दिया) महाराजा।’’
‘‘किं पन(किन्तु क्या ), भन्ते, विस्सज्जितं(उत्तर दिया)?’’
‘‘किं पन, महाराज, पुच्छितं(पूच्छा)?’’
अथ(तब) खो मिलिन्दस्स रञ्ञो  (मिलिन्द राजा को) एतदहोसि(ऐसा हुआ)-
‘‘पण्डितो खो अयं(यह) भिक्खु पटिबलो(समर्थ है),
मया(मेरे) सद्धिं(साथ) सल्लपितुं(चर्चा करने)।
स्रोत- मिलिन्द पञ्हो  

Tuesday, June 19, 2018

बुद्ध की अहिंसा

बुद्ध हिंसा के विरुद्ध थे।  परन्तु वह न्याय के पक्ष में भी थे और जहाँ न्याय के लिए बल प्रयोग अपेक्षित होता है, वहां उन्होंने बल प्रयोग की अनुमति दी। यह बात जानने के बाद कि बुद्ध अहिंसा का प्रचार करते हैं , वैशाली के सेनाध्यक्ष सिंह सेनापति बुद्ध के पास गए और उनसे पूछा-

 "भगवन, अहिंसा का उपदेश देते हैं व प्रचार करते हैं।  क्या भगवन, एक दोषी को दंड से मुक्त करने व स्वतंत्रता देने का उपदेश देते और प्रचार करते हैं ? क्या भगवन यह उपदेश देते हैं कि  हमें अपनी पत्नियों, अपने बच्चों तथा अपनी संपत्ति को बचाने के लिए, उनकी रक्षा करने के लिए युद्ध नहीं करना चाहिए ? क्या अहिंसा के नाम पर हमें अपराधियों के हाथों कष्ट झेलते रहना चाहिए ? क्या तथागत उस समय भी युद्ध का निषेध करते हैं , जब वह सत्य और न्याय के हिट में हो ?

बुद्ध का उत्तर - 
"मैं जिस बात का प्रचार करता हूँ व उपदेश देता हूँ आपने उसे गलत ढंग से समझा है।  एक अपराधी और दोषी को अवश्य दंड दिया जाना चाहिए और एक निर्दोष व्यक्ति को मुक्त और स्वतन्त्र कर दिया जाना चाहिए। यदि एक दंडाधिकारी एक अपराधी को दंड देता है तो यह दंडाधिकारी का दोष नहीं है। दंड का कारण अपराधी का दोष व अपराध होता है। जो दंडाधिकारी दंड देता है, वह न्याय का ही पालन कर रहा होता है।  उस पर अहिंसा का कलंक नहीं लगता। जो व्यक्ति न्याय और सुरक्षा के लिए लड़ता है, उसे अहिंसा का दोषी नहीं बनाया जा सकता।

यदि शांति बनाये रखने के सभी साधन असफल हो गए हों,  तो हिंसा का उत्तरदायित्व उस व्यक्ति पर आ जाता है, जो युद्ध को शुरू करता है। व्यक्ति को दुष्ट शक्तियों के समक्ष आत्म समर्पण नहीं करना चाहिए। यहाँ युद्ध हो सकता है।  परन्तु यह स्वार्थ की या स्वार्थ पूर्ण उद्देश्यों की शर्तों के लिए नहीं होना चाहिए"(बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स : बाबासाहब डॉ अम्बेड कर, सम्पूर्ण वांगमय खंड 7 )।   

संघ के नियम

एक बार महाप्रजापति गौतमी, जो भिक्खु-संघ में शामिल हो गई थी, ने सुना कि बुद्ध को सर्दी लग गई है। उन्होंने उनके लिए एक गुलूबंद तैयार किया और वह उसे बुद्ध के पास ले गई।

परन्तु बुद्ध ने उसे यह कह कर स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि यदि यह एक उपहार है, तो उपहार समूचे संघ के लिए होना चाहिए, संघ के एक सदस्य के लिए नहीं। महाप्रजापति गौतमी, जिन्होंने बाल्य-काल में उनका पालन-पोषण किया था, ने बहुत अनुनय-विनय की परन्तु बुद्ध के आगे उनकी एक न चली (बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स: बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर सम्पूर्ण वांगमय खंड 7 ) ।    

Monday, June 18, 2018

बोधिसत्व के अनेक जन्मों की कहानी, ब्राह्मणवाद का प्रचार

बोधिसत्व के अनेक जन्मों की कहानी, ब्राह्मणवाद का प्रचार- 
अगर आप दुश्मन को परास्त नहीं कर सकते तो उसकी शरण में जा, उसका शिष्य बन कर उसके विचारों में घाल-मेल पैदा कर दो। यह एक ट्रिक है जिसकी खोज ब्राह्मणों ने की है । यह ट्रिक दिखने में तो आसान लगती है मगर, इसके परिणाम बेहद घातक और दूरगामी होते हैं ।

मैं अधिक दूर नहीं जा रहा । हम कबीर को लें । ईश्वर सहित  ब्राह्मणवाद के विरुद्ध कबीर कितने उग्र और तीक्ष्ण थे ? उनकी उग्रता की धार ने पण्डे, पुजारी,  मौलवी सबका अंग-भंग कर दिया था। अंग-भंग ऐसा कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से लेकर रामचन्द्र शुक्ल तक 'ब्राह्मण की लंगोटी' संभालने में लगे रहे । और, परिणाम सामने है । आज, चाहे कबीर-गद्दी खरसिया हो, बुरहानपुर या दामाखेड़ा, उनके अनुयायी उन्हें किसी अवतारवादी भगवान से कम मानने को तैयार नहीं !

उक्त घटना तो 14-15 वीं सदी की है। मगर हम,  आज से 2500 वर्ष पहले देखें तो बुद्ध के साथ इससे भी भयानक हादसा हुआ। कबीर के समय, कबीर के पीछे बुद्ध थे। मगर, बुद्ध में पीछे कोई नहीं था।  बुद्ध को अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होना था।  उसे अपने ही बल से टिके रहना था। और रहा भी और,  आज भी है। मगर, इसके लिए उसे कितनी कीमत चुकानी पड़ी ? जो भिक्खु मैत्री और करुणा का पाठ पढ़ाते थे, ऐसे कितने ही  भिक्खुओं की बलि देनी पड़ी। कितने अपने ही विश्वविद्यालयों को आग की लपटों में धू-धू के जलते देखने का साक्षी होना पड़ा !

बुद्ध, अवतारवाद के विरोधी थे।  मुझे नहीं लगता, इसमें किसी को कोई आपत्ति है। मैं बुद्धिस्ट चिंतकों की बात कर रहा हूँ।  अगर वे अपनी सैद्धांतिकी में स्पष्ट है, दिग्ग भ्रमित नहीं हैं, तो मुझे नहीं लगता वे इससे अलग राय रखेंगे। विचारों में स्पष्टता जरुरी है। यही नहीं, यह स्पष्टता सामने वाले को दिखनी भी चाहिए। आप किचन में लगे वित्तु बाबा के फोटो को यह कह कर सामने वाले को दरकिनार नहीं कर सकते कि 'श्रीमतीजी का कमरा'  है। यह व्यक्तित्व का दोहरापन ही होगा कि किचन में कुछ और ड्राईंग रूम में कुछ।

'बुद्धा एंड धम्मा' में बाबासाहब डॉ अम्बेडकर स्पष्ट लिखते हैं कि जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत के सर्वथा (Enlightenment and the Vision of a New Way- 4/21: Part IV)  समान है।  किन्तु भदन्त आनंद कोसल्यायन जब इसका अनुवाद करते हैं तो वे अपने अनुवाद में लिखते हैं कि 'जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत के सर्वथा  प्रतिकूल  है'(भगवान् बुद्ध और उनका धर्म, पृ 67 ) । भदन्त जी की इसके लिए आलोचना भी हुई। मगर, जो नुकसान हुआ, वह अपरिमित है।

बुद्ध के मुख से निकले उपदेश किस तरह प्रदूषित हुए, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।  एक भाणक ने सुना फिर उसका कथन दूसरे भाणक ने सुना. फिर उसका कथन तीसरे ने, चौथे, पांचवे....।  सैकड़ों वर्षों तक यह  सिलसिला चलता रहा । इसमें बुद्ध वचन प्रश्नगत भी होते रहे, नए-नए सम्प्रदाय भी बनते रहे। बुद्ध महापरिनिर्वाण के करीब 250 वर्ष के अंदर ही अशोक काल तक कुल  18 सम्प्रदाय अस्तित्व  में आ चुके थे । फिर, ईसा की पहली सदी में उन्हें लिपिबद्ध किया गया, जिस रूप में भी वे उस समय थे । पूर्व ब्राह्मणवादी संस्कारों में संस्कारित चिवरधारी भिक्खुओं ने जो गलतियाँ की होगी, वह तो अलग है, परन्तु, जो परिवर्तन होश में हुए,  वे कैसे क्षम्य हो सकते हैं ? हमें नहीं लगता कि भदन्तजी ने वह अनुवाद अनजाने में किया हो ?

एक सुखद संयोग है कि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध के धर्म का झंडा राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में; पुन: उनकी मातृ-भूमि में जहाँ वे पैदा हुआ थे, इस तरह गाड़ दिया कि कोई इसे अब हिला नहीं सकता। सीधी सी बात है, धम्म को हमें उनके 'बुद्धा एंड धम्मा'  में पढ़ना होगा, उन्ही के शब्द और भाव को पकड़ना होगा, जो वे बताना  चाहते हैं । उन्हें दलितों के मर्ज का ठीक-ठीक पता था ।  डॉ  अम्बेडकर ने साफ़-साफ़ लिखा है कि बुद्ध, परा-प्राकृतिक वाद के विरुद्ध थे। ऐसी कोई बात जो परा-प्राकृतिकवाद का समर्थन करती है, बुद्ध मत के विरुद्ध है।    

Saturday, June 16, 2018

गिलान सुत्त(सु. नि.)

