Thursday, May 31, 2018

राजअपरिहानिय धम्म(दी. नि.)

"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति (आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी सम्मति के लिए बराबर बैठक करते हैं )? "
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद, वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी सम्मति के लिए निरंतर बैठक करते रहेंगे, तब तक उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी करणीयानि करोन्ति (और आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी जो करणीय है, करते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)।"
"यावकीव च आनंद, वज्जी करणीयानि करोन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी जो करणीय है, करते रहेंगे,  तब तक उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी  अपञ्ञतं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञतं न समुच्छिन्दन्ति(और आनंद! क्या तूने सुना है कि वज्जी अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते) ?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद! वज्जी अपञ्ञतं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञतं न समुच्छिन्दन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(जब तक वज्जी अप्रज्ञप्त को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते रहेंगे, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, ये ते वज्जीनं महल्लका, ते सक्करोन्ति, गरु करोन्ति (आनंद! क्या तूने सुना है कि जो वृद्ध हैं, वज्जी उनका सत्कार करते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
"यावकीव च आनंद! वज्जी ये ते वज्जीनं महल्लका, ते सक्करोन्ती, गरु करोंति (वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक जो वृद्ध हैं, जिनकी बात मानने योग्य है, वज्जी उनका सत्कार करते हैं, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं।"
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेन्ति
(और आनंद! क्या सुना है, जो कुल स्त्रियाँ हैं, कुमारियाँ हैं , वज्जी उन्हें छिनकर जबरदस्ती नहीं बसाते)?"
""सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते ! सुना है)। "
" यावकीव च आनंद,  सुत्तं, वज्जी या ता कुलित्थियो कुल कुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेस्सनति  वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद! जब तक वज्जी अपनी स्त्रियों का, कुमारियों का सम्मान करते रहेंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
"किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जी यानि तानि वज्जीनं चेतियानी अब्भन्तरानि  च एवं बाहिरानि च, तानि सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति (और आनंद! क्या तूने सुना है, वज्जियों के नगर के भीतर या बाहर जो चेत्य हैं, क्या वज्जी उनका सत्कार करते हैं, उन्हें पूजते हैं )?"
"सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते! सुना है)। "
यावकीव च आनंद,  वज्जी यानि तानि वज्जीन चेतियानी अब्भंतरानि च एव बाहिरानि च, तानि सक्करोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति,  वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि (आनंद! जब तक वज्जी ऐसा करते रहेंगे, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
" किन्ति ते, आनंद, सुत्तं, वज्जीनं अरहन्तानं, पूजनीयानं सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति(और आनंद ! क्या तूने सुना है, वज्जी लोग अर्हतों की, पूज्यों की रक्षा करते हैं) ?"
 "सुत्तं मे तं भंते(हाँ, भंते! सुना है)। "
यावकीव च आनंद,  वज्जी अरहन्तानं, पूजनीयानं सक्कारोन्ति, मानेन्ति, पूजेन्ति, वुद्धियेव आनंद, वज्जीनं पाटिकंखा, नो परिहानि(आनंद ! जब तक वज्जी अर्हतों की, पूज्यों की रक्षा करते हैं, उनकी वृद्धि ही समझना चाहिए, हानि नहीं)। "
( स्रोत- महापरिनिब्बानसुत्त : दीघनिकाय : सुत्त पिटक) ।
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किन्ति - किं इति।                                         
यावकीव (याव-कीव) - जब तक।  (याव- जब तक।  कीव- कितना ?)
                                 -कीव चिरं- कितने समय से ?                 कीव दीघं- कितना बड़ा ?
                                  -कीव दुरे- कितनी दुरी से ?                    कीव बहूंं  - कितना अधिक आदि।
पसह्य- छीन कर।  पसहति(दबाना, मर्दन करना) का भूतका. रूप । 

पटिच्च-समुप्पाद (Patticca- Samuppad)

पटिच्च-समुप्पाद (Patticca- Samuppad)
एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति; बुद्ध ने इसे प्रतीत्य-समुप्पाद(पटिच्च-समुप्पाद) कहा। बुद्ध का प्रत्यय ऐसा हेतु है, जो किसी वस्तु या घटना के उत्पन्न होने के पहले क्षण सदा लुप्त होते देखा जाता है। प्रतीत्य-समुप्पाद कार्य-कारण नियम को अविच्छिन्न नहीं विच्छिन्न(discontinuous continuous) प्रवाह बतलाता है(राहुल सांकृत्यायन ; दर्शन-दिग्दर्शन पृ. 514)। बुद्ध के अनुसार सारे धर्म प्रतीत्य-समुप्पन्न है।

