Friday, May 31, 2019

उ प्र की हार

जब तक बहुजनवादी पार्टियों में जातीय भेदभाव दूर कर गाँव-गाँव ,गली-गली में पहुँचाकर लोगों को यह यकीन नही दिला देतें कि सत्ता और संगठन में जातिगत भेदभाव नही होगा, तब तक बहुजनवादी पार्टियों को जीत की उम्मीद नही करना चाहिए. उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में दोनों पार्टियों बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी पर जातिवाद का आरोप लगाये जा रहें हैं. इसका माकूल जवाब बीएसपी औए एसपी के नेताओं को देना चाहिये. ख़ुद गाँव गाँव पहुँच कर जातीय न्याय पसंद के हजारों नेता तैयार करना चाहिए, ताकि आने वालें समय मे इस सवाल से बच सकें. बीएसपी और एसपी में उनकी ही बिरादरी के नेताओ का राजनीतिक कैरियर सुरक्षित है, इसलिए मजबूत इच्छाशक्ति के साथ त्याग की भी जरूरत हैं.
चुनाव में अल्पसंख्यक समुदाय को “टेकेन फ़ॉर गारेंटेड” नही लिया जाना चाहिए. हमें नहीं सोचना चाहिए कि ये हमें छोड़कर कहा जाएंगे? उत्तर प्रदेश के 18% की आबादी वालें अल्पसंख्यक समुदाय को गठबंधन ने आबादी के अनुसार आधी सीटें भी नही दीं. यहीं हाल पिछड़ो में गैर यादवों और दलितों में गैर जाटव/ चमार की बिरादरी को साधने में एक बार नाकाम हुईं.
दलित, पिछड़ो और अल्पसंख्यक समाज में नई पीढियां आईं हैं, उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति तो है, लेकिन वैचारिक समझ नही हैं, विचारों की परिपक्वता नही हैं. BSP में जिन्हें नौकरी देकर यह काम सौंपा गया वो सब निकम्मे साबित हुए हैं. पैसा आया तो मध्यम वर्गीय दलित और उनके बच्चें भौतिकवादी हो गए. उनकी जीवन शैली बदल गई. लेकिन कैसी बदली हैं सब भूल चुके हैं. जिन्हें याद है, वो व्हाट्सएप से ही क्रांति लाना चाहता हैं.
वह मोहल्ले में अपनी बिरादरी में ही उठने बैठने से कतराता हैं, और दूसरे दलितों से घृणा करता हैं. मौका मिलने पर मोहल्ले से लेकर कार्यालय तक एक दलित दूसरे जाति के दलित को नीचा दिखाने में लगा रहता हैं. BSP की सरकारों में जातिवाद का विष औऱ गाढ़ा किया. गैर जाटव दलित सरकारी महकमों में जातीय भेदभाव के शिकार हुए. कुल मिलाकर इनके अंदर भाईचारा नही बन पाया हैं. जिससे इनकी एकता टूटकर विखर गईं और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी/ BJP) ने उठाया.
पिछड़ो की नुमाइंदगी करने वाली समाजवादी पार्टी में भी गैर यादव पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों ने अपनी उपेक्षा तथा हकमारी से त्रस्त होते रहें हैं. इन्हें भी BJP और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस/ RSS) के लोगों ने उकसाकर अपने पाले में लेने में कामयाब हुए. उन पीड़ितों से गठबंधन के नेताओ को मिलना चाहिये उनके बीच बैठकर उन्हें न्याय दिलाना चाहिए ! यह बड़ा प्रश्न है कि क्या यह नेता न्याय के लिए अपनी ही जाति के अन्यायी ब्यक्तियों के ख़िलाफ़ पीड़ित जातियों के लिए संघर्ष करेंगे? अगर यह हिम्मत जुटा पाएं तो फिर देखिये की दलित, पिछड़ो, अल्पसंख्यकों की एक जुटता कैसे मोदी के जादू को धराशायी कर देती. दलितों पिछड़ो की पार्टियां जिस दिन सचमुच राजनीतिक न्याय देना शुरू कर देंगी. उस दिन फिर यहीं जनता इन्हें सर आंखों में बैठाएगी, और ताक़त बनकर इन्हें जिताएगी भी (लेख : अजय प्रकाश सरोज: शोधार्थी, पत्रकारिता एवं जनसंचार : द नेशनल प्रेस: 27 मई 2019) .

Thursday, May 30, 2019

दलित राजनीति : एस. आर. दारापुरी

डॉ. आंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने ही सब से पहले दलितों के लिए राजनैतिक अधिकारों की लडाई लड़ी थी. उन्होंने ही भारत के भावी संविधान के निर्माण के सम्बन्ध में लन्दन में 1930-32 में हुए गोलमेज़ सम्मलेन में दलितों को एक अलग अल्पसंख्यक समूह के रूप में मान्यता दिलाई थी और अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम, सिख, ईसाई की तरह अलग अधिकार दिए जाने की मांग को स्वीकार करवाया था. 1932 में जब 'कम्युनल अवार्ड' के अंतर्गत दलितों को भी अन्य अल्पसंख्यकों की तरह अलग मताधिकार मिला तो गाँधी जी ने उस के विरोध में यह कहते हुए कि इस से हिन्दू समाज टूट जायेगा, आमरण अनशन की धमकी दे डाली जब कि उन्हें अन्य अल्पसंख्यकों को यह अधिकार दिए जाने में कोई आपत्ति नहीं थी. अंत में अनुचित दबाव में मजबूर होकर डॉ. आंबेडकर को गांधी जी की जान बचाने के लिए 'पूना पैकट' करना पड़ा और दलितों की राजनैतिक स्वतंत्रता के अधिकार की बलि देनी पड़ी तथा संयुक्त चुनाव क्षेत्र और आरक्षित सीटें स्वीकार करनी पड़ीं.
गोलमेज़ कांफ्रेंस में लिए गए निर्णय के अनुसार नया कानून 'गवर्नमेंट आफ इंडिया 1935 एक्ट' 1936 में लागू हुआ. इस के अंतर्गत 1937 में पहला चुनाव कराने की घोषणा की गयी. इस चुनाव में भाग लेने के लिए डॉ. आंबेडकर ने अगस्त 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) की स्थापना की और बम्बई प्रेज़ीडैन्सी में 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 15 सीटें जीतीं. इस के बाद उन्होंने 19 जुलाई, 1942 को आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन बनायी. इस पार्टी से उन्होंने 1946 और 1952 में चुनाव लड़े परन्तु इस में पूना पेक्ट के दुष्प्रभाव के कारण उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली. फलस्वरूप 1952 और 1954 के चुनाव में डॉ. आंबेडकर स्वयं हार गए. अंत में उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) नाम से नयी पार्टी बनाने की घोषणा की. इस के लिए उन्होंने इस पार्टी का संविधान भी बनाया. वास्तव में यह पार्टी उन के परिनिर्वाण के बाद 3 अक्तूबर, 1957 को अस्तित्व में आई. इस विवरण के अनुसार बाबासाहेब ने अपने जीवन काल में तीन राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं. इन में से वर्तमान में आरपीआई अलग अलग गुटों के रूप में मौजूद है.
वर्तमान संद्धर्भ में यह देखना ज़रूरी है कि बाबासाहेब ने जिन राजनैतिक पार्टियों के माध्यम से राजनीति की, क्या वह जाति की राजनीति थी या विभिन्न वर्गों के मुद्दों की राजनीति थी. इस के लिए उन द्वारा स्थापित पार्टियों के एजंडा का विश्लेषण ज़रूरी है.
आइए सब से पहले बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टी को देखें. डॉ. आंबेडकर ने अपने ब्यान में पार्टी के बनाने के कारणों और उसके काम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था- “इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आज पार्टियों को सम्प्रदाय के आधार पर संगठित करने का समय नहीं है, मैंने अपने मित्रों की इच्छायों से सहमति रखते हुए पार्टी का नाम तथा इस के प्रोग्राम को विशाल बना दिया है ताकि अन्य वर्ग के लोगों के साथ राजनीतिक सहयोग संभव हो सके. पार्टी का मुख्य केंद्रबिंदु तो दलित जातियों के 15 सदस्य ही रहेंगे परन्तु अन्य वर्ग के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकेंगे.” पार्टी के मैनीफिस्टो में भूमिहीन, गरीब किसानों और पट्टेदारों और मजदूरों की ज़रूरतों और समस्यायों का निवारण, पुराने उद्योगों की पुनर्स्थापना और नए उद्योगों की स्थापना, छोटी जोतों की चकबंदी, तकनीकी शिक्षा का विस्तार, उद्योगों पर राज्य का नियंत्रण, भूमि के पट्टेदारों का ज़मीदारों द्वारा शोषण और बेदखली, औद्योगिक मजदूरों के संरक्षण के लिए कानून, सभी प्रकार की कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावाद को दण्डित करने, दान में मिले पैसे से शिक्षा प्रसार, गाँव के नजरिये को आधुनिक बनाने के लिए सफाई और मकानों का नियोजन और गाँव के लिए हाल, पुस्तकालय और सिनेमा घर आदि का प्रावधान करना था. पार्टी ने मुख्यतया किसानों और गरीब मजदूरों के कल्याण पर बल दिया था. पार्टी की कोशिश लोगों को लोकतंत्र के तरीकों से शिक्षित करना, उन के सामने सही विचारधारा रखना और उन्हें कानून द्वारा राजनीतिक कार्रवाही के लिए संगठित करना आदि थी. इस से सपष्ट है इस पार्टी की राजनीति जातिवादी न होकर वर्ग और मुद्दा आधारित थी और इस के केंद्र में मुख्यतया दलित थे. यह पार्टी बम्बई विधान सभा में सत्ताधारी कांग्रेस की विपक्षी पार्टी थी. इस पार्टी ने अपने कार्यकाल में बहुत जनोपयोगी कानून बनवाये थे. इस पार्टी के विरोध के कारण ही फैक्टरियों में हड़ताल पर रोक लगाने सम्बन्धी औद्योगिक विवाद बिल पास नहीं हो सका था.
अब बाबा साहेब द्वारा स्थापित 1942 में स्थापित आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन के उद्देश्य और एजंडा को देखा जाये. डॉ. आंबेडकर ने इसे सत्ताधारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच संतुलन बनाने के लिए तीसरी पार्टी के रूप में स्थापित करने की बात कही थी. पार्टी के मैनिफिस्टो में कुछ मुख्य मुद्दे थे: सभी भारतीय समानता के अधिकारी हैं, सभी भारतियों के लिए धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता की पक्षधरता; सभी भारतियों को अभाव और भय से मुक्त रखना राज्य की जिम्मेवारी है, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का संरक्षण; आदमी का आदमी द्वारा, वर्ग का वर्ग द्वारा तथा राष्ट्र का राष्ट्र द्वारा उत्पीड़न और शोषण से मुक्ति और सरकार की संसदीय व्यवस्था का संरक्षण, आर्थिक प्रोग्राम के अंतर्गत बीमा का राष्ट्रीयकरण और सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य बीमा योजना और नशेबंदी का निषेध था. यद्यपि यह पार्टी पूना पैक्ट के कारण शक्तिशाली कांग्रेस के सामने चुनाव में कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सकी परन्तु पार्टी के एजंडे और जन आंदोलन जैसे भूमि आन्दोलन आदि के कारण अछूत एक राजनीतिक झंडे के तल्ले जमा होने लगे जिस से उन में आत्मविश्वास बढ़ने लगा. फेडरेशन के प्रोग्राम से स्पष्ट है कि यदपि इस पार्टी के केंद्र में दलित थे परन्तु पार्टी जाति की राजनीति की जगह मुद्दों पर राजनीति करती थी और का फलक व्यापक था.
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि बाबा साहेब ने बदलती परिस्थितियों और लोगों की ज़रुरत को ध्यान में रख कर एक नयी राजनीतिक पार्टी “रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया” की स्थापना की घोषणा 14 अक्तूबर, 1956 को की थी और इस का संविधान भी उन्होंने ही बनाया था. इस पार्टी को बनाने के पीछे उन का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किये गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उस का उद्देश्य हो. वे इसे केवल अछूतों की पार्टी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि एक जाति या वर्ग के नाम पर बनायी गयी पार्टी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती. वह केवल दबाव डालने वाला ग्रुप ही बन सकती है. आरपीआई की स्थापना के पीछे मुख्य ध्येय थे: (1) समाज व्यवस्था से विषमतायें हटाई जाएँ ताकि कोई विशेषाधिकार प्राप्त तथा वंचित वर्ग न रहे, (2) दो पार्टी सिस्टम हो एक सत्ता में दूसरा विरोधी पक्ष, (3) कानून के सामने समानता और सब के लिए एक जैसा कानून हो, (4) समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना, (5) अल्पसंख्यक लोगों के साथ सामान व्यवहार, (6) मानवता की भावना जिस का भारतीय समाज में अभाव रहा है.
पार्टी के संविधान की प्रस्तावना में पार्टी का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य “ न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुता” को प्राप्त करना था. पार्टी का कार्यक्रम बहुत व्यापक था. पार्टी की स्थापना के पीछे बाबा साहेब का उद्देश्य था कि अल्पसंख्यक लोग, गरीब मुस्लिम, गरीब ईसाई, गरीब तथा निचली जाति के सिक्ख तथा कमज़ोर वर्ग के अछूत, पिछड़ी जातियों के लोग, आदिम जातियों के लोग, शोषण का अंत, न्याय और प्रगति चाहने वाले सभी लोग एक झंडे के तल्ले संगठित हो सकें और पूंजीपतियों के मुकाबले में खड़े होकर संविधान तथा अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें. (दलित राजनीति और संगठन - भगवान दास)
आरपीआई की विधिवत स्थापना बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद 1957 में हुयी और पार्टी ने नए एजंडे के साथ 1957 व 1962 का चुनाव लड़ा. पार्टी को महाराष्ट्र के इलावा देश के अन्य हिस्सों में भी अच्छी सफलता मिली. शुरू में पार्टी ने ज़मीन के बंटवारे, नौकरियों में आरक्षण, न्यूनतम मजदूरी, दलितों से बौद्ध बने लोगों लिए आरक्षण आदि के लिए संघर्ष किया. पार्टी में मुसलमान, सिक्ख और जैन आदि धर्मों के लोग शामिल हुए. उनमें पंजाब के जनरल राजिंदर सिंह स्पैरो, दिल्ली में डॉ. अब्बास मलिक, उत्तर प्रदेश में राहत मोलाई, डॉ. छेदी लाल साथी, नासिर अहमद, बंगाल में श्री एस. एच .घोष आदि प्रसिद्ध व्यक्ति और कार्यकर्ता हुए. 1964 में 6 दिसंबर से फरवरी 1965 तक पार्टी ने स्वतंत्र भारत में ज़मीन के मुद्दे को लेकर पहला जेल भरो आन्दोलन चलाया जिस में तीन लाख से अधिक दलित जेल गए. सरकार को मजबूर हो कर भूमि आबंटन और कुछ अन्य मांगें माननी पड़ीं. इस दौर में आरपीआई दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की एक मज़बूत पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई. परन्तु 1962 के बाद यह पार्टी टूटने लगी. इस का मुख्य कारण था कि इस पार्टी से उस समय की सब से मज़बूत राजनैतिक पार्टी कांग्रेस को महाराष्ट्र में खतरा पैदा हो रहा था. इस पार्टी की एक बड़ी कमजोरी थी कि इसकी सदस्यता केवल महारों तक ही सीमित थी. कांग्रेस के नेताओं ने इस पार्टी के नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर पार्टी में तोड़फोड़ शुरू कर दी. सब से पहले उन्होंने पार्टी के सब से शक्तिशाली नेता दादा साहेब गायकवाड़ को पटाया और उन्हें राज्य सभा का सदस्य बना दिया. इस पर पार्टी दो गुटों में बंट गयी: गायकवाड़ का एक गुट कांग्रेस के साथ और दूसरा बी.डी.खोब्रागडे गुट विरोध में. इस के बाद अलग नेताओं के नाम पर अलग गुट बनते गए और वर्तमान में यह कई गुटों में बंट कर बेअसर हो चुकी है. इन गुटों के नेता रिपब्लिकन नाम का इस्तेमाल तो करते हैं परन्तु उन का इस पार्टी के मूल एजंडे से कुछ भी लेना देना नहीं है. वे अपने अपने फायदे के लिए अलग पार्टियों से समझौते करते हैं और यदाकदा लाभ भी उठाते हैं.
आरपीआई के पतन के बाद उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नाम से एक पार्टी उभरी जिस ने बाबा साहेब के मिशन को पूरा करने का वादा किया. शुरू में इस पार्टी को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. बाद में 1993 में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ मिल कर चुनाव लड़ने से इस पार्टी को अच्छी सीटें मिलीं और एक सम्मिलित सरकार बनी. परन्तु कुछ व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण जल्दी ही इसका पतन हो गया. इस पार्टी के नेता कांशी राम ने सत्ता पाने के लालच में दलितों की घोर विरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से समझौता करके मुख्य मंत्री की कुर्सी हथिया ली परन्तु बाबा साहेब के मिशन और सिद्धांतों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी. इस के बाद पार्टी ने दो बार फिर भाजपा से गठबंधन किया और सत्ता सुख भोगा और अब अपने पतन की ओर अग्रसर है. इस पार्टी ने अवसरवादी, ब्राह्मणवादी, माफिययों और पूंजीपति तत्वों को पार्टी में शामिल करके दलितों को मायूस किया और उन्हें राज्य से मिलने वाले कल्याणकारी लाभों से वंचित कर दिया. इस के नेतृत्व के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार, तानाशाही, अवसरवादिता और अदूरदर्शिता से बाबा साहेब के नाम पर दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की बनी एकता छिन्न- भिन्न हो गयी है. आज दलितों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्टी से टूट कर हिन्दुत्ववादी भाजपा के साथ चला गया है. दलितों की एक प्रमुख जाति चमार/जाटव को छोड़ कर दलितों की शेष उपजातियां अधिकतर भाजपा की तरफ चली गयी हैं. भाजपा इन जातियों का इस्तेमाल दलितों और मुसलामानों के बीच टकराव करवाने के लिए कर रही है. इस से हिंदुत्व मज़बूत हुया है और बहुसंख्यकवाद उग्र होता जा रहा है.

