सिद्धार्थ का महाभिनिष्क्रमण-
1. परम्परागत मान्यता के अनुसार बूढ़े, रोगी, वृद्ध, मृत और सन्यासी को देखकर सिद्धार्थ गौतम को गृह-त्याग का संवेग उत्पन्न हुआ था। इस मान्यता का स्रोत बौद्ध-वांगमय में बुद्धजीवनी पर लिखा ग्रंथ ‘ललितविस्तर’ है, जो ‘महायान परम्परा’ का है ।
2. स्मरण रहे, ललितविस्तर, ईसा की पहली शताब्दी में लिखा गया ग्रंथ है, इसके लेखक का नाम अभी तक ज्ञात नहीं है।
3. बुद्धजीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्रा (प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्खुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र-पवत्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(राहुल सांकृत्यायनः दर्शन-दिग्दर्शन पृ. 327)।
4. ललितविस्तर में बोधिसत्व के जन्म के बारे में यह भी कथन है- बोधिसत्व हीन कुलों में, चाण्डाल कुलों में, वेणुकार(बकसोर) कुलों में, रथकार(बढ़ई) कुलों में, पुक्कस(निषाद से शूद्रों में उत्पन्न शंकर जाति) कुलों में नहीं उत्पन्न होते हैं। किन्तु दो कुलों में ही- ब्राह्मण कुल में और क्षत्राीय कुल में उत्पन्न होते हैं। जब लोक में ब्राह्मण बढ़े-चढ़े होते हैं तब ब्राहमण कुल में उत्पन्न होते हैं। जब लोक में क्षत्राीय बढ़े-चढ़े होते है तो क्षत्रीय कुल में उत्पन्न होते हैं। हे भिक्षुओं! इस समय क्षत्रीय बढ़े-चढ़े हैं, इसलिए बोधिसत्व क्षत्रीय कुल में उत्पन्न होते हैं(ललितविस्तरः कुलशुद्धि परिवर्त, पृ. 60-61)।
5. नीच-उच्च की समाज-व्यवस्था न केवल ब्राह्मणों ने इजाद की वरन इसे धर्म और दर्शन का जामा भी इन्होंने ही पहनाया। किन्तु यह विचित्र ही है कि इस तरह की सामाजिक वैमनश्यता बौद्ध-ग्रंथों में होने के बावजूद न तो उन पर किसी ने टीका-टिप्पणी की और न ही वे सामाजिक विमर्श के विषय बनें।
6. ललितविस्तर में वर्णित बुद्धजीवनी के कुछ ही समय बाद अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ लिखा। शायद, ललितविस्तर से ही प्रेरणा ले कर। यह भी संस्कृत महाकाव्य है।
7. अश्वघोष, सम्राट कनिष्क (78-120 इस्वी) के समकालीन थे। संस्कृत महाकाव्य ‘बुद्धचरित’ की रचना उन्होंने कनिष्क के दरबार में रहते हुए की थी। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार, इस ग्रंथ का पाठ भारत के अलावा जावा, सुमात्रा और उनके निकटवर्ती द्वीपों में भी होता था(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिकाः बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
8. ति-पिटक के अन्तर्गत आने वाले किसी भी ग्रंथ में इस बूढ़े, रोगी, मृत और सन्यासी को देखकर सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण किए जाने वाले कथानक का उल्लेख नहीं है। हमारी सीमित जानकारी में कहीं भी नहीं है(नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायनः भगवान बुद्ध और उनका धम्म, पृ 13)।
9. यदि 29 वर्ष की आयु होने तक भी सिद्धार्थ द्वारा एक बूढ़े, एक रोगी और मृत व्यक्ति को न देखे रहने की बात का ‘ऐतिहासिक सत्य’ ऐसा ही सत्य होगा जिस पर हर विचारवान का प्रश्नचिन्ह लगेगा और अवश्य लगेगा (वही)।
10. बुद्धचरित के संबंध में बौद्ध वांगमय के अन्तर्गत हम अन्य स्रोत पर विचार करें तो अश्वघोष कृत ‘बुद्धचरित’ और अट्ठकथाओं के ‘निदान कथा’ में कुछ कम तथ्यहीन कथानक हैं(धर्मानन्द कोसम्बी : भगवान बुद्ध, पृ. 109)। स्मरण रहे, बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में अश्वघोष के ‘बुद्धचरित’ से जगह-जगह उद्धरण लिए हैं।
11. अट्टकथा का अर्थ है, अर्थ कथा। ति-पिटकाधीन सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक के अन्तर्गत बौद्ध-ग्रंथों पर बौद्ध भिक्खुओं और आचार्यों द्वारा समय-समय पर जो टीकाएं अर्थात अर्थ-कथाएं लिखी गई, वे ही अट्ठकथाएं है। ये अट्ठकथाएं विभिन्न देशों में विभिन्न लिपियों में लिखी गई।
