Monday, February 21, 2011

दलितों के पृथक शिक्षा-संस्थान हो

हमारे देश में अल्पसंख्यकों को उनकी पृथक सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत के आधार पर संवैधानिक रूप से उन्हें अपने शिक्षा-संस्थान खोलने और चलाने की अनुमति दी गई है और साथ ही राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह न केवल ऐसी व्यवस्था करे वरन इन शिक्षा-संस्थाओं को चलाने के लिए आर्थिक मदद भी दे.पृथक शिक्षा-संस्थान खोलने व चलाने की अनुमति देने के पीछे संविधान-निर्मात्री सभा की मंशा अल्पसंख्यकों की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को संरक्षण देने की थी।         

भारत, मूलत: बहुआयामी-संस्कृतियों का देश है। यहाँ पर संस्कृतियों की भिन्नता धार्मिक आधार पर है। यहाँ पर संस्कृतियों की विभिन्नता सामाजिक आधार पर है और यहाँ पर संस्कृतियों की विभिन्नता जाति/मूल-वंश के आधार पर है।  इस देश की  दलित जातियां, यद्यपि राजनितिक कारणों से हिदू बहुसंख्यकों में गिनी जाती हैं किन्तु, सांस्कृतिक आधार पर निश्चित रूप से वे हिन्दू और हिन्दू-संस्कृति से भिन्न हैं-
1.  हिन्दुओं के धार्मिक सोलह संस्कार दलित जातियों में नहीं होते है.
2.  सामाजिक-धार्मिक संस्कारों को सम्पन्न करने दलित जातियों में ब्राह्मण पंडित नहीं आता है। सवर्ण हिन्दुओं  में ब्राह्मण पंडित अनिवार्य है।
3.  दलित जातियां जनेऊ धारण नहीं करती है और नहीं चोटी रखती हैं। .जबकि जनेऊ और चोटी सवर्ण हिन्दुओं की पहचान है।
4.  वर्ण-व्यवस्था हिन्दुओं का आधारभूत सिद्धांत है जो असमानता की धार्मिक सम्मति  देता है। दलित जातियां इससे घृणा करती है।
5.  दलित संस्कृति सिद्धांत: मातृ-सत्तात्मक समाज है जबकि हिन्दू संस्कृति ,पितृ-सत्तात्मक समाज है।
6.  दलित जातियों के आराध्य देवी-देवता ,हिन्दू देवी-देवताओं से प्रथक हैं।
7.  दलित जातियों के आदर्श पुरुष, हिन्दुओं के आदर्श पुरुषों से अलग हैं।
8.  विधवा विवाह दलित जातियों में प्रचलित है जबकि हिन्दुओं में यह स्वीकार्य नहीं है।
9.  बाल-विवाह और सती-प्रथा हिन्दुओं में स्वीकृत है जबकि दलित जातियों में दोनों प्रथाएं अस्वीकृत हैं।
10. हिन्दुओं में नाम-करण संस्कार आदि दलित जातियों से भिन्न हैं।
11.  हिन्दू अपने को सूर और दलित जातियों को असुर मानते हैं।
12. दलित जातियां, हिन्दुओं के लिए अस्पृश्य हैं।
13.  दलित जातियों का हिन्दुओं के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं है।
14.  हिन्दुओं के मन्दिरों में दलित जातियों का प्रवेश शास्त्र-निषिद्ध है। 
15.  हिन्दुओं के धर्म-शास्त्र, दलित जातियों को स्वीकृत नहीं हैं ।
16.  हिन्दुओं में ब्राह्मण और गौ को पूज्य माना जाता है। जबकि दलित जातियां ब्राह्मण से घृणा और गाय का मांस खाती हैं।
17.  होम,यज्ञादि कार्य हिन्दू धार्मिक संस्कार हैं, जबकि दलित जातियों में ऐसा नहीं है।
18.  हिन्दू मिडिया, दलित जातियों से सम्बन्धित समाचारों की उपेक्षा करता है। दूसरे, दलित जातियों के पत्र- पत्रिकाएं, हिन्दू  नहीं पढ़ते।
19.  दलित जातियों का अपना दलित साहित्य है, जिसकी हिन्दू  उपेक्षा करते हैं।
20.  दलित, हिन्दुओं से पृथक रहते हैं।  इनके नाई तक पृथक होते हैं।

यही कारण है कि दलित जातियों को पृथक सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई स्वीकार करते हुए हमारे देश के संविधान में अलग से प्रावधान किये गए हैं। चूँकि, हिन्दू और दलित जातियों में न सिर्फ सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नता है वरन, परस्पर वैमनश्यता के बीज भी पर्याप्त है। इसलिए संवैधानिक प्रावधान किये गए-
-संसद और विधान सभाओं में।
-राज्य की सेवाओं और पदों में उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व।
-राज्य की शैक्षणिक-संस्थाओं में आरक्षण।
-शासन की विभिन्न योजनाओं में उचित भागीदारी। 

प्रत्येक समाज का अपना इतिहास होता है।  उसकी अपनी संस्कृति होती है, उनके अपने महापुरुष होते हैं। ये महापुरुष उस समाज के आदर्श होते हैं। सच तो यह है कि जिस समाज का इतिहास नहीं होता, वह समाज ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।  आखिर,बिना इतिहास और संस्कृति के कोई समाज कब तक जिन्दा रह सकता है ?
शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जिससे लोग शिक्षित होते हैं; अपने इतिहास और संस्कृति को जानते हैं। शिक्षा के द्वारा ही तार्किक समझ पैदा होती है. शिक्षा से अच्छे-बुरे की पहचान होती है। शिक्षा, सफलता की समस्त मंजिलों  का प्रवेश द्वार है।  जबकि, अशिक्षा,सब बिमारियों की जड़ है और यही कारण है कि दलित जातियों को हमेशा-हमेशा गुलाम बनाये रखने के लिए उनकी शिक्षा का निषेध किया गया।  दूसरे,उनके इतिहास को न सिर्फ विकृत किया गया बल्कि,उसे घृणास्पद रूप से पेश किया गया।  नतीजा ये हुआ की दलित जातियों के बच्चें अपने ही इतिहास को घृणा से देखते हैं।  अपने मूल-वंश/जाति का नाम बतलाने शर्म महसूस करते हैं।  जिसे अपने मूल-वंश पर गर्व न हो, भला उससे आप क्या उम्मीद कर सकते हैं ? कम-से कम अपने समाज के लिए उसकी कोई उपयोगिया नहीं हो सकती और जिसकी उपयोगिता उसके अपने समाज के लिए नहीं हो सकती, देश के लिए उससे क्या उम्मीद की जा सकती है ?

दलित जातियों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार का प्रयास अंग्रेजी हुकूमत ने किया।  कारण जो भी हो, किन्तु, यह सच है। स्वतंत्रता के बाद इसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी नैतिक रूप से शासित जाति हिन्दुओं पर आन पड़ी।  किन्तु, शासित जातियों को शायद लगने लगा कि अगर, दलित जातियां शिक्षित हो गई तो शीघ्र ही इन पर  उनका प्रभुत्व ख़त्म हो जायेगा. फिर, वे किसके भरोसे गद्दी पर बैठेंगे ? उन्हें वोट कौन देगा ? अत: शासक जातियों ने इसका हल दोहरी शिक्षा-नीति से निकाला और व्यापक स्तर पर इसे लागू किया।  दोहरी शिक्षा नीति का लम्बा असर यह हुआ कि सरकारी स्कूलों में पढाई होती नहीं और गैर-सरकारी स्कूलों में इतनी पढ़ाई होती है कि  बच्चों को साँस लेने कि फुर्सत नहीं होती।  किन्तु, गैर-सरकारी स्कूलों में फ़ीस इतनी तगड़ी होती है कि दलित जाति के लोग इसका बोझ नहीं उठा सकते।  अब दलित जातियों के पास दो ही रास्तें हैं कि वे अपना सब कुछ दांव पर लगा कर बच्चों को इन गैर-सरकारी स्कूलों में भेजे या सरकारी स्कूलों में भेजकर उनको किसी काम के लायक न रहने दे।  सरकारी स्कूलों से निकले बच्चे न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ सकते हैं और न ही पूंजी के अभाव में कोई व्यवसाय खोल सकते हैं. 