उपरोक्त विवेचन से एक बात बहुत स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर जाति की राजनीति के कतई पक्षधर नहीं थे क्योंकि इस से जाति मजबूत होती है. इस से हिंदुत्व मजबूत होता है जो कि जाति व्यवस्था की उपज है. डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य तो जाति का विनाश करके भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना था. डॉ. आंबेडकर ने जो भी राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं वे जातिगत पार्टियाँ नहीं थीं क्योंकि उन के लक्ष्य और उद्देश्य व्यापक थे. यह बात सही है कि उनके केंद्र में दलित थे परन्तु उन के कार्यक्रम व्यापक और जाति निरपेक्ष थे. वे सभी कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए थे. इसी लिए जब तक उन द्वारा स्थापित की गयी पार्टी आरपीआई उन के सिद्धांतों और एजंडा पर चलती रही तब तक वह दलितों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने में सफल रही. जब तक उसमें में आन्तरिक लोकतंत्र रहा और वे जन मुद्दों को लेकर संघर्ष करती रही तब तक वह फलती फूलती रही. जैसे ही वह व्यक्तिवादी और जातिवादी राजनीति के चंगुल में पड़ी उसका पतन हो गया.
अतः यदि वर्तमान में विघटित दलित राजनीति को पुनर्जीवित करना है तो दलितों को जातिवादी राजनीति से बाहर निकल कर व्यापक मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा. जाति के नाम पर राजनीति करके व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि करने वाले नेताओं से मुक्त होना होगा. उन्हें यह जानना चाहिए कि जाति की राजनीति जाति के नायकों की व्यक्ति पूजा को मान्यता देती है और तानाशाही को बढ़ावा देती है. जाति की राजनीति में नेता प्रमुख हो जाते हैं और मुद्दे गौण. अब तक के अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि जाति की राजनीति से जाति टकराव और जाति स्पर्धा बढ़ती है जो कि जातियों की एकता में बाधक है. इसी के परिणामस्वरूप दलितों की कई छोटी उपजातियां बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुश्मन हिन्दुत्ववादी पार्टियों से जा मिली हैं जो कि दलित एकता के लिए बहुत बड़ा खतरा है. अतः इस खतरे के सम्मुख यह आवश्यक है कि दलित वर्ग अपनी राजनैतिक पार्टियों और राजनेताओं का पुनर मूल्यांकन करे और जाति की विघटनकारी राजनीति को नकार कर जनवादी, प्रगतिशील और मुद्दा आधारित राजनीति का अनुसरण करे जैसा कि डॉ. आंबेडकर की अपेक्षा थी. दरअसल अब देश को जातिवादी पार्टियों की ज़रुरत नहीं बल्कि सब के सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की ज़रुरत है, अन्यथा जातियां मज़बूत होती रहेंगी जिस से धर्म की राजनीति को पोषण मिलता रहेगा जो वर्तमान में लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है( एस. आर. दारापुरी : राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट).

Wednesday, May 29, 2019

जातिय प्रताड़ना

लोकसभा चुनाव में बंपर बहुमत मिलने के बाद 25 मई 2019 को जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संविधान पर माथा टेक रहे थे. ठीक उसी समय तीन ब्राह्मणवादी महिला डाक्टरों डॉक्टर हेमा आहूजा, डॉक्टर भक्ति मेहर और डॉक्टर अंकिता खंडेलवाल की ओर से किए गए जातीय, नस्लीय और अमानवीय प्रताड़ना से तंग आकर महाराष्ट्र के जलगांव निवासी 26 साल की भील आदिवासी महिला डॉक्टर पायल तड़वी की आत्महत्या की खबरें सोशल मीडिया पर तैर रही थीं. इससे आहत लोग इस ब्राह्मणवादी संस्थागत हत्या के खिलाफ न्याय की मांग कर रहे थे.
इस बीच 26 मई 2018 को बीफ खाने को लेकर 29 मई 2017 को किए गए फेसबुक पोस्ट के आधार पर झारखंड के जमशेदपुर निवासी संताल आदिवासी प्रोफेसर जितराई हांसदा को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. पुलिस ने बताया कि प्रोफेसर जितराई हांसदा के बीफ खाने से संबंधित फेसबुक पोस्ट ने लोगों के धार्मिक भावनाओं को आहत कर दिया था, इसलिए उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा. इन दोनों घटनाओं का संबंध आदिवासियों से ब्राह्मणवाद के आहत होने से जुड़ा है. पहली घटना में एक भील आदिवासी लड़की का डॉक्टर बनना तीन ब्राह्मणवादी डॉक्टरों को पच नहीं रहा था. इन डॉक्टरों ने पायल तड़वी को ड्यूटी के समय जमकर प्रताड़ित किया. फिर भी जब उनका मन नहीं भरा तब उन्होंने वाट्सप ग्रुप में पायल के खिलाफ जातीय और नस्लीय संदेश भेजा. उनका वाट्सऐप संदेश उनके अंदर कूट-कूटकर भरी जातीय और नस्लीय नफरत को दर्शाता है.
वाट्सऐप संदेश में उन्होंने लिखा, ''तुम आदिवासी लोग जंगली होते हो, तुमको अक्कल नहीं होती...तू आरक्षण के कारण यहां आई है...तेरी औकात है क्या हम ब्राह्मणों से बराबरी करने की...तू किसी भी मरीज को हाथ मत लगाया कर वे अपवित्र हो जाएंगे...तू आदिवासी नीच जाति की लड़की मरीजों को भी अपवित्र कर देगी...! डॉक्टर पायल तड़वी ने हॉस्पिटल प्रशासक से इसके बारे में मौखिक शिकायत की थी लेकिन इन डॉक्टरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई. इससे स्पष्ट है कि एक आदिवासी लड़की के डॉक्टर बनने से न सिर्फ ये तीन ब्राह्मणवादी डाक्टरों को दिक्कत थी बल्कि हॉस्पिटल प्रशासक भी आहत थे. इन ब्राह्मणवादी डॉक्टरों को यह नहीं मालूम था कि आदिवासी भारत के वर्ण व्यवस्था से निकले जाति व्यवस्था के तहत नहीं आते हैं. इसलिए यदि वे उच्च जातियों में नहीं गिने जाते हैं तो वे नीच जातियों में भी नहीं हैं, बल्कि उनकी अपनी अलग व्यवस्था है, जिसका मूल आधार सामूहिकता, समानता, स्वायत्तता, न्याय और भाईचारा है.
आदिवासी ‘ब्राह्मा’ के किसी भी अंग से पैदा नहीं हुए हैं. इसलिए आदिवासियों को नीच जाति के लोग कहना ब्राह्मणवादियों की अज्ञानता का प्रतीक है. सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले 'कैलाश बनाम अन्य और महाराष्ट्र सरकार' में कहा है कि देश के 8 फीसदी आदिवासी ही भारत के प्रथम निवासी और मालिक हैं. और अन्य 92 फीसदी प्रतिशत लोग आक्रमणकारियों और व्यापारियों के वंशज हैं. इसलिए ब्राह्मणवादियों को यह मालूम होना चाहिए के वे भारत के निवासी नहीं हैं. उन्हें आदिवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार करने का कोई हक नहीं है.
इन ब्राह्मणवादी डॉक्टरों के वाट्सऐप संदेश में यह साफ दिखता है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद इन तथाकथित उच्च जातियों के लोगों में मानव होने का गुण अबतक विकसित नहीं हुआ है. प्रोफेसर जितराई हांसदा के मसले का विश्लेषण यह साबित करता है कि ब्राह्मणवादी अपने अनैतिक कार्यों को न्यायोचित ठहराने और उसे छुपाने में माहिर हैं. प्रोफेसर जितराई हांसदा के साथ हुए असंवैधानिक कार्रवाई ने स्पष्ट कर दिया है कि ब्राह्मणवादी लोग सिर्फ उनके आदिवासी होने के कारण आहत थे न कि बीफ से क्योंकि बीफ को लेकर हकीकत कुछ और ही है.