मनुष्य जीवन को पटिच्च-समुप्पाद से सम्बद्ध करते हुए बुद्ध ने कहा- अविज्जा(अविद्या) से संखार(संस्कार), संखार(संस्कार) से  विञ्ञान (विज्ञान), विञ्ञान से नामरूप, नामरूप से सळायतन(षड़ायतन), सळायतन से फस्स(स्पर्श), फस्स से वेदना, वेदना से तण्हा(तृष्णा), तण्हा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति(जन्म), और जाति से जरा, मरण, सोक(शोक), परिदेवन, दुक्ख, दोमस्स(दौर्मनस्स), उपायास उत्पन्न होते हैं। पूर्ण वैराग्य से अविज्जा का निरोध करने पर संखारों का निरोध होता है। संखारों के निरोध से विञ्ञान का निरोध होता है। विञ्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है। नामरूप के निरोध होने से सळायतन का निरोध, सळायतन के निरोध से फस्स का निरोध, फस्स के निरोध उसे वेदना का निरोध, वेदना के निरोध से तण्हा का निरोध, तण्हा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव का निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से जरा, मरण शोक, परिदेवन, दोमनस्य, उपायास का निरोध होता है(संदर्भ- धर्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्धः जीवन और दर्शन, पृ. 100) )।

‘शून्यता से नागार्जुन का अर्थ है, प्रतीत्य-समुप्पाद- विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएं किसी भी स्थिर अचल तत्व से बिलकुल शून्य है(विग्रहव्यावर्त्तनी- कारिका 22)। अर्थात विश्व घटनाएं है, वस्तु समूह नहीं(दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. 572)।

भदन्त आनन्द कौसल्यायन इसे बड़े सीधे और सरल अर्थ में बतलाते हैं- पटिच्च-समुप्पाद का अर्थ है; ऐसा होने पर ऐसा होता है, ऐसा नहीं होने पर ऐसा नहीं होता। उदाहरणार्थ, पानी होने पर भाप होती है, पानी नहीं होने पर भाप नहीं होती है। अथवा तेल होने पर दीपक जलता है, तेल न होने पर दीपक नहीं जलता। पटिच्च-समुप्पाद के नियम के अनुसार जो कुछ भी हमें दृष्टिगोचर होता है, हर वस्तु की, हर क्रिया की, हर धम्म की एक पूर्वावस्था होती है। यदि वह पूर्वावस्था न हो तो उसकी उत्तरकालीन अवस्था न हो। क्योंकि उसकी पूर्वावस्था होती है, इसलिए उसकी उत्तरावस्था होती है(संदर्भ- दर्शनः वेद से मार्क्स तक; डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन, पृ  55 )।

प्रतीत्य-समुप्पाद का अर्थ है; प्रवाह(प्रत्यय) में विनाश(अत्यय) के साथ उत्पाद(समुप्पाद)। पहली वस्तु के विनाश के साथ दूसरी वस्तु की उत्पत्ति। जैसे दूध से दही का बनना। दूध जब दही हो जाता है, तब वह दूध नहीं रहता। और यह भी कि दूध के अलावा दूसरी वस्तु से दही नहीं बनता। यदि दूध है तो उसका दही हो सकता है। कलि में ही फूल है; कहना अयर्थाथ है। यर्थाथ कलि से ही फूल होता है। इस प्रकार प्रतीत्य-समुत्पाद अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह है(भदन्त धम्मकीर्ति : भगवान बुद्ध का इतिहास एवं धम्मदर्शन, पृ. 177-178)।

Tuesday, May 29, 2018

भिक्खु की नांव

जिस तरह विश्व में बौद्ध धर्म फैला, वह कोई सहज बात नहीं थी। यह ऐतिहासिक सत्य है कि इसमें भिक्खुओं का अतुलनीय योगदान था। सम्राट असोक ने धम्म प्रचार के निमित्त जिन भिक्खुओं के दलों को अपना राज प्रतिनिधि के बतौर सुदूर देशों में भेजा था, यह प्रेरणा आगे भी जारी रही। बौद्ध भिक्खु घर-घर जा कर धम्म प्रचार करते थे। जब वे विदेश जाते,  अपने साथ ये भिक्खु धम्म का विशाल साहित्य भी साथ  ले जाते थे।