आज, प्राइवेट स्कूलों ने एक व्यवसाय का रूप ले लिया है। जिन दलित जातियों के कर्मचारी-अधिकारियो  के पास पैसा हैं, वे ही इन स्कूलों में अपने बच्चों को भेज पा रहे हैं।  किन्तु, ऐसा कर दलित जाति के ये कर्मचारी-अधिकारी अपनी गाढ़ी कमाई के पैसो से शासक जातियों के उद्देश्य को ही सफल बना रहे हैं ! यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि सरकारी स्कूलों के साथ-साथ अन्य प्राइवेट स्कूलों में दलित जातियों के इतिहास और संस्कृति के बारे, कोई शिक्षा नहीं दी जाती।  दलित जाति के नायक-नायिकाओं के बारे में जानकारी देने में चुप्पी बरती जाती है।  कुछ नायक-नायिकाओं को घृणा और हंसी के पात्र के रूप में पेश किया जाता है।  रावण, जो असुर संस्कृति का प्रतीक है, घृणा के रूप में चित्रित किया जाता है। आर्य, खुद को सुर-संस्कृति के वाहक बतलाते हैं। दलित जातियां,जब खुद को असुर संस्कृति से जोडती है , तब असुरों को राक्षस, दैत्यों के रूप में चित्रित करने का क्या तुक है ? आर्य-अनार्य की थ्योरी आप खुद पढ़ा रहे हैं।  यहाँ के मूल-निवासियों को असुर, आप खुद बतला रहे है तब, असुरों को घृणित पेश करने का क्या तुक है ? क्या इसके पीछे भावना यह नहीं कि दलित जातियां बनाम मूल-निवासी/असुर, अपने आप से घृणा करे ? राम को इश्वर चित्रित करना एक बात है किन्तु , रावण को असुर संस्कृति से जोड़कर घृणित चित्रित करना दूसरी बात है। इसी तरह, अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धारी सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा काटने का क्या तुक है ? इससे आप क्या सन्देश देना चाहते हैं ? आज, रामास्वामी की मूर्ति स्थापित किये जाए पर बवाल खड़ा किया जाता है ! इसलिए कि रामास्वामी ने इन षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया।  तर्क दिया जाता है कि यह उनके आस्था का सवाल है ! किन्तु, यही आस्था का सवाल दलित जातियों के साथ लागू क्यों नहीं होता ? राम अगर आपके आस्था-पुरुष हैं तो रावण हमारे आस्था-पुरुष क्यों नहीं हो सकते ? जगदलपुर (बस्तर) में परम्परा से चले आ रहे आदिवासियों के दशहरा-उत्सव में सेंध लगा कर राम की जगह रावण के पुतले को आग लगाने की हिन्दू-परम्परा शुरू करने का क्या तुक है ?

शिक्षण संस्थानों में इस तरह की  घृणा और वैमनश्यता अल्पसंख्यकों को भी रास नहीं आती।  किन्तु, इसके लिए उनके अपने शिक्षण-संस्थान हैं. दलित जातियों के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। पृथक  शिक्षा-संस्थान न सिर्फ दलित जातियों के इतिहास एवं संस्कृति के बारे में जानकारी देंगे, वरन शासक जातियों द्वारा प्रचारित /प्रसारित घृणित दलित इतिहास और संस्कृति को दुरुस्त करेंगे। अल्पसंख्यकों के शिक्षा-संस्थानों को देख कर शासक हिन्दुओं ने सरस्वती शिशु-मन्दिरों की श्रंखला तैयार की और वहां बच्चों को नैतिक शिक्षा के नाम पर हिन्दू-संस्कृति थोपना शुरू किया। इसके आलावा, विवेकानंद-आश्रम, बनवासी-आश्रम आदि हजारों पाठशालाएं खोलकर हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार आरम्भ किय। . आखिर, जिनके हाथों में सत्ता है, उन्हें पृथक शिक्षा-संस्थान खोलने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु, इस तरह का विचार करने के लिए भी समाज में शिक्षा की चेतना जरुरी है जिसका अभाव, दलित जातियों में जान-भूझ कर पैदा किया गया।

 इतिहास में भारत को विश्व-गुरु सम्बोधित किया गया।  विश्व-गुरु की यह उपाधि भारत को बुद्धिस्ट पांच विश्वविद्यालय के कारण प्राप्त थी. जगत प्रसिद्द ये पांच विश्वविद्यालय थे-नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, राउरकेला एवं वल्लभी विश्वविद्यालय जहाँ, संसार के कोने-कोने से लोग पढने आते थे। आज, विश्व के जिस कोने में आप जाइये,हिन्दू नहीं, बौद्ध जन्म-भूमि के नाम से भारत को जाना-पहचाना जाता है.बुद्ध प्रथम वे व्यक्ति थे, जिन्होंने कुल/जाति वंश के परे 'बहुजन हिताय-बहिजन सुखाय' की बात कही थी। बुद्ध,शुद्ध मानवता की बात करते थे। वे हर शोषण के खिलाफ थे। उनकी शिक्षा में दोगली बातें नहीं थी।  वे किसी गैर-बराबरी की देशना नहीं करते थे। वे किसी अस्प्रश्यता की बात नहीं करते थे और इसलिए, दलित जातियां बुद्ध को अपना प्रेरणा-स्रोत मानती है।  इसके उल्ट, हिन्दुओं ने बुद्ध को न सिर्फ उनकी जन्म-भूमि में, ख़त्म कर दिया वरन ऐसा प्रयास भी किया कि यहाँ फिर, कोई बुद्ध पैदा न हो सके। जब विश्व प्रसिद्द बुद्धगया का बौद्ध-मन्दिर ही, आज भी हिदुओं के कब्जे में हैं तो अन्य  बौद्ध-स्थलों की बात दूसरी है। किन्तु, इतना सब होते हुए भी बाबासाहब डा. आंबेडकर ने न सिर्फ यहाँ बौद्ध धर्म का झंडा फहराया वरन दलित जातियों को भारत को  पुन: बौद्धमय करने का आव्हान किया।  बेशक, दलित जातियां बुद्ध को अपना धर्म गुरु मानती हैं। स्पष्ट है, दलितों के शिक्षा संस्थान बुद्ध से अनुप्रेरित होना चाहिए। वे शिक्षा संस्थान अम्बेडकरी-मिशनरी शिक्षा के केंद्र होने चाहिए। 

वर्तमान में, दलित जातियों की राजनितिक पार्टी है। धार्मिक आस्था के लिए बौद्ध धर्म है  किन्तु,शिक्षा के कोई पृथक शिक्षा-संस्थान नहीं हैं। दलित जातियों को अपने उद्धारक और मसीहा डा. आम्बेडकर की देशना- शिक्षित करो,संघर्ष करो और संघठित करो' के अनुपालन में प्रथक शिक्षा-संस्थानों की स्थापना जरुर करनी चाहिए।  इन शिक्षा-संस्थानों में अपना स्कूल, अपने बच्चें और अपने शिक्षक की गाइड-लाइन पर कार्य होना चाहिए तभी लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। दलित जातियों ने आज तक अपने मसीहा की प्रथम देशना-'एजुकेट' की गलत व्याख्या कर अपनी सीमित शक्ति का उपयोग 'शिक्षित बनो' पर किया. बेशक इसका परिणाम भी निकला किन्तु वह सीमित था। दलित जातियां अगर, अपना ध्यान 'शिक्षित बनो' के स्थान पर 'शिक्षित करो' में लगाती तो निश्चित रूप से परिणाम व्यापक होता. बहरहाल, देर आयद, दुरुस्त आयद। दलितों को अपने शिक्षा-संस्थान खोलने में देर नहीं करना चाहिए।    
          