देश में पिछले पांच साल से बीफ पर राजनीति करने वाले संघ परिवार की पार्टी भाजपा की सरकार है. लेकिन यहां बीफ का कारोबार फल-फूल रहा है. 2018 में भारत विश्व का दूसरा बीफ निर्यातक देश बना है जबकि ब्राजील प्रथम देश है. पिछले साल ब्राजील ने 18.55 लाख मिट्रिक टन और भारत ने 18.50 लाख मिट्रिक टन बीफ का निर्यात किया. इसके लिए कितने गाय-बैल और भैंसों को काटा गया होगा कल्पना नहीं की जा सकती है. लेकिन इससे ब्राह्मणवादी आहत नहीं हुए हैं. उन्होंने न भाजपा नेताओं पर सवाल किया और न ही पार्टी का विरोध?
सबसे रोचक बात यह है कि देश की सबसे बड़ी बीफ निर्यातक कंपनी है ‘अल कबीर एक्सपोर्टस प्राइवेट लिमिटेड है. इसने बीफ से 650 करोड़ रुपये कमाया. इस कंपनी का मालिक सतीश सब्बरवाल है. इसी तरह अरेबियन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के मालिक सुनील कपूर हैं. एमकेआर फ्रोजेन फूड एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के मालिक मदन अबोट, पीएफएल इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड के मालिक एएस बिंद्रा, एओबी एक्सपोर्टस प्राइवेट लिमिटेड के मालिक ओपी अरोड़ा, स्टैन्डर्स फ्रोजेन फूड एक्सपोर्टस प्राइवेट लिमिटेड के मालिक कमल वर्मा और महाराष्ट्र फूड प्रोसेसिंग एंड कोल्ड स्टोरेज प्राइवेट लिमिटेड के मालिक सन्नी कट्टर हैं.
इनके अलावा और कई बीफ निर्यातक कंपनियां हैं, जिनके मालिक खुद सवर्ण हिंदू हैं. लेकिन इससे भी ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं. संघी लोग न इनके उपर हमला करते हैं और न ही उनके खिलाफ कोई मुकदमा. यदि कोई आदिवासी बीफ एक्पोर्ट कंपनी चलाता तब क्या होता? निश्चित ही तब ब्राह्मणवादी, मनुवादी और संघियों की धार्मिक भवनाएं आहत होतीं. मजेदार बात यह है कि संघियों और ब्राह्मणवादियों की पार्टी भाजपा ने बीफ निर्यातक कंपनियों से चंदा लिया है. चुनाव आयोग की वेबसाइट के मुताबिक बीफ निर्यातक कंपनी फ्राइगोरीफिको अल्लाना प्राइवेट लिमिटेड ने भाजपा को चेक के माध्यम से 2013-14 में 75 लाख रुपये और 2014-15 में 50 लाख रुपये का चंदा दिया था. इसी तरह बीफ निर्यातक कंपनी इनडाग्रो फूट्स लिमिटेड ने भाजपा को 75 लाख रुपये और फ्राइगेरिया कॉनवेरवा अल्लाना लिमिटेड ने 50 लाख रुपये चंदा दिया.
यह हैरान करने वाली बात है कि बीफ बेचने वाली कंपनियों से चंदा लेने के बावजूद भाजपा से ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं. लेकिन एक फेसबुक पोस्ट से उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचता है. ऐसा क्यों? इतना ही नहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 2 जुलाई 2017 को कहा था कि गोवा में बीफ पर प्रतिबंध नहीं लगेगा. इसी तरह 18 जुलाई 2017 को भाजपा नेता और गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने विधानसभा में कहा था कि गोवा में बीफ की कमी न हो यह सुनिश्चित किया जाएगा. गोवा के अलावा पूर्वात्तर के जिन राज्यों में भाजपा की सरकार है, वहां बीफ का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है. लेकिन बीफ पर दिए गए भाजपा नेताओं के बयान और भाजपा सरकारों के द्वारा बीफ उधोग को दिए गए संरक्षण से ब्राह्मणवादी आहत नहीं होते हैं. लोग हैरान हैं कि आदिवासियों के बीफ खाने से ब्राह्मणवादियों की भावनाएं क्यों आहत होती हैं?
सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना करने वाले संघियों के हृदयसम्राट विनायक दामोदर सावरकर ने मराठी भाषा में लिखी गई किताब 'विज्ञाननिष्ठ निबंध' में लिखा है, ''गाय की देखभाल कीजिए लेकिन पूजा नहीं.'' वे लिखते हैं, ''ईश्वर सर्वोच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है. गाय तो एक ऐसा पशु है जिसके पास मुर्ख से मुर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती. गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य से ऊपर समझना, मनुष्य का अपमान है.'' वे आगे लिखते हैं, ''गाय एक तरफ से खाती है और दूसरी तरह से गोबर और मूत्र विसर्जित करती रहती है. जब वह थक जाती है तो अपनी ही गंदगी पर बैठ जाती है. फिर वह अपनी पूंछ से यह गंदगी अपने पूरे शरीर पर फैला देती है, एक ऐसा प्राणी जो स्वच्छता को नहीं समझता उसे देवी कैसे माना जा सकता है.?'' लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावना को सावरकर भी आहत नहीं करते हैं लेकिन प्रोफेसर जितराई हांसदा का एक फेसबुक पोस्ट आहत करता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रारंभ से ही ब्राह्मणवादी लोग अपने कुकर्मों को न्यायोचित ठहराते रहे हैं. उनकी कथनी और करनी में जमीन-असमान का फर्क है. वे हमेशा दोहरी नीति अपनाते हैं. जब वे बीफ खाते या बीफ से पैसा कमाते हैं तब वह कार्य पवित्र होता है लेकिन जब वही काम दूसरे करते हैं तब वे उसे पाप का दर्जा देते हैं.
इसलिए हमें यह समझना पड़ेगा कि कैमरे के सामने संविधान पर माथा टेकने का अभिनय करना और संविधान को जमीन पर लागू करना दोनों अलग-अलग बातें हैं. अवसर की समता और भोजन का अधिकार हमारा मौलिक आधिकार है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15, 16 और 21 में प्रदत्त है. इसके अलावा अनुच्छेद 17 के जरिए छुआछूत और भेदभाव को खत्म कर दिया गया है. इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर और भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करना सरकार की पहली जिम्मेदारी है. लोग बीफ, मटन, चिकन, डॉग या कैट खाएं यह उनका मौलिक अधिकार है. इसलिए प्रश्न उठता है कि संविधान पर माथा टेकने वालों ने डॉक्टर पायल तड़वी और प्रोफेसर जितराई हांसदा के मौलिक अधिकारों की रक्षा क्यों नहीं की? क्या उनके दिलो-दिमाग में भी ब्राह्मणवाद राज्य करता है, जो आदिवासियों से आहत हो चुका है?
ग्लैडसन डुंगडुंग: लेखक एक्टिविस्ट

Monday, May 27, 2019

सुभासतानि

1- सब्बीतियो विवज्जन्तु, सब्ब रोगो विनस्सतु।
मा ते भवतु अन्तरायो, सुखी दीघायु को भव। । उदान

सब्बे ते भवा अनिच्चा, दुक्खा विपरिणाम धम्मा
(संसार के सभी पदार्थ अनित्य, दुक्खद  और विपरीत  परिणामदायी हैं )

चंद यथा खयातीतं, पेच्च अन्जलिका जना।
वन्दमाना नमस्सन्ति, एवं लोकस्मिं गोतमं।।

ति-चीवरं च पत्तो च, वासि  सूचि  च बंधनं।
परिसावनेन अट्ठे ते, युत्त योगस्स भिक्खुनो।।

अन्नदो बलदो होति, वत्थदो होति वण्णदो।
यानदो होति सुखदो, दीपदो होति चक्खु दो।। विनय पिटक

दानं सीलं च नेक्खम्मं, पञ्ञा विरियेन च पञ्चमं।
खन्ति सच्चं अधिट्ठानं, मेेत्त उपेक्खा इतिमे दस।।

अधिवासेतु नो भंते, भोजनं परिकप्पितं।
अनुकम्पं उपादाय, पटिगहाण्तु उत्तमं।।

एकेन भोगे भुञ्जेय्य, द्वीहि कम्म पयोजये।
चतुत्थं च निधापेय्य, आपदासु भविस्सति।। सिगालोवाद सुत्त: दीघनिकाय

अदन्तं दमनं दानं, दानं सब्बत्थ साधकं।
दानेय पिय वाचाय, उन्नमन्ति नमन्ति च।। विसुद्धि मग्ग

सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञो, चित्त पञ्ञं  च भावयं।
आतापि निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जटं।। विसुद्धि मग्ग

यो पाणमति पातेति, मूसा वादं च भासति।
लोके आदिन्नं आदियति, परदारं च गच्छति।
सुरा मेरय पानं च, यो नरो अनु-युञ्जति।
इधे'व्  लोकस्मिं, मूल खनति  अत्तनो।। धम्मपद :246

सब्बे बुद्धा बल पत्ता, पच्चेकानं यं च बलं।
अरहन्तानं तेजेन, रक्ख बन्धामि सब्ब सो।।

अभिवादन-सीलस्स, निच्चं वुद्धापचायिनो।
चत्तारो धम्मा वड्ढन्ति, आयु, वण्णो, सुखं बल।। धम्मपद: 109
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अनु-युञ्जति- शामिल होना।अभिवादन-सीलस्स- अभिवादन सही धर्मी के।







को फुस्सति ?

"भंते ! को  फुस्सति ?
भंते ! कौन स्पर्श करता है ?  -बौद्ध भिक्खु मोळिय फग्गुन ने भगवान से पूछा ।
एसो नो कल्लो पन्हो।
यह योग्य प्रश्न नहीं है, भगवान ने कहा।
फुस्सति,  अहं न वदामि।
स्पर्श होता है, मैंने नहीं कहता हूँ ।

फुस्सति च अहं वदेय्य,
स्पर्श करता है, यदि मैं कहता
तत्र अस्स कल्लो पन्हो-
तब वहां ऐसा प्रश्न होता-
भंते ! को फुस्सति ?
भंते ! कौन स्पर्श करता है ?
एवं अहं च न वदामि।
किन्तु मैं ऐसा नहीं कहता।

एवं मं अवदन्तं यो एवं पुछेय्य-
मेरे ऐसा बोलने पर कोई पूछता-
भंते ! किंं पच्चया फुस्सति ?
एसो कल्लो पन्हो।
यह योग्य प्रश्न है।
तत्र कालं वेय्याकरणं
तब उसका सही उत्तर होता -
सळायतन पच्चया फुस्सति ।
सळायतन होने से स्पर्श होता है।
फस्स पच्चया वेदना।
स्पर्श से वेदना होती है.

किं पच्चया भंते ! वेदना ?
किस के होने से वेदना होती है ?
फस्स पच्चया वेदना।
स्पर्श के होने से वेदना होती है।
वेदना पच्चया तण्हा।
वेदना को होने से तण्हा होती है।

किंं पच्चया भंते ! तण्हा ?
किस के होने से तण्हा होती है ?

तण्हा पच्चया उपादान
तण्हा के होने से उपादान होता है।
उपादान पच्चया भव।
उपादान के होने से भव होता है।
भव पच्चया जाति, जरा, मरण
भव के होने से जाति, जरा, मरण होता है।
एवं एतस्स केवलस्स दुक्ख-खंधस्स समुदयो होती।
और इस तरह, सारे दुक्ख-समुदय का उदय होता है।
स्रोत- मोळिय-फग्गुन सुत्त (12-2-2): संयुत्त निकाय: निदान वग्गो
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मोळिय-फग्गुन- भिक्खु का नाम । कल्ल- योग्य, दक्ष।

सामाजिक नव-निर्माण का अवसर

सामाजिक नव-निर्माण का अवसर
असाधारण परिस्थितियां ही किसी नव-निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती है, इतिहास साक्षी है. जहाँ-जहाँ सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, वहां-वहां उसके पूर्व, असामान्य राजनैतिक परिस्थितियां निर्मित हुई है.
सामान्य स्थिति में वह उर्जा ही नहीं होती कि वह कोई नव-निर्माण कर सकें. दरअसल, किसी नव-निर्माण के लिए बड़ी मात्रा में उर्जा की जरुरत होती है, जो सामान्य स्थितियों में पैदा नहीं होती. दूसरे शब्दों में, असामान्य परिस्थितियां, नव-सृजन की पूर्वगामी हैं. वे घर्षण और प्रति-घर्षण के कारण आवश्यक वातावरण निर्माण करती है, क्रांति का सूत्रपात करती है.
यह एक मान्य तथ्य है कि दक्षिण ध्रुव होगा, तभी उत्तरी ध्रुव होगा. ध्रुवीकरण के लिए एक ध्रुव का होना पूर्व शर्त है. दक्षिणी ध्रुव बन चूका है. स्पष्ट है, उत्तरी ध्रुव का बनना तय है. आप उसे नहीं रोक सकते, क्योंकि यही प्रकृति का नियम है. आपको बस, इन उत्तर ध्रुवीय हवाओं का केंद्र बनकर एक प्रचंड चक्रवात में तब्दील होना है.
इस नव-सृजन की पीड़ा को एक गर्भवती स्त्री से अधिक कौन जान सकता है ? यह उसके जीने- मरने की स्थिति होती है. देश की दलित शोषित पीड़ित जातियां जीने-मरने की इस असामान्य स्थिति को अपनी सामाजिक लामबंदी के नव-निर्माण के लिए प्राप्त, एक अवसर के रूप में ले. 