घटना उस समय की है जब जहाज नहीं थे। लोग लकड़ी के बड़े-बड़े  तख्तों से बनी नौका पर समुद्री मार्ग से निकला करते थे। एक बार चार भिक्खु नांव में बैठे समुद्र पार कर रहे थे। किन्तु धम्म ग्रंथों के बक्सों का भार अधिक होने से नांव डगमगाने लगी।  स्थिति की गंभीरता देख एक भिक्खु ने सुझाव दिया कि कुछ बक्सों को पानी में फैंक दिया जाए ताकि वजन कुछ कम हो।

किन्तु दूसरे भिक्खु ने इसका विरोध करते हुए कहा कि ये धम्म-ग्रन्थ अमूल्य हैं।  ये ग्रन्थ जहाँ भी जाएंगे, लाखों लोगों का जीवन-मार्ग बदल देंगे, उनका कल्याण करेंगे। मुझे लगता है कि मेरे जीवन के आगे इन बेश-कीमती ग्रंथों का सुरक्षित रहना ज्यादा अहम है और फिर,  मुझे आज नहीं तो कल मरना ही है। और यह कह कर उस भिक्खु ने बिना इन्तजार किए कि उसके साथी भिक्खु क्या कहते हैं, छपाक से पानी में छलांग लगा दी। इसके साथ ही दूसरा भिक्खु भी पहले वाले भिक्खु का अनुमोदन करते हुए समुद्र की अतल गहराई में कूद पड़ा । अब लकड़ी के तख्तों की नांव मंथर गति से आगे बढ़ने लगी थी । 

Saturday, May 26, 2018

चीन में धम्म

भारत और चीन के सांस्कृतिक मेल का नूतन युग दो बौघ्द भिक्खु कस्यप मातंग और धम्मरक्खित(धम्मरत्न) ने स्थापित किया था जब वे 67 ईस्वी में बुध्द के उपदेशों को भारत से चीन ले गए (प्रस्तावनाः चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिम्बित बौध्द धर्म का एक अध्ययनः डॉ. अवधेश सिंह)।

कश्मीर के उत्तर में और चीन की पश्चिम सीमा पर प्राचीन खोतान, कुच, तुरफान आदि राज्य थे। खोतान में अशोक पुत्र ने शासन स्थापित किया था। वह राज 56 पीढ़ीयों तक चलता रहा था। बौध्द भिक्षु विरोचन यहां के एक ख्यात-प्राप्त विद्वान हुए हैं। ई. पू. 211 में खोतान में ‘गोतमी विहार’ नामक पहला विद्या केन्द्र स्थापित हुआ था। यहां पर खरोष्ठी लिपि में कुछ लेख प्राप्त हुए हैं। खोतान में बौध्द-संस्कृति का उत्कर्ष सातवें शतक में विशेष था।
बौध्द धर्म का प्रवेश कुचा में ई. पू. प्रथम शताब्दी में हुआ। तीसरी शती तक यह प्रमुख बुध्दिस्ट केन्द्र था। यहां के भिक्षु बौध्द-ग्रंथों का अनुवाद करने चीन गए थे। चौथी शताब्दी में फाह्यान और सातवीं शताब्दी में ह्वेन-सांग ने कुचा की यात्रा की थी। तनहांग में गुहा-विहार थे, जिन्हें ‘हजार बुध्दों की गुहाएं’ कहा जाता था(भ. बुध्द का इतिहास एवं धमम्दर्शन )।
पूर्वी चीन के हान-वंश के सम्राट मिंग(ईस्वी 58-75) ने भारत में धम्म-ग्रंथों की खोज के लिए दूत भेजे थे। सम्राट के दूत भारतीय धम्म-ग्रंथों के साथ बौध्द भिक्षु काश्यप मातंग को भी ले गए थे। इसी समय भारत में सम्राट कनिष्क (ईस्वी 78-101) का शासन था। ईस्वी 64 में बौध्द भिक्षु काश्यप मातंग चीनी सम्राट को भेट करने बुध्द की एक सुन्दर-सी मूर्ति भी ले गए थे।
इतिहास का यह वह काल-खण्ड था जब चीन के सम्राट को भेट करने के लिए बुध्द प्रतिमा सर्वप्रथम बनाई गई थी। इसके पहले बुध्द की पूजा वज्रासन आदि उनके प्रतीकों से होती थी। चीनी सम्राट ने उनका भव्य स्वागत किया था। भिक्षु सफेद घोड़ों पर चढ़ कर राजधानी लोयांग पहुंचे थे, इसलिए सम्राट ने जो विहार उनके लिए बनवाया था, उसका नाम श्वेताश्व (पइ-मा-स्से ) विहार पड़ा था।