Wednesday, February 16, 2011

Parivartan Mission School : Ambedkarite Education System for Indian Dalit masses

          बाबा साहेब डा.आम्बेडकर ने ,जो कि राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय स्तर पर दलित-पिछड़ी जातियों के मसीहा के रूप में जाने जाते हैं, एक तारक मन्त्र दिया है- 'शिक्षित करो ,संघर्ष करो एवं संगठित करो'.यह मन्त्र दलित-पिछड़ी जातियों में बहु-प्रचारित है.लोगों ने इस मन्त्र का अर्थ अपने-अपने तई किया है.कुछ ने तो मन्त्र को ही उलट दिया है.
          मन्त्र में तीन बातें कही गयी है. पहला, शिक्षित करो. दूसरा, संघर्ष करो और तीसरा, संगठित करो . मन्त्र मूलत: अंग्रेजी में इस तरह है-  Educate,Agitate,Organise.  मगर,देखने में आया है की ९०%  लोग/ संस्थाएं न सिर्फ मन्त्र का गलत अर्थ लगाते हैं बल्कि, उदृत भी गलत तरीके से करते हैं.अर्थात  Educate,Agitate,Organise. न लिख कर Educate,,Organise.Agitate  लिखते हैं. मैंने यहाँ 'मन्त्र' शब्द का उपयोग जानबूझ कर किया है.संस्कृत भाषा के ज्ञाता जानते हैं की 'मन्त्र' में पाई-मात्रा, शब्द-अक्षर  का बड़ा महत्त्व होता है. थोडा भी इधर-उधर होने से 'मन्त्र' का समूचा अर्थ ही बदल जाता है. और यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि बाबा साहेब आम्बेडकर के मुखारबिंद से निकला एक-एक शब्द और वाक्य 'मन्त्र' से कम नहीं है.
            बाबा साहेब द्वारा दिए गए इस मन्त्र को जाने-अनजाने गलत उदृत करने से क्या-क्या अनर्थ हुए हैं,इसकी चर्चा अन्यत्र फिर कभी होगी.फ़िलहाल,हम इस मन्त्र के प्रथम अक्षर 'एजुकेट' पर आते हैं. मन्त्र में जिस तरह 'एजुकेट' शब्द प्रयुक्त हुआ है-  का अर्थ 'शिक्षित करो' होना चाहिए न कि 'शिक्षित बनों',जैसे कि प्राय: अर्थ लगाया जाता है. अगर, बाबा साहब का आशय 'शिक्षित बनों' से होता तो वे  'Educate की जगह 'Be Educate'  होने का आदेश देते. स्पष्ट है, बाबा साहब के आदेश का आशय 'शिक्षित करो' से ही है. मगर,हुआ यह कि जाने-अनजाने इसका अर्थ 'शिक्षित बनो' समझा गया.और जैसे कि परिणाम सामने है,बाबा साहेब के अनुयायियों ने अपना सारा ध्यान खुद के 'शिक्षित बनों' पर केन्द्रित कर दिया.
                   'शिक्षित करो' वर्सेस 'शिक्षित बनो' की विचारोत्तेजक बहस से बेंगलोर से प्रकाशित 'दलित वायस' के पाठक भली-भांति परिचित हैं.अब ये अलग बात है कि इसका फायदा उन्होंने कितना उठाया, मुझे ज्ञात नहीं. मगर, इस मन्त्र को अमली जामा पहना कर 'शिक्षा-धर्म' के प्रणेता: डा. आनंद ने आर एस एस के विद्या भारती द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मन्दिरों की श्रंखला की तर्ज पर पूरे देश में दलित-पिछड़ी जातियों के बीच 'परिवर्तन मिशन स्कूलों' की श्रंखला खोल कर 'शिक्षित करो' के कार्य का जो बीड़ा उठाया, वह स्तुतिय है.
         रोगी के रोग का निदान, रोग को पहचान कर किया जाता है.अगर, रोग की पहचान सही नहीं हुई तो गलत इलाज के चलते रोगी मर जाता है. अर्थात, रोग की पहचान असली जड़ है.मगर, दिक्कत यह है कि हमारे यहाँ बीमारी की पहचान(dignosis ) पर ध्यान नहीं दिया जाता.बस! इलाज किया जाता है.कुछ इसी तरह की व्यवस्था शिक्षा के क्षेत्र में डा. आनंद हमारे देश में देखते हैं.
           डा. आनंद का जन्म १ नव. १९६५ को ग्राम एरई जिला दतिया (म.प्र.) में हुआ था. आपके पिता का नाम जागन सिंह और माता का नाम हरबो बाई है.प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने मेडिकल में दाखिला लेकर एम् बी बी एस किया. यही नहीं, तदन्तर उन्होंने एम् एस कर नेत्र रोग फेकल्टी में विशेषज्ञता हासिल की है.
           समाज को किस तरह की शिक्षा दी जाये,खासकर बहुजन समाज को, इस पर डा. आनंद ने गंभीर चितन किया है. डा. आनंद कहते हैं कि वह समाज का कार्य चिकित्सा के क्षेत्र में रह कर उतना नहीं कर सकते थे. अत: आपने, आजीवन अविवाहित रहकर डा. बाबा साहब आम्बेडकर के अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया है- न मेरा कोई परिवार होगा न कोई निजी संपत्ति होगी. डा. आनंद  के अनुसार, देश की शिक्षा जब तक बहुजन-विचारधारा पर आधारित नहीं होगी, तब तक बाबा साहब का सपना पूरा नहीं हो सकता.
परिवर्तन  मिशन स्कूलों के बच्चें 
         डा. आनंद कहते हैं कि वे, गाँव के रहने वाले हैं तथा गावों में रहने वाले बहुजन समाज की दशा से अच्छी तरह परिचित हैं, जो कि मनुवादी-व्यवस्था के तहत ६००० से ज्यादा जातियों बटे है और जो अन्धविश्वास में जकड़े हैं.मनुवादी-व्यवस्था के वजह से ही ब्राह्मणवाद इनका शोषण कर रहा है. यह मनुवादी-व्यवस्था बहुजन समाज के लिए कोढ़ की बीमारी है और इस बीमारी का इलाज डा. आनंद के अनुसार,आम्बेद्करवादी-मिशनरी शिक्षा है.इसलिए जब तक यह शिक्षा लागू नहीं हो जाती है तब तक सामाजिक परिवर्तन बेमानी है.इस शिक्षा को बड़े पैमाने पर लागू करना होगा.मनुवादी समाज-व्यवस्था को समूल नष्ट करने के लिए बहुजन समाज के बच्चो के संस्कारों को बदलना होगा, तभी वे मान-सम्मान से जी सकेंगे.अन्यथा गुलामी की जिंदगी जीने बाध्य होंगे.
        सन १९९२ में, भारत सरकार द्वारा सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए ३ किलो गेहूं प्रति छात्र प्रति माह के हिसाब से बाँटने की योजना लागू की गई तभी, डा.आनंद समझ गए थे की सरकार, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को शिक्षित नहीं करना चाहती बल्कि,उन्हें भिखारी बनाना चाहती है. डा. आनंद कहते हैं कि तब वे २७ वर्ष के थे और एम् एस कर रहे थे.सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों के प्रति सरकार की सोच देख कर उन्होंने फैसला लिया कि वे चिकित्सा-क्षेत्र में न जाकर कर बहुजन समाज के बच्चों की शिक्षा के लिए कार्य करेंगे.
      बहुजन समाज के शिक्षा-मिशन को कार्य रूप में परिणित करने डा.आनंद ने २४ जुलाई सन १९९६ को देश की राजधानी दिल्ली में  'The All India Dr Babasaheb Ambedkar Missionary Society  की स्थापना की जिसे संक्षेप में  BAMS  (बाबासाहब आम्बेडकर मिशन सोसायटी) कहा जाता है. BAMS  का केन्द्रीय कार्यालय  F 1/187 Mangolpuri : New Delhi 110083  है. डा. आनंद अब तक कई प्रदेशों में 'परिवतन मिशन स्कूल' खुलवा कर शुरुआत से ही बच्चों को  A for Ambedkar और  B for Buddha  के संस्कार सिखा रहे हैं.म.प्र.,उ.प्र.,महाराष्ट्र,छतीसगढ़,बिहार आदि प्रदेशों परिवर्तन मिशन स्कूल संचालित हो रहे हैं.इन में से कुछ स्कूल प्राथमिक विद्यालय से हाई स्कूल की कक्षा तक पहुँच चुके हैं.परिवर्तन मिशन स्कूलों की श्रंखला संचालित कर डा. आनंद बहुजन समाज से आव्हान करते हैं कि आप हमें अबोध बालक दे,हम आपको सुबोध नागरिक देंगे. डा. आनंद ने नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्स्थापित करने का बीड़ा उठाया है.
     ८-९ नव.०८ को सारनाथ में संपन्न राष्ट्रीय शिक्षा-धर्म अधिवेशन में डा आनंद ने धर्मों की 'धुलाई' करते हुए कहा कि आदमी के विकास में धर्मों कि कोई जरूरत नहीं है. धर्मों ने आदमी को बांटा है. आदमी को हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई,पारसी,यहूदी,जैन, बौद्ध आदि खानों में बांटकर एक-दुसरे के प्रति नफरत के बीज बोया है. धर्मों के कारण ही धरती पर सैकड़ों बार खून-खराबा हुआ है. नफरत,दुश्मनी, उंच-नीच की घृणा धर्मों ने दिया है.और इसलिए अब ऐसे धर्मों की जरुरत कतई नहीं रह गई  है बल्कि, आवश्यकता है -शिक्षा-धर्म की.
धर्म के नाम पर लोग मरते हैं. 'हिन्दू' के नाम पर लोग मरते हैं. 'मुस्लिम' के नाम पर मरते हैं.आदमी जब तक 'हिन्दू' या 'मुस्लिम'  रहेगा, धर्म के नाम पर मारा जाता रहेगा.
           धर्म आदमी के लिए खूंटे बन गये हैं.हर आदमी किसी न किसी खूंटे से बंधा है.कोई खूंटे से छूटने को  राजी नहीं है और किसी तरह छुट भी जाये तो फिर, दूसरे खूंटे से बांध दिया जाता है.आदमी न हुआ,जानवर हो गया.