Saturday, May 25, 2019

EVM की विश्वनीयता खतरे में

EVM की विश्वनीयता खतरे में
1.क्या ऐसी कोई मशीन है जिसे temper नहीं किया जा सकता ?
2. अगर EVM इतनी ही temper proof तो भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने 
    EVM की विश्वसनीयता पर सुप्रीम कोर्ट में क्यों सवाल खड़ा किए थे ?
3. आखिर, बीजेपी EVM की एकतरफा पैरवी क्यों करती है ?
4.EVM के सवाल पर चुनाव आयोग क्यों बीजेपी का पक्ष लेता है ?
5. मोदी विरोधी माहौल होने के बावजूद एक्झिस्ट पोल बीजेपी को 350 सीटों देता है और परिणाम भी यही आता है ?
6. उम्मीदवारों को मिले वोटों की संख्या की डिजिट आश्चर्यजनक रूप बार-बार रिपीट होती है ?
7.Hang होने अथवा कोई खराबी आने पर EVM क्यों सारे वोट बीजेपी को दिखाती है ?

हम लड़ेंगे साथी: पाश

हम लड़ेंगे साथी, 
उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, 
ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी,
ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है,
उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं 
चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, 
प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब तक बन्दूक न हुई, 
तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, 
लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, 
लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे.

अंधड़ में टिके रहना

अंधड़ में टिके रहना
बहन मायावती और अखिलेश ने जो किया, ऐतिहासिक और अभिनंदनीय है. नकली 'राष्ट्रीयता' के अंधड़ में इतनी सीटें लाकर उ प्र. के इन दोनों सामाजिक ध्रुवीय शक्तियों ने अपने तईंं सार्थक प्रयास और नेकनीयत का सबूत दिया है. जो लोग बहन मायावती की बुराई करते हैं, उन्हें अपने अन्दर झांकना चाहिए कि वे अगर ऐसा नहीं करते, तो निस्संदेह इस महा गठबंधन की कुछ सीटें और बढ़ जाती.
चाहे हिन्दू महासभा के तोगड़िया; जैसे तीसमार खां हो या शिवसेना के राज ठाकरे, पूरे समय मोदीजी को कोसते रहें किन्तु जनता से वोट मांगते समय सब मोदीजी के साथ मजबूती से खड़े हो गए. क्या बहन मायावती को कोसने वाले इनसे कुछ सबक लेने तैयार हैं 

Opportunity for social revolution

Opportunity for social revolution
Crisis generates leadership; Crisis is primarily condition for Social revolution. It is time tested equation for social revolution, say Dalit Voice Editor Rajashekhar. Dalit, together with their co-sufferer ST brothers and Minorities say, Muslim+ Christians must take this crisis as a opportunity for their joint Front.

Where there is no caste bar:Outlook :20 Aug. 2012

Where there is no caste bar
(Outlook :20 Aug. 2012)
Bhimrao Ambedkar treated inter-caste marriage as a solvent of caste hierarchy. In 1948, at age 56, he married Dr Sharda Kabir, a Saraswat Brahmin. The New York Times described the union as being more significant than the wedding of a royal to a commoner. Most marriages still fall within the strictures of societal rules, but there are couples who have defied the boundaries of the caste taboo and followed in Ambedkar’s footsteps. While the caste factor is incidental for some, all of them do believe that inter-caste unions can chip away at stereotypes.
Geddam Jhansi was as nervous as any other bride the day she took the plunge with Subramaniam Amancharla in 1989. The wedding rituals were short and crisp as the couple exchanged garlands in the presence of 30 relatives and friends. But there was nobody from the groom’s side. Jhansi remembers how Subramaniam, a Brahmin, sent a photo of their marriage and a note by post to his family, revealing that he was now married to a Dalit (Mala) woman. His family did come around in the end, but the early going was difficult. Jhansi’s marriage to Subramaniam was arranged by her uncle, who was a social reformer and a proponent of Telugu culture. Jhansi was simply following the advice of her elders. “But I trusted them and, sure enough, everything has turned out right. We were following Ambedkar’s ideology and hoping for the best,” she says. Jhansi now runs an organisation that fights for the rights of Dalit women. Subramaniam is a law professor in Guntur. Their son, Jabali (the name taken from a character who fights Lord Rama in the Ramayana), 23, a techie with TCS, uses the surname Amancharla, but cites his ‘other caste’ identity in his documents. When a child, his parents refused to identify him as either a Brahmin or a Dalit—much to the anger of school authorities.
It was never going to be smooth sailing for Kranti Bhavana, an upper-caste Kayasth, and Sudeep Kumar, an SC belonging to the Dhobi caste, in caste-riven Bihar. They met while studying for their MBBS at Patna Medical College and were together at AIIMS. Though they were a couple for nearly a decade before marrying in 2007, parental and societal opposition cropped up. “Even my father, a sociology professor, whom I always perceived as being above caste or creed, asked me to give it more thought. My mother and grandmother were completely against the union though they accepted that Sudeep was bright and a good human being,” recalls Kranti, who teaches in the neurosurgery department at Lucknow’s Sanjay Gandhi Post-Graduate Institute of Medical Sciences. Fortunately, Kranti’s brothers stood by her. “My brothers respected Sudeep and supported our relationship,” she says.
“Though both families knew about us, accepting it wasn’t easy. This is not what one’d expect in the 21st century,” says Sudeep, who works at a private medical college in Lucknow.  “In Bihar, both in school and in college, everyone I met would first ask me about my caste. It was so humiliating.” Kranti adds, “Despite his academic excellence, he never received the same recognition that I did for a similar performance in academics.”
When G. Vivek, a Mala, fell in love with and married Saroja, a Brahmin, in an Arya Samaj temple in 1990, their families, though friends, were taken aback. But they have stuck together. “There is no upper caste or lower caste at home. My wife is the boss,” laughs 54-year-old Vivek. The Telangana MP recalls people in his community worrying he might alienate himself, but Saroja won them over. Her father is a vastu practitioner from an orthodox Brahmin family. “My only condition was in terms of diet. I continue to be a vegetarian and he’s a non-vegetarian. Our four children are totally non-vegetarian,” she says.
“It’s a pity that even 65 years after Independence such marriages are few and far between,” says G.P. Chandraiah, assistant professor at Allahabad’s G.B. Pant Social Science Institute. “If inter-caste couples continue with their rituals, then they are not a model for others. They need to connect to the larger causes of empowerment and liberation.” Mallepalli Lakshmaiah, who runs the Centre for Dalit Studies in Hyderabad, says that, when it comes to inter-caste marriages, society tends to magnify quibbles that are part of all marriages. “Inter-caste unions are a step forward and necessary but the ideology of people matters. Do they give importance to caste or not is the most important question,” says Lakshmaiah. In some marriages, like that of Ghadiyarm Srivatsava and Jwalasree, this is indeed the case. Srivatsava who married his wife, then Magdalena (a Dalit Christian), in 1990 says he is now alien to Brahminism. Srivatsava’s father was a Sahitya Akademi award winner and he grew up in an orthodox household. He met his wife when he was 36 and she was 22. “My father’s only objection was that she was too young. I would have fallen in love with her anyway. Caste is purely incidental.” Srivatsava sees caste as more of a political issue than a social one. “The institution of caste survives in India because of political motives.” Agrees Peeyush Misra, a 27-year-old lawyer, a Brahmin who fell in love with Neetu Rawat, a chamar girl when he was studying in Lucknow university. “You must have the courage to take the initiative. Be ready to defy social barriers and there is nothing to stop a union like ours,” he says. Some of his relatives did raise eyebrows, but his father was all for leaving the children to decide their paths in life. And have there been any upheavals in their personal lives because of caste? “We have been married for two years now and consider ourselves the happiest couple on earth,” say Peeyush and Neetu in chorus.


By Madhavi Tata with Sharat Pradhan in Lucknow

Friday, May 24, 2019

अंतर्जातीय विवाह के मायने

अंतर्जातीय विवाह के मायने
दलित समाज के उच्च शिक्षित यूवा, शायद, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर से प्रेरित होकर सीधे ब्राह्मण समाज की लड़की अथवा लडके से शादी करते देखे जाते हैं. इस यूवा सोच का यह कृत्य, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन तो देता है किन्तु जातिय सामाजिक बंधनों को ढीला करने में प्रभावकारी भूमिका नहीं निभाता. अगर ये यूवा अपने ही अन्य दलित जातियों के बीच विवाह करते, तब अंतर्जातीय विवाह का परिणाम, जो बाबासाहब अम्बेडकर चाहते थे, अधिक प्रभावपूर्ण तरीके से उभर कर सामने आता। 
दलित उच्च शिक्षण प्राप्त युवती के ब्राह्मण परिवार में जाने से दलित परिवार का भला हुआ हो, कहीं नहीं दिखता और न ही दलित युवक के ब्राह्मण युवती से विवाह करने से दलित परिवार समृद्ध होता है. बल्कि, उल्टा ही देखा गया है. न सिर्फ लडका परिवार से कट जाता है बल्कि समाज से भी वह खुद को 'पृथक' मानने लगता है। 
यह ठीक है कि ब्राह्मण, दलित जातियों की बनिस्पत ज्यादा खुले दिमाग के हैं और वे उच्च शिक्षित दलित युवती अथवा युवक को जज्ब कर लेते हैं जबकि दलित जातियों के बीच हुआ यह 'ब्लड इन्फ्यूजन' कभी-कभी ब्लड केंसर के रूप सामने आता है किन्तु यही तो वह जातीय बांड है, जिसे ध्वस्त करना है। दलित जाति के इन उच्च शिक्षण प्राप्त यूवाओं को अपने उद्धारकर्ता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर की सोच को अपने जीवन की आचार संहिता के रूप में लेना चाहिए, तभी वे जाति-पांति की बेड़ियों को ध्वस्त करने समर्थ हो सकते हैं .

हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे साथी. हम गिर गिर कर उठेंगे साथी।
वे चाहे बोलते रहे जितना झूठ, हम उनका पर्दा-फाश करते रहेंगे साथी। 
'राष्ट्रभक्ति' हो या 'देशभक्ति', हम आईना उन्हें दिखाते रहेंगे साथी। 
'मारते रहें वे घर में घुस-घुस के', हम प्यार की झप्पी उन्हें, देते रहेंगे साथी। 
वे कितनी ही घृणा फैलाते रहें, हम लोगों को जोड़ते रहें हैं, रहेंगे साथी। 
वे धमकाते रहे, करें बात युद्ध की, हम शांति के पक्षधर रहे हैं, रहेंगे साथी। 

Thursday, May 23, 2019

दलित एकता :पञ्च विकार

दलित एकता : पञ्च विकार
1.   48.5 % ओबीसी बीजेपी को अपनी पार्टी मानता है। यादव हो या कुर्मी, काछी; तत्कालिक राजनैतिक जो प्रतिबद्धता हो, दलित जातियों से जन्मजात घृणा करते हैं।
2.   3.5% उच्च जातीय हिन्दू , राजनैतिक रूप से चाहे जिस पार्टी में हो, आम तौर पर बीजेपी को उनके वर्गीय/जातीय हितों का स्वाभाविक संरक्षक मानते हैं।
3-   o.3% जैन और 1.7% सिक्ख खुद को हिन्दू समझते हैं. चूँकि ये धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, अत: ये सतत अपने को हिन्दू साबित करते रहते हैं. 
4.   2.5% क्रश्चियन, 14.5% मुस्लिम बीजेपी से असुरक्षित महसूस करते हैं. 
5.   सबसे ख़राब हालत 28% दलित-आदिवासियों(20+8) की हैं. राजनैतिक होड़ में वे आपस में ही बुरी तरह बंटे हैं. इनके वोट बंटने का सीधा लाभ बीजेपी को मिलता है।

Wednesday, May 22, 2019

सवाल लाख टके का

सवाल लाख टके का
भीम स्तुति के 'दिव्य प्रभू रत्न तू, साधु वरदान तू' पर रोष प्रगट करने वाले मृत्यु, विवाह आदि अवसरों पर कराये जा रहे 'परित्राण-पाठ' पर मौन साध लेते हैं, जिसमें इंद्र, ब्रह्मा आदि देवताओं की स्तुति है ? सनद रहे, 'परित्राण-पाठ' में 'आव्हान सुत्त', 'रतन सुत्त' आदि कई संगत-असंगत सुत्तों का पाठ होता है जबकि, 22 प्रतिज्ञा, जिसे बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने 'धम्म की आधारशिला' कहा है, को 'अछूत' बना दिया गया है ?

