Monday, December 30, 2013

एम सी राजा (M C Rajah)

एम सी राजा (1883 - 1943 )

राव बहादूर एम सी. राजा शुरुआत में बाबा साहेब डा. आंबेडकर के सहयोगी थे।  वे डा. आंबेडकर के नेतृत्व में काम करते थे।  दलितों के प्रश्न पर पृथक निर्वाचन पध्दति  की उन्होंने जोरदार शब्दों में वकालत की थी.
   
देश के भावी राज्य घटना के सम्बन्ध में ब्रिटिश 'क्रिप्स योजना' को जो विरोध-पत्र सौपा गया था, उस में डा. बाबा साहेब आंबेडकर के साथ एम सी. राजा के हस्ताक्षर थे.  विरोध-पत्र में कहा गया था की दलितों की मांगे मंजूर किये बिना कथित भावी संविधान का कोई अर्थ नहीं है।

भारत की स्वाधीनता के संबंध में लंदन गोलमेज सम्मेलन के द्वितीय सत्र में राव बहादूर श्रीनिवासन के साथ एम सी राजा;  डॉ आंबेडकर के साथ शरीक हुए थे।

मगर, बाद में राव बहादूर एम सी. राजा का झुकाव कांग्रेस की तरफ हो गया। कांग्रेस में जाकर वे 'ऑल इण्डिया डिप्रेस्ड क्लासेस असोसिएशन' के अध्यक्ष हो गए थे। कांग्रेस में जाकर एम सी. राजा ने पृथक निर्वाचन पध्दति के सम्बन्ध में अपना स्टेंड बदल दिया था। अब वे कांग्रेस के सुर में सुर मिलाते हुए  'संयुक्त निर्वाचन पध्दति' का समर्थन करने लगे थे। बदले में वे चाहते थे कि कांग्रेस 'डिप्रेस्ड क्लासेस एसोसिएशन' के उम्मीदवारों लिए कुछ सीटें सुरक्षित रखे।

सनद रहे , एम. सी. राजा के विरोध और संयुक्त निर्वाचन की हिमाकत करने के कारण ही डा. आंबेडकर को 'पूना पेक्ट' पर हस्ताक्षर करने बाध्य होना पड़ा था।

यद्यपि, बाद में एम सी. राजा को अपने करनी पर भारी पछतावा हुआ. मगर, समय बीत चूका था। काश, डा. आंबेडकर पूना पेक्ट पर हस्ताक्षर नहीं करते और पृथक निर्वाचन पध्दति कायम होती तो दलितों की स्थिति निश्चित तौर पर आज दूसरी होती।

एम सी राजा का पूरा नाम राव बहादूर मिलै चिन्ना थंपी पिल्लई राजा था।  आपका जन्म 17 जून 1883 को मद्रास (तमिलनाडू) के सेंट थामस माउंट में हुआ था। आप एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे।  राजा ने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। वे स्कूल में टीचर थे।

एम सी राजा उम्र के प्रथम पड़ाव में ही राजनीति में कूद गए थे। वे चिंगलेपुत डिस्ट्रिक बोर्ड के अध्यक्ष बन गए।  सन 1916 में वे आदि द्रविड़ महाजन सभा के अध्यक्ष हुए। वे 'साऊथ इन्डियन लिबरल फेडरेशन' के संस्थापकों में एक थे।

तमिलनाडु में जस्टिस पार्टी गैर-ब्राह्मणों की राजनैतिक पार्टी थी। नव. 1920 के प्रथम आम चुनाव में जस्टिस पार्टी के टिकिट पर वे विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए।  मद्रास लेजिसलेटिव काउन्सिल में वे एक मात्र दलित नेता थे। काउन्सिल में राजा ने मांग रखी थी कि वहाँ की दलित जातियों के लिए  'परइया' या 'पञ्चम' बोलने का निषेध कर अधिकारिक भाषा में 'आदि द्रविड़' या 'आदि आंध्र' कहा जाए।

सन 1921 में जस्टिस पार्टी की सरकार ने पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की बात की थी। इस बिल में दलित जातियों के लिए आरक्षण की बात नहीं थी।  राजा ने उक्त बिल का विरोध करते हुए दलित जातियों को भी इस में सम्मिलित करने की मांग की थी। राजा ने अपनी मांग का कोई असर ने देख सन 1923 में पार्टी से स्तीफा दे दिया था।

 1922 में राजा सेन्ट्रल असेंबली के लिए मनोनीत हुए थे। तब, वे एक मात्र दलित नेता थे, जो सेन्ट्रल असेम्बली में पहुंचे थे। डॉ आंबेडकर के सम्पर्क में आने के बाद सन 1923  में उन्होंने जस्टिस पार्टी छोड़ दिया था।

22 -24 दिस 1927 को  दिल्ली में सामाजिक सुधारों के मुद्दे के आलावा साइमन कमीशन के स्वागत के लिए देश की तमाम दलित जातियों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन बुलाया गया था, जिसकी  अध्यक्षता रॉव बहादूर एम सी राजा ने की थी। इसमें दलित जातियों के लिए पृथक चुनाव पर भी निर्णय लिया गया था।

सन 1928 में राजा ने  'ऑल इण्डिया डिप्रेस्ड कास्ट्स एसोसिएशन' की स्थापना की। इसके अध्यक्ष गणेश अक्काजी गवई और संयुक्त महासचिव जी एम थवारे थे। वास्तव में, इसे कांग्रेस ने दलित जातियों में डा आंबेडकर के नेतृत्व को चुनौति के रूप में खड़ा किया था। किन्तु 1942 में एम  सी राजा इसे छोड़ कर 'शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन' में शामिल हो गए थे।  

वे सन 1926-1937  की अवधि में इम्पेरियल लेजिसलेटिव असेम्बली के सदस्य रहे थे। वे बीच में अप्रेल-जुलाई 1937 के अल्प अवधि के लिए मद्रास प्रेसिडेंसी में कुर्मा वेंकटा रेडी नायडू के अंतरिम केबिनेट में डवलप्मेंट मिनिस्टर रहे थे

सन 1932 में राजा ने इन्डियन नॅशनल कांग्रेस के नेता डॉ बी एस मुंजे औए जाधव से कुछ पेक्ट किया था।  इस पेक्ट के अनुसार मुंजे ने राजा के लोगों के लिए कुछ आरक्षित सीटें खाली छोड़ने की पेशकश की थी। कांग्रेस नेताओं के इस ऑफर से डॉ आंबेडकर को अखिल भारतीय स्तर पर दलितों के लिए पृथक चुनाव की मांग को अधिकारिक तौर पर उठाने में काफी बल मिला।

राजा की मृत्यु 20 अग.  1943 को हुई थी।

शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (SCF)

ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन

ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन एक ऐसा राजनीतिक दल था जो अनुसूचित जाति के लोगों का प्रतिनिधित्व करता था।  इसकी स्थापना बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने की थी।  इसके पहले, डॉ आंबेडकर ने 'इनडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की थी।  तब, वे मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे।