अत्त दीपा विहरथ अत्तसरणा
एवं में सुत्तं,  एकं  समयं भगवा वेसालियं विहरति वेळुवगामे।
ऐसा मैंने सुना, एक समय भगवान वैशाली के वेलुवगाम में विहार करते थे।

अथ खो भगवतो वस्स-उपगतस्स खरो आबाधो उप्पज्जि, बाळ्हा वेदना वत्तन्ति मारणन्तिका।
तब उस वर्षा-वास में भगवान् को बड़ी गंभीर बीमारी हुई, बहुत अधिक(बाळ्हा) मरणान्तक पीड़ा होने लगी ।

अथ खो भगवतो सो आबाधो पटिप्पस्सम्भि ।
तब भगवान की यह बीमारी शांत हुई ।

अथ खो भगवा गिलाना वुट्ठितो आबाधाय निक्खमित्वा विहार पच्छायायं पञ्ञते आसने  निसीदि।
तब भगवान बीमारी से उठ, ब्याधि से निकल, विहार के पीछे, छाया में बिछे आसान पर बैठे ।

अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसंकमि; उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तंं निसीदि।तब, आयु. आनंद जहाँ भगवान थे, वहां गए और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठे ।

 एकमन्तंं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच-
एक और बैठे आयु, आनंद ने भगवान को कहा-

दिट्ठो  मे, भंते ! भगवतो फासु। दिट्ठं, मे भंते! भगवतो खमनीयं ।
देखा मैंने, भंते! भगवान को सुखी । देखा, मैंने भगवान अच्छा हुए ।

अपि च भंते ! दिसापि मे न पक्खायन्ति।  धम्मा पि मं न पटिभन्ति भगवतो गेलञ्ञेन।
किन्तु भंते ! दिशाएं मुझे सूझ नहीं रही थी। चीजें  (धम्मा ) भी  नहीं समझ रही थी भगवान् की बीमारी से  ।

अपि च मे भंते ! अहोसि काचिदेव(कुछ) अस्सासमता-
फिर भी भंते !, कुछ आश्वासन इस बात का था कि

न ताव भगवा परि निब्बायिस्सति, न याव भगवा भिक्खु-संघं आरब्भ किंचिदेव उदाहरति।
भगवान तब तक महापरिनिब्बान को प्राप्त नहीं करेंगे, जब तक भिक्खु-संघ से कुछ कह-सुन न लें।

किंं पन इदानि आनंद ! भिक्खुसंघो मयि पच्चासिंंसति ?
किन्तु आनंद ! इस समय(इदानि) भिक्खु-संघ मुझसे क्या चाहता है ?

देसितो, आनंद ! मया धम्मो अनन्तरं अबाहिरं करित्वा।
उपदेश कर दिए है आनंद मैंने,  न-अन्दर, न-बाहर करके।  

नत्थि आनंद ! तथागतस्स धम्मेसु आचरिय मुट्ठि।
नहीं है, आनंद ! धर्मों में तथागत को (कोई ) आचार्य-मुट्ठि ।

यस्स नून, आनंद ! एवमस्स- अहं भिक्खु संघं परिहरिस्सामि वा, मम उद्देसिको भिक्खु संघो वा,
जिसको आनंद! ऐसा हो(एवमस्स)- मैं भिक्खु-संघ को धारण करता हूँ, अथवा भिक्खु-संघ मेरे उद्देश्य से है,

सो नून आनंद ! भिक्खु संघं आरब्भ किंचिदेव(कुछ) उदाहरेय्य।
वह जरूर(नून) आनंद ! भिक्खु-संघ के लिए कुछ कहें ।

तथागतस्स खो आनंद ! न एवं होति।
तथागत को आनंद,  ऐसा नहीं होता है।

सो किंं आनंद ! तथागतो भिक्खु संघं आरब्भ किंचि देव उदाहरिस्सति।
आनंद ! तथागत भिक्खु-संघ के लिए क्या कहेंगे !

एतरहि खो पन आनंद ! जिन्नो, वुद्धो महल्लको वयो अनुप्पत्तो। आसीतिको मे वयो वत्तति।
अब तो किन्तु आनंद!  मैं जीर्ण, वृद्ध, वय प्राप्त हूँ। अस्सी वर्ष मेरी आयु है।

सेय्यथापि, आनंद ! जज्जर  सकटं वेठमिस्सकेन यापेति,
जैसे, आनंद! जैसे जर्जर(जज्जर) बैलगाड़ी(सकट ) बांध-बूंध कर चलती है,

एव मेव, खो, आनंद ! वेठमिस्सकेन तथागतस्स कायो यापेति।
वैसे ही आनंद ! तथागत की काया बांध-बूंध  का चल रही है।

तस्मातिह  आनंद ! अत्त दीपा विहरथ, अत्तसरणा, अनञ्ञसरणा,
इसलिए आनंद,  अपने आप निर्भर होओ , अपनी शरण आप बनो,  किसी दूसरे के भरोसे मत रहो।

धम्मदीपा, धम्मसरणा  अनञ्ञसारणा।
धम्म पर ही निर्भर होओ।  अपनी शरण धम्म को बनाओ।  किसी दूसरे के भरोसे मत रहे।

Therefore,  Anand, Be island unto yourselves
  स्रोत- गिलान सुत्त ; मगवग्ग: सुत्त निपात
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पटिप्पस्सम्भति - शांत होना।  पसम्भति(प- सम्भति)-  शांत होना  to calm down, to be quiet.
खर- कठोर, दुक्खद।
फासु- सुख/आराम दायक।
पच्चासिंंसति- आशा करना, इच्छा करना
परिहरति - संभालना, रक्षा करना।
वेध मिस्सकेन- बांध-बूंध के
उदाहरति - कथन कहना। to utter, to recite, to speak.
एतरहि- अब    

Friday, June 15, 2018

यशोधरा


स्रोत -बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कृत  'बुद्ध और उनका धम्म' -
कपिलवस्तु में जयसेन नाम का एक शाक्य रहता था।  सिंहहनु उसका पुत्र था।  सिंहहनु का विवाह कच्चाना से हुआ था। सिंहहनु-कच्चाना के 5 पुत्र; शुद्धोदन, धीतोदन, शुक्लोदन, शाक्योदन, अमितोदन और 2  पुत्रियाँ अमिता, प्रमिता थी। परिवार का गोत्र आदित्य था।

शुद्धोदन का विवाह महामाया से हुआ था। महामाया के पिता का नाम अंजन और माता का नाम सुलक्षणा था। अंजन कोलिय था और देवदह नामक बस्ती में रहता था। महामाया की बड़ी बहन का नाम महाप्रजापति था जिससे बाद में शुद्धोदन ने विवाह किया था ।

दण्डपाणि नाम का एक शाक्य था। यसोधरा उसकी लड़की थी।

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महावंस के द्वितीय परिच्छेद में वर्णित इतिहास के आधार पर -

कपिलवस्तु में जयसेन नाम का शाक्य राजा था।  उसके पुत्र का नाम सिंहहनु और पुत्री का नाम यसोधरा था। सिंहहनु का विवाह देवदह के शाक्य राजा की पुत्री कात्यायनी से हुआ था। सिंहहनु-कात्यायनी(कच्चाना) के 5 पुत्र; शुद्धोदन, धीतोदन, शुक्लोदन, शाक्योदन, अमितोदन और 2  पुत्रियाँ अमिता, प्रमिता थी। परिवार का गोत्र आदित्य था।

दूसरी ओर ,  देवदह शाक्य राजा के पुत्र अंजन से राजा जयसेन की पुत्री यसोधरा का विवाह हुआ था। अंजन-यसोधरा के 2 पुत्र;  दण्डपाणि और सुप्रबुद्ध  तथा 2 पुत्रियाँ महामाया और महाप्रजापति। ये दोनों बहने राजा शुद्धोदन से ब्याही गई थी ।

सिंह हनु-कात्यायनी की जेष्ठ पुत्री अमिता का विवाह अंजन पुत्र सुप्रबुद्ध से हुआ था। अमिता-सुप्रबुद्ध के पुत्र का नाम देवदत्त और पुत्री का नाम भद्द कात्यायनी था। 16 वर्ष की आयु में भद्द कात्यायनी का विवाह राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ गौतम से हुआ  था । भद्द कात्यायनी ने 29 वर्ष की आयु में एक पुत्र को जन्म दिया था जिसका नाम राहुल था।

सिद्धार्थ के अभिनिष्क्रमण के बाद एकाकी रहते हुए यासोधरा ने अपने बेटे का पालन-पोषण किया था।  उसने राजशाही वाले वस्त्र त्याग कर एक भिक्खुनि की तरह पीले वस्त्र धारण कर लिए थे। उसने एक बौद्ध भिक्खुनी की तरह एक दिन में एक बार ही भोजन करने का व्रत कर रखा था। उनका निधन बुद्ध महापरिनिर्वाण में दो वर्ष पहले हुआ था।

संघ ही शास्ता (म. नि.)

बुद्ध के महापरिनिर्वाण को अभी अधिक समय नहीं बीता था। इस समय आनन्द राजगृह के वेणुवन में ही विहार कर रहे थे। प्रद्योत के भय से अजातसत्तु ने राजगृह की मरम्मत शुरू की थी और उस काम पर गोपक मोग्गलायन ब्राह्मण को नियुक्त किया था। 
आयु. आनन्द पिण्डाचार के लिए निकले। परन्तु भिक्खाटन में अभी देरी थी, अतः वे गोपक मोग्गलान की ओर मुड़ गए। ब्राह्मण ने उसे आसन दिया और स्वयं उससे कम ऊंचे आसन पर बैठ कर पूछा- 
‘‘क्या भगवान जैसा गुणवान भिक्खु और कोई है ?’’
‘‘नहीं है।’’ -आनन्द ने उत्तर दिया। 
यह बात चल ही रही थी कि इतने में मगध देश का प्रधान-मंत्री वस्सकार ब्राह्मण वहां आ गया और उसने आनन्द की बात सुनकर उससे पूछा- ‘‘क्या भगवान ने किसी ऐसे भिक्खु को नियुक्त किया है जो भगवान के अभाव में संघ का नेतृत्व करे ?’’ 
‘‘नहीं।’’ -आनन्द ने कहा। 
‘‘तो क्या कोई भिक्खु है, जिसे संघ ने भगवान के स्थान पर चुन लिया है ?’’
‘‘नहीं।’’ -आनन्द ने कहा। 
‘‘अर्थात आपके भिक्खु-संघ का कोई नेता नहीं है। तो फिर उस संघ में संगठन कैसे रहता है ?’’ -वस्सकार ने पूछा। 
‘‘ऐसा नहीं समझना चाहिए कि हमारा कोई नेता नहीं है। भगवान ने विनय के नियम बना दिए हैं। हम जितने भिक्खु एक गांव में रहते हैं, वे सब एकत्र होकर उन नियमों को दूहराते हैं। जिससे दोष हुआ हो, वह अपना दोष प्रगट करता है और उसका प्रायश्चित करता है।’ - वस्सकार बाह्मण की शंका का भदन्त आनन्द ने समाधान किया
(संदर्भ- गोपक मोग्गल्लान सुत्तः मज्झिम निकाय: 3/1/8 )।

Tuesday, June 12, 2018

धम्मपद की प्रासंगिकता

धम्मपद की प्रासंगिकता
पिछले दिनों साप्ताहिक धम्म संगोष्ठी के अवसर पर एक  वक्ता ने बुद्ध विहार में बाबासाहब अम्बेडकर कृत 'बुद्ध और उनका धम्म' के स्थान पर धम्मपद का पाठ करना श्रेयकर बताया। उन्होंने सलाह दे डाली कि हिन्दुओं की दीपावली के जैसे हमें प्रति वर्ष 'धम्मपद महोत्सव' मनाना चाहिए। उनका मत था कि धम्मपद समन्वयनात्मक भावना का प्रतीक है। ति-पिटक ग्रंथों में जो भगवान् बुद्ध के उपदेश हैं, उन में से चुनिंदा गाथाओं का संकलन धम्मपद है ।