चीन में बौध्द धर्म का प्रवेश हान वंश के सम्राट वू-ती (148-80 ई. पू.) में हुआ था। इसका उल्लेख यू-हुआन द्वारा 239-265 ईस्वी के मध्य लिखित ‘वाई लिआओ’ नामक इतिहास ग्रंथ में उपलब्ध है। चौथी शताब्दी में बौध्द धर्म वहां का प्रधान धर्म बन गया था(बौध्द संस्कृति-राहुल सांकृत्यायन)। ईस्वी 379 में चीन में बौध्द धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया गया था(भारत का इतिहास, रोमिला थापर पृ. 124)।

फाहियान 368 ई. में और बाद में ह्वेन-सांग, इत्सिंग चीनी यात्राी भारत आए थे। कुमारजीव, बोधिरुचि, रत्नमती, परमार्थ, बोधिधर्म आदि अनेक विद्वान भिक्षु धम्म-प्रचारार्थ चीन गए थे। अनेक भारतीय बौध्द ग्रंथ चीन लाए गए और उनका चीनी अनुवाद किया गया। स्मरण रहे, जो आज ग्रंथ भारत में अप्राप्त है, चीन में विद्यमान है।
सातवीं-आठवीं शती का बौध्द धर्म पूरे वैभव का रहा। उस समय चीन की राजधानी हेनान में बौध्द विद्यापीठ था। चीनी के सम्राट त-ऐ-त्सुंग ने अपनी कन्या कोंग-जो को विवाह में देकर तिब्बत नरेश गम्पो से मैत्री स्थापित की थी।

धर्मकीर्तिजी लिखते हैं, पहले चीन में कन्फ्यूशियन और ताओ स्थानीय सम्प्रदाय थे। बौध्द धर्म को उनके साथ संघर्ष करना पड़ा। बौध्द धर्म शीघ्र ही वहां जन-साधारण का धर्म बन गया। बौध्द धर्म ने कुछ बातों में चीनी धार्मिक विचारों का समर्थन किया और कुछ में उसमें जोड़कर पूरा किया।

चौथी शती के राजाओं ने बौध्द धर्म का राजाश्रय लिया था। चीनी सम्राट ऊ-ती (502-549) का शासन चीनी बौध्द धर्म के इतिहास का उत्कृष्ट युग है। तिपिटक का प्रथम प्रकाशन सम्राट ऊ-ती के काल में ही हुआ था।
चीन में बौध्द धर्म की नीव रखने का श्रेय पार्थियन राजकुमार अन्-शिकाउ (148-70 ईस्वी ) को दिया जाता है। उन्होंने कई भारतीय बौध्द ग्रंथों का वहां की भाषा में अनुवाद किया। चीनी बौध्द धर्म के इतिहास में अन्-शिकाउ का वही स्थान है जो सिंहल में महेन्द्र का है।