             धर्मों ने मानव जाति का बड़ा नुकसान किया है.दुनिया को बाँटने का काम किया है.इन्सान-इन्सान की बीच दीवार बनाने का काम किया है. और इसका एक मात्र कारण है, वैज्ञानिक तरीके से दी जाने वाली शिक्षा का अभाव है. सभी धर्म वैज्ञानिक सोच को नकारते है.गैलेलियो को मारने वाले धर्म के ठेकेदार  लोग थे.धर्म अज्ञानियों का होता है. ज्ञानियों का कोई धर्म नहीं होता..
            'शिक्षा-धर्म' का सन्देश देते हुए  डा आनंद कहते हैं कि मानव जीवन के विकास के लिए शिक्षा और विज्ञानं के आलावा और किसी की जरुरत नहीं है.किसी भी धर्म ने आज तक धरती पर किसी का भला नहीं किया.मानव का भला तो सिर्फ शिक्षा और विज्ञानं से हुआ है.शिक्षा और विज्ञानं से पूरी दुनिया का भला हुआ है.शिक्षा से आदमी समृद्ध हुआ वही विज्ञानं से समृद्धि सार्थक हुई.धर्म और विज्ञानं में एक बुनियादी फर्क है कि धर्म सिर्फ अंधों का होता है,ज्ञानी-विज्ञानी का कोई धर्म नहीं होता.आखिर २४ घंटों में आपको धर्म की कितनी आवश्यकता होती है कि आप बिना धर्म के जी न सकेंगे.वास्तव में २४ घंटों में आदमी को धर्मों की एक पल भी जरुरत नहीं पडती.जरुरत पडती है तो सिर्फ रोटी,कपड़ा और मकान की. और रोटी,कपड़ा और मकान सब विज्ञानं की देन है.
बाबा साहेब के अनुयायिओं को सम्बोधित करते हुए आपने कहा की 'बुद्ध'  का मतलब है -ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था. ज्ञान का शिखर,जहाँ पर जाकर आदमी सच्चाई को समझे.बुद्ध ने किसी 'धर्म'  की बात नहीं की. बुद्ध ने ज्ञान के शिखर की बात की. मगर,लोगों ने बुद्ध को भगवान् बना कर पूजना शुरू कर दिया. डा. साहब ने कहा की देश में जितने भी बुद्ध विहार बने हुए हैं, उन सब में स्कूल चलाना चाहिए.क्योंकि, बुद्ध विहार का मतलब है-स्कूल. बुद्ध विहार का मतलब है, जहाँ बुद्धि का विचरण होता है.जहाँ बुद्धि का आना-जाना होता है,अर्थात शिक्षा का केंद्र. यही बुद्ध का दर्शन है. मेरी बात पर आप कहते हैं कि बच्चे यहाँ पढेंगे तो हम माथा पटकने कहाँ जायेंगे ? आपको माथा पटकने की आदत है. लम्बे समय से आपके पूर्वज माथा पटक-पटक कर मर गए. मगर क्या माथा पटकने और पूजा-पाठ करने से उनकी स्थति में सुधार हुआ ? छुआ-छूत की घृणा से मुक्ति मिली ? माथा पटकने से सिर्फ दिमाग ख़राब होता है.अगर आप माथा पटकना छोड़ स्कूल चलाएंगे तो यहाँ से हजारों बुद्ध पैदा होंगे, हजारों बिरसा, रामास्वामी और आम्बेडकर पैदा होंगे. हमारे दुखों का कारण है,अशिक्षा. हमको अशिक्षित कर दुखी बनाया  गया है.हम बड़ी तादात में 'परिवर्तन स्कूल' खोल कर देश की सत्ता को हिला सकते हैं.
     बहुजन समाज में पढ़े-लिखे अधिकारी-कर्मचारी जो अपने आप को बुद्धिस्ट और आम्बेद्करवादी कहते हैं,अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं.देश के सभी प्राइवेट स्कूल या तो हिदुओं के हैं या मुस्लिमों के या सिक्ख/ईसाईयों के. इन में से एक भी आम्बेडकरवादी नहीं है.बहुजन-सांस्कृतिक विचार धारा को ये सब के सब नकारते हैं. तो फिर, क्या ये बहुजन समाज के अधिकारी-कर्मचारी ५.५ से ६.० अरब रूपये अपने बच्चों की शिक्षा के नाम पर इन प्राइवेट  स्कूलों में प्रति वर्ष जमा कर ब्राह्मणवादी शिक्षा और संस्कृति को ही मजबूत करने का काम नहीं कर रहे हैं ? 
      भारत सरकार द्वारा 'शिक्षा के अधिकार' के तहत बहुजनों के बच्चों को जो शिक्षा दी जा रही है,उस पर डा. आनंद कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में दलिया और खिचड़ी खिला कर शिक्षा दी जा रही है. मगर, क्या सरकार वास्तव में हमारे बच्चों को शिक्षा देना चाहती है ? स्कूलों में शिक्षा के नाम पर जो हो रहा है, उससे तो कतई ऐसा नहीं लगता.आठवी तक के बच्चों को ठीक से अ आ इ ई नहीं आता.स्कूलों में शिक्षा के नाम पर जो भिक्षा दी जाती है,उससे बच्चे शिक्षित कतई नहीं बन रहे हैं. हाँ, भिखारी जरुर बन रहे हैं.डा साहब भारत सरकार की दोहरी शिक्षा नीति का पर्दाफाश करते हुए कहते है कि उन्हें भिक्षा नहीं, शिक्षा चाहिए.हम अपने स्कूल खोल कर शिक्षा के मालिक बनना चाहते हैं.सरकारी स्कूलों में चूँकि,भिक्षा मिलती है,इसलिए जिसके पास थोडा बहुत पैसा है,वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजते.क्योंकि, सरकारी स्कूलों में कापी,किताबे,पेन्सिल,खिचड़ी सब फ्री मिलाता है बस शिक्षा नहीं मिलती.और तो और प्राथमिक लेवल से हाई स्कूल स्तर तक फेल नहीं किया जाता.बच्चें स्कूल आये या न आये,उनका नाम रजिस्टर से नहीं काटा जाता. क्या ऐसे स्कूलों में पढाई हो सकती है? वास्तव में,सरकारी स्कूल बहुजन समाज को भिखारी बनाने के ट्रेनिंग सेंटर हैं.यह बहुजन समाज को लम्बे समय तक गुलाम बनाने का सुनियोजित षड्यंत्र है.सरकार नहीं चाहती कि बहुजन समाज अपने पैरों पर खड़ा हो.
'शिक्षा मिशन' के तहत गाँव -गाँव और शहर-शहर की अलख जगाते डा. आनंद 
       किसी समय बहुजन समाज शिक्षा का मालिक था. नालंदा जैसे अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का यह बहुजन समाज संस्थापक था.नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया के महान विश्वविद्यालयों में सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय था.उस नालंदा विश्वविद्यालय की वजह से भारत विश्व का गुरु बना.जो समाज नालंदा जैसे विश्वविद्यालय का संस्थापक रहा हो,आज वह समाज शिक्षा का गुलाम बन बैठा.जिस समाज ने नालंदा जैसे विश्वविद्यालय बनाये हो,उस समाज में फिर से नई उर्जा पैदा करनी है.और यह कार्य गाँव-गाँव में 'परिवर्तन स्कूल खोल कर करना है.अगर गाँव-गाँव में 'परिवर्तन स्कूल' खोले जाये तो आज भी नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना हो सकती है. बहुजन समाज को अपने बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था स्वयं अपने बलबूते करनी होगी तभी उनकी अशिक्षा की बीमारी का निदान होगा.बाबा साहेब आम्बेडकर ने भारत के संविधान में लिख कर समता,स्वत्रंतता , न्याय और बंधुत्व पर आधारित समाज की रचना की थी.परन्तु ऐसा व्यव्हार में नहीं हो सका.अगर बहुजन समाज शिक्षा का मालिक बनेगा,तो बाबा साहेब का सपना पूरा हो सकता है.इसको शिक्षा के द्वारा ही अमली जामा पहनाया जा सकता है.बिना शैक्षणिक क्रांति के बहुजन समाज का उद्धार नहीं हो सकता. 
      'शिक्षा-धर्म' का मतलब बतलाते हुए डा साहब कहते हैं कि ऐसे लोगों को, जो धर्म की भाषा समझते हैं,उनके लिए 'धर्म' शब्द का इस्तेमाल किया है. धर्म का मतलब है धारण करना.'शिक्षा-धर्म' का अर्थ है-शिक्षा को धारण करना. बच्चों का धर्म है-शिक्षा लेना और माता-पिता का धर्म है-शिक्षा देना. शिक्षा लेना और देना दोनो हो धर्म है. और इसलिए हमने शिक्षा को धर्म बनाया है.अगर बहुजन समाज, शिक्षा को मात्र १० साल के लिए धारण कर लेगा तो इस देश का पाखंडपन और पण्डे-पुजारी सब ख़त्म हो जायेंगे.हम जिसके लिए मरे जा रहे हैं,जिनको समझाते-समझाते पीढियां गुजर गई,उनको समझाने की कोई जरुरत नहीं है.आने वाली पीढ़ी अपने-आप ठीक हो जाएगी.जो बीज धरती में दफन होता है वह निश्चित ही परिणाम देता है.हमारी आने वाली संतति निश्चित उस बीज का वृक्ष तैयार करेगी.यह ऐसी भावी पीढ़ी निर्माण करने का आन्दोलन है और इसका माध्यम शिक्षा है.
             डा.आनद कहते हैं कि बहुजन समाज को जो अशिक्षित है,उसे शिक्षित करना है. जो शिक्षित हैं,उन्हें सुशिक्षित करना है.जो सुशिक्षित हैं,उन्हें संस्कारित करना है और जो संस्कारित हैं,उन्हें सुसंस्कारित कर शिक्षा का मालिक बनना है.
                           ...........................................................................................
Note: Visiters may contact Dr Anand  on address   dranandbams @gmail.com