आजादी के आंदोलन के दौरान भारतीय राजनीति का परिदृश्य तेजी से बदल रहा था।  इस समय, डॉ आंबेडकर दलित जातियों के राजनैतिक अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे थे।  अब उन्हें ऐसे राजनैतिक मंच की आवश्यकता थी जो दलितों के हितों को देश के भावी संविधान में सुनिश्चित करे। दलित जातियों में अनुसूजित जाति और जन-जातियां आती थी।

मगर, यहाँ एक पेंच था। आदिवासी समुदाय के नेताओं में इतना दम -ख़म नहीं था कि कांग्रेस से अलग हट कर कुछ सोच सके। ठक्कर बापा जैसे लोग, जो गांधीजी के करीबी थे और जो उस समय आदिवासी समाज के सर्व-मान्य नेता के तौर पर जाने जाते थे, कांग्रेस का साथ छोड़ने तैयार नहीं थे।  मजबूरन,  डॉ आंबेडकर को अपना ध्यान अनुसूचित जन-जातियों को अलग रखते हुए अनुसूचित जातियों पर केंद्रित करना पड़ा था।

ऑल  इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना 17-20 जुला 1942 के नागपुर अधिवेशन में हुई थी। मद्रास के दलित नेता राव बहादूर एन शिवराज इसके प्रथम अध्यक्ष और बाम्बे (मुम्बई) के  पी एन राजभोज इसके प्रथम महासचिव चुने गए थे। वास्तव में , शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन 'इनडिपेंडेंट लेबर पार्टी' का ही विकसित रूप था जिसकी स्थापना उन्होंने  सन 1936  में की थी।

निश्चित रूप में ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन से देश के तमाम दलित जातियों को देश के भावी संविधान के निर्माण के परिदृश्य में अपनी आवाज पुरजोर तरीके से रखने का मौका मिला था। तब , डॉ आंबेडकर वाइसरॉय के एक्जेक्यूटिव कौंसिल में लेबर मिनिस्टर थे। रॉय बहादूर एन शिवराज और प्यारेलाल कुरील तालिब सेन्ट्रल असेम्बली के मनोनीत सदस्य थे।

मार्च 1946 में जो आम चुनाव हुए थे,  में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने अखिल भारतीय स्तर पर विभिन्न प्रान्त  असेम्ब्लियों में कुल 51 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। इनकी प्रान्त वार संख्या इस प्रकार थी - मद्रास से 24, बाम्बे से 5, बंगाल से 6, यूपी से 5, सीपी एंड बरार से 11.  मगर, इन में से मात्र दो उम्मीदवार जोगेन्द्रनाथ मंडल (बंगाल)  और आर पी जाधव (सी पी एंड बरार) से जीत पाए थे।

ब्रिटिश सरकार का केबिनेट मिशन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों/ संस्थाओं की राय लेने 24  मार्च 1946 को भारत आया था।  केबिनेट मिशन को डा आंबेडकर ने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की ओर से मेमोरेंडम सौपा था। मगर, केबिनेट मिशन ने जो प्लान घोषित किया, उस में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के उक्त मेमोरेंडम के तारतम्य में कोई बात नहीं थी। केबिनेट मिशन के प्रस्ताव के अनुसार, संविधान सभा के लिए 210 सदस्य सामान्य मतदाताओं के चुनाव से , 78 सदस्य मुस्लिम मतदाताओं के चुनाव से और 4 सदस्य सिख मतदाताओं के चुनाव से चुने जाना था। कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने तो केबिनेट मिशन के प्रस्ताव को तो  मान लिया था मगर, डॉ आंबेडकर के लिए यह बड़ा आघात था।

 केबिनेट मिशन के इस रवैये से नाराज होकर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने पी एन राजभोज के नेतृत्व में 15 जुला 1946  से देश भर में सत्यागृह आरम्भ किया था।

जब पं जवाहरलाल  नेहरू के नेतृत्व में दिल्ली में अंतरिम सरकार की स्थापना हुई तब,  इस अंतरिम सरकार में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का एक सदस्य;  बंगाल इकाई के जोगेन्द्रनाथ मंडल को लिया गया था।

इसी दौरान,  संविधान सभा के लिए शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की टिकिट पर डॉ आंबेडकर पहले बंगाल से और पार्टीशन के बाद बाम्बे से निर्वाचित हुए थे । डॉ आंबेडकर संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बने और बाद में स्वतंत्र भारत के कानून मंत्री बने थे।

सन 1952 में सम्पन्न लोकसभा के आम चुनाव में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने कुल 34  उम्मीदवार खड़े किए  थे;  बाम्बे से 4, सी पी एंड बरार से 3 , मद्रास से 9, पंजाब से 2, यू पी से 8, हैदराबाद से 4, राजस्थान से 1, दिल्ली से 1,हिमांचल प्रदेश से 1, विन्ध्य प्रदेश से 1. मगर , इन 34 उम्मीदवारों में सिर्फ दो चुने जा सके थे - सोलापुर(महा.) से पी. एन. राजभोज और करीमनगर से एम. आर. कृष्णा। डा आंबेडकर,  जो बाम्बे सीट से खड़े हुए थे , चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद उन्होंने भंडारा (महा.) लोक सभा का उपचुनाव (1954 ) लड़ा किन्तु  यहाँ भी वे सफल नहीं हुए थे।

ऑल  इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने देश के विभिन्न प्रान्तों की असेंबलियों में कुल 215 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे,  जिसमें 12 ने जीत दर्ज की थी;  हैदराबाद से 5, मद्रास से 2, बाम्बे से 1, मैसूर से 2 ,पेप्सू से 1 और हिमांचल प्रदेश से 1.

डा आंबेडकर बाम्बे असेम्बली से राज्य सभा के लिए चुने गए थे। इसी प्रकार शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के उम्मीदवार जे एच सुब्बिय्हा हैदराबाद से सन 1952 में राज्य सभा के लिए चुने गए थे।

शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने सन 1942 -1956 के अवधि में दलितों के प्रश्न पर भारत की राजनीति पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला था। इसकी शाखाएं उत्तर से दक्षिण तक पूरे देश में फैली थी। विधायी मसलों पर भी शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के सदस्यों ने अहम भमिका अदा की थी।

सेन्ट्रल असेम्बली ने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के सदस्य प्यारेलाल कुरिल तालिब द्वारा प्रस्तुत सेना में किसी अछूत के आफिसर बनने पर लगे प्रतिबन्ध को ख़त्म करने का बिल पारित किया था।

बाद के दिनों में डा आंबेडकर स्वत: चाहते थे कि शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को ख़त्म कर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया की स्थापना की जाए ताकि इसमें जाति नहीं, विचारों की मान्यता हो ।