12. तदन्तर, बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद बुद्धघोष और अन्य आचार्यों ने परम्परागत सिंहली अट्ठकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पुनः पालि भाषा में अट्ठकथाएं लिखी(नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायनः भगवान बुद्ध और उनका धर्म पृ. 13)।
13. बुद्धचरित के संबंध में छुट-पुट जो ति-पिटकाधीन मज्झिमनिकाय के अरियपरियेसन सुत्त में बुद्ध के मुख से गृह-त्याग का- ‘अपने आप्तों द्वारा एक-दूसरे से लड़ने के लिए शस्त्र धारण किए जाने से उन्हें भय लगा’- आदि जो कथानक कहलवाया गया है, वह भी अपेक्षाकृत कम तथ्यहीन है। इन वर्णित कारणों की संगति बिठाई जा सकती है(धर्मानन्द कोसम्बी : भगवान बुद्ध, पृ. 107)।
14. दीघनिकाय के महापदान सुत्त में अनैतिहासिक विपस्सी बुद्ध के जाति, गोत्र, गर्भ में आने का लक्षण, गृह-त्याग, प्रव्रज्या, बुद्धत्व प्राप्ति, धम्मचक्क पवत्तन आदि की कथा है, बुद्धजीवनी के आधार पर वर्णित है(राहुल सांकृत्यायनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 36।
15. खुद्दक निकाय के सुत्तनिपात का अत्तदण्डसुत्त(अट्ठकवग्ग) हो या पब्बज्जासुत्त(महावग्ग); इसमें अपेक्षातया ठीक कारण व्यक्त हुआ प्रतीत होता है(वही, नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायन)।
16. धम्मानन्द कोसम्बी की ही मान्यता का समर्थन करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने सिद्धार्थ की प्रव्रज्या या अभिनिष्क्रमण का जो रूपक चित्रित किया, निस्संदेह वह ति-पिटक में उनके प्रव्रजित होने के कारणों की ओर जो भी छुट-पुट संकेत है, वह ‘बूढ़े, रोगी, मृत, साधू’ कथानक की अपेक्षा इस ‘एक दूसरे के विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर’ कथानक से मेल खाते हैं(वही, पृ. 14)।
17. ति-पिटकाधीन ग्रंथों से बुद्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व का गहन अध्ययन करने के उपरान्त बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘बृद्धा एण्ड हिज धम्मा’ लिखा। उन्हें वे कारण जो उनके अभिनिष्क्रमण के लिए बताए गए हैं, काव्यमय, मनगढन्त और औचित्यहीन लगे। उन्होंने कहा कि परम्परागत गृह-त्याग के कारण बुद्ध के व्यक्तित्व से कतई मेल नहीं खाते।
18. बाबासाहब की यह टिप्पणी बुद्धिज्म के हजारों वर्षों के इतिहास में अद्वितीय और अभूतपूर्व है। इससे पहले लोग परम्परागत बचकानी बातों को ही दुहराते रहते थे। वे यह सोचने के लिए न कभी रुके थे, न साहस ही जुटा पाए थे कि क्या 29 वर्ष का कोई स्वस्थ आदमी ऐसा होता है जिसे न बिमारी का पता हो, न बुढ़ापे का और न मृत्यु का। जिसे 29 वर्ष तक यही ज्ञात न होगा, वह 6 वर्ष में ही बुद्ध कैसे बन सकता है(डॉ. सुरेन्द्र अज्ञातः एशिया का प्रकाश, पृ. 18)।
19. सिद्धार्थ के जन्म का प्रसंग हो, गृह-त्याग का या फिर या सम्बोधि प्राप्ति का, बाबासाहब आम्बेडकर ने अपने ग्रंथ ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में जो व्यवहारिक और युक्तिसंगत दृष्टिकोण अपनाया है, निस्संदेह वह अनुकरणीय है। यह एक स्वस्थ वैज्ञानिक आलोचनात्मक दृष्किोण है जो कथानक को निरन्तर परखता है।
20. धर्म-ग्रंथों को परखने की यह आलोचनात्मक पद्यति, धर्म और उसके अनुयायियों दोनों के हित में है। क्योंकि यह धर्म को रद्द नहीं करती बल्कि धार्मिक साहित्य को धर्म विशेष के बुनियादी उसूलों व दावों के प्रकाश में परखती हैै(डॉ. सुरेन्द्र अज्ञातः भूमिकाः एशिया का प्रकाश)। हमें लगता है, धम्म के शुभ चिन्तक और अनुयायी इन पहलुओं पर गंभीरता से विचार करेंगे और जो धम्म-सैद्धांतिकी बाबासाहब ने अपनाई है, उसका अनुपालन करेंगे।