Tuesday, May 21, 2019

बुद्धाब्द

 बुद्धाब्द
बौद्ध जगत में काल-गणना के लिए बुद्धाब्द का प्रयोग सर्वविदित है। इसका प्रारम्भ, बुद्ध महा-परिनिर्वाण तिथि;  483 ई. पू. है। उल्लेखनीय है कि भारत के पड़ोसी देश; सिरीलंका(सिंहल द्वीप), थाईलैंड(स्याम), बर्मा(म्यांमार) आदि, बुद्ध का महा-परिनिर्वाण ई. पू. 544 मानते हैं जिससे उनकी जन्म-तिथि 624 ई. पू. प्राप्त होती है। अर्थात बौद्ध देशों की उक्त परम्परा और भारतीय इतिहासकारों द्वारा मान्य परम्परा में करीब 61  वर्ष का अन्तर है।

सिरिलंका के ऐतिहासिक ग्रंथ ‘महावंश’ के अनुसार अशोक का राज्यभिषेक भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण से 218 वर्ष बाद हुआ था। सनद रहे, प्रजा से अशोक को अपने इस राज्यभिषेक की स्वीकृति 4 वर्ष बाद मिली थी। अर्थात् वास्तव में, अशोक का राज्यारम्भ बुद्ध महापरिनिर्वाण के 214 वर्ष बाद हुआ था।

बिन्दुसार के पुत्र चन्द्रगुप्त मौर्य ने 24 वर्ष और बिन्दुसार ने 28 वर्ष शासन किया था। अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारम्भ बुद्ध महापरिनिर्वाण के 162 (214-52) वर्ष बाद हुआ था। भारतीय इतिहासकारों द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य की राज्यारम्भ तिथि 321 ई.पू. निश्चित की गई है। अब अगर इसमें 162 वर्ष जोड़ा जाए तो बुद्ध का महापरिनिर्वाण 483 ई.पू. निश्चित होता है। बुद्ध 80 वर्ष तक जीवित रहे। इससे बुद्ध की जन्म-तिथि 563 ई.पू. सिद्ध होती है। प्रसिद्द बौद्ध विद्वान और इतिहासविद  रीज डेविड ने यही तिथि मान्य की है(भूमिकाः महावंस) ।

दूसरे, फाहियान(300-400 ईस्वी ) ओर ह्वेनसांग(600-700 ईस्वी ) ने कनिष्क को बुद्ध परिनिर्वाण के 400 वर्ष बाद राजा होना बताया है। कनिष्क का शासन-काल का प्रारंभ लगभग 78 ई. माना जाता है। इस आधार पर भी बुद्ध का जन्म 558 ई. पू. ठहरता है, जो 563 ई. पू. के सन्निकट है(बौध्द धर्मः एक अघ्ययनः डॉ. अवधेश सिंह पृ. 59)।

 बुद्धाब्ध की गणना हेतु चालू ईस्वी सन् 2019 में 483 जोड़कर फिर उसमें 61 और जोड़ा जाए तो वर्तमान बुद्धाब्द 2563 निकल आता है।
- अ ला ऊके  amritlalukey.blogspot.com

Monday, May 20, 2019

खेल 'राष्ट्रभक्ति' का

खेल 'राष्ट्रभक्ति' का 
बीजेपी प्रचारित 'राष्टभक्ति'; अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक ताना-बाना और सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग सहित देश के तमाम लोकतांत्रिक ढांचे पर भारी पड़ रही है, IB, CBI तो पहले ही अपनी विश्वनीयता खो चुके हैं. निर्वाचन आयोग ने जिस प्रकार खुले तौर पर विपक्ष की ओर से उठती उँगलियों से बचाव किया है, शर्मनाक है. इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनाव आयोग के विशेषाधिकार में हस्तक्षेप न करना भी निंदनीय है. 
सवाल है, तब, लोग जायेंगे कहाँ ?

एकता का अभाव

एकता का अभाव
तमाम सर्वे मोदीजी को पुन: प्रधान मंत्री बना रहे हैं ! अगर सर्वे पर आंख मुंद कर विश्वास न भी किया जाए तो भी बीजेपी, सरकार बनाने के करीब तो है. बेशक, राहुल गाँधी ने कांग्रेस की स्थिति में सुधार किया है किन्तु नेतृत्व के मामले में विपक्ष एक न हो सका. विपक्ष की अनेकता ही बीजेपी की एकता बनी. 
बीजेपी अर्थात आरएसएस का सांगठनिक ढांचा, विपक्ष के लिए एक जबरदस्त चुनौती है. इसके निशस्त्रीकरण के लिए उ प्र जैसे महा गठबंधन की जरुरत थी, जिस पर विपक्षी पार्टियाँ काम न कर सकीं..

Sunday, May 19, 2019

जो जस करहिं, तस फल चाखा-

जो जस करहिं, तस फल चाखा-
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को मोदीजी, जैसे कि उन्होंने कहा है, दिल से क्षमा नहीं कर पाएंगे. ठीक है, न करें. क्योंकि, इससे न तो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का कुछ बनता बिगड़ता है और न मोदीजी का, जो आजकल चुनाव के दौरान जाने-अनजाने किए 'पाप' का प्रायश्चित करने भगवान शिव की शरण में हैं. चाहे गाय के नाम पर 'माँब लिंचिंग' हो या शहीद हेमंत करकरे के नाम पर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी, बीज तो उन्होंने ही बोया है. आज नहीं कल, भुगतना उन्हीं को होगा. 'बजरंग दल' हो या 'हिन्दू महासभा'; 'मोदीजी', इनके लिए शतरंज के 'प्यादे' हैं. खबर (TOI : 18 May 2019) यह भी है कि हिन्दू महासभा ने गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की जन्म शताब्दी भव्य रूप से मनाने का फैसला किया है. मैं डाल डाल, तू पात-पात !

कमल हासन

कमल हासन
फ़िल्मी एक्टर कमल हासन ने 'हिन्दू मिथ' पर जो स्टेंड लिया है, दलित उसका समर्थन करते हैं. दरअसल, यह अम्बेडकरी चिन्तन है. यद्यपि दक्षिण भारत, ऐसी सोच के लिए उर्वर रहा है, किन्तु 'ब्राह्मणवाद' ने भी उसी शक्ति से उसकी जड़ों में मट्ठा डाला है. यह देखना दिलचस्प होगा कि कमल हासन 'हिंदूवादी ताकतों' के विरुद्ध किस मजबूती से खड़े रहते हैं ?

Friday, May 17, 2019

धम्म की हानि

धम्म की हानि
एक खबर के अनुसार, पिछले दिनों 11 से 15 मई के दरमियान वियतनाम में सम्पन्न विश्व बौद्ध सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधि-मंडल उप राष्ट्रपति वैंकया नायडू के नेतृत्व में शरीक हुआ था.और यह कि वैंकया नायडूजी ने तकरीबन 40 मिनट अपनी स्पीच भी दी थी. अपनी स्पीच में वैंकया नायडू जी ने सम्राट अशोक से लेकर गांधीजी का जिक्र किया किन्तु उन्होंने बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का नाम तक लेना उचित नहीं समझा ?
इस प्रसंग में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वैंकया नायडूजी किस हैसियत से गए थे ? विश्व बौद्ध सम्मलेन में एक हिन्दू का क्या काम ? और फिर, उन्हें स्पीच देने का क्या औचित्य ? क्या यह सरकारी बाबुओं का सैर-सपाटा था, जिसे उपराष्ट्रपतिजी जस्टिफाई कर रहे थे ? और अगर था, तो किस कीमत पर ?
अथवा, क्या यह बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध की इस जन्म-भूमि में पुन एक बार जो धम्म का झंडा गाडा  जिसे राहुल संकृत्यायन के शब्दों में; कोई हिला नहीं सकता, उखाड़ने का प्रयास है ?

अक्षम्य अपराध

अक्षम्य अपराध
दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित बौद्ध धर्मांतरण आन्दोलन, वह एतिहासिक अवसर था जिसने डॉ उदितराज को एक उंचाई दी थी. भारत में, बाबासाहब अम्बेडकर के बाद, धर्मान्तरण आन्दोलन का नेतृत्व करने के इस साहसिक कृत्य ने बेशक, उदितराज के नाम को आसमान की बुलंदियों तक पहुँचाया था. यह वही 'रामराज' थे, जिन्होंने 'उदितराज' बन धम्म-ध्वजा थामी थी. 

सनद रहे, उदितराज ने वह कर दिखाया था जो कासीराम साहब और बहन मायावती नहीं कर पाएं थे. किन्तु, उनके इस अभिनंदनीय कदम को आरएसएस पचा नहीं पाया और उन्हें मुंह-माँगा दाम देकर खरीद लिया.
उदितराज का बिकना, दलितों के धर्मांतरण आन्दोलन पर एक बड़ा आघात था. इस घटना से आन्दोलन में जुड़े मिशनरी लोग हतोत्साहित होकर भर भरा कर गिर पड़े थे. 

निस्संदेह, उदितराज का बीजेपी में जाना, धम्म की हानि थी, जो अक्षम्य अपराध है.

Monday, May 13, 2019

लीक से हटने के मायने ?

लीक से हटने के मायने ?
डॉ धर्मवीर को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ. उनसे परिचय डॉ हेमलता महिस्वर, प्रो. जामिया मिलिया ने कराया था. उन्होंने 2-3 बार विविध विषयों पर लम्बी बात भी की थी. उनकी 'कबीर के आलोचक' जैसी रचनाओं ने हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे ब्राह्मण आलोचकों की तरीके से खबर ली हैं.
डॉ धर्मवीर किसी खींची लकीर पर चलने वालों में से नहीं थे. उन्होंने अपना रास्ता खुद, अलग तय किया था और इसलिए, वे तमाम स्वाभाविक अवरोधों से दो-चार भी हुए. चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक. यद्यपि अम्बेडकरी/बुद्धिस्ट चिंतकों ने उनका साथ नहीं दिया तो भी वे संघर्ष करते रहे. हम जानते है कि धारा के विरुद्ध चलने वालों के पाँव के नीचे की रेत खिसकती है तब भी उन्हें खड़े रहना होता है, परन्तु यही तो प्रकृति का नियम है ?
डॉ धर्मवीर की तरह ही कभी बुद्ध को लोगों ने 'सनकी' कहा होगा, परन्तु ऐसे 'सनकी' ही तो पुराने बंधनों को तोड़ते है ? बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने सामाजिक आन्दोलन ब-रास्ते बुद्ध का हाथ पकड़ा था, उद्देश्य सामाजिक मुक्ति था. हमारे संघर्ष के रास्ते में जो भी सहायक होगा, बेशक दलित अपनाएंगे. अपने खिड़की-दरवाजे बंद रखने का क्या औचित्य है ?

दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया:राजरत्न आंबेडकर

संयुक्त राष्ट्र के वियतनाम में चल रहे 16 वे वैशाख (The 16th United Nations Day of Vesak Celebration) के अकैडमिक कॉन्फ्रेन्स में 'दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया' (भारतीय बौद्ध महासभा) के विश्व हिंदू परिषद' से जुड़े विश्वस्त डॉ. पी.जी. ज्योतिकर ने अपने कुछ कार्यकर्ता मेरा विरोध करने के लिए यहाँ भेजे है। मेरा रिसर्च पेपर ये दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर इस कॉन्फ्रेन्स के लिए चुना गया है, इसिलिय मेरे आने-जाने और रहने का सारा इंतेजाम ये संयुक्त राष्ट्र ने किया है।
ज्योतिकर के चुने हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष चंदू पाटिल ये सोच कर यहाँ आये है कि वो भारत के लोगो मे ये बात बता सके के संयुक्त राष्ट्र ने दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर उन्हें आमंत्रित किया है. मगर संयुक्त राष्ट्र ने जैसे ही हमे हमारे रजिस्ट्रेशन कार्ड दिए चंदू पाटिल जी की पोल खुल गयी। उनके कार्ड पर लिखा गया है  'Self Funded Delegate' और मेरे कार्ड पर लिखा गया है 'Delegate'। सेल्फ फंडेड डेलीगेट का मतलब यहाँ सबको पता है के किसी डेलीगेट ने इन्हें उनके खुद के खर्चे पर इस कॉन्फ्रेन्स में लाया है। मजे की बात ये है कि मेरा कार्ड देखकर अब वो मुँह और कार्ड दोनों छुपाते घूम रहे है। सच्चाई ज्यादा देर तक छुप नही सकती।                                                      राजरत्न आंबेडकर
                                                                        राष्ट्रीय अध्यक्ष
                                                        दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया( भारतीय बौद्ध महासभा)
                                                     रजि. नं. 3227/04. 05. 1955/ एफ- 982 (मुंबई) दि. 06. 07. 1962

Sunday, May 12, 2019

Colonel Henry Steel Olcott; 14 Points Buddhist Belief

Colonel Henry Steel Olcott a janeudhari Buddhist, earlier Zionist Christian and founder of Theosophical Society of Lusifer Religion and mind control Illuminati under the Spiritual Conspiracy drafted 14 point Proposition of fundamental Buddhist beliefs in 1891 in Ceylon and sent it to many countries in various languages for teaching and spreads.

Since then Brahminical Buddhism spreads all over the world where thousands centers are working there for Mind Control using name of Spirituality, experience of Eternal Knowledge - The Enlightenment.
5. Sakya Muni taught that ignorance produce desire, the unsatisfied desire is the cause of rebirth and the rebirth , the cause of sorrow. To get rid of sorrow therefore, it is necessary to escape rebirth, to escape rebirth, it is necessary to extinguish desire, and to extinguish desire , it is necessary to destroy ignorance.
8. The desire to live being the cause of rebirth, when that is extinguished rebirths cease and the perfected individual attains by meditation that highest state of peace called Nirvana.
10. Right Meditation leads to spiritual enlightenment, or the development of that Buddha-like faculty which is latent in every man .
12. The universe is subject to as natural causation known as "Kamma" . The merits and demerits of a being in past existances determine his condition in the present one. Each man , therefore, has prepared the causes of the effects which he now experiences.
14. Buddhism discourages superstitious credulity. Gautam Buddha taught it to be the duty of a parent to have his child educated in science and literature. He also taught that no one should believe what is spoken by any sage, written in any book, or affirmed by tradition, unless it accord with reason.
Other all 9 points in brief are - tolerance, forbearance, peace, brotherly love without distinction, kindness, evolution of Universe not created by God, four Noble Truths, Eight Fold Path, shil- morality, to cease from all bad kamma, to get all good kamma virtue, to purify mind- reasoned mind(The Buddhist Catechism by Henry S. Olcott).