उस समय पर कई भारतीय बौध्द भिक्षुओं ने चीन की यात्रा की और यहां के बौध्द ग्रंथों का वहां चीनी भाषा में अनुवाद किया। आज भी जो ग्रंथ भारत में अप्राप्त है, वे चीन में विद्यमान हैं।
चीन में धर्म प्रचार की प्रगति ने सारे बौध्द जगत के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट किया और खोतान, भारत और सिंहल सभी जगह के उत्साही, धर्म प्रेमी विद्वान धर्म प्रचारार्था चीन की ओर जाने लगे।
चैथी शताब्दी के उत्तरार्ध में चीन के बौध्द प्रचारक कोरिया पहुंचे थे। ईस्वी 374 में कोरिया ने चीनी-लिपि स्वीकार की थी। कोरिया के बौध्द धर्म प्रचारकों ने इसके डेढ़ सौ वर्ष बाद यह धम्म-ज्योति जापान पहुंचाई थी।
चीनी बौध्द धर्म के इतिहास में कुमारजीव (ईस्वी 344-413 ) का असाधारण स्थान है। वे 401 ईस्वी में चीन गए थे। चीन के सम्राट ने उन्हें राजगुरू घोषित किया था।
चीन में जाने वाले काश्यप मातंग, धर्मफल, संघवर्मा, धर्मरक्ष, संघदेव, धर्मरत्न, कुमारजीव, गुणवर्मा, गुणभद्र, परमार्थ, गौतम प्रज्ञारुचि, नरेन्द्रयश, जिनगुप्त, दिवाकर, शिक्षानन्द, बोधिरुचि, अमोघवज्र, धर्मदेव, दानपाल आदि कितने ही विद्वान और बौध्दाचार्य हैं(बौध्द संस्कृति, पृ. 379)।
ताउ-आन एक प्रभावशाली भिक्षु थे। उनके बहुत सारे शिष्य थे। उनके प्रमुख शिष्य हुइ-युवेन को सुखावती, पुडरिक या अमिताभ सम्प्रदाय का प्रतिष्ठापक माना जाता है। इसी काल में एक दूसरा सम्प्रदाय छान (संस्कृत ध्यान, जापानी ‘जेन’) का प्रादुर्भाव हुआ। इसके संस्थापक चू-ताउ-सेंग(397-434 ईस्वी) नामक चीनी भिक्षु थे जो कुमारजीव की शिक्षा से प्रभावित हुए थे।
प्रकाण्ड विद्वान शंक वंशीय भिक्षु धर्मरक्ष जो 36 भाषाएं जानते थे, ने 29 वर्ष  ईस्वी 284 से 313 की अवधि में बौध्द धर्म का प्रचार करते हुए प्रज्ञापारमिता, दशभूमिकसूत्रा, सध्दर्मपुण्डरिक, ललितविस्तर आदि कई बौध्द ग्रंथों का अनुवाद किया था। इन्होंने क्वन-इन (अवलोकितेश्वर) का प्रचार किया था। आदमी पर चाहे जैसी आपत्ति आए, यदि वह क्वन-सी-इन ( अवलोकितेश्वर) को पुकारे तो वे तुरन्त उसकी प्रार्थना सुन कर आपत्ति से