धम्मपद, बेशक, बुद्ध के अनुयायियों में एक सम्मानित ग्रन्थ है।  इसे हर बुद्धिस्ट अपने पास रखता है। हिन्दुओं  में जिस तरह हर घर में आपको मानस या गीता मिल जाएगी, ठीक उसी तरह बुद्ध अनुयायियों के घर भी धम्मपद मिल जाएगा। हिन्दू जैसे बात-बात में मानस की चौपाई उद्दरित करता है, ठीक उसी तरह एक बुद्धिस्ट भी धम्मपद की गाथा उद्दरित करते मिल जाएगा।

 धम्मपद की जहाँ तक बात है, मैं उसे एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ मानता हूँ । महत्वपूर्ण इसलिए कि लोग उसे महत्वपूर्ण मानते हैं ! दरअसल,  यह ग्रन्थ मुझे उतना रुचिकर नहीं लगा जितना कि बाबासाहब अम्बेडकर कृत बुद्ध और उनका धम्म। मैं 'बुद्ध और उनके धम्म' को सामाजिक चेतना और परिवर्तन के लिए आवश्यक मानता हूँ। धम्मपद को मैं, नैतिक शिक्षा का एक स्रोत तो मानता हूँ किन्तु,  इस में जगह-जगह जिस तरह ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया गया है, ब्राह्मणवाद का बखान किया गया है , स्वर्ग-नर्क की बात की गई है, मुझे फिर उसी कीचड़ में धकेले का यह एक षडयंत्र लगता हैजिससे बड़े मुश्किल से हम बाहर निकल पाएं हैं।

अपनी बारी आने पर मैंने अपने वक्तव्य में उक्त वक्ता की गैरजरुरी सलाह पर कड़ा एतराज जताया। मैंने सिलसिले वार अपनी बात रखते हुए कहा कि 'बुद्ध और उनका धम्म' के सामने 'धम्मपद' कहीं नहीं ठहरता। दरअसल, दोनों की तुलना ही गलत है। आईए, इस पर बिंदुवार बात करें -

1 . धम्मपद की गाथाएं ति-पिटक के विभिन्न ग्रंथों से ली हैं।  कुछ गाथाओं के पद तो ति-पिटक ग्रंथों से बाहर अबौद्ध-ग्रंथों से ली गई हैं। (सुरेंद्र कुमार अज्ञात ; बुद्ध, अम्बेडकर और धम्मपद , पृ  55 )।

2 . धम्मपद में सभी गाथाएं हैं।  जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश गाथाओं में दिए ही नहीं । बुद्ध ने न सिर्फ अपने वचनों के वैदिक छांदस( संस्कृत)  में न संरक्षित करने को अपराध (ढुक्कट)  बताया वरन छंद(पद्य ) में कहने को भी धम्म के लिए खतरनाक और हानिकारक बताया( देखें- आणि सुत्त: सुत्त निकाय, भाग- 1 )।

3.  बुद्ध वर्ण-व्यवस्था और जाति-पांति के विरोधी थे, बावजूद इसके वर्ण और जाति की श्रेष्ठता यत्र-तत्र सर्वत्र दिखती है। ब्राह्मण और क्षत्रिय श्रेष्ठता की महिमा धड़ल्ले से गायी गई है। यही नहीं, 40 के ऊपर गाथाओं का एक पूरा वग्ग (अध्याय) है, जिस में ब्राह्मण की प्रशंसा खुले रूप से की गई है।

4.  धम्मपद में अनेक स्थानों में आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, देव और ब्रह्मलोक का बखान किया गया हैं। क्या बुद्ध को ये सब मान्य थे  ? कुछेक अनुवाद कर्ता सहानभूति वश स्वर्ग का अर्थ सुख, नरक का अर्थ दुक्ख जैसा  कर बुद्ध की मूल स्थापना को संभालने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु ऐसा कितना और कहाँ-कहाँ किया जा सकता है ? एकाध जगह हो तो उसे 'प्रिंटिंग मिस्टेक' कह कर पल्ला झाड़ा जा सकता है किन्तु आधे से अधिक गाथाओं में इस तरह की बातें गले नहीं उतरती हैं।

5.  लेख है कि  सम्राट अशोक ने धम्मपद की कुछ गाथाओं को सुना था(प्रकाशकीय: धम्मपद गाथा और कथा; ताराराम)। निस्संदेह इससे उसकी ऐतिहासिकता पर प्रश्न नहीं उठता किन्तु उसका स्वरूप और आकार तो प्रश्नगत है ही ?

6. जहाँ तक धम्मपद की विश्वसनीयता का प्रश्न है, डॉ रीज डेविड्स और डॉ विमलाचरण लाहा ने इसे क्रमश: जातक और विमानवत्थु, पेतवत्थु के समकक्ष रखा है(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 10: राहुल सांकृत्यायन)।

7. धम्मपद को 'समन्वयात्मक भावना' का प्रतीक कहा है।  किन्तु बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि भारत का इतिहास दरअसल,  बौद्ध धर्म  और ब्राह्मणवाद के बीच जातीय संघर्ष का इतिहास है(लेख 'ब्राह्मणवाद की विजय :बाबासाहब डॉ अम्बेडकर; सम्पूर्ण वांगमय खंड 7 )।

तब, क्या कारण है कि धम्मपद हमारे घरों में मानस अथवा गीता की तरह पूज्य है ?  मुझे लगता है कि हम अभी ब्राह्मण मानसिकता से ऊबर नहीं पाएं हैं। खेद है कि अपेक्षा के विपरीत गोयनका जी के विपस्सना केंद्र इस मानसिकता को बनाए रखने एक बड़ी भूमिका में हैं। निस्संदेह, इन विपस्सना केंद्रों का नेट-वर्क ति-पिटक को पालि भासा में लोगों तक पहुंचा कर एक अनुत्तर और प्रसंशनीय कार्य कर रहा है किन्तु, महायानी परम्परा को  कन्धा दे अम्बेडकर मूवमेंट की धार को बोथरी भी कर रहा है।  -अ ला. ऊके @ amritlalukey.blogspot.com

Sunday, June 10, 2018

बुद्ध वचन

बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के अनुसार, बुद्ध यदि बुद्धिवादी नहीं थे, तो वे कुछ भी नहीं थे।

बुद्ध बहुत ही स्पष्टवादी थे। डॉ सुरेंद्र कुमार अज्ञात के शब्दों में; वे प्राणी-मात्र के प्रति जितने करुणामय थे, स्पष्टता के मामले में उतने ही निर्मम. इसलिए उन्होंने न अपने आप को 'सर्वज्ञ' कहा और न अपनी शिक्षाओं को किसी को आँख मूंद कर  स्वीकार करने को प्रेरित किया।
उन्होंने कहा की मेरी बातों को तपा कर, तौल कर, कसौटी पर परख कर ही स्वीकार करना चाहिए, जैसे सोने के मामले में किया जाता है।  भिक्खुओं को सम्बोधित करते हुए बुद्ध ने कहा की मेरे बातों को मेरे प्रति आदर के कारण  मत स्वीकार करो।
अपनी शिक्षाओं के बारे में बुद्ध ने कहा कि इनसे उसी प्रकार काम लो जैसे नदी पार करने के लिए नौका से किया जाता है। जैसे नदी पार कर चुकने के बाद कोई भी नौका को सर पर उठा कर नहीं चलता, उसी प्रकार इन शिक्षाओं के बोझ को सिर पर मत उठाए फिरो।
ऐसे निर्मम महापुरुष की शिक्षाओं का कोई प्रामाणिक संग्रह उनके जीवन काल में ही यदि बन गया होता तो वह मानवता का अमूल्य खजाना होता। खेद है की बुद्ध के महापरिनिर्वाण के शताब्दियों बाद संगृहीत ति-पिटक के अतरिक्त आज कोई भी बुद्ध वचनों का संग्रह कहीं उपलब्ध नहीं है।
ऐसे में जाने- अनजाने ऐसे बुद्ध कथनों का बुद्ध वचनों के तौर पर प्रचलित हो जाना अस्वाभाविक नहीं, जो बौद्ध-सार तत्व के अनुकूल न हो, खुद ति -पिटक  इस बात का साक्षी है कि बुद्ध के जीवन काल में कई बातें उनके नाम पर प्रचलित हो रही थी, जिनका उन्होंने स्पष्ट तौर पर प्रतिवाद किया था(प्राक्कथन: बुद्ध आंबेडकर और धम्मपद )।  

Saturday, June 9, 2018

भद्द सुत्त (सं. नि.)

छंद-रागो दुक्खस्स मूलं-
एकं समयं भगवा मल्लेसु
एक समय भगवान मल्लों के
विहरति उरुवेलकप्पं नाम मल्लानं निगमो।
विहार करते हैं, उरुवेल-कल्प नामक मल्लों के कस्बे में।

अथ खो भद्दको गामणी येन भगवा तेनुपसंकमि।
ऐसे में, भद्दक ग्रामीण, जहां भगवान थे, वहां गया ।

उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि।
उपस्थित हो, भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।

एकमन्तं निसिन्नो खो सो भद्दको गामणी भगवन्तं एतद वोच-
एक ओर बैठे वह भद्दक ग्रामीण भगवान को ऐसा कहा-

‘‘साधु मे, भन्ते, भगवा दुक्खस्स समुदयं च अत्थगं च देसेतु।’’
"कल्याण हो मेरा, भन्ते! भगवान दुक्ख के समुदय और अस्त होने का उपदेस करें।"

"तं किं मञ्ञसि, गामणी, अत्थि ते उरुवेलकप्पे मनुस्सा
" तुम क्या समझते हो ग्रामीण,  है ऐसे उरुवेल में मनुस्स,
 येसं ते गरहाय सोक उप्पज्जेय्युं ?"
जिनकी निंदा से तुम्हें सोक उत्पन्न हो" ?

"अत्थि मे, भन्ते।"   
"है मुझे, भन्ते!"

"तं किं मञ्ञसि, गामणी, अत्थि ते उरुवेलकप्पे मनुस्सा
"तुम  क्या समझते हो ग्रामीण, है ऐसे मनुस्स उरुवेल में
येसं ते गरहाय सोक न उप्पज्जेय्युं।"
जिनकी निंदा से तुम्हें सोक न उत्पन्न हो ?"

"अत्थि मे, भन्ते!"
"है मुझे, भन्ते!"

'को नु खो गामणी, हेतु; को पच्चयो
'क्या है,  ग्रामीण, ! क्या हेतु  है
येन ते एकच्चानं गरहाय उप्पज्जेय्युं ?'
जिससे किसी एक के निंदा से उत्पन्न होता हैं ?'