1. परम्परागत मान्यता के अनुसार बूढ़े, रोगी, वृद्ध, मृत और सन्यासी को देखकर सिद्धार्थ गौतम को गृह-त्याग का संवेग उत्पन्न हुआ था। इस मान्यता का स्रोत बौद्ध-वांगमय में बुद्धजीवनी पर लिखा ग्रंथ ‘ललितविस्तर’ है, जो ‘महायान परम्परा’ का है ।
2. स्मरण रहे, ललितविस्तर, ईसा की पहली शताब्दी में लिखा गया ग्रंथ है, इसके लेखक का नाम अभी तक ज्ञात नहीं है।
3. बुद्धजीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्रा (प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्खुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र-पवत्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(राहुल सांकृत्यायनः दर्शन-दिग्दर्शन पृ. 327)।
4. ललितविस्तर में बोधिसत्व के जन्म के बारे में यह भी कथन है- बोधिसत्व हीन कुलों में, चाण्डाल कुलों में, वेणुकार(बकसोर) कुलों में, रथकार(बढ़ई) कुलों में, पुक्कस(निषाद से शूद्रों में उत्पन्न शंकर जाति) कुलों में नहीं उत्पन्न होते हैं। किन्तु दो कुलों में ही- ब्राह्मण कुल में और क्षत्राीय कुल में उत्पन्न होते हैं। जब लोक में ब्राह्मण बढ़े-चढ़े होते हैं तब ब्राहमण कुल में उत्पन्न होते हैं। जब लोक में क्षत्राीय बढ़े-चढ़े होते है तो क्षत्रीय कुल में उत्पन्न होते हैं। हे भिक्षुओं! इस समय क्षत्रीय बढ़े-चढ़े हैं, इसलिए बोधिसत्व क्षत्रीय कुल में उत्पन्न होते हैं(ललितविस्तरः कुलशुद्धि परिवर्त, पृ. 60-61)।
5. नीच-उच्च की समाज-व्यवस्था न केवल ब्राह्मणों ने इजाद की वरन इसे धर्म और दर्शन का जामा भी इन्होंने ही पहनाया। किन्तु यह विचित्र ही है कि इस तरह की सामाजिक वैमनश्यता बौद्ध-ग्रंथों में होने के बावजूद न तो उन पर किसी ने टीका-टिप्पणी की और न ही वे सामाजिक विमर्श के विषय बनें।
6. ललितविस्तर में वर्णित बुद्धजीवनी के कुछ ही समय बाद अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ लिखा। शायद, ललितविस्तर से ही प्रेरणा ले कर। यह भी संस्कृत महाकाव्य है।
7. अश्वघोष, सम्राट कनिष्क (78-120 इस्वी) के समकालीन थे। संस्कृत महाकाव्य ‘बुद्धचरित’ की रचना उन्होंने कनिष्क के दरबार में रहते हुए की थी। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार, इस ग्रंथ का पाठ भारत के अलावा जावा, सुमात्रा और उनके निकटवर्ती द्वीपों में भी होता था(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिकाः बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
8. ति-पिटक के अन्तर्गत आने वाले किसी भी ग्रंथ में इस बूढ़े, रोगी, मृत और सन्यासी को देखकर सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण किए जाने वाले कथानक का उल्लेख नहीं है। हमारी सीमित जानकारी में कहीं भी नहीं है(नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायनः भगवान बुद्ध और उनका धम्म, पृ 13)।
9. यदि 29 वर्ष की आयु होने तक भी सिद्धार्थ द्वारा एक बूढ़े, एक रोगी और मृत व्यक्ति को न देखे रहने की बात का ‘ऐतिहासिक सत्य’ ऐसा ही सत्य होगा जिस पर हर विचारवान का प्रश्नचिन्ह लगेगा और अवश्य लगेगा (वही)।
10. बुद्धचरित के संबंध में बौद्ध वांगमय के अन्तर्गत हम अन्य स्रोत पर विचार करें तो अश्वघोष कृत ‘बुद्धचरित’ और अट्ठकथाओं के ‘निदान कथा’ में कुछ कम तथ्यहीन कथानक हैं(धर्मानन्द कोसम्बी : भगवान बुद्ध, पृ. 109)। स्मरण रहे, बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में अश्वघोष के ‘बुद्धचरित’ से जगह-जगह उद्धरण लिए हैं।
11. अट्टकथा का अर्थ है, अर्थ कथा। ति-पिटकाधीन सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक के अन्तर्गत बौद्ध-ग्रंथों पर बौद्ध भिक्खुओं और आचार्यों द्वारा समय-समय पर जो टीकाएं अर्थात अर्थ-कथाएं लिखी गई, वे ही अट्ठकथाएं है। ये अट्ठकथाएं विभिन्न देशों में विभिन्न लिपियों में लिखी गई।