In India Rahul Sankrityayan, Anand Kaushalyaya and other unscientific scholars also accepted and preached this in their literature, yet Rahul Sankrityayan criticized Buddha's spiritulity. Only Dr. Babasaheb Ambedkar- The Modern Buddha rejected all this spiritual philosophy , effects of past kamma, escape from rebirth , Nirvan by vipassana meditation, etc. and give us modern Buddhism, we call it 'Ambedkarite Buddhism' and rescued us from Brahminical Buddhism. We should kept ourselves away from TBMSG, Rajnish, Goenka's cult and never fall prey in their trap.

 - Anil Rangari

Saturday, May 11, 2019

Supreme Court Verdict on SC/ST's Promotion

Merit must not be seen in a narrow perspective such as performance in a exam but be considered as the part of the societal goal of ensuring equality for marginalized sections, said Supreme Court headed by Justices D Y Chandrachud and U U Lalit. This is a land mark judgement in Indian Judiciary. 

This is the first time that the apex court has upheld the law on promotion in reservation after SC allowed the provision in 2006. Many other states have also framed law but failed to pass the judicial test  for not fulfilling  criteria set in 2006, such as surveys on representation of SCs & STs department. wise.

अहो सुखं, अहो सुखं

एकं समयं भगवा अनुपियायं विहरति अम्ब वने।
एक समय भगवान अनुप्रिया के अम्बवन में विहर रहे थे।
तेन खो समयेन आयस्मा भद्दियो अरञ्ञं गतो पि रुक्ख मूले अभिक्खण उदानं उदानेसि-  अहो सुखं, अहो सुखं।उस समय आयु. भद्दिय अरण्य में वृक्ष के नीचे बैठे होकर भी उनके मुंह से बराबर यह शब्द निकल रहे थे- कितना सुख है ! कितना सुख है !!
अस्सोसुं खो सम्बहुला भिक्खूनं एतद अहोसि-
सुन कर कुछ भिक्खुओं को यह हुआ-
निस्संसयं आवुसो, आयस्मा भद्दियो अनभिरतो साधुचरियं चरति।
निश्चय ही आयु. भद्दिय बेमन से(अन-अभिरतो) साधु जीवन बिता रहे हैं।
येसं पुब्बे रज्ज सुखं, सो तं अनुस्सरमानो अरञ्ञगतो पि उदानं उदानेसि- अहो सुखं, अहो सुखं 'ति
 इसके पूर्व के राज-सुख को स्मरण कर वे अरण्य में होकर भी कह रहे हैं- कितना सुख है ! कितना सुख है !!
अथ ते भिक्खू येन भगवा तेनुपसंकमिन्सु। उपसंकमित्वा भगवन्त अभिवादेत्वा एकमंत निसीदिन्सुं।
तब वे भिक्खु भगवान के पास गए। पास जा कर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।
एकमंत निसिन्ना खो ते भिक्खू भगवन्त एतद वोचुंं-
एक ओर बैठ कर उन भिक्खुओं ने भगवान को ऐसा कहा-
"आयस्मा भंते, भद्दियो अरञ्ञगतोपि  रुक्ख मूले अभिक्खणंं उदानं उदानेसि- अहो सुखं, अहो सुखं 'ति।
भंते ! आयु. भद्दिय अरण्य में जा कर भी वृक्ष के नीचे बैठे उनके मुख से शब्द निकल रहे हैं- कितना सुख है ! कितना सुख है !!
निस्संसयं खो भंते, आयस्मा भद्दियो अनभिरतो साधुचरियं चरति।
निस्संदेह, भंते! आयु. भद्दिय बेमन से साधु जीवन का पालन कर रहे हैं।
येसं पुब्बे रज्ज सुखं, सो तं अनुस्सरमानो अरञ्ञगतो पि उदानं उदानेसि- अहो सुखं, अहो सुखं 'ति।
इसके पूर्व के राज-सुख को स्मरण कर अरण्यगामी होकर भी कह रहे हैं- कितना सुख हैं ! कितना सुख है !!"
अथ खो भगवा अञ्ञतरं भिक्खुं आमन्तेसि।
तब भगवान ने एक भिक्खु को आमंत्रित किया।
"एहि त्वं भिक्खु, मम वचनेन भद्दियं भिक्खुं आमन्तेहि-  सत्था तं आवुसो, आमन्तेति"ति।
"यहाँ आओ तुम भिक्खु ! मेरी ओर से आयु. भद्दिय को कहो- सत्था आपको बुला रहे हैं। "
एवं भंते" ति सो भिक्खु भगवतो पटिसुत्वा येन आयस्मा भद्दियो तेनुपसंकमि.
"बहुत अच्छा, भंते !" कह वह भिक्खु भगवान को उत्तर दे, जहाँ आयु. भद्दिय भिक्खु थे, वहां गया।
उपसंकमित्वा भद्दियं एतद वोच-  "सत्था तं आवुसो भद्दिय आमंतेति। "
पास जा कर भिक्खु भद्दिय को ऐसा कहा-  "सत्था आपको बुला रहे हैं।"
एवं आवुसो"ति सो आयस्मा भद्दियो येन भगवा तेनुपसंकमि।
 "बहुत अच्छा, आवुस !"  कह,  वह आयु. भद्दिय जहाँ भगवान थे, वहां गया।
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमंत निसीदि।
जा कर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।
एकमंत निसिन्नंं आयस्समंत भद्दियं भगवा एतद वोच-
एक और बैठे आयु. भद्दिय को भगवान ने यह कहा -
सच्चं किर भद्दिय, अरञ्ञं गतो पि रुक्ख मूले अभिक्खण उदानं उदानेसि-  'अहो सुखं, अहो सुखं'।"
"क्या यह सच है, भद्दिय ! अरण्य जाकर वृक्ष के नीचे बैठ कर भी बराबर तुम्हारे मुंह से ये शब्द निकला करते हैं- 'कितना सुख है ! कितना सुख है' !!
एवं भंते"ति।  "हाँ भंते !"
"कि पन त्वं भद्दिय अरञ्ञं गतो पि अभिक्खण उदानं उदानेसि-  अहो सुखं, अहो सुखं !"
"परन्तु भद्दिय! अरण्य जाकर तुम क्यों बराबर कहा करते हो- कितना सुख है ! कितना सुख है !!
"पूब्बे मे भंते,  अगारिय भूतस्स रज्ज कारेन्तस्स अन्तोपि अन्तेपुरे, बहिपि अन्तेपुरे , अन्तोपि नगरे, बहिपि नगरे, अन्तोपि जनपदे, बहिपि जनपदे, सुसंविहिता रक्खा अहोसि।
"भंते ! जब मैंने घर नहीं छोड़ा था, राज्य करते हुए अंतपुर के अन्दर भी, बाहर भी, नगर के अन्दर भी, बाहर भी, जनपद के अन्दर भी, बाहर भी अच्छे तरह से सुविहित सुरक्षा हुआ करती थी।
सो अहं भंते, एवं रक्खितो, गोपितो संतो, भीतो, उब्बिगो, उस्संकी विहासिंं।
भंते ! वैसी सुरक्षा, गुप्तचरों से घिरे होकर भी मैं भयभीत, उद्धिग्न और शंकालु रहता था।
एतरहि खो पन अहं, भंते ! अरञ्ञं गतो पि रुक्ख मूले अ-भीतो, अनुब्बिगो, अनुस्संकी, अप्पोस्सुको,  परदत्तवुत्तो, मिग भूतेन चेतसा विहरामि।
किन्तु इस समय अकेला ही अरण्य में वृक्ष मूल में बैठे अ-भय, अनुद्विग्न, शंका रहित और अनुत्सुक हो, शांत चित से दूसरों के दिए गए दान पर संतुष्ट रह, विहार करता हूँ
इमं खो अहं भंते ! उदानं उदानेसि-  अहो सुखं, अहो सुखं !
इसे देखते ही भंते ! मेरे मुंह से शब्द निकलते हैं- कितना सुख है ! कितना सुख है !!"
-------------------
अन-अभिरतो-  बेमन से। उब्बिगो- अशांत/उत्तेजित। उद्धिग्न(उब्बिग्ग)। उस्संकी- शंकालु/भयभीत। परदत्तवुत्तो-  दूसरों के दिए गए दान पर निर्भर रहने वाला। मिग भूतेन चेतसा- शांत चित से। 

Friday, May 10, 2019

ताली बजाना'

ताली बजाना'
कुछ खास अंदाज में 'ताली बजाना' छक्कों की आदत है. क्या पता, उन्हें यह आदत कैसे पड़ी ? जिस किसी को छक्के का उदाहरण देना होता है, 'ताली बजा' कर देता है. जो ट्रांसजेंडरों के बिहेवियर पर काम करते हैं, उन्हें उनके इस प्रवृति पर शोध करना चाहिए. 
हम, ट्रांसजेंडरों का पूरा सम्मान करते हैं और चाहते हैं कि वे भी अन्य शारीरिक रूप से कमजोर लोगों की तरह न सिर्फ जीवन से संघर्ष करें वरन इस विजय में उदहारण भी बनें. किन्तु 'ताली बजाना' कुछ अजीब-सा ही हैं न ?
दरअसल, शारीरिक तौर पर, ताली बजाने का एक ट्रांसजेंडर से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है. किन्तु फिर भी यह उसके बिहेवियर को इंगित करता है ?

विपस्सना: 'सेफ झोन'

विपस्सना: 'सेफ झोन' 
विपस्सना से ही सिद्धार्थ गोतम सम्यक सम्बुद्ध हुए, इस प्रचार-प्रसार में सत्यनारायण गोयनकाजी और उनके सारे विपस्सना केंद्र देश और विदेश में कार्य-रत हैं. इन विपस्सना केन्द्रों की गद्दी पर बैठे विपस्सी इसे 'हिन्दू आतंक' के विरुद्ध 'रक्षा-कवच' के रूप में देखते हैं ! यही नहीं, दलित-बुद्धिस्ट अम्बेडकरवादी, जो स्लम एरिया से उठ कर शहरों के आलिशान बंगलों में शिफ्ट हो चुके हैं, इसे 'सेफ झोन' मान रहे हैं. और तो और, बुद्ध विहार में 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का प्रत्येक रविवार को पाठ करने वाले बुद्धिस्ट धम्माचारी आधा घंटा विपस्सना कर, कर्म और पुनर्जन्म पर मजे से प्रवचन करते हैं ? निस्संदेह, गुरु गोयनकाजी और उनकी विपस्सना स्तुतीय है ?

साहेब जी, आपका सवाल ऐसे है, जैसे किसी नशे के विरुद्ध सतर्क करने वाले को कहना- 'क्या आपने इसका रस्वादन किया है ? सर, विपस्सना एक हीलिंग प्रक्रिया हो सकती है परन्तु,यह कहना कि विपस्सना से सिद्धार्थ को सम्बोधि प्राप्त हुई' -क्या है ? आप किस दिशा में लोगों को ले जा रहें है ? सिद्धार्थ ने 'किसी संवेग' में गृह-त्याग किया, ये सब क्या है ? सिद्धार्थ के न सिर्फ जीवन से सम्बंधित तमाम घटनाओं को बाबासाहब के उलट, काल्पनिक देवी-देवताओं के कथानकों से विश्लेषित किया रहा है वरन बुद्ध के आधारभूत उपदेशों को कर्म और पुनर्जन्म से जोड़ा जा रहा है ? हम चाहेंगे, लोग सत्य नारायण गोयनका जी के विपस्सना मार्ग पर नहीं बुद्ध के और वह भी बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा विश्लेषित बुद्ध के मार्ग पर चलें. 

'स्वानुभव' और 'परानुभव' में न उलझ कर मेरा सीधा सवाल है- बुद्ध के जीवन से सम्बंधित प्रमुख घटनाओं को वर्णन करने का तरीका बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का सही है या गुरु गोयनकाजी जी का ? सनद रहे, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध के जीवन से सम्बंधित तमाम घटनाओं को मानवीय पहलू से विश्लेषित किया है जबकि गोयनका जी उन्हें अलौकिक और दैवीय रूप, जैसे कि हिन्दू लेखक करते हैं, विश्लेषित करते हैं ? यही नहीं, गोयनकाजी, बुद्धिज़्म में 'हिन्दू जन्म और पुनर्जन्म' की फिलासफी घुसेड कर बुद्ध के उस मानवीय दर्शन की, एक तरह से हत्या करते हैं जिसके लिए बुद्ध जाने जाते हैं. बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में न केवल विपस्सना और इस तरह के अभिधम्म की गर्हा की है वरन कर्म की निरंतरता को इसी जन्म तक सीमित कर उन सारे कयासों का मुंह बंद कर दिया है जो बुद्ध को हिन्दुइज्म का अंग सिद्ध करते हैं. तीसरे, हम 'हिन्दू आतंक' से क्यों डरें ? दलितों का नेतृत्व करने वाले महार और चमार, लडाका कौम हैं.