धर्मांतरण के बाद दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों की राजनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बाबासाहब अम्बेडकर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को भंग कर इसका विस्तार करते हुए 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी' का गठन करना चाहते थे ताकि इस राजनैतिक पार्टी में जाति और धर्म के परे लोगों का प्रतिनिधित्व हों।किन्तु बाबासाहब के महापरिनिर्वाण के बाद निकट आम चुनावों को देखते हुए शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के अध्यक्ष-मंडल ने तुरंत इसे भंग न कर इसी संगठन के बैनर तले 1957 के लोकसभा चुनाव लड़ने का निर्णय लिया।

1957 के लोकसभा चुनाव में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के महाराष्ट्र से  6 उम्मीदवार चुन कर आए थे।  इसके  अलावा कर्नाटक,  मद्रास और गुजरात राज्य से भी 1 -1  उम्मीदवार चुन कर आए थे।  चुने गए उम्मीदवारों के नाम थे - नासिक से दादासाहेब गायकवाड़, मध्य मुंबई से जी. के. माने, खेड़ से बी. डी. साळुंखे, मुंबई से एडव्होकेट बी. सी. काम्बले, कोल्हापुर से एस. के. दीघे, नांदेड़ से हरिहरराव सोनुले, चिकोडी (मैसूर ) से दत्ता आप्पा कट्टी, गुजरात से के. यू.  परमार और मद्रास से एन. शिवराज(धम्म चक्र प्रवर्तन के बाद परिवर्तन : डा प्रदीप आगलावे )। 

ग़ज़ल (2)

29. 12 . 2013

सबेरे सबेरे धुप्प,  कोहरा था छत के पार
अलसायी आँखे खोला , तो रजाई नज़र आयी ।

यह ठीक है के बनाया है, आदम हव्वा ने इस जहाँ को
अगरचे  न भी बनाता , तो हम क्या कर लेते।

तुम चलो तो सही , हम तुम्हारे साथ हैं
जहाँ चलना होगा चलेंगे, जहाँ रुकना होगा रुकेंगे।

इस जहाँ के उस पार , शायद और जहाँ हो
मगर, पडोसी मुल्क के न हो सके, तो उसे क्या करेंगे।

तुम करते हो बात तोड़ने की , जमीं से चाँद सितारे
किसी समंदर की लहरों से , कुछ सीख लिया करो

                                             -अ ला उके
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Sunday, December 29, 2013

ठक्कर बापा (Thakkar Bapa)


ठक्कर बापा (1869 -1951 )

बात तब की है जब मैं कक्षा 8 में पढता था। करीब 3 की मी दूर चिखला बांध स्थित स्कूल में हम अपने गावं सालेबर्डी के कुछ बच्चें जाया करते थे। स्कूल में आदिवासी छात्रावास था। उस छात्रावास में मैंने ठक्कर बापा की फोटो देखी थी। दीवार में गांधीजी की फोटो भी लगी थी।  हमें स्कूल की पुस्तकों में गांधीजी के बारे में तो पढ़ाया जाता था।  मगर, ठक्कर बापा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी । बहरहाल, ठक्कर बापा कौन है , यह जानने की इच्छा मेरी तभी से थी। तो आइये , इस महान विभूति के बारे में कुछ जानने का प्रयास करे।  

ठक्कर बापा, गांधी जी के बहुत करीब रहे थे। वे सन 1914-15  से गांधीजी के सम्पर्क में आए थे।  मगर, तब भी वे अपने लोगों के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद, आदिवासियों की अधिसंख्य आबादी आज भी बीहड़ जंगलों में रहने अभिशप्त है। अपने देश और समाज के प्रति ठक्कर बापा की नीयत साफ झलकती है। मगर, आदिवासियों के प्रति कांग्रेस की नीतियां में जरुर संदेह नजर आता हैं।

ठक्कर बापा का नाम लेते ही ऐसे ईमानदार शख्स की तस्वीर जेहन में उभरती है, जो बड़ा ईमानदार है।  जिसने एक बड़े सरकारी ओहदे से स्तीफा देकर दिन-हीन और लाचार लोगों के लिए अपनी तमाम जिंदगी न्योछावर कर दी हो। शायद, इसी को लक्ष्य कर गांधी जी ने एक  उन्हें  'बापा ' कहा था।  'बापा ' अर्थात लाचार और असहायों का बाप।  चाहे गुजरात का भीषण दुर्भिक्ष हो या नोआखाली के दंगे, ठक्कर बापा ने लोगोंकी जो सेवा की , नि:संदेह वह स्तुतिय है।

 ठक्कर बापा आदिवासी समाज में पैदा हुए थे। वे एक खाते-पीते परिवार से संबंध रखते थे। ठक्कर बापा का नाम अमृतलाल ठक्कर था। आपका जन्म 29 नव 1869 भावनगर (सौराष्ट्र ) में हुआ था। आप की माता का नाम मुलीबाई और पिता का नाम विठलदास ठक्कर था। अमृतलाल ठक्कर के पिताजी एक व्यवसायी थे। विट्ठलदास समाज के हितेषी और स्वभाव से दयालु थे।उन्होंने अपने गरीब समाज के बच्चों के लिए भावनगर में एक छात्रावास खोला था। भावनगर में ही सन 1900 के भीषण अकाल में उन्होंने केम्प लगवा कर कई राहत कार्य चलवाए थे।

पढने-लिखने में अमृतलाल बचपन से ही होशियार थे।  सन 1886 में आपने मेट्रिक में टॉप किया था। सन 1890  में आपने पूना से सिविल इंजीनियरिंग पास किया था। सन 1890 -1900 की अवधि में अमृतलाल ठक्कर ने काठियावाड़ स्टेट में कई जगह नौकरी की थी।  सन 1900-1903 के दौरान पूर्वी अफ्रीका के युगांडा रेलवे में बतौर इंजिनीयर उन्होंने अपनी सेवा दी। वे सांगली स्टेट के चीफ इंजिनियर नियुक्त हुए। इसी समय आप गोपाल कृष्ण गोखले और धोंदो केशव कर्वे  के सम्पर्क में आए।

सांगली में एकाध  साल नौकरी करने के बाद अमृतलाल ठक्कर बाम्बे म्युनिसिपल्टी में आ गए।  यहाँ कुर्ला में नौकरी के दौरान वे वहाँ की दलित बस्तियों में गए। डिप्रेस्ड कास्ट मिशन के रामजी शिंदे के सहयोग से उन बस्तियों में आपने स्वीपर बच्चों के लिए स्कूल खोला ।

सन 1914  में अमृतलाल ठक्कर ने अपने नौकरी से त्याग दे दिया।  अब वे 'सर्वेंट ऑफ़ इंडिया सोसायटी' से जुड़ कर पूरी तरह जन-सेवा में जुट गए।  यही वह समय था जब गोपाल कृष्ण गोखले ने उनकी मुलाकात गांधी जी से करवाई। सन 1915 -16  में ठक्कर बापा ने बाम्बे के स्वीपरों के लिए को-ऑपरेटिव सोसायटी स्थापित की। इसी तरह अहमदाबाद में आपने मजदूर बच्चों के लिए स्कूल खोला।