12. तदन्तर, बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद बुद्धघोष और अन्य आचार्यों ने परम्परागत सिंहली अट्ठकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पुनः पालि भाषा में अट्ठकथाएं लिखी(नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायनः भगवान बुद्ध और उनका धर्म पृ. 13)।
13. बुद्धचरित के संबंध में छुट-पुट जो ति-पिटकाधीन मज्झिमनिकाय के अरियपरियेसन सुत्त में बुद्ध के मुख से गृह-त्याग का- ‘अपने आप्तों द्वारा एक-दूसरे से लड़ने के लिए शस्त्र धारण किए जाने से उन्हें भय लगा’- आदि जो कथानक कहलवाया गया है, वह भी अपेक्षाकृत कम तथ्यहीन है। इन वर्णित कारणों की संगति बिठाई जा सकती है(धर्मानन्द कोसम्बी : भगवान बुद्ध, पृ. 107)।
14. दीघनिकाय के महापदान सुत्त में अनैतिहासिक विपस्सी बुद्ध के जाति, गोत्र, गर्भ में आने का लक्षण, गृह-त्याग, प्रव्रज्या, बुद्धत्व प्राप्ति, धम्मचक्क पवत्तन आदि की कथा है, बुद्धजीवनी के आधार पर वर्णित है(राहुल सांकृत्यायनः पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 36।
15. खुद्दक निकाय के सुत्तनिपात का अत्तदण्डसुत्त(अट्ठकवग्ग) हो या पब्बज्जासुत्त(महावग्ग); इसमें अपेक्षातया ठीक कारण व्यक्त हुआ प्रतीत होता है(वही, नम्र निवेदनः भदन्त आनन्द कोसल्यायन)।
16. धम्मानन्द कोसम्बी की ही मान्यता का समर्थन करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने सिद्धार्थ की प्रव्रज्या या अभिनिष्क्रमण का जो रूपक चित्रित किया, निस्संदेह वह ति-पिटक में उनके प्रव्रजित होने के कारणों की ओर जो भी छुट-पुट संकेत है, वह ‘बूढ़े, रोगी, मृत, साधू’ कथानक की अपेक्षा इस ‘एक दूसरे के विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर’ कथानक से मेल खाते हैं(वही, पृ. 14)।
17. ति-पिटकाधीन ग्रंथों से बुद्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व का गहन अध्ययन करने के उपरान्त बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘बृद्धा एण्ड हिज धम्मा’ लिखा। उन्हें वे कारण जो उनके अभिनिष्क्रमण के लिए बताए गए हैं, काव्यमय, मनगढन्त और औचित्यहीन लगे। उन्होंने कहा कि परम्परागत गृह-त्याग के कारण बुद्ध के व्यक्तित्व से कतई मेल नहीं खाते।
18. बाबासाहब की यह टिप्पणी बुद्धिज्म के हजारों वर्षों के इतिहास में अद्वितीय और अभूतपूर्व है। इससे पहले लोग परम्परागत बचकानी बातों को ही दुहराते रहते थे। वे यह सोचने के लिए न कभी रुके थे, न साहस ही जुटा पाए थे कि क्या 29 वर्ष का कोई स्वस्थ आदमी ऐसा होता है जिसे न बिमारी का पता हो, न बुढ़ापे का और न मृत्यु का। जिसे 29 वर्ष तक यही ज्ञात न होगा, वह 6 वर्ष में ही बुद्ध कैसे बन सकता है(डॉ. सुरेन्द्र अज्ञातः एशिया का प्रकाश, पृ. 18)।
19. सिद्धार्थ के जन्म का प्रसंग हो, गृह-त्याग का या फिर या सम्बोधि प्राप्ति का, बाबासाहब आम्बेडकर ने अपने ग्रंथ ‘बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’ में जो व्यवहारिक और युक्तिसंगत दृष्टिकोण अपनाया है, निस्संदेह वह अनुकरणीय है। यह एक स्वस्थ वैज्ञानिक आलोचनात्मक दृष्किोण है जो कथानक को निरन्तर परखता है।
20. धर्म-ग्रंथों को परखने की यह आलोचनात्मक पद्यति, धर्म और उसके अनुयायियों दोनों के हित में है। क्योंकि यह धर्म को रद्द नहीं करती बल्कि धार्मिक साहित्य को धर्म विशेष के बुनियादी उसूलों व दावों के प्रकाश में परखती हैै(डॉ. सुरेन्द्र अज्ञातः भूमिकाः एशिया का प्रकाश)। हमें लगता है, धम्म के शुभ चिन्तक और अनुयायी इन पहलुओं पर गंभीरता से विचार करेंगे और जो धम्म-सैद्धांतिकी बाबासाहब ने अपनाई है, उसका अनुपालन करेंगे।
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