"येसं मे भन्ते, गरहाय उप्पज्जेय्युं,
"जिनकी मुझे भन्ते, निंदा से उत्पन्न हो,
अत्थि मे तेसु छन्दरागो।"
उन में मेरा छन्द-राग है।"

"येसं पन भन्ते, गरहाय न उप्पज्जेय्युं,
"किन्तु, भंते!  जिनकी निंदा से उत्पन्न न हो,
 नत्थि में तेसु छन्दरागो।"
उन में मेरा छन्द-राग नहीं है।"

 "छन्दो ही गामणी, दुक्खस्स मूलं।"
"छन्द-राग ही ग्रामीण,  दुक्ख का मूल है।"

"अच्छरियं भन्ते! अब्भुुतं भन्ते!
"भन्ते! आश्चर्य है, अदभुत है,
याव सुभासितं इदं भन्ते भगवता।"
भगवान ने इतना अच्छा समझाया।
(स्रोत-  गामणी संयुत्तः आठवां परिच्छेदः सळायतन वग्गः संयुत्त निकाय  पृ. 588 )।

Friday, June 8, 2018

कुम्म सुत्त(सं.नि.)

भगवा एतद वोच-
कुम्मो कच्छपो,  भिक्खवे, सायण्ह समयं
भिक्खुओं! एक कछुआ, भिक्खुओं! सायंकाल
अनु-नदी-तीरे गोचर-पसुतो अहोसि।
नदी किनारे आहार की खोज में निकला हुआ था।
सिगालोपि खो, भिक्खवे, सायण्ह समयं
एक सियार भी भिक्खुओं! सायंकाल
अनु-नदी-तीरे गोचर-पसुतो अहोसि।
नदी किनारे आहार की खोज में निकला हुआ था।

अद्दसा खो भिक्खवे, कुम्मो कच्छवो
देखा, भिक्खुओं! कछुए ने
सिंगालं दूूरतोव गोचर-पसुतं।
सियार को दूर से ही आहार की खोज में निकले ।

दिस्वान सो अङगानि सके कपाले
देखते से ही अंगों को अपनी खोपड़ी में
समोदहित्वा तुण्हिभूतो अभवि ।
समेट कर निस्तब्ध हो गया।

सिंगालोपि खो भिक्खवे, अद्दसा कुम्मं कच्छपं दूरतोव।
सियार ने भी, भिक्खुओं! देखा कछुए को दूर से ही।

दिस्वान येन कुम्मो कच्छपो तेनुपसंकमि।
देखते से जहां कछुआ था, वहां गया।

उपसंकमित्वा कुम्मं कच्छपं पच्चुपट्ठितो अहोसि-
जा कर कछुए पर ताक लगाए खड़ा रहा-

यदायं कुम्मो कच्छपो
जैसे ही यह कछुआ
अपने सरीर का कोई न कोई अंग निकालेगा,
अङगानं अञ्ञतरं वा अञ्ञतरं वा अङग अभिनिन्नामेस्सति,
तदेव नं गहेत्वा उद्दालित्वा खादिस्सामि।
वैसे ही उसको(नं) पकड़ चिर-फाड़ कर मैं खा जाउंगा।

यदा खो भिक्खवे, कुम्मो कच्छपो
जब भिक्खुओं,  कछुए ने
अंगान अञ्ञतरं वा अञ्ञतरं वा अङगं न अभिनिन्नामि,
सरीर का कोई न कोई अंग नहीं निकाला,

अथ सिंगालो कुम्मम्हा निब्बिज्जं
तब सियार कछुए से विमुक्त हो
 पक्कामि, ओतारं अलभमानो।
लौट गया अवसर लाभ न लेने से।

एवमेव खो, भिक्खवे, तुम्हेपि मारो पापिमा
उसी प्रकार भिक्खुओं! तुम पर पापी मार
सततं समितं पच्चुपट्ठितो-
सतत सदैव ताक लगाए रहता है।

तस्मातिह, भिक्खवे, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारा विहरथ।
इसलिए भिक्खुओ! (तुम ) इन्द्रियों के संयम में विहरो ।
तस्स संवराय पटिपज्जथ।
उसके संयम का अभ्यास करो।
 (स्रोत- चतुत्थ पण्णासक; सड़ायतन वग्गः संयुत्त निकाय: पृ. 524)।
.........................
गोचर-पसुत-  चारा खाने में रत । (देखें- गाथा 181 : धम्मपदं)   निन्नामेति- झुकना ।
निब्बिज्जति- निर्वेद प्राप्त करना।                                              पक्कमति - वापिस लौटना।   
ओतार(उतराव )- अवसर।                                                        समोदहति- इकट्ठा करना।          
उद्दालेति- फाड़ डालना।                                                             समित- निरंतर, सदैव
गुत्तद्वारा- संयत इन्द्रियों में संयत                                               पटिपज्जति- अभ्यास करना, आचरण में लाना। 

Thursday, June 7, 2018

गिलान वत्थु कथा (विनय पिटक)


भगवा एतद वोच -
तेन खो पन समयेन अञ्ञतरस्स भिक्खुनो कुच्छि विकाराबाधो होति।
उस समय एक भिक्खु को पेट की बीमारी थी।

सो सके मुत्तकरीसे पलिपन्नो सेती।
वह स्वयं के मल-मूत्र में पड़ा था।

अथ खो भगवा आयस्मता आनन्देन पच्छा समणेेन
तब भगवान आयु. आनंद को पीछे लिए 
आहिंडन्तो येन तस्स भिक्खुनो तेनुपसंकमि।
घूमते हुए जहाँ वह भिक्खु था, पहुचे।

अद्दसा खो भगवा तं भिक्खुं
भगवान ने उस भिक्खु को
सके मुत्तकरिसे पलिपन्नं सयमानंं।
स्वयं के मल-मूत्र में पड़ा देखा।

दिस्वान येन सो भिक्खु तेनुपसंकमि।
देखकर जहाँ वह भिक्खु था, गए।
उपसंकमित्वा तं भिक्खुं  एतदवोच-
जाकर उस भिक्खु को कहा-

"किं ते भिक्खु आबाधो।"
"क्या तुम्हें भिक्खु रोग है ?"

"कुच्छि विकारो मे भगवा।"
"पेट में विकार है मेरे, भगवान।"

"अत्थि पन ते, भिक्खु उपट्ठाको।"
" है किन्तु  तुम्हारे पास भिक्खु ! कोई परिचारक ?"

"नत्थि, भगवा।"
"नहीं है, भगवान।"

"किस्स तं भिक्खु न उपट्ठेन्ति।"
"क्यों तेरी भिक्खु परिचर्या नहीं करते ?"

"अहं खो,  भन्ते ! भिक्खूनंं अकारको।"
"मैं, भंते! भिक्खुओं का कोई काम करने वाला नहीं हूँ।"

"तेन मं भिक्खू न उपट्ठेन्ति।"
"इससे मेरी भिक्खु परिचर्या नहीं करते।"

अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमंतेसि-
तब भगवान ने आनंद को संबोधित करते हुए कहा-

"गच्छ आनन्द! उदकं आहर,
"जा आनंद ! पानी ला,

 इमं भिक्खुं नहापेस्सामि' ति। "
इस भिक्खु को नहालायेंगे।" ( स्रोत- गिलान वत्थुकथा : महावग्ग : विनय पिटक )।
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अञ्ञतर- कोई 

Tuesday, June 5, 2018

रतनसुत्त (Ratana Sutta)

अबौद्ध शब्दों का स्थानापन्न-
वर्तमान में, बुद्ध वंदना अथवा परित्राण-पाठ के समय संगायन किए जाने वाले सुत्त और गाथाओं में अबौद्ध शब्दों का स्थानापन्न किया गया है। सनद रहे, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने 'बुद्धा एंड धम्मा' में धम्म-ग्रंथों में प्रयुक्त कई शब्दों का ब्राह्मणवादी रूढ़ अर्थ न कर बुद्ध के चिन्तन और शैली से मेल खाते हुए वैज्ञानिक और बुद्धिगम्य भावार्थ किया है(बुद्ध, अम्बेडकर और धम्मपद: डॉ सुरेन्द्र अज्ञात)। बाबासाहब के इन्हीं पद-चिन्हों पर चलते हुए 'रतन सुत्त' में आवश्यक संशोधन किया है। 'बुद्धा एंड धम्मा' में हम सम्बंधित पद/गाथा न पढ़ उसका अर्थ और भावार्थ पढ़ते हैं, जबकि बुद्ध वंदना और परित्राण-पाठ के समय संगायन किए जा रहे सुत्त और गाथाओं में हम पद/गाथा पढ़ते हैं। इसलिए शब्दों का स्थापन्न आवश्यक हैं। 

रतनसुत्त
Ratana Sutta

कोटी सत सहेस्ससु , चक्कवालेसु  अरहता* ।
Kotî sata sahessasu, cakkavâlesu  Arahatâ
शत-सहस्र-कोटि(कोटि-सत सहेस्ससु), चक्रवालों के निवासी(चक्कवालेसु) अर्हत
Hundred and thousand crores residential Arhatas

येसानं  पटिग्गण्हन्ति, यं च वेसालिया पुरे
Yesâñañ patiggañhanti, yañ ca Vesâliyâ pure
जिनको(येसानं ) स्वीकार करते(पटि-गण्हन्ति) हैं, तथा जिससे(यं) वेसाली नगर(वेसालिया पुरे) में
Who is recognised with his immense power and from which, in Vaishali town

रोगा-अमनुस्स-दुब्भिक्खं, सम्भूतं ति-विधं भयं
Rogâ-amanussa-dubbhikkhañ, sambhûtañ ti-vidhañ bhayañ,
रोग, अमनुष्य(रोग-अमनुस्स), दुर्भिक्ष(दुब्भिक्खं); से उत्पन्न(सम्भूतं) ति-विध भय
With three kinds of danger caused by pestilence, calamity, famine

खिप्पं अन्तरधापेसि, परित्तं तं भणामहे।
Khippañ antaradhâpesi, parittañ tañ bhaòâmahe.
तत्काल(खिप्पं) अन्तर्धान(अन्तरधापेसि) हो गए; उस परित्तं को कहते(भणामहे) हैं ।
Was libertated instantly, that Parittam(Protective discourses) chants here.


यानीध भूतानि समागतानि, भुम्मानि वा यानि व अन्तलिक्खे।
Yânîdha bhûtâni samâgatâni, bhummâni vâ yâni va antalikkhe
जो भी यहां(यानि-इध) भूतादि(प्राणी) एकत्रित हैं, भूमि अथवा(वा) यहां अन्तरिक्ष के(अन्तलिक्खे)
Whatever beings are assembled here, whether terrestrial or celestial

सब्बे’व भूता सुमना भवन्तु , अथो’पि सक्कच्च सुणन्तु भासितं ।।1।।
Sabbe'va bhûtâ sumanâ bhavantu, atho'pi sakkacca sunantu bhâsitañ
वे सभी(सब्बे-इव) प्राणी सुमना होे और हमारे इस कथन(भासितं) को सावधानी से(सक्कच्च) सुनें।
May  you all be pleasant and listen closely to what is said.