सन 1918-19  की अवधि में टाटा आयरन एंड स्टील जमशेदपुर ने अपने कामगारों की परिस्थितियों के आंकलन के लिए ठक्कर बापा की सेवाएं ली थी। गुजरात और उड़ीसा में पड़े भीषण अकाल के समय ठक्कर बाबा ने वहाँ रिलीफ केम्प लगा कर काफी काम किया।  सन 1922 -23 के अकाल में गुजरात में भीलों के बीच रिलीफ का कार्य करते हुए आपने 'भील सेवा मंडल' स्थापित किया था।

सन 1930 में सिविल अवज्ञा आंदोलन दौरान वे गिरफ्तार हुए थे। उन्हें 40 दिन जेल में रहना पड़ा था। पूना पेक्ट (सन 1932 )में गांधी जी के आमरण अनशन के दौरान ठक्कर बापा ने समझौए के लिए महती भूमिका निभाई थी।

ठक्कर बापा ने बतौर 'हरिजन सेवक संघ' के महासचिव सन 1934 -1937 की अवधि में ' हरिजनों ' की समस्याओं से रुबरूं होने के लिए सारे देश का भमण किया था। सन 1938-42  की अवधि में वे  सी पी एंड बरार, उड़ीसा, बिहार, बाम्बे राज्यों में आदिवासी और पिछड़े वर्गों के कल्याण से संबंधित विभिन्न सरकारी समितियों में रहे थे ।

सन 1944 में ठक्कर बापा ने 'कस्तूरबा गांधी नॅशनल मेमोरियल फण्ड' की स्थापना की। इसी वर्ष ' गोंड सेवक संघ' जो अब 'वनवासी सेवा मंडल' के नाम से जाना जाता है;  की स्थापना की थी। ठक्कर बापा सन 1945 में 'महादेव देसाई मेमोरियल फण्ड' के महासचिव बने थे।  'आदिमजाति मंडल' रांची जिसके अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद थे, के उपाध्यक्ष रहे। सन 1946 -47 में नोआखली जहाँ जबरदस्त दंगे भड़के थे, ठक्कर बापा वहाँ  गांधी जी के साथ थे।

स्वतंत्रता के बाद ठक्कर बापा संविधान सभा के लिए चुने गए थे।  वे संविधान सभा के और कुछ उप-समितियों में थे। आप गांधी नॅशनल मेमोरियल फण्ड के ट्रस्टी और एक्जुटिव बॉडी के मेंबर थे। ऐसी निर्लिप्त भाव से सेवा करने वाली शख्सियत 19 जन 1951  हम और आप से विदा लेती है।

Monday, December 23, 2013

Bhopal: The City of Lake

भोपाल : द सिटी ऑफ़ लेक



कई लोग, जिनकी यहाँ आ कर मन की मुराद पूरी हो जाती है वे इसे  'द सिटी ऑफ़ लक' भी कहते हैं। खैर, हैं तो यह सचमुच हंसीन जगह। आप जिधर भी जाते हैं , आपको झील और झील से लगी पहाड़ी नज़र आती है।

वह वक्त अभी ज्यादा नहीं गुजरा,  जब यह शहर नवाबी रियासत की राजधानी था ।  नवाब पटौदी के वालिद यहाँ की रयासत के मालिक रहे हैं ।  पुराने भोपाल में आप जैसे ही घुसते हैं , वैसे ही नवाबी शहर का आपको एहसास होने लगता है।

जिन लोगों ने 10  साल पहले भोपाल देखा था , वे आज यहाँ आ कर  सहसा चौक जाएंगे। कम्प्लीट बदला नजारा नज़र आएगा।  बड़ी लेक अब पर्यटकों का केंद्र बन चुकी है। सुबह -शाम आप जब भी यहाँ आएँगे, आपको पर्यटक ही पर्यटक नज़र आएँगे।

 झील में कई तरह की बोट तैरते मिलेगी। बड़ी बोट छोटी बोट।  आप चाहे तो पैडल वाली बोट में बैठ कर स्वत: डाइव का आनद ले सकते हैं या फर्राटे भरती मोटर आपरेटेड बोट में बैठ कर एडवेंचर और थ्रिलिंग से रुबरूं हो सकते हैं।

लेक को सही में पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किये की दिशा में काफी कुछ किया गया है। लोकोमोटिव इंजिन जो अब पर्यटन स्थल में सजा कर रखने की वस्तु बन गई है , सचमुच यहाँ सजा कर रखा गया है। भारतीय युद्ध पोत 'शिवालिक ' का मॉडल एक बड़े भारी शीशे के बाक्स में रखा गया है।


लेक के पास आपको कई फेरी वाले नज़र आएँगे। चाट हो या पानी-पूरी या फिर,  तरह-तरह की आईस क्रीम। आपको कतई दूर जाने की जरुरत नहीं होगी।  

लेक से थोडा आगे कमला नेहरु पार्क है।  बड़ी लेक की तफरीह कर जब आप थक जाए तो जा कर कमला नेहरु पार्क में सुस्ता सकते हैं। यहाँ आप खुद को एकदम डिफरेंट सिचुएशन में पाएंगे।



बी एच ई एल का नाम आपने सुना होगा। भोपाल में बी एच ई एल का बहुत बड़ा कारखाना है। आधे से अधिक भोपाल न सिर्फ इसी से घिरा है, बल्कि , फ़ास्ट डेवलॅप हो रहे इस शहर की सुंदरता में बी एच ई एल का बहुत बड़ा हाथ है।

यह एक सुखद ही संयोग था की मेरे पुत्र ऐशवर्य (छोटू) के रिश्ते के लिए भिलाई (छति.) से स्यामकुंवर जी भोपाल पधारे थे। इस परिवार के साथ हमने भोपाल लेक की तफरीह का भरपूर आनंद उठाया। छोटू के लिए उपयुक्त लड़की की तलाश में हम पिछले एक-डेढ़ वर्ष से हैं।

पिछले 8  नव. को हम लोग भिलाई में थे।  वही, भोपाल से छोटू ने बतलाया कि भिलाई में कोई स्याम कुंवर जी हैं।  आप लोग चाहे तो जानकारी उठा सकते हैं। मेरे इंक्वायरी करने पर स्यामकुंवर जी ने हमें अपने आवास पर निमंत्रित किया। प्रथम दृष्टया लड़की और परिवार वाले हमें अच्छे लगे थे।  

Tuesday, December 17, 2013

'बोर्ड चौराहे' का नाम डा आंबेडकर चौराहा क्यों नहीं ?