बचाएंगे; जैसे भक्तिभाव के उपदेश धर्मरक्ष लोगों को देते थे(भाग 5, चीन-बौध्द संस्कृति)।
सम्राट ऊ-ती का शासन(502-49) बौध्द धर्म के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। वह लिआंग राजवंश का था। ऊ-ती के शासनकाल में कोरिया के राजा ने दूत भेजकर बौध्द ग्रंथों को मंगवाया था। सम्राट जयवर्मा ने 503 ईस्वी में चीनी दरबार में मूंगे की बुध्द प्रतिमा सम्राट के लिए भेजी थी। इस प्रकार ईस्वी 538 में बुध्द की केश-धातु फुन्नान के राजा द्वारा सम्राट ऊ-ती को भेजी गई थी। उसने बड़े उत्सव के साथ केश-धातु का सत्कार किया था।
भोट सम्राट स्रोंग-चन्-स्गम्-पो ने जब आक्रमण किया(ईस्वी 641) तो चीनी थांग सम्राट ली ने राजकन्या भोटराज के पास विवाह के लिए भेजा था।
चीनी सम्राट काउ-चुंग का शासनकाल अपेक्षया ठीक था। इस सम्राट की एक रानी ने सम्राट की मुत्यु के बाद 20 वर्ष(684-704 ईस्वी) तक राज किया था। साम्राज्ञी वू-चो-तियान् ने इसके पहले की राजनैतिक अस्थिरता में बौध्द धर्म पर किए गए अत्याचारों और आघातों को मिटाने की कोशिश की थी। ईस्वी 854 में 4600 विहार और 40,000 मंदिर नष्ट किए गए थे, तथा 2 लाख 60 हजार पांच सौ भिक्खु-भिक्खुनियों को गृहस्थ बनने के लिए मजबूर किया गया था (बौध्द संस्कृति, पृ. 439)।
साम्राज्ञी वू-चो-तियान् के समय में आए एक दूसरे अनुवादक बोधिरुचि जिसे धर्मरुचि भी कहा जाता है, का उल्लेख करना प्रासंगिक है, जिसने अनुवाद ही का काम नहीं किया, बल्कि एक धार्मिक समप्रदाय की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बोधिरुचि ने कई भारतीय बौध ग्रंथों के साथ महायानी ग्रंथ ‘रत्नकूट’ का अनुवाद किया। इसमें सबसे अधिक पाठ किया जाने वाला सूत्रा ‘सुखावती-व्यूह’ है।
सुखावती-व्यूह चीन और जापान में एक प्रभावशाली बौध्द सम्प्रदाय है। इसमें अमिताभ बुध्द और उनके स्वर्ग सुखावती की विवेचना की गई है। जापान के जादो और शिन्सू सम्प्रदाय अमिताभ बुध्द के भक्त है और ‘नमियो अमिदा बुत्सु’(नमोअमिताभाय) उनके जप का महामंत्रा है।
इसी बीच चीन में तंत्रा-मंत्रों का महात्म्य बढ़ा। कई तांत्रिक आए और उन्होंने तांत्रिक ग्रंथों का अनुवाद किया। इनमें शुभाकर सिंह, पो-श्रीमित्रा, वज्रबोधि, अमोघबोधि आदि उल्लेखनीय हैं। यद्यपि वज्रयान को राज की ओर से बहुत सम्मान मिला, सुविधाएं भी मिली किन्तु चीन में कभी उसका प्रभाव अधिक नहीं बढ़ा। जापान में अवश्य उसका जोर अधिक रहा।
ईस्वी 906 में थांग-वंश का सितारा डूबने के साथ ही विद्रोह और अशांति फैलने लगी। मचुरिया और मंगोलिया को खित्तनों ने ले लिया।
नौवीं शताब्दी के अंत में चीन में छापे का रिवाज बढ़ा। इस काल में धार्मिक ग्रंथों की छपायी ने जोर पकड़ा। ईस्वी 868 में वज्रच्छेदिकासूत्रा को छापा गया   । शायद छापे का प्रचार करने में बौध्द ही पहले थे। उन्हें अपने सर्वप्रिय धार्मिक ग्रंथों को बड़ी संख्या में छापने की आवश्यकता हुई। मुहर की तरह लकड़ी की पट्टियों पर अक्षरों को उलटे खुदवा कर बड़ी मात्रा में ग्रंथ छापे जा सकते थे।
चीन में कागज का आविष्कार हो चुका था। जबकि भारत इस मामले में पीछे था। वहां 12 वीं शताब्दी के अंत तक तालपत्रा और भोजपत्रा में आदान-प्रदान चलता रहा। ईस्वी 929 में लोयांग के राजवंश ने जेचुवान पर अधिकार कर लिया। वहां उसे छापखाने का पता लगा। ईस्वी 932 में कन्फूसी-संहिताओं को छापा गया। ईस्वी 971-83 की अवधि में सारा त्रिपिटक छापा गया। सनद रहे,  कागज का नोट भी पहले पहल यही छपा था। यह अलग बात है कि अक्षरों को अलग-अलग करके उन्हें धातुओं में ढालकर फिर कम्पोज करके छापने का काम यूरोप ने किया। बारहवीं शती में चीन में पालि बौध्द धर्म भी पहुंच गया था।
सुंग-काल ईस्वी 960-1219 की अवधि में भारत में बौध्द धर्म अवनति की ओर बढ़ रहा था। इसलिए अब भारतीय बौध्द आचार्याें का धर्म प्रचारार्थ देश-देशांतर में कम होने लगा था। दूसरे,  सिंघ तक इस्लाम ने पहुंच कर तीर्थ-यात्रियों की राह और मुश्किल कर दी थी। फिर भी कुछ भारतीय विद्वान चीन पहुंचे थे।

धर्मकीर्तिजी लिखते हैं, चीन में हजारों बौध्द विहार हैं और उनमें बुध्द, बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, सामंतभद्र आदि मूर्तियों के साथ-साथ कुल-देवताओं की मूर्तियां रहती हैं। सूत्र-पाठ या पूजा के समय चीनी भिक्षु नगारे, झांज जैसे वाद्य बजाते हैं। चीन में ध्यान-भावना का विशेष महत्व है। इसके लिए विहारों में अलग स्थान रहता है। 
चीन में 1949 में कम्युनिस्ट शासन आया। यह संविधान देश को धम्म-स्वातंत्रय घोषित करता है। जून 1953 में राजधानी पिकिंग में ‘बुध्दिस्ट एसोसिएशन आॅफ चाइना स्थापित की गई। इसके बाद  सन् 1955 में बुदिस्ट अकेडेमी स्थापित की गई है। सन् 1956 में यहां 2500 वीं बुध्द जयंति विशाल पैमाने पर मनाई गई थी (भ. बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन)।  

Friday, May 25, 2018

ईत्चिंग( 635-713 ईसवीं )

 ईत्सिंग का जन्म  635 ईसवीं में चीन के चो-शांग (ची-ली प्रांत) में हुआ था । वह सिर्फ  14 वर्ष की आयु में  सामनेर बन गया था। ईस्वी 713 में 79 वर्ष की उम्र में वे परिनिब्बुत्त हुए थे। 