तस्माहि भूता निसामेथ सब्बे, मेत्तं करोथ मानुसिया पजाय।
Tasmâhi Bhûtâ nisâmetha sabbe, mettañ karoth mânusiyâ pajâya
इसलिए प्राणी ध्यान से सुनें(निसामेथ), मनुष्य-मात्र(मानुसिया-पजाय) से मैत्री (मेत्त) करें(करोथ)
Therefore,  please give good heed; all  living beings and pay love-kindness to human beings

दिवा च रत्तो च हरन्ति ये बलिं, तस्माहि ने रक्खथ अप्पमत्ता।।2।।
Divâ ca ratto ca haranti ye baliñ, tasmâhi ne rakkhatha appamattâ
जो(ये) दिन-रात भोजनादि(बलिं) लाते(हरन्ति) लाते हैं/की व्यवस्था करते हैं, इसलिए(तस्माहि) अप्रमत्त(अप्पमत्ता) हो उनकी(ने/नं) रक्षा करो(रक्खथ)।
Who day and night,  bring food to you; guard them therefore, vigilantly.

यं किञ्चि वित्तं इध वा हुरं वा, सग्गेसु वा यं रतनं पणीतं,
Yañ kiñci vittañ idha vâ hurañ vâ, saggesu vâ yañ ratanañ paòîtañ
इस लोक(इध) अथवा अन्य लोक(हुरं) में जो कुछ(यं किञ्चि) वित्त(धन) है अथवा सग्गेसु(कल्पित स्वर्ग) में अमूल्य(पणीतं) रत्न हैं;
Whatever treasure is in this world or other or the precious jewels in the  pleasant imaginary world

न नो समं अत्थि, तथागतेन,
Na no samañ atthi, Tathâgatena
नहीं, नहीं है(नो) सदृश्य(समं), तथागत(बुद्ध) से

इदं’पि बुद्धे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।3।।
Idañ’pi Buddhe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) बुद्ध में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से(एतेन सच्चेन) कल्याण(सु-अत्थि) हो
No, None is comparable to the Perfect One

खयं विरागं अमतं पणीतं, यदज्झगा साक्यमुनी समाहितो,
Khayañ virâgañ amatañ pañîtañ, yadajjhagâ sâkyamunî samâhito
राग-क्षय(खयं), विरागी, अमृत को जब प्राप्त किया(यद-अज्झगा); एकाग्र-चित्त(समाहितो) शाक्य मुनि(बुद्ध) ने
That Cessation, Passion-free, Immortality Supreme; through concentration that the tranquil sage of the Sakyas reailzed

न तेन धम्मेन, सम‘त्थि किञ्चि,
Na tena Dhammena, sam'atthi kiñci,
नहीं(न), उस(तेन) धम्म से(धम्मेन) समान है(समं-अत्थि) अन्य कुछ(किञ्चि)
There is nothing comparable to the Dhamma

इदं’पि धम्मे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।4।।
Idañ'pi Dhamme ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu.
यह भी(इदं अपि) धम्म में(धम्मे); अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो।
In the Dhamma, is this precious jewel found; by this truth may there be happiness. 

यं बुद्धसेट्ठो परिवण्णयी सुचिं, समाधिं आनन्तरिकं नं आहु
Yañ Buddhasettho parivaññayî suciñ, Samâdhiñ-ânantarikañ nañ âhu
बुद्ध-श्रेष्ठ(बुद्धसेट्ठो) ने जिसे(यं) सूचिता(सुचिं) कहकर प्रशंसा(परि-वण्णयी) कीे है, उसकोे(नं) तत्काल फलदायी(आनन्तरिकं) समाधी; आहु(कहा) है।
The sanctity praised by the Buddha supreme is described as; Concentration with immediate effect.

समाधिना तेन, समो न विज्जति,
Samâdhinâ tena, samo na vijjati
उस(तेन) समाधि के(समाधिना) समान नहीं है(समो न) विद्यमान(विज्जति)।
In them, nothing is comparable to that 'Samadhi' 

इदं’पि धम्मे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।5।।
Idañ'pi Dhamme ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) धम्म में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो
In the Dhamma, is this precious jewel found; by this truth may there be happiness.

ये पुग्गला अट्ठ सतं पसत्था, चत्तारि एतानि युगानि होन्ति,
Ye Puggalâ attha satañ pasatthâ, cattâri  etâni yugâni honti
जिन(ये) पुग्गला अट्ठ(निर्वाण की ओर अग्रसर आठ प्रकार के साधक) की सतं(बुद्ध ने) प्रशंसा(पसत्था) की है, जिनके(एतानि) चार युग्म(युगानि) होते(होन्ति) हैं
Those eight Individuals, praised by the virtuous, constitute four pairs

ते दक्खिणेय्या सुगतस्स सावका, एतेसु दिन्नानि महाफ्फलानि,
Te dakkhiñeyyâ Sugatassa sâvakâ, etesu dinnâni mahâphphalâni
वे दक्षिणा देने योग्य(दक्खिणेय्या), सुगत के(बुद्ध) सावक हैं, उनको(एतेसु) दिया हुआ दान(दिन्नानि ) महाफलदायी(महाफलानि )होता है।
They , the worthy of offering, the disciple of the Sugat (Buddha),  gifts given to them yield abundant fruits

इदं’पि सङघे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।6।।
Idañ'pi Sanghe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) संघ में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से(एतेन सच्चेन) कल्याण(सुवत्थि) हो
In the Sangha, is this precious jewel found; by this truth may there be happiness.

ये सुप्पयुत्ता मनसा दल्हेन, निक्कामिनो गोतम-सासनम्हि,
Ye suppayuttâ manasâ dalhena, nikkâmino Gotama-sâsanamhi
जो सु-पयुत्ता(सोतापन्नादि साधक) पुरुष दृढ़तापूर्वक(दल्हेन) मन से(मनसा), निष्काम होकर(निक्कामिनो) गौतम(बुद्ध) के सासन में(सासनम्हि) संलग्न हैं;
With firm minds, exempt from passion, applying themselves persevering in Gotama’s Sasana

ते पत्तिपत्ता अमतं विगय्ह, लद्धा मुधा निब्बुतिं भुञ्जमाना।
Te pattipattâ amatañ vigayha, laddhâ mudhâ nibbutiñ bhuñjamânâ
प्राप्तव्य को प्राप्तकर(पत्तिं-पत्ता) वे(ते) अमृत में(अमतं) गोता लगाकर(विगय्ह) मुधा(बिना मूल्य) निर्वाण-सुख (निब्बुतिं) का आस्वादन(भुञ्जमाना) प्राप्त(लद्धा ) करते हैं। 
They have attainded what should be attained, and, plunging into greatest pleasure, enjoy the 'Nibbana' obtained without price

इदं’पि सङघे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।7।।
Idañ'pi Sañghe ratanañ pañîtam, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) संघ में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो
In the Sangha, is this precious jewels found, by this truth may there be happiness

यथिन्दखीलो पठविं सितो सिया, चतुब्भि वातेहि असम्पकम्पियो।
Yatha-inda-khîlo pathaviñ sito siyâ, catubbhi vâtehi asampakampiyo
जिस प्रकार(यथा) पठविं(पृथ्वी) में सितो(दृढ़ता से गड़ा हुआ) स्तम्भ(इंद-खीलो), चारों दिशा से आती हुई (चतुब्भि) पवन-वेग से(वातेहि) प्रकम्पित नहीं(अ-सम्पकम्पियो) होता है। 
Just as a post firm grounded in the earth, can not be shaken by the four winds

तथूपमं सप्पुरिसं वदामि, यो अरियसच्चानि अवेच्च पस्सति।
Tathûpamañ sappurisañ vadâmi, yo ariya saccâni avecca passati
वैसे ही(तथा-उपमं) सत्पुरूष को(स-पुरिसं), मैं कहता हूँ(वदामि); जो(यो) चार आर्य-सत्य(अरिय सच्चानि) विचार-पूर्वक(अवेच्च) देखता है(पस्सति) 
So is the righteous person, I say; who thoroughly perceives the Noble truths, is similar to that

इदं’पि सङघे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।8।।
Idañ’pi Sañghe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) संघ में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो।
In the Sangha, is this precious jewel found, by this truth may there be happiness

ये अरिय-सच्चानि विभावयन्ति, गम्भीर-पञ्ञेन सुदेसितानि।
Ye Ariya-saccâni vibhâvayanti, gambhîra-paòòena sudesitâni
जिन्होंने(ये) चार महान सत्यों का मनन कर लिया(विभावयन्ति) है, जो गम्भीर-प्रज्ञा से(गम्भिर-पञ्ञेन), (बुद्ध द्वारा) सु-उपदेशित(सुदेसितानि) हैं।
Those who clearly understand the Noble Truths; well taught by him of deep wisdom,

किञ्चापि ते होन्ति भुसप्पमत्ता, न ते भवं अट्ठमं आदियन्ति।
Kiñcâpi te honti bhusappamattâ, na te bhavañ atthamañ âdiyanti
अगर वे किंचित भी अधिक(भुस) प्रमादी(पमत्ता) हो जाए, (तो भी) वे(ते) आठवीं बार(अट्ठमं) (से अधिक) संसारिक-दुक्ख में(भवं) नहीं(न) पड़ते(आदियन्ति)।
If they are slightly negligent, would not undergo more than  8th times,  to de-associate  with worldly suffering

इदं’पि सङघे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।9।।
Idañ’pi Sañghe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) संघ में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो।
In the Sangha is this precious jewel found;  by this truth may there be happiness.

सहावस्स दस्सन-सम्पदाय, तयस्सु धम्मा जहिता भवन्ति।
Saha-iva-assa dassana-sampadâya, tayassu dhammâ jahitâ bhavanti
साथ ही उसके (सह-इव-अस्स) दर्शन(दस्सन) प्राप्त होकर(सम्पदाय) उसके तीनों(तयो-अस्स) धम्मा( दुर्गुण) दूर हो जाते हैं(जहिता भवन्ति);
Together with his attainment of insight, three states are at once comes to nought, namely;

सक्काय-दिट्ठि विचिकिच्छितं च, सीलब्बतं वा’पि यदत्थि किञ्चि ।
Sakkâya-ditthi vicikicchitañ ca, sîlabbatañ vâ'pi yadatthi kiñci
सक्काय-दिट्ठि(आत्म-सम्मोहन), विचिकिच्छा(संशय) और शील-व्रत(सीलब्बतं) अथवा(वा) जो है(यं-अत्थि) कुछ(किञ्चि) भी(अपि) 
Self illusion, doubt, and indulgence in (wrongful) rites and rituals, if there be any.

चतुहि अपायेहि च विप्पमुत्तो, छ च-अभिठानानि अभब्बो कातुं
Cathûhi-apâyehi ca vippamutto, cha ca-abhithânâni abhabbo kâtuñ
चार प्रकार के अपाय(दुर्गतियों) से विमुक्त(विप्पमुत्तो) हो, उसके लिए छह घोर पाप-कर्म (छ-अभिठानानि) असम्भव(अब्बभो) हो जाते हैं, करने के लिए(कातुं)।
He is absolutly freed from four states of misery and is incapable of commiting the six major wrong doings

इदं’पि सङघे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।10।।
Idañ'pi Sañghe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) संघ में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो
In the Sangha is this precious jewel found;  by this truth may there be happiness.