डा भीमरॉव आंबेडकर पुण्य-स्मृति(6 दिस.) दिवस -

इस बार, बाबा साहब की पुण्य स्मृति दिवस पर हम लोग भोपाल में थे। मेरे बेटे ऐश्वर्य ने क्वार्टर हबीबगंज रेलवे स्टेशन के पास ही किराए से ले रखा है।

यहाँ , पास ही में 'अशोक बुद्ध विहार' है। बिहार काफी बड़ा और रोड पर है। प्रत्येक रविवार को सभी बुद्धिस्ट जो बुद्ध विहार के आस-पास रहते हैं, यहाँ धम्म वंदना के लिए आते हैं। अभी-अभी ही यहाँ इंदौर से आए एक भंते जी ने  वर्षा-वास किया था।

 पिछले रविवार , 1 दिस को यह तय हो गया था कि आने वाले  6 दिस के प्रात :  बाबा साहब चौराहा (बोर्ड आफिस के सामने ) अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार चलना है।

तय शेड्यूल के अनुसार हम लोग पहले बुद्ध विहार आए।  यहाँ मालूम हुआ , सीधे कार्य-क्रम स्थल पहुँचाना है। हमने मार्ग में फूलों के हार रख लिया ।  कार्य-क्रम स्थल पर पहले से ही लोगों का ताँता लगा था। लोग ग्रुप बनाकर आ रहे थे।  इनमे बच्चें थे, बूढ़े थे, महिलाऐं थी।  चारों दिशाओं से आ रहे लोग, ' बाबा साहेब अमर रहे' के नारे लगाते हुए जहाँ बाबा साहब की स्टेचू थी , उस तरफ बढ़ रहे थे।

ध्यान रहे , यह बहुत ही व्यस्ततम चैराहा है।  यह एजुकेशन बोर्ड आफिस के सामने है।  शायद , इसी कारण इस स्थल को 'बोर्ड चौराहा' कहा जाता है। मुझे ताज्जुब हुआ कि इस चौराहे का नाम  डा आंबेडकर चौराहा  क्यों नहीं है ?

यहाँ बीजेपी की गवर्नमेंट है।  बीजेपी  को स्कूल, आफिस, बाजार काम्प्लेक्स, बस स्टेंड आदि का नाम   पं. दिनदयाल उपाध्याय के नाम रखने से फुरसत मिले तो वह इस तरफ सोचे ?

मैंने देखा , ट्रेफिक पुलिस जहाँ चुस्त-दुरुस्त थी वहीँ,  खाकी वर्दी की पुलिस भी पर्याप्त मात्रा में थी।  लोगों के हुजूम-के हुजूम आने के बाद भी ट्रेफिक रुकने जैसी कोई स्थिति नहीं हो रही थी।


बेशक, व्यवस्था में लगे रहे अधिकारीयों की सफलता थी।  मगर, उससे कहीं ज्यादा खुद पब्लिक बधाई की पात्र थी। लोग स्वत: संज्ञान ले रहे थे कि आने-जाने वालों को दिक्क्त न हो। 

Monday, December 16, 2013

साँची विज़िट (Sanchi Visit)


साँची विजिट 

14 -15 दिस 2013 के साँची मेले के बारे में टी वी न्यूज़ और समाचार -पत्रों में खबरें आ रहीं थी। हम,  वैसे तो सांची पहले देख आए थे और काफी इत्मीनान से देख आए थे। मगर, मेले के दिन सांची देखना , कुछ अलग होता है । सो हमने, दो फेमिली और साथ ली। चूँकि, हमारी गाड़ी (मारुती ज़ेन )में जगह थी और फिर, कम्पनी में कहीं जाना, मायने रखता है।

साँची, भोपाल से करीब 50-60 की मी दूर है। कार से जाते वक्त हमें रोड पर जगह-जगह पुलिस के बेरिकेड दिखे।  पुलिस भी चेकिंग करती दिखी। इस बार मेले के कारण शायद,   काफी पहले ही पार्किंग स्थान बनाया गया था। हमने गाड़ी को पार्क किया और टिफिन का सामान वगैरे हाथ के रख आगे बढे।

 जगह-जगह पुलिस बेरिकेड लगाईं हुई चैक करते नजर आई।  हो सकता है, पिछले दिनों बिहार के महा बोधिमहाविहार में हुए बम विस्फोट की दहशत या फिर, यहाँ आज के दिन आ रहे देश-विदेश के बुद्धिस्ट वी आई पी। बहरहाल, हमने खुद को सुरक्षित-सा महसूस किया और आगे बढ़ते गए। पहाड़ी, जहाँ पर यहाँ का विश्व प्रसिद्द बौद्ध स्तूप स्थित है , की गेट पर लगी लम्बी लाइन हमें धेर्य रखने को कर रही थी। महिला और पुरुषों की अलग-अलग लाइन थी।  मगर, लाइन की लम्बाई धैर्य को जवाब भी दे रही थी।  मगर, लगता है , जल्दी ही गेट पर खड़े पुलिस के आला अधिकारीयों को लोगों की ये परेशानी समझ आ गई।  क्योंकि , फिर सेकुरिटी गेट से पुलिस वाले ही खुद प्रत्येक लाइन को दो-दो लाइनों में तब्दील करते नजर आए। मैं लाइन से निकल कर बीच-बीच में गेट का नजारा भी देख आता था कि वहाँ हो क्या रहा है ?  गेट पर मुझे ऐसा लगा कि कुछ पदाधिकारी (  बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ़ इंडिया' ) पुलिस को असिस्ट कर रहे थे।
इसी गेट पर दो भोजन स्टॉल लगे थे। ये भोजन स्टॉल भोपाल के थे जहाँ मुफ्त में भोजन वितरित किया जा रहा था।  स्टॉल काउंटर से बाकायदा अनाउंस कर लोगों को  इस संबंध में  जानकारी दी जा रही थी।

जैसे कि मैंने कहा , एक-एक लाइन के दो-दो लाइनों में तब्दील होने से हमारा नम्बर जल्दी ही आया।  मेन गेट से चैक-इन होने के बाद हम लोग बुद्ध विहार की तरफ बढे।  इसी बुद्ध विहार में भगवन बुद्ध के शिष्य सारिपुत्त और महामोग्गल्यायन की अस्थियों का कलश रखा होता है। श्री लंका की परम्परा के अनुसार प्रति वर्ष आज के दिन यह अस्थियों का कलश जनता के दर्शनार्थ रखा जाता है।
यह विचित्र लगता है कि हमारे देश में जहाँ भगवान् बुद्ध पैदा हुए और विश्व को शांति की धम्म-देशना की , वहाँ साँची के बौद्ध स्तूप में श्रीलंका के रीती-रिवाजों के अनुसार पूजा-अर्चना होती है ?  छोटे से देश बर्मा के बुद्धिस्ट आ कर बुद्धगया के महाबोधिविहार के गुंबद पर सोने की पर्त चढ़ाते हैं ?