Tuesday, February 15, 2011

कोटवार का स्तीफा

घटना, सन 1940-50  की है, जब डा आम्बेडकर के नेतृत्व में सदियों से अछूत और नीच समझी जाने वाली जातियों का अपने स्वाभिमान और आत्म-सम्मान के लिए सवर्ण हिदुओं के साथ कड़ा संघर्ष चल रहा था। इससे दूर-दराज के गाँव भी अछूते नहीं थे। बालाघाट जिले के बकोड़ी गाँव में भी हिन्दू और महारों के बीच तनाव जोरों पर था। उच्च जात्याभिमानी पटेल और मालगुजार, गरीब महारों को पैसे के बदले भी अनाज दे नहीं रहे थे.

ऐसे ही तनाव के चलते गाँव के हिन्दू परिवारों के बीच मार-पीट हो गई। सामान्यत: तब, गाँव का कोटवार घटना की रिपोर्ट  तुरंत थाने में करता है।  मगर, गाँव के कोटवार 'सोमाजी बन्सोड'  ने घटना की रिपोर्ट नहीं की।  थानेदार ने सोमाजी बन्सोड को तलब किया । जवाब में कोटवार ने अपने स्तीफे का कागज थानेदार को देते हुए कहा-
"हजूर, मैंने अपने  जाति-स्वाभिमान के कारण घटना की रिपोर्ट थाने में नहीं की. क्योंकि, हिन्दू  हमारी जाति के लोगों को रूपये के बदले भी अनाज नहीं देते."(फर. 2010:  भोरगढ़ निवासी टेकचंद कठाने के संस्मरण के आधार पर )

Monday, February 14, 2011

कुछ कविताएँ

नारी धर्म  

एक लम्बे अन्तराल के बाद
अनायास,
जब मुलाकात हुई
तो बिस्तर की तरफ देख
उसने कहा-

पिछले तीन वर्षों से,
बिस्तर पर पड़ा है
न उठ सकता है,
न चल सकता है

मैंने, तब भी
चुहलता से छेड़ा  -
आखिर उसे, इस तरह
जिन्दा रखने की
क्या जरूरत है ?

प्रत्युत्तर में, उसने
 मुझे
घूर कर देखा
और कहा-

मेरा पति है,वह
सुख-दुःख का साथ है
तन-मन से सेवा करना
मेरा धर्म है.
****       ****          ****            ****

विद्रोह

नहीं पढना,
मुझे अब मर्सिया
तुम्हारी संस्कृति और
सभ्यता पर

नहीं लिखना,
मुझे गीत और ग़ज़ल अब 
तुम्हारे राष्ट्र और
देश-भक्ति पर

बल्कि,लिखूंगा 
अब मुक्त-छंद मैं
अपनी बेबसी और
लाचारी पर

****       ****         ****          ****

कबीर 

कबीर
शायद,
नहीं मिला-
तुझे कोई आम्बेडकर
जैसे,
मिला था
बुद्ध को

वर्ना,
बदलाव के
तेवर
कम नहीं,
तेरे पास
अब भी
****          ****         ****          ****

Friday, February 11, 2011

सड़े आदर्श


           अक्सर मुझे कोफ़्त होती है हमारे यहाँ के लोगों की नैतिकता के प्रति उनकी सोच देख कर. यह बात नहीं कि दूसरे देशों में लोग १०० प्रतिशत नैतिक हैं ? लोग वहां भी अनैतिक हैं, चोर-लुटेरे हैं,भ्रष्ट हैं. लोगों की नैतिकता में गिरावट वहां भी है मगर, गिरावट का स्तर निश्चित रूप से हमारे यहाँ से कम है.
          आप विकसित देशों में जाइए. वहां की ख़बरें सुनिए,पत्र-पत्रिकाएँ पढ़िए,आप को लगता है की नैतिकता के लेवल पर हम काफ़ी नीचे हैं.चाहे बात व्यक्तिगत नैतिकता की हो, सामाजिक नैतिकता की  या फिर, राष्ट्र के प्रति उनके सोच की. निश्चित रूप से हमारी औसत सोच बहुत घटिया है.
        हमें फक्र है कि हमारी धरती पर हजारों ऋषि-मुनियों ने जन्म लिया है. संत और महात्मा यहाँ पैदा हुए हैं.खुद इश्वर ने जब-तब विविध रूपों में अवतार लेकर पापियों का नाश किया है.महात्मा बुद्ध की यही धरती है,भगवान् महावीर यहीं हुए हैं.
            तब, ऐसी पवित्र भूमि के बाशिंदों की नैतिकता में गिरावट का लेवल इतना नीचे कैसे हो सकता है ? जबकि, दिन-रात टीवी चैनलों में विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों के 'बाबा' लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हो, जन्म-कुंडली और  ग्रह-दशा देख आगाह कर रहे हो ?
        नैतिकता के प्रति लोगों का 'दोगलापन' समझ के परे हैं. लोग उपदेश तो दुसरे को बहुतेरे देते हैं मगर,खुद इसका पालन कतई नहीं करते.
          नैतिकता के दोगलेपन की विवेचना के तई में  हमें अपने धर्म-ग्रंथों पर जाना होगा.क्योंकि, यही इसके स्रोत हैं. धर्म-ग्रन्थ, और वह भी हिन्दुओं के.यह तो मान्य सिद्धांत है कि किसी भी देश में वहां के बहुसंख्यकों की संकृति ही पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है.अल्पसंख्यक हमेशा ही बहुसंख्यकों का अनुकरण करते है.अर्थात, बहुसंख्यकों की धार्मिक-सामाजिक धरोहर और संस्कृति लोगों के रूटीन लाइफ का अंग होती है.वह उनके सोच को प्रभावित करती हैं.
           हमारे देश के बहुसंख्यक हिन्दू हैं. हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ वेद है. मगर वेद, अल्पसंख्यकों को जाने दीजिये, खुद हिन्दू समाज में ही घृणा का प्रचार करते हैं.विवादास्पद चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की उपज यही वेद है. हिन्दू लाख दुहाई दें किन्तु ,यह सच है की ९५% हिन्दुओं के बीच आपस में रोटी-बेटी के सम्बन्ध को इसी वर्ण-व्यवस्था ने प्रतिबंधित कर रखा है.जबकि,हिन्दू दर्शन के क्षेत्र में 'वसुधैव-कुटुम्बकम' की बात करते हैं.
           हिन्दुओं का दूसरा पवित्र, धार्मिक ग्रन्थ रामायण है. रामायण का प्रमुख पात्र, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम है. हिन्दू , राम को आराध्य मानते हैं. मगर राम,जहाँ ब्राह्मणों के पैर पूजते हैं वही ब्राह्मणों के उकसाने पर निर- अपराध शम्बूक का वध कर ८५% शूद्रों के लिए अपयश का सबब बनते हैं.रामायण में जगह-जगह  ऐसे कई प्रसंग हैं जहाँ राम, ब्राह्मणों के तो प्रिय बनते जाते हैं किन्तु, दूसरे वर्ग/वर्णों के लिए निन्दित होते जाते हैं. हिन्दू ,राम को 'भगवान्' और 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहते हैं किन्तु 'भगवान्' और मर्यादा पुरुषोत्तम' की परिधि में राम का समूचा व्यक्तित्व कहीं भी आदर्श नहीं लगता. रामायण की दूसरी प्रमुख पात्र है-सीता. सीता, हिन्दू नारियों को स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की जगह दासता का सन्देश देती है, हमेशा पुरुष की जूती रहने को विवश करती है.
             हिन्दुओं का तीसरा पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है- महाभारत. महाभारत में जगह-जगह इतनी पोंगा-पंथी है कि लोग इसे पढ़ना पसंद नहीं करते. अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम, इसाई, सिख,बौद्ध, जैन और पारसियों के धार्मिक ग्रंथों में भी कई उलुल-जलूल बातें हैं किन्तु , जिस तरह महाभारत में वर्णित है, इसे आदर्श धार्मिक ग्रन्थ कहना ज्यादती होगा.महाभारत के मुख्य पात्र है- कृष्ण. भगवान् कृष्ण भी हिन्दुओं के आराध्य हैं. किन्तु ,कृष्ण का पूर्ण व्यक्तित्व छल-प्रपंच का है.हिन्दू लाख अगर-मगर करें किन्तु हमारे लिए कृष्ण आदर्श है, कोई छाती ठोंक कर नहीं कह सकता.
           यहाँ मैं, स्पष्ट कर दूँ  की इस लेख का उद्देश्य हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थ और अराध्य देवी-देवताओं की  विवेचना करना  नहीं है. बल्कि, नैतिकता के संदर्भ में सम्बंधित कारणों को ट्रेस करना है.मैं सर्च करना चाहता हूँ कि नैतिकता के प्रति हमारे दोहरे मानदंडों की असली वजह क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे हमारे सड़े आदर्श हों ?
     