Thursday, May 9, 2019

गाली

प्रिय मोदीजी, आप कहते हैं कि कांग्रेस सहित विरोधी पक्ष के लोग आपको गाली देते हैं ? सर, आप पहले पीएम है, जिसे लोग 'गाली' देते हैं ! जहाँ तक हमारी जानकारी है, अभी तक किसी पीएम ने सार्वजानिक तौर पर नहीं कहा कि विरोधी पक्ष के लोग उन्हें गाली देते हैं ? सर, क्या आपने कारण जानना चाहा है कि राजनीतिक विरोधी ही सही, आपको गाली क्यों देते हैं ? अपने कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों के नेताओं का भी नाम लिया है ! आखिर, वे आपको गालो क्यों देते हैं ? उनको किसने उकसाया आपको गाली देने के लिए ? कहीं इसमें 'पाकिस्तान' का तो हाथ नहीं ? कहीं वह तो नहीं उकसा रहा है ? अगर ऐसा है तो आपकी इंटेलीजेन्स एजेंसियां IB, CBI, क्या कर रही हैं ? और सबसे बड़ी बात,हमारे तमाम 'चौकीदार' क्या कर रहे हैं ?
सर, गाली देना नितांत असभ्यता और गवारु पन है। हमें इसे गंभीरता से लेना चाहिए । देश के पीएम को गाली देना हंसी-मजाक नहीं है। सर, कांग्रेस सहित 'पाकिस्तान' और 'नीति आयोग' में बैठे उन अफसरों की 'भाषा' पर भी आपको नजर रखनी होगी जो आपका 'भाषण' तैयार करने जिला कलेक्टरों से जानकारी जुटाते हैं ! सर, क्षमा करें, आपकी भाषा और बोल लोगों को उकसाते हैं, भड़काते हैं. भले ही चुनाव आयोग ने सरकारी दबाव-वश अपना अपना मुंह बंद रखा हो, परन्तु आप लोगों का मुंह बंद कैसे कर सकते हैं ? अगर आप भड़काने वाली भाषा बोलेंगे तो लोग भड़केंगे ही. और फिर, भड़का आदमी शास्त्रीय धुन में 'मल्हार राग' तो नहीं गायेगा ?
सर, पीएम के बोल प्रेरणा दायक होना चाहिए, सन्देश देने वाले होना चाहिए. भाषा और शब्द में मर्यादा होनी चाहिए, उनमें कूट-कूट कर गंभीरता होना चाहिए. विभिन्न जाति और सम्प्रदाय के लोगों को जोड़ने वाली होनी चाहिए.प्रेम और भाई-चारा बढाने वाली होनी चाहिए. लोग कितना ही आपका विरोध करें, आपके शब्द नपे-तुले और भाषा संयत होनी चाहिए। किन्तु दुःख है, आपके भाषण में इन सबका अभाव होता है. चाहे चुनाव का ही समय क्यों न हो, मर्यादा की सीमा अनिवार्यत: होनी चाहिए।
सर, आप अपने तमाम भाषणों की स्क्रिप्ट निकाल कर देखे तो आपको खुद-बी-खुद एहसास हो जाएगा कि इसकी शुरुआत आपने की है और मजे की बात आपक सारा मीडिया रस ले ले कर आपको हाई-लाईट करने में मद-मस्त रहा। आप हजारों करोड़ का उन्हें 'एड' देते हैं तो वह ऐसा करेगा ही ?

सर, जहां तक गाली देने की बात है, यह बहुत ही गन्दी बात है. राजनीति में एक-दूसरे पर दोषारोपण करने की बात हमने सुना है, मगर गाली देना, भारतीय राजनीति में यह एक नई इंट्री है, नया पाठ है. लोग इसे आसानी से नहीं पचा पाएंगे. गाली का हाजमा राजनीति को किस गर्त में ले जायेगा, सोच कर मन वितृष्णा से कांप उठता है. सर राजनीति में हमारी माँ-बहनें भी होती हैं . संसद में पहली बेंच पर बैठा देश का पीएम कहें कि कांग्रेस सहित विरोधी पक्ष के लोग उन्हें गाली देते हैं, तो देश तो छोडिए, अंतर राष्ट्रीय जगत क्या बोलेगा ? चाल-चरित्र से हमारी सभ्यता अनुकरणीय रही है, सर, हम गाली सहन नहीं कर सकते ?
-सर, मेरा यह पत्र आप तंज के रूप में न लेकर अपंने आत्मावलोकन के लिए लेंगे, इसी उम्मीद के साथ। - एक जिम्मेदार नागरिक। 

Wednesday, May 8, 2019

अनिमित्तंं अञ्ञातं मच्चानं इध जीवितं (विशाखा सुत्त)

अनिमित्तंं अञ्ञातं मच्चानं इध जीवितं 

विशाखाय मिगारमातुया नत्ता कालंकत्ता होति।
विशाखा  मिगारमाता का नाती मर गया था।
अथ सा अल्ल-वत्था, अल्ल-केसा येन भगवा, तेनुपसंकमि।
वह भीगे कपड़ों और बालों में भगवान के पास आयी
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमंतं निसीदि।
पास आ भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गई।


अद्दसा खो भगवा मिगारमातुया एतद वोच-
मिगार माता को देख भगवान ने यह कहा-
"हन्द ! इदानि विसाखे ! अल्ल-वत्था, अल्ल-केसा कथं आगच्छसि इध वा  ?"
"अरे ! विशाखे, भीगे बाल और कपड़ों से, यहाँ किसलिए आयी हो ?"
"नत्ता मे भंते ! पिया मनापा कालंकता।"
"भंते ! मेरा बड़ा प्यारा नाती मर गया है।"

"बहुवो मानुसा विसाखे ! पटिदिनं सावत्थियं कालं करोन्ति  ?
"बहुत-से मनुष्य विशाखे ! सावत्थी में प्रति दिन मरते हैं ?
ते अपि त्वं पिया मनापा होन्ति ?"
क्या वे भी तुम्हें प्रिय होते हैं।"
"आम भंते ! ते पि मम पिया मनापा होन्ति। "
" हाँ भंते ! वे भी मुझे प्रिय होते हैं। "


"त्वं किं मञ्ञसि,  विसाखे !
"तुम क्या समझती हो, विसाखे !
कदाचि त्वं अनल्ल वत्था, अनल्ल केसा भवेय्यासि ?"
तुम्हारे भीगे कपडे और बाल कभी सुख पाएंगे ?"
स्रोत - विसाखा सुत्त : उदान। 

हमदर्द

शर्बत रूह अफज़ा की कहानी.
रूह अफज़ा 1907 में दिल्ली में लाल कुँए में स्थित हमदर्द दवाखाने में ईजाद हुआ.
इसके ईजाद होने की कहानी ये है
पीलीभीत में पैदा होने वाले हाफिज़ अब्दुल मजीद साहब दिल्ली में आ कर बस गए. यहां हकीम अजमल खां के मशहूर हिंदुस्तानी दवाखाने में मुलाज़िम हो गए. बाद में मुलाज़मत छोड़ कर अपना "हमदर्द दवाखाना" खोल लिया. हकीम साहब को जड़ी बूटियों से खास लगाव था. इसलिए जल्द ही उनकी पहचान में माहिर हो गए. हमदर्द दवाखाने में बनने वाली सब से पहली दवाई 'हब्बे मुक़व्वी ए मैदा" थी.
उस ज़माने में अलग अलग फूलों, फलों और बूटियों के शर्बत दसतियाब थे. मसलन गुलाब का शर्बत, अनार का शर्बत वगैरह वगैरह.
हमदर्द दवाखाने के दवा बनाने वाले डिपार्टमेंट में सहारनपुर के रहने वाले हकीम उस्ताद हसन खां थे जो एक माहिर दवा बनाने वाले के साथ साथ अच्छे हकीम भी थे. हकीम अब्दुल मजीद साहब ने उस्ताद हसन से ये ख्वाहिश ज़ाहिर की कि फलों, फूलों और जड़ी बूटियों को मिला एक ऐसा शर्बत बनाया जाए जिसका ज़ायक़ा बे मिसाल हो और इतना हल्का हो कि हर उम्र का इंसान पी सके. उस्ताद हसन खां ने बड़ी मेहनत के बाद एक शर्बत का नुस्खा बनाया. जिसमें जड़ी बूटियों में से "खुर्फा" मुनक्का, कासनी, नीलोफर, गावज़बां और हरा धनिया, फलों में से संतरा, अनानास, तरबूज़ और सब्ज़ियों में गाजर, पालक, पुदीना, और हरा कदु, फलों में गुलाब, केवड़ा, नींबू, नारंगी जबकि ठंडक और खुश्बू के लिए सलाद पत्ता और संदल को लिया गया.
कहते हैं जब ये शर्बत बन रहा था तो इसकी खुशबू आस पास फैल गयी और लोग देखने आने लगे कि क्या बन रहा है! जब ये शर्बत बनकर तैय्यार हुआ तो इसका नाम रूह अफज़ा रखा गया. रूह अफज़ा नाम उर्दू की मशहूर मसनवी गुलज़ार ए नसीम से लिया गया है जो एक किरदार का नाम है. इसकी पहली खेप हाथों हाथ बिक गयी.
रूह अफज़ा को मक़बूल होने में कई साल लगे. इसका ज़बर्दस्त प्रचार कराया गया. और आज रूह अफज़ा दुनिया का सब से पसंदीदा शर्बत है.
( ख्वाजा अम्न जुनैद )
#RoohAfza

ओभासति ताव सो किमि, याव न उन्नमते पभंकरो (उप्पज्जन्ति सुत्त)

एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति
एक समय भगवान सावत्थी में विहार करते थे।
अनाथ पिंडकस्स आरामे जेतवने। 
जेतवन के अनाथपिंडक आराम में। 
अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसंकमि
तब आयु. आनन्द जहाँ भगवान थे, गए
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमंतं निसीदि
जा कर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।
एकमंतं निसिन्नो खो आयस्मा भगवन्तं एतद वोच-
एक ओर बैठे आयु. आनन्द ने भगवान से यह कहा-

"यावकीव भंते ! तथागता लोके न उप्पज्जन्ति
"भंते ! जब तक संसार में बुद्ध उत्पन्न नहीं होते
ताव अञ्ञ तित्थिया परिब्बाजका सक्कता होन्ति गरुकता मानिता, पूजिता
दूसरे मत के साधू लोगों से सत्कार पाते हैं, पूजित और प्रतिष्ठित होते हैं।
लाभिनो होन्ति चीवर-पिंडपात-सयनासन-गिलान-पच्चयं।
चीवर, पिंड पात, शयनासयन और ग्लान-प्रत्यय के लाभी होते हैं।   
यतो भंते! तथागता लोके उप्पज्जन्ति 
भंते ! जब संसार में बुद्ध उत्पन्न होते हैं,  
अथ अञ्ञ तित्थिया परिब्बाजका असक्कता होन्ति गरुकता, मानिता, पूजिता
तब अन्य मत के साधु न सत्कार पाते हैं, न गौरंव, न मान, न पूजित होते हैं 
 न लाभिनो होन्ति चीवर-पिंडपात-सयनासन-गिलान-पच्चयं। 
 न चीवर, पिंडपात, शयनासयन और ग्लान-प्रत्यय के लाभ होते हैं।   
भगवा येव इदानि भंते ! सक्कतो होति गरुकतो--------लाभि गिलान-पच्चय।"
भंते ! भगवान ही इस समय लोगों से मान-सम्मान--- ग्लान -प्रत्यय के लाभी हैं। "

अथ खो भगवा एतद अत्थ विदित्वा इमं उदानं उदानेसि-
तब, इसका अर्थ जान भगवान के मुख से ये शब्द निकल पड़े-
"ओभासति ताव सो किमि, याव न उन्नमते पभंकरो।
"तभी तक खद्योत टिमटिमाते हैं, जब तक सूरज नहीं उगता
स वेरोचनम्हि उग्गते, हतप्पभो होति, न च अपि भासति।"
 सूरज के उगते ही, वे हतप्रभ होते हैं, और फिर,  न टिमटिमाते हैं।"
स्रोत-  उप्पज्जन्ति सुत्त : उदान

लोक गति (उपाती धावन्ति सुत्त)

लोक गति 

एवं मे सुत्तं-
ऐसा मैंने सुना-
एकं समयं भगवा, सावत्थियं विहरति
एक समय भगवान सावत्थि में विहार करते थे।
रत्ति-तिमिसायं
अँधेरी रात में
अब्भोकासे निसिन्नो होति।
खुले आकाश में बैठे थे।

तेन समयेन बहुवो अधिपातका
उस समय बहुत पतंगे
तेल पदीपेसु आपज्जन्ति
तेल प्रदीपों में आ गिरते
उपाति-धावन्ति
दौड़ते-भागते
जलन्ति, मरन्ति।
जल- मर रहे थे ।

अद्दसा खो भगवा ते अधिपातके
देखा भगवान ने उन पतंगों को
तेल पदीपेसु आपज्जन्ते।
तेल प्रदीप में आ गिरते
उपाते-धावन्ते, जलन्ते च मरन्ते।
दौड़ते-भागते, जलते और मरते ।

तायं वेलायं भगवा,  इमं गाथं उदानेसि-
उस वेला में भगवान ने यह गाथा कही-
उपाति-धावन्ति, न सारमेन्ति ,
लोग भटकते हैं, दौड़ते हैं, सार को नहीं पाते हैं
नव-नव बंधनं वड्ढयन्ति।
नए-नए बंधनों को बढाते हैं।
पतन्ति पज्जोत विय पातका,
गिरते हैं, पतंगों के जैसे
दिट्ठे सुते  इतिहेके निविट्ठा
दृष्ट और श्रुत में आशक्त होकर ।
अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com