खैर , हमने उस ख्याति -प्राप्त बुद्ध विहार में जा कर भगवान् बुद्ध के शिष्य सारिपुत्त और  महा मोग्गलायन की अस्थि कलश के दर्शन किए।  श्रीलंका के बौद्ध भिक्षु वहाँ विराजमान थे जो गर्भ गृह के मध्य में रखे हुए सुनहरे कलश की ओर ईशारा कर दर्शकों को बतला रहे थे। मगर , मेरी नजर जहाँ स्थिर  हुई , वह भगवान् बुद्ध की वह मूर्ति थी जो मैंने अन्यथा और कहीं नहीं देखी थी। मूर्ति के चेहरे पर जो सौम्यता और शांति मैंने लक्ष्य किया , वह सचमुच अदभुत थी। मनुष्य को जब इच्छित वस्तु मिल जाती है और तब, वह जिस शांति और सौम्यता का हकदार होता है,  मैं वही भगवान बुद्ध के चेहरे पर देख रहा था।

अब तक दिन का डेढ़ बज रहा था।  साथी चाह रहे थे कि कहीं बैठ कर लंच ले लिया जाए।  हम लोग मंदिर परिसर के बाई ओर खाली स्पेस की तरफ बढ़ गए।  यहाँ कई बड़ी-बड़ी फर्श-नुमा शिलाएं है। ऐसे लगता है जैसे ये शैलानियों के बैठने के लिए ही बनायीं गई हो। मगर, ये सब हैं प्राकृतिक।  हमने यहाँ बैठ कर आराम से टिफ़िन खाएं। मैं देख रहा था कि हमारी तरह ग्रुप में आए शैलानी इसी तरह अपना-अपना लंच ले रहे हैं।

लंच के बाद हमने मुख्य बुद्ध स्तूप का रुख किया। फिर यहाँ चैक -इन था। काफी शैलानी थे।  मगर, सभी शालीन और तरीके से आ-जा रहे थे।  बच्चें, महिलाऐं, युवक , युवतियां सब थे।  मगर, वहाँ अगर कुछ नहीं था तो वह थी बदतमीजी और अनुशासनहीनता।  लोग खुद-बी-खुद एक दूसरे की गरिमा का ध्यान रख कर चल रहे थे।  ऐसे लग रहा था जैसे सभी किसी एक ही परिवार के रक्त संबंधी हो।   


चूँकि,  मैंने केमरा रखा था , इसलिए मैं यादों को साथ में समेटने का काम भी कर रहा था। यह कार्य भी एक कला है।  मगर, इसका अपना-अपना अंदाज है।

मुख्य स्तूप के आलावा इसी से लगे अन्य  स्पॉट  को बारीकी से देखने  का हमारे पास समय नहीं था। दरअसल, इसके लिए आप को अकेले या अधिक से अधिक दो को जाना होता है।  क्योंकि , अधिक लोगों के साथ होने पर उनके भी मूड का ख्याल आपको रखना होता है।

मुख्य बौद्ध स्तूप और उससे सटे अन्य स्पॉट जो अब  भग्नावशेष अवस्था में हैं ,सब पुरे के पुरे एक पहाड़ी पर स्थित हैं ।  मुख्य स्तूप के बाई ओर का बुद्ध विहार जिसकी चर्चा हम पहले कर आए हैं और जो ठीक-ठाक दशा में है ,श्री लंका सरकार की मदद और देख-रेख में चल रहा है। हाँ , पूरा परिदृश्य जो अब हरा-भरा दीखता है , का श्रेय जरुर भारत सरकार को जाना चाहिए।

मगर, इस ऐतिहासिक पर्व पर एक बात खटकने वाली लगी।  वह यह कि बौद्ध भिक्षु,  जो काफी संख्या में वहाँ पधारे थे , को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था।  क्या उनके लिए उचित व्यवस्था नहीं की जा सकती थी ?  धम्म में भिक्षुओं का स्थान पवित्र है। भिक्षुओं  के बैठने के लिए अगर ठीक व्यवस्था होती तो लोग अभिवादन करने उनके पास जाते, उनके भिक्षा-पात्र में यथा शक्ति दान डालते।    

Friday, December 13, 2013

नामदेव ढसाळ(Namdeo Dhasal)

नामदेव ढसाल (1949 - )

ऐसी शख्सियत जिसका बचपन बेहद गरीबी में बीता हो, जो मुम्बई के रेड लाइट एरिया में पला-बढ़ा हो, आप उससे क्या उम्मीद कर सकते हैं ?

जी नहीं , आप गलत सोच रहे हैं। ऐसे बच्चे ने अपने कृतित्व का झंडा गाड़ा है और ऐसी हस्ती बन कर उभरा है कि लोग चाह कर भी उसे नकार नहीं पाएंगे। आइये हम उन्हें नमन करे और उनके कृतित्व को याद करे।

नामदेव ढसाळ। पूरा नाम नामदेव लक्ष्मण ढसाळ। बचपन का इतिहास नहीं पता।  अगर पता होता तो आप क्या कर लेते ?  हिन्दू उंच-नीच की जाति-व्यवस्था में ऐसे कितने नामदेव ढसालों के बचपन दफन हैं। खैर , छोड़िए।

नामदेव ढसाल की माता का नाम साडूबाई और पिताजी का नाम लक्षमण रॉव ढसाल था। पिताजी लक्षमण रॉव काफी समय से पैतृक गावं पुरकानेरसर  छोड़ कर काम की तलाश में मुम्बई आ गए थे। वे मुम्बई के रेड लाइट एरिया कमाठीपूरा में किसी कसाई के पास काम करते थे। मुम्बई का यह एरिया क्यों बदनाम है, यहाँ कौन रहते हैं, बतलाने की आवश्यकता नहीं है।  बहरहाल, बालक नामदेव का बचपन यहीं बीता था।  कैसे बीता था , आप चाहे तो इस पर शोध का सकते हैं ?