Tuesday, February 8, 2011

बाबा साहेब आम्बेडकर म्युझियम: सेनापति बाबट रोड, पुणे

             पुणे में 'छत्रपति शिवाजी महाराज का किला' देखने के दौरान भाग्य से एक भंतेजी के दर्शन हुए थे. मैंने उन्हें नमन किया तो उन्होंने परिचय देते हुए बतलाया कि उनको 'भदंत नागेश थेरो' के नाम से जाना जाता है और कि वे वर्तमान में  यरवदा (पुणे) के तक्षशिला बौद्ध विहार में रहते हैं.
आपने आगे बतलाया कि पुणे में  'आम्बेडकर म्युझियम'  भी देखने लायक है. सो, हम पति-पत्नी ने प्लान बनाया और दूसरे दिन प्रात ही देखने निकल गये.आम्बेडकर म्युझियम, जैसे कि भंतेजी ने बतलाया था, सेनापति बापट रोड पर सिम्बायसिस कालेज के पास है. कुछ निर्माण कार्य चालू रहने की वजह अंदर से देखने की इजाजत नहीं थी.तो भी, बाहर-बाहर हमने देख ही लिया.
        म्युझियम का निर्माण एक पहाड़ी को लेकर बनाया गया है.यूँ समझिये  की पहाड़ी चढ़ने में जिस चढाव को चढ़ते हुए ऊपर जाना पड़ता है,उसे तराश कर इस म्युझियम का निर्माण


      किया गया है.एरिया काफ़ी लम्बा-चौड़ा है.बड़े-बड़े शहरों में पार्किंग की आ रही दिक्कतों को देखते हुए पास के सिम्बायसिस कालेज के बच्चों को टू -व्हीलर अंदर खड़ी करने की इजाजत शायद म्युझियम प्रबंधन ने दे रखी है. ऊपर गार्डन के लान में बच्चें, दो या दो-तीन के समूह में बैठ कर पढ़ते भी नजर आये.गार्डन मेंटेन किया जा रहा था, कर्मचारी कार्य रत थे.
 बुद्ध विहार का गुम्बद देखने लायक है. सामने गुम्बद से लग कर बनाये गए छोटे-छोटे कमरों में चित्रकारी द्वारा बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण घटनाओं को उकेरते हुए दर्शकों को उनका कृतित्व समझाने का प्रयास किया गया है. म्युझियम देखने के
बाद सोचा, पहाड़ी पर चढ़ कर देखा जाय.ऊपर एक 'पगोडा'
है. हमने यादों के आईने में सहेजने के लिए यहाँ भी फोटोग्राफी की.

Monday, February 7, 2011

A visit of Buddhist Meditation Retreat Centre Karla-Bhaja Lonavla


               पिछले दिनों पुणे जाना हुआ. हमनें पहिले ही तय कर रखा था कि जब कभी पुणे का विजिट होगा, लोनावला फिर से विजिट करेंगे.असल में पिछले वर्ष पुणे प्रवास के दौरान लोनावला तो गए थे मगर, रात होने के कारण खंडाला के सीन देखने मजा नहीं आया था. सो, अबकी बार हम ने लोनावला में नाइट हाल्ट का प्रोग्राम बनाया
          लोनावला विजिट के दौरान पता चला कि पास ही एक 'बुदिस्ट मेडीटेशन सेंटर' है, नेकी और पूछ-पूछ. हमनें फटाफट वहां की ट्रिप लगा दी.'बुद्धिस्ट मेडीटेशन सेंटर'  पहुंचने का रास्ता  बड़ा अजीब-सा लगा.यह उबड-खाबड़  और गिट्टी वाला कच्चा मार्ग है.अभी पक्का रास्ता नहीं बना है.भगवान बुद्ध के विचारों को देश और विदेश में फ़ैलाने की दिशा में प्रयासरत ख्यात प्राप्त 'त्रेलोक्य महासंघ' द्वारा संचालित यह 'मेडीटेशन सेंटर' लोनावला से ८-१० की.मी. दूर 'भाजा-कारला नामक गावों के घने जंगलों में पहाड़ियों के बीच बनाया गया है. यहाँ आने के लिए आप पुणे-मुंबई रेल मार्ग से लोनावला न उतर कर सीधे 'मलवली' नामक स्टेशन में भी उतर सकते हैं,जहाँ से ४-५ की मी पर ही यह बुद्धिस्ट सेंटर है. पहुँच मार्ग कि दुरुहता के बारे में  मैंने अपनी चर्चा के दौरान बौद्ध मठ के संचालक से कही, जिस पर उन्होंने कहा कि फ़िलहाल वे नहीं चाहते कि लोग यहाँ विजिट करने आये,बल्कि सिर्फ वे ही लोग आये जो 'बुद्धिस्ट मेडीटेशन के प्रोग्राम' अटेंड करना चाहते हैं.
          खैर, कार से हम मेडीटेशन सेंटर पंहुच गए. बौद्ध मठ के करीब आधा कि मी दूर ही हमें अपनी कार छोडनी पड़ी. मगर बौद्ध मठ देख कर सुखद एहसास हुआ. निपट घने जंगलों में पहाड़ों और झरनों के बीच निर्मित इस तरह के मेडीटेशन सेंटर में प्रकृति को आत्म-सात करते हुए बड़ा सुखद अहसास होता है. दिन के करीब ११ बज रहे होंगे. मठ के अंदर एक प्रशिक्षण शिविर चल रहा था,जिसमें Centre for Non Violence Communication*  ग्रुप के प्रशिक्षक अनिरुद्ध सर  'Non Violence Communication'  पर प्रशिक्षण दे रहे थे.करीब २०-२५  का ग्रुप होगा. दल में हर वर्ग और आयु के सदस्य थे जिनमें  महिलाएं भी थी. प्रशिक्षण के दौरान पढाये गए उक्त टापिक पर प्रशिक्षक, एक्सपेरिमेंट के द्वारा समझाने का प्रयास कर रहे थे.   भाषा मराठी थी. मराठी में मेरे साथ थोड़ी दिक्कत रहती है. मैंने अपनी व्यथा कही, मगर प्रशिक्षक शायद अपनी क्लास पर केन्द्रित थे.
         काफ़ी बड़ा-सा बौद्ध मठ है. मेरे ख्याल से ३-४ एकड़ के एरिया में निर्माण होगा.पहाड़ को काट कर शायद बनाया गया हो. मगर, वहां के प्राकृतिक सोंदर्य से छेड़-छाड़ नहीं की गई थी.पर्यावरण कि दृष्टि से कतई कोई चीज नहीं चुभ रही थी. बहुत ही शांत लग रहा था. मठ, कुछ-कुछ पुराने ज़माने की अंग्रेजी शैली के भवनों की तर्ज  निर्मित लगा .मठ के अंदर प्रवेश करते ही सामने भगवान बुद्ध की बड़ी-सी मूर्ति पद्मासन में विराजमान है. कक्ष काफ़ी बड़ा है. कक्ष के दोनों तरफ बैठने हेतु छोटी-छोटी गद्दियाँ रखी है जो अनायास आपका ध्यान खींचती करती है. आपसे अपेक्षा होती है कि बैठने के पूर्व ढेर से गद्दियाँ ले और फिर उस पर बैठे.
     मठ से लगी हुई और भी आवास-व्यवस्था हैं,जहाँ पर शिविर में भाग लेने वाले सदस्य ठहरते हैं.चूँकि,मठ पहाड़ियों के बीच बनाया गया है,अत आवासों का लेवल काफ़ी नीचे-ऊपर हैं.खाना बनाने और खाने के लिए हाल है.यहाँ प्रशिक्षनार्थी अपना लंच लेते दिखे.चर्चा के दौरान औपचारिकता-वश मठ के संचालक ने हमें लंच का आफर दिया था.
           त्रेलोक्य महासंघ के संचालक रत्नसंभव बहुत ही सज्जन और मिलनसार लगे.जब मैंने मठ के हेड से मिलने कि इक्छा व्यक्त कि तो आप तुरंत उपस्थित हुए.आपने बतलाया कि यहाँ समय-समय पर बुद्धिस्ट साधना शिविर लगाये जाते है, जिस के लिए विशेषग्य बुलाये जाते हैं.शिविर ३ से ७-८  दिन का हो सकता है और इसमें भाग लेने वालों के लिए सभी आवश्यक व्यवस्था होती है.इसी बीच अनिरुद्ध सर भी पहुँच गए.आपने बताया कि वे भी मूलत: म प्र के जबलपुर से हैं.बड़ा अपनत्व लगा.  
             करीब २ घंटे इस साधना शिविर में हम ने बिताया. मगर, यह कभी न भूलने वाला अनुभव था.