किञ्चापि सो कम्मं करोति पापकं, कायेन वाचा उद चेतसा वा।
Kiñcâpi so kammañ karoti pâpakañ, kâyena vâcâ uda cetasâ vâ
कुछ भी(किञ्चापि ) वह(सो) अनैतिक-कर्म(पापकं) करता है, काया, वाचा अथवा(उद) मन से
Whatever  un-moral  he does, whether by deed, word or thought

अभब्बो सो तस्स पटिच्छादाय, अभब्बता दिट्ठपदस्स वुत्ता।
Abhabbo so tassa paticchâdâya, abhabbatâ dittha-padassa vuttâ
उसके लिए उसको(तस्स) ढंककर रखना(पटिच्छादाय) असम्भव(अभब्बो) है, दृष्टि-सम्पन्न को(दिट्ठ पदस्स), यह कहा गया(वुता) है।
It is impossible to hide for one ,who has seen the path; as said

इदं’पि सङघे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।11।।
Idañ’pi Sanghe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) संघ में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो
In the Sangha is this precious jewel found; by this truth may there be happiness.

वनप्पगुम्बे यथा फुस्सितग्गे, गिम्हान-मासे पठमस्मिं गिम्हे।
Vanappagumbe yathâ phussitagge, gimhâna-mâse pathamasmiñ gimhe
जंगल-झाड़ियां(वनप्प-गुम्बे) जैसे(यथा) पुष्पित हो उठती(फुस्सितग्गे) हैं ग्रीष्म-ऋतु(गिम्हान-मासे) के प्रथम मास में(पठमस्मिं-गिम्हे) 
Like woodlands groves with blossomed tree top in the first month of the summer season,

तथूपमं  धम्मवरं अदेसयि, निब्बान गामिं परमं हिताय।
Tathûpamañ Dhammavarañ adesayi, nibbâna gâmiñ paramañ hitâya
वैसे ही(तथा-उपमं) उत्तम(वरं) धम्म का उपदेश दिया(अदेसयि) है, जो निब्बान-गामी परम हिताय है
So has, the sublime Doctrine that leads to Nibbana; been taught for the highest good

इदं’पि बुद्धे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।12।।
Idañ’pi Buddhe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) बुद्ध में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो
In the Buddha is this precious jewel found; by this truth may there be happiness.

वरो वरञ्ञू वरदो वराहरो, अनुत्तरो धम्मवरं अदेसयि।
Varo varaññû vara-do varâ-âharo, anuttaro Dhammavarañ adesayi
वरो(उत्तम) वरञ्ञू(उत्तम धम्म के ज्ञाता), वर-दो(उत्तम मार्ग-दाता) वर-आहरो(उत्तम मार्ग को लाने वाले) ने जिस अनुत्तर(अतुलनीय) उत्तम धम्म का(धम्मवरं) उपदेश दिया है 
The unrivalled Excellent One, the Knower; the Giver and the Bringer of the Excellent has expounded the excellent Doctrine

इदं’पि बुद्धे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।13।।
Idañ’pi Buddhe ratanañ paòîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) बुद्ध में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो
In the Buddha is this precious jewel found; by this truth may there be happiness.


खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्भवं, विरत्त-चित्ता आयतिके भवस्मिं।
Khîñañ purâñañ navañ natthi sambhavañ, viratta-cittâ  âyatike bhavasmiñ
पुराने कर्म(पुरानं) क्षीण(खीण) हो गए हैं और नए की उत्पत्ति(नवं) संभव नहीं(नत्थि सम्भवं); वे विरक्त-चित्त(विरत्त-चित्ता) हैं; भवसागर में(भवस्मिं) आने(आयतिके) से
Whose past is extint with no new arising; are minds-detached from coming in worldly  pleasure

ते खीणबीजा अविरूल्हिछन्दा, निब्बन्ति धीरा यथा‘यं-पदीपो।
Te khîñabîjâ avirûlhicchandâ, nibbanti dhîrâ yathâ'yañ padîpo
वे(ते) क्षीण-बीज(खींण-बीज) जिनकी तृष्णा(छन्दा) अवरुद्ध(अविरूळिह) हो चुकी है; धीर(धीरा) निब्बान को प्राप्त होते(निब्बन्ति) हैं, जिस प्रकार यह(यथा-अयं) प्रदीप  
Whose old seeds are destroyed, craving uprooted; those wise ones are extinguished like a lamp

इदं’पि सङघे रतनं पणीतं, एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु।।14।।
Idañ’pi Sañghe ratanañ pañîtañ, etena saccena suvatthi hotu
यह भी(इदं-अपि) संघ में अमूल्य(पणीतं) रत्न है, इस सत्य से कल्याण(सुवत्थि) हो।
In the Sangha is this precious jewel found; by this truth may there be happiness.

यानीध भूतानि समागतानि, भुम्मानि वा यानि व अन्तलिक्खे।
Yânîdha bhûtâni samâgatâni, bhummâni vâ yâni  va antalikkhe
जो यहां(यानि-इध) भूतादि(प्राणी) समागतानि(एकत्रित) हैं, भूमि या जो अन्तलिक्खे(अन्तरिक्ष) के  
Whatever beings are here assembled, whether terrestrial or celestial

तथागतं इत्थी-पुरिस्सेहि** पूजितं, बुद्धं नमस्साम सुवत्थि होतु।।15।।
Tathâgatañ itthî-purissehi pûjitañ, Buddhañ namassâma suvatthi hotu
तथागत जो स्त्री और पुरुषों के द्वारा पूजित हैं, हम बुद्ध को नमन करते हैं; कल्याण हो।
We salute the Buddha; honoured by men and women, may there be happiness


यानीध भूतानि समागतानि, भुम्मानि वा यानि वा अन्तलिक्खे।
Yânîdha bhûtâni samâgatâni, bhummâni vâ yâni vâ antalikkhe
जो यहां(यानि-इध) भूतादि(प्राणी) एकत्रित हैं, भुम्मानि(भूमि) वा(अथवा) अन्तरिक्ष के। 
Whatever beings are here assembled, whether terrestrial or celestial

तथागतं  इत्थी-पुरिस्सेहि**  पूजितं, धम्मं  नमस्साम सुवत्थि होतु।।15।।
Tathâgatam itthî-pirissehi pûjitañ, Dhammañ namassâma suvatthi hotu
तथागत जो स्त्री और पुरुषों के द्वारा पूजित हैं, हम बुद्ध को नमन करते हैं; कल्याण हो।
We salute the  Sangha; honoured by  men and women, may there be happiness

यानीध भूतानि समागतानि, भुम्मानि वा यानि वा अन्तलिक्खे।
Yânîdha Bhûtâni samâgatâni, bhummâni vâ yâni vâ antalikhe
जो भी भूतादि यहां एकत्रित हैं, भूमि अथवा अन्तरिक्ष के 
Whatever beings are here assembled, whether terrestrial or celestial

तथागतं  इत्थी-पुरिस्सेहि**  पूजितं, सङघं नमस्साम सुवत्थि होतु।।15।।
Tathâgatañ itthî-purissehi pûjitañ, Sañghañ namassâma suvatthi hotu
तथागत जो स्त्री और पुरुषों के द्वारा पूजित हैं, हम संघ को नमन करते हैं; कल्याण हो।
We salute the  Sangha; honoured by  men and women, may there be happiness
             - -रतनसुत्तं निट्ठितं - -
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1. मूल पाठ -  *  देवता    **  देव मनुस्स
2. Ref.  KN-Khp/ Sn(Chulavagga)
3. This discourse was delivered by the Bhante Aanada, one of the principle disciples of Lord Buddha in the city of Vaishali whose citizens appealed to him for help, being afflicted by famine, pestilenee and nature disturbance. It is said, after delivering his discourse people became happy and the pestilence subsided.

Saturday, June 2, 2018

पुण्ण सुत्त(सं. नि.)

बुद्ध ने अपने धम्म में कोई जाति, वर्ण अथवा देस-प्रदेस की सीमा का बंधन नहीं रखा था। और यही कारण है कि उनका धम्म उनके रहते ही उनकी अपनी विचरण भूमि की सीमा लाँघ गया। उनके चार प्रधान संघ नायकों में महाकात्यायन पहले, उज्जेनी के राज पुरोहित रह चुके थे। यहाँ तक कि  पतिट्ठान (पैठन/ हैदराबाद ), तक्खसिला और सूनापरांत (दक्षिण गुजरात ) के लोग बुद्ध के पास आकर भिक्खु बने थे(राहुल सांकृत्यायन: बौद्ध संस्कृति पृ. 57 )।
लोग दूर-दूर से आते, धम्म में पारंगत होते और प्रचार के लिए निकल पड़ते। बुद्ध भी जांच-परख कर ही उन भिक्खुओं को विदा करते थे। सूनापरांत के निवासी भिक्खु पूर्ण ने बुद्ध से उपदेस ले विदा मांगी- "पुण्ण ! क़तरस्मिंं जनपदे विहरिस्ससि(पूर्ण! तुम किस जनपद में विचरण करोगे ?)"
"भंते! सुनापरंतो नाम जनपदो, तत्थ अहं विहरिस्सामि(भंते! सूनापरांत नामक एक जनपद है, मैं वहां विचरण करूँगा)।"
"चंण्डा च फरुसा, पुण्ण! सुनापरान्तका मनुस्सा । सचे ते, तं अक्कोसिस्सन्ति, परिभासिस्सन्ति , तत्थ किं भविस्सति(पूर्ण! सुनापरांत के लोग चंड और कठोर होते हैं। यदि वे तुम पर आक्रोशित होंगे,  गाली देंगे, तो क्या होगा) ?'
"तत्थ भंते, एवं भविस्सति-  भद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नयिमे(न-इमे) पाणिना पहारंं देन्ति(भंते ! मुझे यह होगा कि सुनापरांत के लोग भले हैं, बहुत भले हैं जो वे मुझे हाथ से नहीं मारते) ।"

"सचे  पन  ते, पुण्ण,  सुनापरन्तका  मनुस्सा पाणिना पहारंं दस्सन्ति, तत्थ किं भविस्सति(यदि पूर्ण! सुनापरांत के लोग तुझे हाथ से मार-पीट करें तो क्या होगा) ?"
"तत्थ मे भंते, एवं भविस्सति-  भद्दका सुनापरन्तका  मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नयिमे लेड्डुना  पहारंं देन्ति(भंते ! मुझे यह होगा कि सुनापरांत के लोग भले हैं, बहुत भले हैं जो वे मुझे लाठी से नहीं मारते)।"

"सचे  पन  ते, पुण्ण, लेड्डुना पहारंं दस्सन्ति, तत्थ किं भविस्सति(पूर्ण ! यदि वे लाठी से मारें तो क्या होगा) ?"
"तत्थ मे भंते, एवं भविस्सति-  भद्दका सुनापरन्तका  मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नायिमे सत्थेन पहारंं देन्ति(भंते ! मुझे यह होगा कि सुनापरांत के मनुष्य भले हैं, बहुत भले हैं जो वे मुझे किसी शस्त्र से नहीं मारते।"