कमाठीपुरा, मतलब वेश्याओं का बाजार। वेश्याओं का बाजार मतलब हिजड़े , हिजड़ों के साथ पुलिस, पुलिस के साथ ड्रग-ऐडिक्ट/ क्रिमिनल/ सेक्सली ट्रांसमिटेड डिसिज्ड/ गेंगस्टर/ सुपारी किलर और  सिंगर/ मुजरा डांसर/ तमाशा आर्टिस्ट तथा फ़ूड वेंडर/  इमिग्रेंट लेबर, पान दुकान वाले आदि आदि।  शायद , ऐसा ही कुछ काम्बीनेशन का नाम 'रेड लाइट एरिया' है।

इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आज, नामदेव ढसाल कहाँ रहते हैं। बेशक, पश्चिम मुम्बई के अँधेरी में  उनका आलिशान बँगला है। मगर , यह तो होना ही था।  अगर ऐसा नहीं होता तो फिर,  वह नाली के बजबजाते कीड़े की तरह उसी रेड लाइट एरिया में रहता ?  तो दोस्तों , कमाठिपूरा अर्थात उस रेड लाइट एरिया से मुम्बई अँधेरी की लम्बी दास्तान है।  इस लम्बी दास्ताँ में पीड़ा है, अत्याचार है।  विद्रोह है।  और विद्रोह के साथ सर्वाइव ऑफ़ द फिटेस्ट के कई चक्कर और ट्विस्ट हैं।

नामदेव ढसाल का जन्म महार परिवार में 15 फर 1949 को पुणे (महाराष्ट्र) के पास एक गावं में हुआ था। नामदेव ढसाल को उनकी माँ ने बड़ी गरीबी में पाला था।

महार समाज में पैदा होने से जो विद्रोह की आग एक दलित में होती है,  नामदेव ढसाल के सीने में वह धूं -धूं  कर जल रही थी। अफ्रो-अमेरिकन क्रान्तिकारी संगठन  ब्लैक पेंथर  की तर्ज पर नामदेव ढसाल सन 1972 में  'भारतीय दलित पेंथर '  की स्थापना करते है।

दलित पेंथर जैसे क्रन्तिकारी संगठन को खड़ा करने वाले नामदेव ढसाल अपने जीवन -संगिनी के रूप में एक मुस्लिम युवती (महाराष्ट्र लोक-कला की जानी -मानी हस्ती अमरशेख की पुत्री) मल्लिका को चुनते हैं। कामरेड अमरशेख सोच और विचार में कम्युनिस्ट थे। तब , मल्लिका महाराष्ट्र में एक खूबसूरत गीतकार/ गायिका के रूप में बड़ा नाम हासिल कर चुकी थी। मगर, हालात देखिए कि शादी के समय नामदेव ढसाल अंदर-ग्राउंड रहते हैं। दलित पेंथर एक्टिविस्ट के रूप में उन पर जो दर्जनों मामले कायम थे ?

नामदेव ढसाल की शिक्षा हाई स्कूल से अधिक नहीं हैं। मगर, शब्द और भाषा का जो अधिकार उनके पास है , सचमुच बेमिशाल है । सन 1960  दशक का टेक्सी ड्राइवर आज, मराठी का सर्वश्रेष्ठ कवि और रचनाकार है।

नामदेव ढसाल, जिसकी प्रारंभिक शिक्षा भी ढंग से नहीं होती है, एक प्रख्यात कलमकार कैसे बनता है ?  ये ठीक है कि कमाठीपूरा का नंगा सच उसे दलित पेंथर खड़ा करने को उकसाता है।   मगर , कलमकारी ?  नामदेव ढसाल ने शब्दों को जिन अर्थों में प्रयुक्त किया है , वह कोई भुक्त-भोगी,  व्यवस्था का मारा बंदा ही कर सकता है।  नामदेव ढसाल की  लेखनी में व्यवस्था का जो नंगा सच है , वह उंच जाति और सफेद-झक कपड़ों वालों को नाक में रुमाल रखने को बाध्य करता है।

नामदेव ढसाल की भाषा हिंदी-उर्दू मिश्रित ठेठ मुम्बइया स्टाईल मराठी है। उनके लेखन में वही भाषा है,  जो  मुम्बई के रेड लाइट एरिया में बोली जाती है।

सन 1968-69  के समय  नामदेव ढसाल जब 'दलित पेंथर' को आकर दे रहे थे, समझ गए थे कि कांग्रेस हो या लेफ्ट, किसी की कोई प्राथमिकता जाति-वाद और छुआ-छूत मिटाने की नहीं है और इसलिए उन पर हो रहे अत्याचारों से बचाने कोई आने वाला नहीं है। जो भी करना है , उन्हें खुद करना होगा।

नामदेव ढसाल ने सन 1972 में भारतीय दलित पेंथर की स्थापना की थी।  दलित पेंथर एक स्वेच्छिक संगठन है जिसका जन्म मुम्बई में हुआ था। नामदेव ढसाल , राजा ढाले , अरुण कामले इसके संस्थापक सदस्यों में हैं।
भारतीय दलित पेंथर अफ्रो-अमेरिकन क्रान्तिकारी संगठन  ब्लैक पेंथर से अनुप्रेरित बतलाया जाता है, जो  1966 -82 के दौर में संयुक्त राज्य अमेरिका में सक्रिय रहा। दलित पेंथर में 18  से 30  उम्र वाले दलित नव-युवकों का संगठन है, जो समाज में बदलाव चाहते हैं। फिर, इसके लिए उन्हें हिंसा का सहारा भी क्यों न लेना पड़े।

दलित पेंथर की गतिविधियां  1970 -80 के दशक में अच्छी चली।  मगर, बाद के दिनों में यह संगठन  कमजोर पड़ गया। नामदेव ढसाल चाहते थे कि इसका क्षेत्र विस्तृत कर दलित-इतर जातियों को भी इसमें शामिल
किया जाए।  मगर , ऐसा न हो सका।


नामदेव ढसाल के अनुसार , साहित्य और राजनीति का बड़ा नजदीकी संबंध है। नामदेव ढसाल का पहला काव्य-संग्रह 'गोलपीठा' मुम्बई रेड लाइट एरिया कामतीपुरा के बारे में है। 'गोलपीठा' वास्तव में मुम्बई के रेड लाइट एरिया का नाम है।  यह वही लोकेशन है जिस पर मीरा नायर ने अपनी फ़िल्म 'सलाम बाम्बे ' बनाई। 'गोलपीठा' उन कविताओं का संग्रह हैं, जो दलितों की कठोर जिंदगी को उस भाषा में बयां करती है जिसमे वे जीते हैं , मरते हैं।

नामदेव ढसाल की कविताओं में दुःख, विषाद , गरीबी , भूख, अकेलापन , गन्दी गलियों में बीतता आदमी और औरत का नारकीय जीवन , बिलबिलाते कुपोषित बच्चों का असहाय पन, दलित स्त्री का सन्त्रास आदि सिद्दत से देखे जा सकते हैं।

नामदेव ढसाल ने कविताएं एक खास उद्देश्य से लिखी है। उनका उद्देश्य है , बदलाव।  व्यवस्था का बदलाव। समाज में बदलाव।  लोगों की सोच में बदलाव।  मनुष्य को जानवर समझने का बदलाव। अपने सह-धर्मी को नीच और गैर-बराबर समझने का बदलाव।

सन 1973 में आपका पहला काव्य-संग्रह 'गोलपिठा  ' प्रकाशित हुआ।  दूसरे काव्य-संग्रह ' मूर्ख म्हाताऱ्याने  डोंगर हलविला(1975 ), तुझी इयत्ता कंची (Tuhi Lyatta Kanchi)? , खेल (1983 ) और 'प्रिय-दर्शिनी: आमच्या इतिहासातील एक अपरिहार्य पात्र' , आंबेडकर प्रबोधनी (1981) प्रकाशित हुए।  नामदेव ढसाल के अन्य काव्य-ग्रन्थ  'मी मारले सूर्या च्या  रथाचे सात घोडे(2005 )', तुझे बोट धरुनि चाललो आहो मी(2006 ) , या सत्तेत जिव रमत नाही(1995 ) , गांडू बागीचा(1986 )आदि हैं ।