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 * To  know futher,you may visit www.nvcindia.org 

Saturday, February 5, 2011

नक्श्लाईट आन्दोलन के साथ खड़ा देश का बुद्धिजीवी वर्ग क्यों ?


           नक्श्लाईट आन्दोलन क्या है और यह कैसे खड़ा हुआ, इसके पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है. प्राय लोग जानते हैं. इसमें वे लोग भी शामिल  है, जिन्हें जानने की जरूरत है.यह अलग बात है की लट्ठ वे कहीं और घुमाते हैं. सबकी अपनी-अपनी वजह हो सकती हैं.मगर यह तो साफ है  की हल आपको खोजना पड़ेगा,आज नहीं तो कल. क्योंकि, सरकार द्वारा किये जा रहे उपाय नाकाफी लग रहे हैं.
           आज से १५-१६ साल पहले 'आदिवासी और नक्श्लाईट मूवमेंट' शीर्षक से  मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था. लेख क्या था,ततसम्बद्ध में पत्र-पत्रिकाओं में लिखे गये समाचारों पर मेरी प्रतिक्रिया थी. तब से लेकर आज तक तत्सम्बंध में मेरे विचारों में कोई फर्क नहीं आया है.इसी बीच कई सरकारें बदल गई, मगर त्ताज्जुब की बात है  कि उनकी  'वे आफ डीलिंग' में कोई फर्क नहीं आया है.वे तब भी इसे कानून और व्यवस्था की बात मानते थे और आज भी कमो-बेश वही है.
           इधर कुछ दिनों से देश के एक बुद्धिजीवि वर्ग के दबाव से यद्यपि  देश का  गृह मंत्रालय कानून-व्यवस्था से हट कर भी देखने की बात करता है मगर, सम्बन्धित राज्य खास कर बीजेपी शासित राज्य, केंद्र को कितना सपोर्ट कर पाएंगे,कहना मुश्किल है. बीजेपी शासित राज्य इसलिए कि इसे  पटेल-साहूकारों की पार्टी माना जाता है. और ये पटेल-साहूकार ही है जो आदिवासी बेल्ट में घुसकर पुलिस और प्रशासन से मिलकर निरीह और अनपढ़ आदिवासियों का शोषण करते हैं.यह बात नहीं है की कांग्रेसी दूध के धुले हैं. मगर, चूँकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार है, अत वहां 'रजिस्टेंस' कम आँका जा सकता है.
            वास्तव में, नक्श्लाईट आन्दोलन, कानून और व्यवस्था का प्रश्न तो है मगर, सिर्फ ऐसा कहना सतही बात होगी.असल में यह कानून-व्यवस्था फेल होने की बात है. दूर जंगली बीहड़ों में सीधे-साधे आदिवासियों का ये पटेल और साहूकार बुरी तरह शोषण करते हैं.ये तो साफ है कि पैसे वाले पुलिस और प्रशासनिक कर्मियों को जेब में लेकर चलते हैं.और तिस पर आदिवासी बेल्ट, जहाँ 'शहरी धूर्तता और चालाकीपन' घुस भी नहीं पाया है. इतिहास गवाह है की जब कानून का राज फेल हो जाता है तो  लोग हथियार उठाते हैं. असल में, इन भोले-भाले आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का नाम है- नक्श्लाईट आन्दोलन.और ये कोई रातों-रात उठ खड़ा नहीं हुआ. चारू मजुमदार कोई विदेशी नहीं था ? अगर एक चारू मजुमदार शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की भेट चढ़ जाता है तो दस चारू मजुमदार खड़े होंगे. और यही हो रहा है.
             पूंजी का वितरण समान नहीं हो सकता, ठीक बात है. परन्तु, गरीब को भर-पेट भोजन तो मिलना चाहिए. इसके क्या मायने हुए कि गरीब दिन भर हाड़-तोड़  मेहनत करे किन्तु बदले में मिली मजूरी में उसे शाम का खाना भी  नशीब न हो.वही दूसरी तरफ, देश के नेता और नौकरशाह पैसे से पैसा कमा कर घर के फ्रिज और वाशिंग मशीन में नोटों के बंडल ठूंसते रहें.यह विडम्बना ही है की सरकार की गोदामों में सैकड़ों टन अनाज सड़ते रहता है. मगर, वह उन लोगों तक नहीं पहुंच पाता जिनको बाँटने के लिए गोदामों में भरा जाता है ! स्पष्ट है, जब तक ऐसी व्यवस्था रहेगी,चारू मजुमदार पैदा होते रहेंगे.
               

Friday, February 4, 2011

विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरोध में लोगों का बढ़ता दबाव



             विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरोध में लोग लगातार सडकों पर उतर रहें हैं.मगर, लगता है देश का शाशन तन्त्र नींद से जाग नहीं रहा है.एक पी यु सी एल ही तो है जो मानव अधिकारों के हनन के प्रश्न पर सरकार और न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा करता है.अब अगर इस संस्था के उपाध्यक्ष को ही  जेल में डाल दिया जाता  है तो फिर, देश में मानव अधिकारों के हनन के प्रश्न पर कौन बोलेगा ?
            अब तक यह तो साफ है कि नक्सलाईट आन्दोलन पर सरकार अँधेरे में है.वह इसे साफ तौर पर सामाजिक-आर्थिक समस्या मानने को तैयार नहीं है,जबकि देश का बुद्धिजीवी वर्ग इसे सामाजिक-आर्थिक समस्या मानता है.अगर आप इसे सिर्फ कानून और व्यवस्था की बात कहेंगे तो डील भी आप उसे उसी तरह करेंगे.
           देश की न्यायपालिका पर कुछ कहना आसान नहीं है.पर मुश्किल तो यह है कि जब सरकार ही अँधेरे में है, तो न्यायपालिका तत्सम्बंध में बिना गाइड लाइन के क्या कर सकती है ? न्यायिक कानून-कायदे इतने पुराने और गड-मड है कि न्यायपालिका जब जैसे साक्ष्य होतें है,वैसे फैसले देती है.ऐसे बहुतेरे फैसले गिनाये जा सकते हैं कि लोगों ने खुलम-खुल्ला आलोचना की है.तब भी मुझे लगता है कि न्यायपालिका के ऐसे विवादास्पद फैसलों का कारण सरकार की तत्सम्बंध में स्पष्ट नीति का न होना है. चाहे प्रकरण साहबानो केस का हो या पिछले दिनों आया अयोध्या-बनाम बाबरी मस्जिद पर फैसला.
            लोग भूले नहीं होंगे की वर्षों पूर्व सुदूर दक्षिण अफ्रीका में  मानव अधिकारों की रक्षा के लिए सडकों पर निकले नेलशन मंडेला की गिरफ्तारी पर हमारे देश में कितना हो-हल्ला मचा था.अच्छा होता सरकार नींद से शीघ्र उबरती.आप, '२ जी स्पेक्ट्रम' घोटाले में जो आज कर रहें हैं,वह पहले ही कर लेते तो शायद नौबत आज, यहाँ तक नहीं पहुँचती.