इत्सिंग चीनी यात्री ह्वेन-सांग की भारत यात्रा से बहुत प्रभावित थे। तब, चीन के यात्री भारत आया करते थे। ईत्चिंग भी इन्हीं के एक दल में शामिल हो गए और कांतन में जहाज पकड़ कर दक्षिण के सामुद्रिक मार्ग से उस समय के बौद्ध धर्म केंद्र सुमात्रा (श्रीविजय) पहुंचे। सुमात्रा में कुछ महिने ठहर कर वे ईस्वी 673 में ताम्रलिपि (बंगाल) पहुंचे। भारत पहुँच कर इत्सिंग ने यहाँ कई तीर्थ-स्थानों की यात्रा की। यद्यपि उनका अधिक समय नालन्दा में विद्या-अध्ययन में बिता। 

ईत्चिंग ने अपनी 25 वर्षों की यात्रा में करीब 130 देशों की यात्रा की।  उसने 25 में से 19 वर्ष (ईस्वी 671-90) भारत, गान्धार और कश्मीर में बिताए थे।
   
ईत्चिंग ईस्वी 685 में तामलपि से चलकर सिंहल में कई वर्ष बिताने के बाद ईस्वीं  689 में सुमात्रा पहुंचे। वहां 6 वर्ष रह कर उन्होंने अध्ययन और अनुवाद का कार्य किया और ईस्वी 695 में वे स्वदेश लौटे। सुमात्रा उस समय संस्कृत का केन्द्र था।  वहां बहुत से संस्कृत के विद्वान भिक्खु रहते थे। ईस्वी 695 में जब ईत्चिंग चीन लौटे, वे अपने साथ 400 संस्कृत ग्रंथ और वज्रासन विहार(बुध्दगया महाबोधिविहार) का एक नमूना ले गए थे।

ईत्चिंग ने 1200 शब्दों का एक संस्कृत कोश बनाया। उसने पहले शिक्षानन्द के साथ और फिर स्वतंत्र रूप से अनुवाद भी किए थे। उनके अनुवादित 56 ग्रंथ हैं।

ईत्चिंग की भारत यात्रा का प्रयोजन विनय का संग्रह था। उसने मूलसर्वास्तिवादी पिटक का चीनी अनुवाद किया। चीनी त्रिपिटक में इसकी 12 जिल्दें हैं। इसी तरह तिब्बति त्रिपिटक में भी इसकी इतनी ही जिल्दें हैं। इसके अनुवाद में ईत्चिंग की अध्यक्षता में 54 विद्वान 7 वर्ष (ईस्वी 703-10)तक लगे रहे थेे। विनयपिटक के अतिरिक्त ईत्चिंग ने जिनमित्र द्वारा रचित मूलसर्वास्तिवाद विनयसंग्रह और विशाख का मूलसर्वास्तिवाद निकाय विनयगाथा का भी अनुवाद किया। उन्होंने इस विषय पर दो स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे हैं। ईत्चिंग के अनुवादों में एक छोटा-सा ग्रंथ अध्यर्धशतक है, जिसे कनिष्क कालीन आचार्य मातृचेट ने बुध्द-स्रोत के रूप में लिखा था।
भारत में रहते हुए ईत्चिंग को कितने ही कोरियावासी बौध्द भिखु मिले थे। उसी प्रकार नालन्दा में उन्हें तुषार के भिक्षु मिले थे। तुषार या तुखार उस समय, उजबेकिस्तान के दरबंद और हिन्दूकुश पर्वतमाला के बीच के प्रदेश को कहा जाता था(बौध्द संस्कृति, पृ. 428)।  

फाह्यान

फाह्यान(भारत प्रवास- 399-411 ई.)
बौध्द धर्म के गौरवशाली काल में सूदूर पूरब से जो यात्राी भारत आए, उनमें चीन के फाह्यान का नाम प्रथम है। फाह्यान जिस समय भारत आया उस समय यहां बौध्द धर्म अपनी चरम सीमा में था। इस समय मगध में चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-414 ईस्वी) का शासन था।

राहुल सांकृत्यायन ने फाह्यान के आने का वर्ष 368 ईस्वी लिखा है और भारत में ठहरने का समय 15 वर्ष। जबकि आचार्य धर्मकीर्तिजी ने लिखा है, वह ईस्वी 401 यहां आया और ईस्वी 410 तक ठहर कर उसने पैदल ही सारे भारत का भ्रमण किया। (भगवान बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन)। जबकि  प्रसिद्द इतिहासकार रोमिला थापर ने इसे ईस्वी 405-11 बतलाया है(भारत का इतिहास, पृ. 256 )।