नामदेव ढसाल के दो उपन्यास प्रकाशित हुए।  आपके द्वारा सम्पादित साप्ताहिक/मासिक पत्रिकाओं के सम्पादकीय लेख का संग्रह  'अम्बेडकरी चरवळ' (1981) और  'आंधळे शतक '(1997) काफी चर्चित रहे। उजेळ चि काळी दुनिया, सर्व काही समस्थि साथी, बुद्ध धर्म : काही शेष प्रश्न आदि हैं।

नामदेव ढसाल एक क्रन्तिकारी तो थे , साथ ही वे एक ऊँच दर्जे के साहित्यिक भी थे। मगर, जो तरजीह देने की वह क़ाबलियत रखते थे, वह उन्हें मिली नहीं।  क्योंकि, भारतीय मीडिया सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। खैर , सवर्ण मीडिया न सही, नामदेव ढसाल की कई पुस्तकें विदेशी भाषाओँ में अनुवादित हुई ।

 सन 1984  में मल्लिका की आत्मकथा 'मला उधवस्थ होयची (I want to destroy my self)' प्रकाशित हुई जिसमे आपने अपने जीवन-संघर्ष का लेखा-जोखा किया है।

सद्य , नामदेव ढसाल की सन 1972 से 2006  के अवधि की कविताओं का संग्रह प्रसिद्द आलोचक दिलीप चित्रे ने  'नामदेव ढसाल : पोयट ऑफ़ थे अण्डर वर्ल्ड ' ( Namdeo Dhasal : Poet of the underworld)  शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद किया है। आपकी कुछ कविताओं का बंगला में भी अनुवाद हुआ है।

यह वाकया आपातकाल के दौर का है। नामदेव ढसाल और उनके दलित पेंथर पर सैकड़ों मामले कायम थे। नामदेव ढसाल ने  दिल्ली जा कर तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात की। आपने उनको बतलाया कि हिन्दू किस तरह दलितों पर अत्याचार करते हैं , उनकी माँ-बहनों से बलात्कार करते हैं और अगर वे प्रतिकार में खड़े होते हैं तब, उनके विरुद्ध सैकड़ों मामले दर्ज करा देते हैं। कहा जाता है कि इस सम्बन्ध में रिपोर्ट बुला कर इंदिरा गांधी ने आरोपित सारे मामले वापिस ले लिए थे।

'इन्डियन रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया' को नामदेव ढसाल ने सन 1990 में ज्वाइन किया था।

सन 1997 की अवधि में कहा जाता है, नामदेव ढसाल शिव सेना के साथ थे। कुछ का कहना है कि वे  सन 2006 में आर एस एस के मंचों पर भी नज़र आए थे । शिवसेना के मुख-पत्र 'सामना ' के लिए नामदेव ढसाल लिखते रहे थे।

नामदेव ढसाल मराठी साप्ताहिकी 'सत्यता ' के सम्पादक रहे थे। 'विद्रोह' नामक मराठी मासिक पत्रिका का आपने सम्पादन किया था।

नामदेव ढसाल को उनके कृतित्व के लिए महाराष्ट्र शासन की ओर से  क्रमशः सन 1973, 1974, 1982, 1983 में साहित्य का पुरस्कार दिया गया था।  सन 1974 में उनके पहले काव्य-संग्रह 'गोलपीठा' पर उन्हें सोवियत लेंड नेहरू अवार्ड मिला।  भारत सरकार  ने सन 1999  में आपको पद्मश्री सम्मान से नवाजा। सन 2001 में बर्लिन में सम्पन्न इंटरनेशनल लिटरेरी फेस्टिवल में आपने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। इस मौके पर आपने जो अपनी कविता पढ़ी थी, उसने विश्व के अलग-अलग देशों से आए प्रतिनिधियों में एक सनसनी पैदा कर दी थी। सन 2004 में साहित्य अकादमी ने आपको 'गोल्ड़न लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड' से नवाजा था ।

खबर है , कुछ समय( सित  2013 )से नामदेव ढसाल बीमार चल रहे हैं। उन्हें डाक्टरों ने कोलोन(पेट की आंत ) केंसर बतलाया है। वे मुम्बई के एक अस्पताल  में भर्ती हैं। हम उम्मीद करते हैं कि वे जिंदगी के संघर्ष में विजयी हो कर बाहर आएँगे
* Photo source: bing.com

New Look: New Capital Raipur(CHH)

न्यू लुक :नया रायपुर (छत्तिसगढ़ )


अपने गावं सालबर्डी में नव-निर्मित बुद्ध विहार के लोकार्पण (20 अक्टू 2013 ) के बाद हम लोग जब व्हाया भिलाई वापिस भोपाल आ रहे थे , तब , हम ने सोचा कि रायपुर की नई कैपिटल; जहाँ डेवलॅप हो रही है , जा कर देखा जाए कि वहाँ क्या प्रगति हुई है ?

जुला 2009 में मैंने वहाँ एक फ्लैट बुक किया था।  मेरा रिटायरमेंट दिस 2010 था।  सोच ये थी रिटायरमेंट के बाद रायपुर में बसना है।
हमारे पास मारुती वेन थी।  मेरे ब्रदर-इन-लॉ अनिल नागदेवे जी और उनके प्यारे-प्यारे दो बच्चों के साथ हम लोग वहाँ पहुंचे जहाँ यह राजधानी डेवलॅप हो रही है।



करीब दो साल पहले जब हम यहाँ आए थे तब ,यहाँ सड़कें तो चौड़ी-चौड़ी बन चुकी थी , मगर पार्क जैसी कोई चीज नहीं थी।  हम जैसे ही मंत्रालय लोकेशन से वापिस  मुड़े , हमारी नजर एक स्थान पर ठहर गई।  यह सचमुच पार्क ही था जिसे एक नए अंदाज में बड़ी ही खूबसूरत तरीके से बनाया गया था।  हम लोगों ने ठहर कर कुछ शॉट्स लिए।  पार्क, वाकई राह चलते शैलानी का मन मोह रहा था।
 

मगर, सवाल अपने जगह तब भी कायम था कि यह केपिटल प्रोजेक्ट इतनी धीमी गति से क्यों चल रहा है  ? मेरे जैसे लोगों ने 4 साल पहले जो क्वार्टर बुक किया था और जिनका पजेशन अब तक नहीं मिला है, और जो पिछले तीन साल से किराये के मकान में रहने को बाध्य है , इसका कौन जिम्मेदार है ?