"सचे  पन  ते, पुण्ण, सत्थेन पहारंं देन्ति, तत्थ किं भविस्सति(पूर्ण ! यदि शस्त्र से मारे तो क्या होगा) ?"
"तत्थ मे भंते, एवं भविस्सति-  भद्दका सुनापरन्तका  मनुस्सा, सुभद्दका सुनापरन्तका मनुस्सा, यं मे नायिमे जीविता वोरोपेन्ति(भंते ! यह होगा कि सुनापरंत  के मनुष्य भले हैं, बहुत भले हैं जो मुझे जान से नहीं मार डालते) ।"

"साधु ! साधु ! साधु ! पुण्ण,  इमिना दमूपसमेन(दम-उपसमेन) समन्नागतो सुनापरंतस्मिं जनपदे त्वं वत्थुं सक्खिस्ससि (साधु! साधु ! साधु ! पूर्ण ! इस धम्म-संयम से युक्त सुनापरंत जनपद में तुम निवास कर सकते हो)।"
(स्रोत-पुण्ण सुत्त: संयुक्त निकाय 34/4/6; पृ. 477 )।"
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टिप-  1. ति-पिटक के इन उपदेसों/कथानकों को पालि में देने का उद्देश्य धम्म के साथ  पालि भासा का प्रचार भी है।
         2. अबौद्ध वर्ण/सब्दावली  यथा श्र, ऋ, श , क्ष त्र और देव/देवता, ब्रम्ह, ॐ आदि से यथा संभव बचा जाता है ।      

अशोक शिलालेख(Inscriptions of Asoka)

सम्राट अशोक के राज्य की सीमा जितनी विस्तृत थी, उससे कहीं विस्तृत सम्राट का हृदय था जो जनता की भलाई के लिए हमेशा समर्पित रहता था। उसने राजाज्ञा प्रसारित करवा रखी थी, ‘ मैं खाता होऊं , अंतपुर में होऊं या शयनागार में प्रतिवेदन लोग प्रजा कार्य मुझे सर्वत्र सूचित करें...।’ इस प्रकार के अपने आदेशों को सम्राट ने स्तम्भ-लेख, शिलालेख आदि के द्वारा पूरे राज्य में प्रसारित करवा रखा था। अशोक ने बौद्ध ग्रंथों को भी इन अभिलेखों(स्तम्भ और शिलालेखों ) में अंकित करवा दिया था कि लोगों को धम्म के बार में अच्छी तरह परिचय मिल सकें।

हमारे देश में प्राप्त अधिकांश शिलालेख मौर्यवंशीय सम्राट अशोक कालीन हैं। यह सभी शिलालेख पाषाण स्तम्भों, चट्टानों, गुहा-भित्तियों पर उत्कीर्ण किए हुए हैं।

असोक के सिला लेख दो प्रकार के हैं। प्रथम वे हैं जिन में सम्राट ने बौद्ध संघ से अपने सम्बन्धों की घोषणा की है।  दूसरे वे हैं जिन में प्रजा के नाम पर सम्राट की घोषणा है। इस कोटि में बड़े और छोटे सिलालेख और स्तूप वाले राज्यादेश आते हैं।  इन से उनकी धम्म नीति का पता चलता है(पृष्ठ भूमि और स्रोत: असोक और मौर्य साम्राज्य का पतन: पृ- 2-3; रोमिला थापर )।

भाषा और लिपि-
असोक ने बुद्ध के समान वैदिक छांदस (संस्कृत) का नहीं बल्कि सामान्य प्रजा की भासा पालि प्राकृत का ही प्रयोग किया था । ये धम्म लिपि में लिखे गए हैं।  मनसेहरा और साहबाजगढ़ी से प्राप्त दो महत्वपूर्ण उत्तरी सिलालेख खरोष्टि लिपि में उत्कीर्ण किए गए हैं, जो फारसी (ऐरमइक) से निकली है। सबसे बाद में प्राप्त कंदहार का सिलालेख दो भासाओं; यूनानी और ऐरमइक में उत्कीर्ण है। (वही, पृ. 7)

धम्म लिपि-
अशोक शिलालेखों की लिपि को धम्मलिपि कहना उचित है न कि 'ब्राह्मीलिपि'। धम्मलिपि को ब्राह्मीलिपि, नागरीलिपि को देवानागरी लिपि कह कर प्रचारित करने का कोई भी आधार नहीं है। भासा और समाज शास्त्र अध्येयताओं के अनुसार, धम्मलिपि भारतीय भाषाओं के साथ सिरिलंका, तिब्बत, प्राचीन मध्य एशिया के बुद्धिस्ट देशों के साथ, बर्मा, कम्बोडिया, फिलिपाईन आदि देशों के वर्णमाला की जन्मदात्री  मानी जाती है।

खरोष्ठी लिपि-
पश्चिमोत्तर प्रदेश के मनसहरा और शाहबाजगढ़ी में कुछ अशोक शिलालेख खरोष्ठी-लिपि में भी प्राप्त हुए हैं। जिससे सिध्द है कि वह हमारे देश की दो प्राचीनतम लिपियों(धम्म लिपि और खरोष्ठी ) में से एक है और उसका प्रयोग उस समय गांधार में होता था। यह लिपि अरबी की भांति दाहिने से बाएं लिखी जाती है(खरोष्ठी- लिपि में प्राकृत अभिलेखः बौध्द संस्कृति, पृ. 308)।

 पूरे भारत में अशोक अभिलेखों का पाया जाना -
अशोक शिलालेख उत्तर में हिमालय से दक्षिण में तमिलनाडु और पश्चिम में गुजरात के गिरनार से पूर्व में धौली(उड़िसा) और जौंगड़ तक विस्तृत क्षेत्रा में फैले हैं। अर्थात लगभग पूरे भारत में ये शिलालेख प्राप्त हुए हैं और अभी भी प्राप्त हो रहे हैं ।

गिरनार का सिलालेख-
इयं धम्मलिपि देवानं प्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता।  इध न किंचि जीवं आरभित्या प्रजूहितव्यं। न च समाज्ये कतव्यो।  बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवानं प्रियो प्रियदसि राजा। अस्ति पितु एकचा समाजा सधुमता देवानं प्रियस प्रियदसिनो राञो ।  पूरा महानसम्हि  देवानं प्रियस प्रियदसिनो राञो अनुदिवसं बहूनि प्राणसत सहस्रानि आरभिसु सूपाथाय। से अज यदा अयं धम्मलिपि लिखिता तो एव प्राणा आरभरे सूपाथाय- द्वे  मोरा, एको मगो।  सोपि मगो न धुवो।  एतेपि त्री प्राणा पछा न आरभिसठे(पालि परिचय: डा. प्रियसेन सिंह )।

यह धम्मलिपि देवताओं के पिय्य पियदस्सि राजा ने लिखवाया है।  यहाँ कोई जीव मार कर बलि न दिया जाए और न कोई समाज किया जाए। क्योंकिं देवताओं के पिय्य राजा पियदस्सि समाज में बहुत दोस देखते हैं। किन्तु कुछ ऐसे समाज हैं, जिनका देवताओं के पिय्य पियदस्सि राजा समर्थन करते हैं। पहले देवताओं के पिय्य पियदस्सि राजा के पाकसाला में प्रति दिन सैकड़ों जीव मांस के लिए मारे जाते थे।  लेकिन, जब, इस अभिलेख के लिखे जाने के समय, सिर्फ 3 पशु प्रति दिन मारे जाते हैं- दो मोर और एक मृग, और मृग हमेशा नहीं मारा जाता।  वे तीनों पशु भी भविस्य में नहीं मारे जायेंगे। 


शिलालेखों को पढ़ना-
भारत में अंग्रेजों के समय पुन: इन अभिलेखों और पुराने सिक्कों के अध्ययन में तेजी आयी।  इस अध्ययन और अनुसन्धान के लिए 1784 ईस्वी में कोलकाता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की गई। अंतत:  अंग्रेज विद्वान् जेम्स प्रिंसेज(1799 -1840 ) इस रहस्य से पर्दा उठाने में कामयाब हुए। उसने पहले साँची के बौद्ध स्तूप के छोटे-छोटे दो शब्दों के लेख पढ़ने में सफलता पाई और इनकी मदद से सारी वर्णमाला को समझ लिया। ईस्वी 1837 में उसने अशोक के शिलालेख पढ़ लिए। सिर्फ 41 वर्ष की आयु में जेम्स प्रिंसेज ने जो कर दिखाया, वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे।

अभिलेखों का वर्गीकरण-
अशोक के अभिलेखों का वर्गीकरण निम्नानुसार है-
1. दीर्घ शिलालेख- 14
2. लघु अभिलेख
3. स्तम्भ लेख- 7

अभिलेखों के प्रकार-
14 दीर्घ शिलालेख(Rock Edicts)-
 कालसी, मानसेहरा, साहबाजगढ़ी(युफजई, पेशावर), गिरनार, सोपारा, येर्रागुड़ी, धौली और जौगढ़।
छोटे शिलालेख- वैराट, रूपनाथ, सहसराम, ब्रह्मगिरि, गाविमठ, जटिंग-रामेस्वर, मस्की, पालकीगुंडु, रजूल-मंडगिरि, सिद्दपुर, येर्रागुड़ी, गुजर्रा और झांसी। स्तूपलेख-7ः इलाहाबाद, दिल्ली-टोपरा, दिल्ली-मेरठ, लौरिया-अरराज, लौरिया-नंदगढ़, और रामपूर्वा। टोपरा और मेरठ के स्तम्भ लेख अब दिल्ली में हैं। लौरिया-अरराज, लौरिया-नंदनगढ़ और राम पूर्वा,  तीरहुत के चंपारण जिले में हैं(पृ. 3: रोमिला थापर)। अन्य अभिलेख बराबर की गुफाओं में (3 अभिलेख) और रूम्मिन्देई, निगली-सागर, इलाहाबाद, सांची, सारनाथ और वैराट । हाल ही में एक छोटा-सा अभिलेख यूनानी ऐरमइक(फिलिस्तीनी या सीरियाई ) कंदहार में मिला है(पृष्ठभूमि और स्रोतः असोक और मौर्य साम्राज्य का पतनः पृ. 5)।