Thursday, February 3, 2011

बाबा रामदेव का योग और मुस्लिम शिक्षण संस्थान

               इधर कुछ वर्षों से बाबा रामदेव के 'योग' ने राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर काफ़ी ख्याति अर्जित की है.आर एस एस और बीजेपी जैसी संस्थाओं को यह खूब जमा.क्यों न हो, बाबा रामदेव हिन्दू सनातन धर्म के स्थापना की  बात करते हैं,वेद पुराण और उपनिषद  की बात करते हैं.अर्थात 'हिन्दू मिथालाजी' को वे कहीं भी नकारते नहीं दीखते.
            अब यह अलग बात है कि बाबा रामदेव ने जब बीजेपी के एक बड़े नेता द्वारा उनके किसी आश्रम के लिए जमीन आबंटित करने एक भारी रकम मांगने का भंडा फोड़ा तो आर एस एस और बीजेपी के बड़े-बड़े नेता दायें-बाएं देखते नजर आयें.इसी तरह बाबा रामदेव  ने जब एक राजनितिक पार्टी बनाने का ऐलान किया तब भी ये ही लोग यह कहने से नहीं चुके कि बाबा को 'बाबा' ही रहना चाहिए,राजनीती में कूदना नहीं चाहिए.
              बहरहाल, हम बाबा रामदेव के योग पर आते हैं.जब से बाबा रामदेव ने योग का प्रचार आरम्भ किया हैं,बीजेपी शाशन वाले राज्य के मुख्य मंत्रियों ने अपने-अपने राज्यों के शिक्षण संस्थानों में योग का शिक्षण अनिवार्य-सा कर दिया है.और तो और मुख्यमंत्री स्वयं इन शिक्षण संस्थाओं में खड़े होकर योग की कक्षा लेते दिखाई दिए. जिले के कलेक्टर कार्यालयों में योग की क्लास लेने लगे.
              वैसे, बाबा रामदेव का योग है बड़ी ऊँची चीज. बेशक, लोगों को फायदा हुआ और हो रहा है.कुर्सी तोड़ने वाले बड़े बाबू और साहब जो बड़े-बड़े पेट लेकर घूमते थे,सीने की सीध में पेट लाकर बाबा रामदेव का यशोगान करने लगे. मुझे लगता है कि निस्संदेह, बाबा रामदेव ने योग का राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार कर कम-से-कम इस देश का बहुत बड़ा भला किया है.
             मगर तब,गैर हिन्दू इस योग से नाक-भों क्यों सिकुड़ते हैं ? मुझे नहीं लगता कि जिस तरह हिन्दू, बाबा रामदेव के योग की कक्षाओं को सिर-आँखों पर लेते हैं,गैर मुस्लिम उसी तर्ज पर लेते हों.आखिर क्या कारण है इसका ?
मैंने अपने सहकर्मी इंजीनियर  एक मुस्लिम भाई से बात की-
    " न मानने का कोई कारण नहीं है..हमारे यहाँ नमाज के समय ऐसी कई 'एक्सरसाइज' है,जो अपने-आप हो जाती हैं."
मगर तब क्यों कुछ मुस्लिम इलाईट, शिक्षण संस्थानों में सिखाये जा रहे योग कक्षाओं का विरोध करते हैं ? -मैंने कहा.
        सामान्यत लोग, फिर चाहे वे जिस किसी धर्म के हो,हर चीज में दिमाग नहीं लगाते.बल्कि, मोटे तौर पर कहा जाय तो दिमाग लगाने का ठेका धर्म के ठेकेदारों का होता है.खैर, एक और मुस्लिम सहकर्मी जो सीनियर केमिस्ट पद पर थे  और जो इस तरह के गंभीर विषय पर दखल रखते हैं, मैंने सवाल दागा-
   "क्या आप ॐ शब्द की व्युत्पत्ति और उसका अर्थ जानते हैं ?" -प्रतिप्रश्न हुआ.
 मैंने कहा-  "हाँ."
"आप जानते हैं कि बाबा रामदेव की योग कक्षाएं ॐ से शुरू होती है और ॐ पर ख़त्म होती है. इस्लाम में किसी देवी-देवता की स्तुति के लिए  कोई स्थान नहीं है..." -मेरा सहकर्मी धारा प्रवाह बोलते गया,बोलते गया.
      ॐ पांच मात्राओं* से बना है. हर मात्रा का अर्थ है,इष्ट देवता है. इसी तरह का एक और शब्द है- 'श्री'. मैं विषयांतर की वजह से इन सब की चर्चा अन्यत्र  करूंगा.बहरहाल मुझे लगा कि उनका 'रिजर्वेशन' जायज है.
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  * अकार- ब्रह्मा,उकार-विष्णु ,मकार-महेश,अर्ध मात्रा- सरस्वती, शून्य-गणपति

चेत्य भूमि(Visit of Chetya Bhoomi)

               पिछले दिनों हमें किसी काम से मुंबई जाने का मौका मिला. सोचा,काफ़ी वर्षों से चैत्य भूमि के दर्शन नहीं हुए हैं,अत वहां हो आया जाय.हम गए.मुझे देख कर ख़ुशी हुई कि बीते वर्षों में काफ़ी कुछ किया गया है.सबसे अच्छा कार्य समुद्र तट का लगा.वहां किनारे-किनारे बाउंड्री के साथ आर सी सी के  तिकोने स्लेब बड़ी मात्रा में करीने से पाट दिए गए हैं.
             इधर चेत्य भूमि जाने की दिशा में आम्बेद्करी पुस्तकों के स्टाल तरीके से लगे हैं.ठीक चैत्य भूमि से सटकर 'दी बुद्धिस्ट सोसायटी आफ इंडिया' का बुकस्टाल लगा है. मुझे बड़ा अच्छा लगा.मैंने वहां से कुछ पुस्तकें खरीदी. आगे की बुक स्टालों से भी कुछ सीडी और पुस्तकें खरीदी. यहाँ पर सावधान करना चाहूँगा. भरी सीडी की जगह आपको खाली/ब्लैंक सीडी भी मिल सकती है, जिसका पता आपको घर जाकर लगेगा.चैत्य भूमि के व्यवस्थापकों से अनुरोध है कि वे यह सुनिश्चित करें कि बुक स्टाल वाले सीडी प्लेयर अवश्य रखें और सीडी प्ले करने के बाद ही बेचें. क्योंकि,दलित समाज के पास इतना पैसा नहीं है कि वे भरी सीडी के जगह खाली/ब्लैंक सीडी घर ले जाय.
        मेन रोड से जैसे  ही आप चैत्य भूमि के तरफ मुड़ते हैं,मोड़ पर एक पुलिस चौकी तैनात है. हम वहां करीब २-३ घंटे रुके होंगे.मुझे बड़ा सकून मिला. मैंने देखा कि बाबा साहेब के भक्तों का रेला लगातार आ जा रहा है. बच्चे-बूढ़े माँ-बहने सब  एक-दूसरे को 'जयभीम' कह
रहे हैं. करीब २वर्ष पहले दलित साहित्य अकादमी के सम्मेलन में मेरा सपत्निक
 जाना हुआ था.तबका नजारा बेहद अफसोसनाक था.प्रातकालीन नित्य
 कर्म से लोगों ने
समुद्र के रेतीले किनारे को पाट दिया था.
हम काफ़ी देर,बाबा साहेब के चैत्य भूमि के अंदर रहे.बड़ी तसल्ली के साथ उनकी गर्मी को महसूस किया.उन्हें नमन किया.वहां पर विराजमान भंतेजी 'बुद्धिस्ट वे आफ लाइफ' को सुशोभित कर रहे थे.बाबा साहेब के भक्तों को 'अपना दीपक आप बनो' का मन्त्र दे रहे थे.अनायास इसी बीच कोई बड़ी हस्ती आयी. उनके साथ काफ़ी लोग थे. सभी ने भंतेजी के द्वारा  त्रि शरण-पंचशील ग्रहण  किया और बड़ी शांति के साथ प्रस्थान हुए.कही कोई अव्यवस्था नहीं दिखी.
           अव्यवस्था पर याद आया कि धम्म दीक्षा भूमि नागपुर भी एक उदाह्र्ण है, इस मामले में. वहां भी काफ़ी लोग आते हैं. खासकर १४ अक्टू. के दौरान तो भीड़ देखते ही बनती है. मगर, मजाल है कि कोई हादसा हो जाय. हम आये दिनों अख़बार और टीवी में इस तरह के अन्य   स्थानों पर हुई भगदड़ और इसके बाद की  दुर्घटनाओं के समाचार सुनते हैं.आम्बेडकर के अनुयायियों से अन्य मत/सम्प्रदाय/धर्म के अनुयायियों को शिक्षा लेनी कि जरूरत है  कि आँख मूंद कर और आँख बंद कर चलने में फर्क है. बाबा साहेब ने अपने अनुयायियों को आँख खोलकर चलने की शिक्षा दी.