Monday, May 6, 2019

जच्चन्ध हत्थि कथा

जच्चन्ध हत्थि कथा 

भूतपुब्बं भिक्खवे, सावत्थियं एको राजा अहोसि।
बहुत पहले, भिक्खुओं, सावत्थी में एक राजा हुआ करता था। 
सो राजा अत्तनो मंतीं आमन्तेसि।
उस राजा ने अपने मंत्री को बुलाया।
"एहि मंती, यावत सावत्थियं जच्चन्धा सन्ति,
आओ मंत्री, सावत्थी में जितने जन्म से अंधे हैं,
ते सब्बे एकज्झ सन्निपातेहि।"
उन्हें सब को एकत्र जमा करो।
एवमेव सो मंती रञ्ञो पटिसुत्वा यावत सावत्थियं जच्चंधा
इस प्रकार, उस मंत्री ने राजा को सुन कर सावत्थी में जितने जन्मांध थे
ते सब्बे गहेत्वा येन राजा तेनुपसंकमि।
उन सब को पकड़ कर जहाँ राजा था, लाया।
उपसंकमित्वा तं राजानं एतद वोच-
जा कर उस राजा से ऐसा कहा-
"सन्निपतिता देव ! ते सब्बे जच्चन्धा।"
जमा हैं देव ! वे सब जन्मांध।
"तेन हि भणे, जच्चन्धानं राज-हत्थिं दस्सेहि।"
तो भणे,  जच्चंधों को राज-हत्थी दिखाओ.
एवमेव मंती तस्स रञ्ञो पटिसुत्वा
इस प्रकार  मंत्री ने उस राजा को सुन कर
जच्चन्धानं राज-हत्थिंं दस्सेसि।
जन्मान्धों को राज-हत्थी दिखाया।
अथ खो भिक्खवे, सो राजा येन ते जच्चन्धा तेनुपसंकमि।
और भिक्खुओ, वह राजा जहाँ जन्मांध थे, पहुंचा।
उपसंकमित्वा ते जच्चन्धे एतद वोच-
जा कर उन जन्म से अन्धों को यह बोला -
"दिट्ठो भणेे हत्थि ?"
देखा भणेे, हाथी ?
"आम,  देव ! दिट्ठो  हत्थि।"
हाँ, देव ! देखा हाथी।
"वदेथ भणे,  किदिसो सो हत्थि ?"
बताओ भणे, कैसा है वह हाथी ?
"सो, देव ! कुम्भो सदिसो।
वह देव ! घड़े जैसा है।
सो, देव ! सुप्पो सदिसो।
अनुक्कमेन खीलो,  नंगलो,  कोट्ठको, थूणो, समुज्जनि
अनुक्रम से कील, हल, कोठी, खम्बा, झाडू
सदिसा वदन्ति'ति येन हत्थिस्स दन्तं,
जैसे कहते रहे,  जिन्होंने हाथी का दांत,
सोंडं, कायं, पादं, वालधिंं फुसितंं आसुं।
सुंड, काया, पैर, पूंछ को छुआ ।

एवमेव भिक्खवे, अञ्ञ परिवाजका अन्धा, अचक्खुका सन्ति।
ऐसे ही भिक्खुओं, अन्य परिवाजक अन्धे, बिना आँख के हैं।
ते धम्मं अत्थं न जानन्ति
ते सधम्म का अर्थ नहीं जानते।
धम्मं अत्थं अजानन्ता विवादेन्ति, कलहाति-
सधम्म का अर्थ  न जान कर विवाद करते हैं, झगड़ते हैं
एदिसो धम्मो, तादिसो धम्मो ?
ऐसा सधम्म है, वैसा सधम्म है ?
स्रोत- नाना तित्थियं सुत्त : उदान
- अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

बुद्धिस्ट परम्परा में बालकों के नाम

बुद्धिस्ट परम्परा में बालकों के नाम
अजय, अजयपाल, अजयमित्र, अजातबन्धु, अतुल, अनिल, अनुरुद्ध, अनागारिक, अनाथपिण्डक, अनोमदस्सी, अंकुर, अपूर्व, अमृतलाल, अमरमित्र, अमोल, अरविन्द, अश्वजित, अश्वघोष, अश्वमित्र, अनन्तशील, अविनाश, अग्निमित्र, अग्रप्रिय, अग्रशील, अजीत, अजातशत्रुु , अजिताभ, अजितेन्दु, अभिकान्त, अभिनव, अभिषेक, अमरशील, अमिताभ, अमोलरत्न, अरुण, असंग, अंशु, अशोक, अशोकरतन, अशोकवर्धन, अहिंसक, अक्षत, आदित्य, आदित्यबोधी, आदित्यरत्न, आदित्यप्रकाश,  आदित्यकुमार, आनन्द, आम्रपाल, आलोक, आलोकप्रकाश, आर्यभद्र, आर्यमित्र, आर्यशील, आर्यप्रकाश।
इसिरत्न, इसिभूषण, इसिव्रत, इसिमित्र, इसिप्रिय, इसिप्रताप, इसिप्रकाश।
उत्तर, उत्तम, उत्तरपाल, उदयभानु, उदयप्रताप, उदयवीर, उदयकीर्ति, उदयपाल, उदयश, उदयसागर, उदयमित्र,  उदायि, उदितराज, उदयरत्न, उपतिस्स।
एकविहारिय, एकधम्मीय।
कपिल, करुणाकर, करुणासागर, करुणप्रज्ञ, कलिंगपाल, काश्यप, कांतिकुमार, कुमारजीव, कुमारिल, कुणाल, कृतान्य, कृपाल, कर्मप्रिय, कर्मवीर, कर्मशील, कौन्डिय, कौशल, कौशल्यायन।
खेम, खेमकिरण, खेमसमंद, खेमपाल, खेमराज, खेमचन्द्र, खेमरत्न।
गगनदीप, गयानिधि, गयाकश्यप, गजरतन, गणराज्य, गणज्योति, गिरिदत्त, गिरिमानन्द, गुणाकर, गुणपूर्ण, गुणप्रिय, गुणमित्र, गुणदत्त, गुणवर्धन, गुणानन्द, गुणभूषण, गुणसागर, गुणप्रकाश, गुणज्योति, गुणाधिपति, गौतम, गौतमरत्न, गौतमबन्धु, गौतमानन्द, गौतमशील, गौरव, गौरवकान्त, गौरवनिधि,।
चन्द्रशील, चन्द्रगुप्त, चन्द्रपाल, चन्द्रकान्त, चन्द्रप्रकाश, चन्द्रदीप, चन्द्रमणी, चन्द्रिकाप्रकाश,  चन्द्रभूषण, चन्द्रकीर्ति, चक्षुपाल, चक्रवर्ती, चतुसत्य, चतुसत्य, चरित्तगुप्त, चरित्तवर्द्धन, चरित्तगौरव, चारूकीर्ति, चारूमित्त, चित्तपाल, चिन्मय, चित्तक, चेतन,।
जीवनप्रिय, जगमीत, जगतबन्धु, जनमित्र, जनगुप्त, जेतवन, जय, जयकर, जयवर्धन, जयदीप,  जयशील, जयपाल, जयसेन, जयरत्न, जयवर्द्धन, जयप्रकाश, जयसिंह, जयकुमार, जयभूषण, जिज्ञासु,  जितेन्द्रीय, जितेन्द्रुशील, जीवक, जीवानन्द, ज्योतिप्रकाश, जोतिपाल।
दयाशील, दानशील, दानसूर्य, दानविक्रम, दानवीर, दानभद्र,  दिवाकर, दिपंकर, दिनकर, दिशाचन्द्र, दिशानायक, दिलीप, दिक्पाल, दिनेश, दीपक, दीप्तिवर्धन, दीपवंश,  देवप्रिय, देवभूषण, देवपाल, दीवांशु, देवरक्षित।
धम्मकीर्ति, धम्मचारी, धम्मचेतिय, धम्मदस्सी, धम्मघोष, धम्मपाल, धम्मघ्वज, धम्मानन्द, धम्मनाग, धम्मनायक, धम्मप्रिय, धम्मप्रहरी, धम्मबन्धु, धम्मदेव, धम्मवीर, धम्मभूषण, धम्मदीप, धम्मरक्षित, धर्मानन्द, धम्मवीर, धम्मवर्द्धन, धम्मरत्न, धम्मशील, धम्मशरण।
नवीन, नवरत्न, निरंजन, निखिल, निर्मल, निशांत, नितिन, निर्णयशील, निशिकांत, नागसेन, नागराज, नागपुत्र, नागार्जुन, नीरज, नीरव, नीरनिधि,  नीरनिधि, न्यायप्रिय, न्यायबन्धु, न्यायवर्धन, नागमित्र।
पुण्यपात्र, पुण्यमित्र, पुण्यशील, पुण्यवर्द्धन, प्रज्ञानन्द, प्रज्ञाशील, प्रज्ञानन्द, प्रज्ञाभूषण, प्रज्ञामित्र, प्रज्ञाकीर्ति, प्रज्ञादीप, प्रज्ञाजीत, प्रज्ञासेन, प्रज्ञादेव, प्रद्योत, प्रताप, प्रियंकर, प्रियरत्न, प्रियदर्शन, प्रियदर्शी, प्रसेनजीत, प्रभाकर, प्रभासेन, प्रभामित्र, प्रभाजीत, प्रभाष, प्रबोध, प्रबुध्द, प्रकाश, प्रदीप, प्रियांश, पंचरत्न, पंचशील।
बन्धुराज, बालादित्य, बिम्बिसार, बुद्धरत्न, बुद्धवाणी, बुद्धगुप्त, बुद्धमित्र, बुद्धपाल, बुद्धप्रिय, बुद्धबन्धु, बुद्धानन्द, बुद्धघोष, बुद्धनाग, बुद्धप्रताप, बुद्धज्योति, बुद्धभूषण, बुद्धशरण, बुद्धोदन, बोधिशरण, बोधिपाल, बोधिभद्र, बोधिराज, बोधिगौरव, बोधानन्द।
भिक्खुपाल, भिक्खुमित्र, भारत, भद्रगुप्त, भद्रसेन, भीमराव, भीमदत्त, भीमानन्द, भीमप्रिय, भीमरतन, भीममित्र, भीमभूषण, भीमरक्षित, भीमकीर्ति, भीमरत्न, भीमज्ञान,  भूपसिंह।
महाजेता, महासिक्खा, महानाम, महानाग, महासेन, महावर्धन, महाकात्यायन, महाप्रज्ञ, महापन्यक, महाचुन्द, महाबोधि, महाधम्मरक्षित, महावंश, महापात्र, महाकाश्यप, महागुप्त, महीपाल, मनोहर, मालुक्य, मिलिन्द, मित्रगुप्त, मित्रसेन, मिहिरसेन, मिगारगुप्त, मुनिन्द्र, मुकुल, मोधराज, मैत्रेेय।
यश, यशपाल, यशशील, यशगुप्त, यशदीप, यशकीर्ति, यशोवर्मा, यशोधन, यज्ञदत्त, योगमित्र, योगराज, योगवर्धन, ययातिगुप्त, यशोसागर।
रत्नपाल, रत्नभूषण, रत्नकुमार, रत्नकीर्ति, रत्नसागर, राजपाल, राजदत्त, राजपुत्र, राजदेव, राजवर्धन, राष्ट्रपाल,  राष्ट्रवर्धन, राजीव, राहुल, राहुलदत्त, रणजीत, रजनीपाल, राजेश, रजनीरंजन, रजनीकांत, रविन्द्र, रविदत्त, रविसेन, रविगुप्त, रोहित, रेवत, रतनज्योति।
ललित, ललितवर्धन, ललितसेन, ललितगुप्त, ललितमोहन, लोकपाल, लोकवर्धन, लोकमित्र, लोकायन, लोचन, लोचनचन्द्र, लिच्छिवी, लोकबन्धु, लोकमित्र।
वदान्य, वसुबन्धु, वरुणपाल, विमलधम्म, विवेक, विवेकशील, विवेकचित, विवेकमित्र, विवेकरत्न, विजय, विजयशील, विमलकीर्ति, विमलसार, विमलानन्द, विजयानन्द, विजयघोष, विशुद्धानन्द, विनित, विनय, विनयशील, विनयवर्द्धन, विनयमित्र, विनयघोष, विनयबोधि, विनयकुमार, विद्यानन्द, विद्याराज, विश्वास, विश्वबन्धु, विश्वपाल, विश्ववर्द्धन, विशाल, विपुल, विशिष्ठ, विभाकर, विबोध, विकास, वैभव।
सुदत्त, सुमंगल, सुशील, सुनाग, सुधर्मा, सोभित, सम्बुद्ध, सत्यघोष, सत्यार्थ, सत्यप्रकाश, सत्यपाल, सत्यशरण, सुमतकीर्ति, सुमेध, संघरक्षित, स्नेही, स्नेहीमित्र, सम्बोधि, सिद्धार्थ, साधनारत्न, संघभूषण, सद्धातिस्स, संघराज, संघरत्न, संघपाल, संघमित्र, संघप्रिय, संघबन्धु, संघघोष, सारिपुत्र, सत्यशील।
शांतिमित्र, शांतिप्रिय, शांतिप्रकाश, शांतिवर्द्धन, शाक्यकुमार, शाक्यरत्न, शाक्यमित्र, शीलवाहक, शीलवर्द्धन, शीलगौरव, शीलभद्र, शीलानन्द। 
हर्षवर्धन, हर्षकुमार, हेमगुप्त, हंसगुप्त, हंसराज, हंसपाल, हितैषी, हृदयगुप्त, हृदयानन्द, हेमंत, हेमराज।
त्रिरत्नप्रिय, त्रिरत्नप्रकाश, त्रिलोकप्रताप, त्रिलोकपाल, त्रिलोकनाथ, त्रिलोकस्वरूप, त्रिलोकचन्द्र।
ज्ञानाभिलाषी, ज्ञानेन्द्रु , ज्ञानशील, ज्ञानज्योति, ज्ञानवीर, ज्ञानप्रभा, ज्ञानकीर्तिशील।