लघु , स्तम्भ और गुहा आदि शिलालेख जो अब तक प्रकाश में आए हैं, इस प्रकार हैं- सिद्दपुर, ब्रम्हगिरि(मैसूर ) और जटिंग-रामेश्वर(मैसूर) के लघु शिलालेख, गिरनार लघु शिलालेख(जूनागढ़, काठियावाड़ा), लौरिया अरेराज(राधिया, चंपारण) और लौरिया नन्दनगढ़ (मठिया, चंपारण) स्तम्भ, रामपुर्वा(चंपारण) के शिलालेख, दिल्ली-मेरठ स्तम्भ, टोपरा(अम्बाला) का स्तम्भ, धौली (भुवनेश्वर, उड़िसा) के लघु शिलालेख, सहसराम (बिहार) के लघु शिलालेख, शाहबाजगढ़ी(युफजई, पेशावर) लघु शिलालेख, जौगढ़ के लघु शिलालेख(गंजाम, उड़िसा), कालसी के शिलालेख(देहरादून), वैराट(जयपुर, राज.) के लघु शिलालेख, रूपनाथ का लघु शिलालेख(जबलपुर, म. प्र.), गुर्जर(म. प्र.) लघु शिलालेख, राजुल(मंदगिरि) लघु शिलालेख, येर्रागुड़ी(कर्नूल, आ.प्र.) लघु शिलालेख, गवोमठ और पालकीगुण्डु(रायचूर, आ.प्र.) लघु शिलालेख, मास्की(मैसूर) के शिलालेख, मास्की (रायचुर, आ. प्र.), सोपारा (ठाणे, मुम्बई.) के शिलालेख, मानसेहरा(ऐबटाबाद, हजारा) चट्टान लेख, निगली सागर स्तम्भ लेख( ), रुम्मिनदेई(लुम्बिनी, नेपाल) स्तम्भ लेख, सारनाथ स्तम्भ लेख(आमुखः अशोक, लेखक राधाकुमुद मुखर्जी)।


गुफा लेख बुद्धगया के निकट बराबर की पहाड़ियों में हैं(वही)।

तराई के स्तम्भ लेखों में से एक नेपाल में रुम्मिन देई के स्थान पर और दूसरा नेपाल की तराई में निग्लीवा के स्थान पर स्थित है।  इन लेखों से प्रमाणिक रूप से पता चलता है कि असोक ने बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित पवित्र स्थानों की यात्रा की थी।  इन सिलालेखों से ही पता लगाया जा सकता है कि बुद्ध का जन्म किस स्थान पर हुआ था। ये लेख बतलाते हैं कि असोक ने बुद्ध के पूर्व जन्म को स्वीकार किया है।  (प्राचीन भारत का इतिहास: बी डी. महाजन) ।


अशोक-शिलालेखों में पालि भासा के भिन्न-भिन्न रूप-
अशोक-शिलालेखों में पालि के भिन्न-भिन्न रूप पाएं जाते हैं। एक ही लेख के अलग-अलग पाठों को देखने से यह अन्तर स्पष्ट रूप में समझ आता है। वास्तव में, यह अन्तर अलग-अलग स्थानों की बोलियों के प्रान्तीय प्रभावों के कारण है। ठीक वैसे ही, जैसे आज भी मगही, भेजपुरी, मैथली तथा अवधी आपस में काफी भिन्नता रखती है, तो भी सभी की समझ में आती है(भूमिका- पालि परिचय पृ. 42ः डा. प्रियसेन सिंह)।


अभिलेखों का उद्देश्य-
 इन अभिलेखों का उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों को इन आदेशों से परिचित कराना था। प्रायः अधिक महत्वपूर्ण आदेश बड़ी-बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण किए गए थे। इन अभिलेखों को महत्वपूर्ण स्थानों, नगरों के निकट, प्रसिद्ध व्यापारिक और यात्रा-मार्गों पर या धार्मिक महत्व के स्थानों के आस-पास उत्कीर्ण करवाया गया था।

स्तम्भलेखों का स्थान से बेदखल करना-
कौतुक-वश कुछ स्तम्भों को अपने मूल स्थानों से हटा कर कहीं और रख दिया गया। फिरोजसाह तुगलक(1351 -88  ईसवी ) के शासन-काल में टोपरा(अम्बाला/हरियाणा ) और मेरठ के स्तम्भों को कोटला (दिल्ली)  लाया गया ताकि पता लगाया जाए कि  इसमें क्या लिखा है ? अकबर बादशाह (1556 - 1603 ) ने भी इसका राज खोलने के लिए देश-विदेश के कई विद्वानों को बुलाया मगर, तब भी कोई नहीं बतला सका कि उनमे क्या लिखा है। इसी प्रकार माना जाता है कि इलाहाबाद के स्तम्भ्भ का मूल स्थान कौसाम्बी था। वैराट के शिलालेख को कनिंघम कलकत्ता लाए थे (रोमिला थापर  पृ  6-7)।

व्हेनसांग, फाहियान द्वारा अशोक शिलालेखों का वर्णन-
सातवीं सदी में भारत की यात्रा के दौरान चीनी यात्राी ह्वेनसांग ने राजगृह, सावस्थी और अन्य दूसरे स्थानों के स्तम्भों का जिक्र किया है। इसी प्रकार बौद्ध भिक्खु फाहियान ने चौथी सदी में बौद्ध-ग्रंथों का भारत में संग्रह किया। उसने संकिसा में एक सिंह स्तम्भ और पाटलिपुत्र के पास एक लेख स्तम्भ होने का जिक्र किया है। अब तक इन में से एक भी नहीं मिल सका है(रोमिला थापर: पृ. 6)

शिलालेखों में वर्णित विषय-
सिरकप(तक्षशिला ) के एक घर की भित्ति पर ऐरमइक भासा में उत्कीर्ण अभिलेख रोमेदोते नामक एक उच्च अधिकारी के सम्मान में अंकित है। जलालाबाद के निकट काबुल नदी के उत्तरी घाट पर लम्पक या लमधन पर पाया गया ऐरमइक लिपि में लिखा अपूर्ण अभिलेख है । गोरखपुर जिले के सोहगौरा ताम्र-अभिलेख और बोगरा जिले में महास्थान अभिलेख उस समय पड़े अकाल के समय किए जाने वाले राहत-कार्य के संबंध में हैं।
असोक के पोते दसरथ द्वारा अंकित कराए गए नागार्जुनी पहाड़ी गुफा का अभिलेख तथा लगकड़े ई. 150 में रुद्रदमन के जूनागढ़ सिलालेख हैं ।

सिलालेखों की स्थापना-
सातवें अभिलेख में अशोक कहता है कि पहले से मौजूद स्तम्भों पर उसके आदेश खुदवाएं जाएं (पृ. 291)। इससे कुछ विद्वान सोचते हैं कि कुछ स्तम्भ अशोक-काल के पहले के हैं और कुछ को अशोक ने स्थापित किया।
जिन 9 स्तम्भों के आस-पास उत्खनन हुए हैं, उनमें से 4 सीधे जमीन में गाढ़ दिए गए थे। मजबूती के लिए उन्हें कोई्र आधार नहीं दिया गया था और इसलिए वे अधिक समय तक सीधे खड़े नहीं रह पाएं और अंत में गिर गए। दूसरे 5 स्तम्भ पत्थर की नींवों पर खड़े किए गए, इसलिए वे अधिक समय तक टिके रहे। इनमें से 4 पर अभिलेख हैं। ये चार सारनाथ, टोपरा, रातपुरवा(सिंह शीर्ष ) और लौरिया-नंदनगढ़ के स्तम्भ हैं। पांचवां एक लॉट मात्रा है जो गोतिहावा में स्थित है। स्तम्भ ईंटों से बने परिक्रमा-पथ से घिरे हुए हैं।

पत्थर तराशने की कला-
इन स्तम्भों से पहले पत्थर तराशने की क्रिया का काई साक्ष्य नहीं मिलता। इसलिए यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित है कि इसकी विधि का उद्भव भारत में कब और कहां हुआ( रोमिला थापर; असोक और मौर्य साम्राज्य का पतन, पृ. 294)?    

Friday, June 1, 2018

दीपवंस

धम्म इतिहास को जानने का सबसे बड़ा स्रोत ति-पिटक में वंस साहित्य है। पालि वंस साहित्य के 17 ग्रन्थ हैं, यथा-  दीपवंस, महावंस, चूलवंस, बुद्ध घोसुप्पत्ति, सद्धम्म संगहो, महाबोधिवंस, धुपवंस, अत्तनगलु विहारवंस, दाठावंस, जिनकालमालिनी, छकेसधातु वंस, नलाट धातुवंस, संदेसकथा, गंधवंस, संगीति वंस, सासनवंस, ससनवंसदीप।

वंस साहित्य में राजाओं, भिक्खुओं एवं प्राचीन बौद्ध आचार्यों के वंस परम्परा का पर्याप्त रूप से वर्णन मिलता है। भारत सहित सिंहलद्वीप, बर्मा आदि देशो के सह-संबंधों के बारे में भी प्रमाणिक जानकारी वंस साहित्य में मिलती है। वंस साहित्य का लेखन भारत के बाहर, जैसे कि सब जानते हैं, सिंहलद्वीप के अनुराधापुर महाविहार में हुआ था।

इसके लेखक के नाम का पता नहीं है। शायद, यह किसी एक लेखक की रचना नहीं है। दीपवंस सिंहलद्वीप के ऐतिहासिक परम्परा का आधार और आदि स्रोत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में आरम्भिक अर्थात मुटसीव के शासन काल(307-247 ई. पू.) से लेकर राजा महासेन के शासन काल  (325-352 ई. पू.) तक का सिंहलद्वीप का इतिहास दर्ज है।
दीपवस 22 भाणवारों(परिच्छेदों)  में विभक्त है। बुद्ध घोस ने इस ग्रन्थ को अपनी अट्ठ-कथाओं में उद्धृत किया है। बुद्धघोस का समय 4-5 वीं सदी है।
दीप वंस की विषय वस्तु सिंहली अट्ठ-कथाओं पर आधारित है। महा-अट्ठ-कथा, महापच्चरी, कुरुन्दी, चुल-पच्चरी, अंधट्ठ-कथा आदि जिन सिंहली अट्ठ-कथाओं से बुद्धघोस ने सामग्री ली और जिन पर दीपवंस आधारित है, वर्तमान में अप्राप्त हैं।

भिक्खु-संघ, ईसाई मिशनरियों की तर्ज पर हों

बाबासाहब ने सुझाव दिया था कि हमारे भिक्खु-संघ को क्रश्चियन मिशनरियों की सेवा पद्यति अपनाना चाहिए। यह सत्य है कि एशिया में ईसाई धर्म का प्रचार शिक्षा और मेडिकल सहायता के आधार पर हुआ है। ईसाई नन हो या पादरी, वह केवल धार्मिक मामलों में ही कुशल नहीं होते हैं, वे कला और विज्ञान में भी कुशल होते हैं ।  यही कारण है कि सामान्य जनता की  वे विभिन्न प्रकार से सेवा करते हैं ।
धम्म-ग्रंथों से पता चलता है कि प्राचीन समय में यह पद्यति भिक्खु-संघ में पायी जाती थी।  भिक्खु यह जानते थे कि धम्म का प्रचार सेवा से शीघ्र होता है।  इसलिए, आज भिक्खु-संघ को अपने प्राचीन आदर्श का अनुकरण करना चाहिए।  ऐसे स्थिति में ही भगवान् बुद्ध की शिक्षाओं से लाभ उठाया जा सकता है( डा. बी. आर. अम्बेडकर का समाज दर्शन, पृ. 150 : डा. डी. आर. जाटव )।