फाह्यान का जन्म चीन में वर्तमान के शान्शी प्रांत में हुआ था। बचपन से ही उसके माता पिता ने उसे विहार में ले जाकर सामणेर बना दिया था। भिक्षु-नियमों के बारे में अधिक जानने की चाह से फाह्यान ने भारत की ओर रूख किया।
वह मेसोपोटामिया, गोबी से होता हुआ तुर्फान पहुंचा। तकलामकान के रेगिस्तान को 35 दिन में बड़ी कठिनाई से पार कर वह खोतान पहुंचा। खोतान चार सदियों पहले ही बौध्द देश था। यहां के भिक्खुओं को देखकर वह बहुत खुश हुआ। खोतान से 54 दिन चलने के बाद वह कश्मीर पहुंचा और फिर पंजाब। पंजाब में पवित्र स्थानों के दर्शन के बाद वह बंगाल पहुंचा। ताम्रलिप्ती (तमलुक) से जहाज द्वारा वह सिंहल गया। सिंहल के विभिन्न विहारों में रहकर उसने कई सारी बातें नोट की। इस तरह देश-देशांतर में घूमते वह चीन लौटने के लिए जावा पहुंचा और 5 महिने जावा में बिताने के बाद वह चीन लौट गया। राजा और प्रजा सबने उसका बड़ा सम्मान किया। फाह्यान शेष जीवन विहारों में विनय पिटक का प्रचार करते 86 वर्ष की उम्र में परिनिब्बुत्त हुए।

फाह्यान अपने मध्य एशिया की यात्रा के लिए काफी प्रसिध्द हुआ। उसने तुर्कों, कास्पियन समुद्र के पास बसने वाली जातियों और अफगानिस्तान में बौध्द धर्म को बड़ी समृध्द अवस्था में में देखा(बौध्द संस्कृति, पृ. 378-379)।
धर्मकीर्तिजी लिखते हैं कि फाह्यान ईस्वी 408 में नालंदा विश्वविद्यालय आया था। उसने काश्गर की ‘पंच परिषद’ में भाग लिया। पेशावर में सम्राट कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप देखा। उसने बौध्द धर्म के हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त किए। विनय पिटक आदि ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार की और 6 वर्ष भारत में बिता कर वह सिंहल पहुंचा। वहां वह 2 वर्ष ठहर कर जल मार्ग से 90 दिन में जावा पहुंचा और वहां से अपनी जन्मभूमि चीन(भगवान बुद्ध का इतिहास और धम्म दर्शन: पृ. 385)।

फाह्यान हमें बताता है कि मथुरा से दक्षिण की ओर का प्रदेश ‘मध्य देश’ कहलाता था।यह प्रदेश ब्राह्मण-धर्म का दृढ़ केन्द्र था। सारे देश में लोग जीव-हत्या नहीं करते, न नशेदार पदार्थ पीते हैं और प्याज या लहसुन भी नहीं खाते। केवल चाण्डाल ही ऐसा करते हैं। क्रय-विक्रय में कौड़िया प्रयोग होती हैें। फाह्यान वर्णन करता हैं कि चाण्डाल लोग अन्य लोगों से अलग रहते हैं। वे शहर या बाजार में जाते थे तो अपने आने की सूचना में उन्हें लकड़ी से आवाज करनी पड़ती थी ताकि दूसरे लोग उनसे छू कर अपवित्र न हो जाऐ(प्राचीन भारत का इतिहासः वी डी महाजन, पृ. 497) )।

फाह्यान के वर्णनानुसार उस समय सारीपुत्त, मोग्गल्यायन  तथा आनन्द और अभिधम्म, विनय सुत्तों के सम्मान में पगोड़े बनाये जातें थे। भिक्षुओं की वार्षिक वापिसी के पश्चात् उनके लिए विभिन्न वस्त्र तथा अन्य वस्तुएं जुटाने के लिए धार्मिक परिवार चन्दा इकट्ठा करते थे। भ. बुध्द के निर्वाण के समय से राजा, सरदार और गृहस्थ सभी ने भिक्षुओं के लिए विहार बनवाए हैं और उनके लिए खेत, घर, बाग, सेवक और पशु दान में दिए हैं। ताम्र-पत्रों पर लिख कर विहारों की सम्पत्ति उनके लिए आरक्षित कर दी जाती है। सभी स्थानीय भिक्षु जिन्हें विहारों में कमरे दिए जाते हैं, उन्हें बिस्तर, चारपाइयां, खाना, पेय पदार्थ आदि भी मिलते हैं। वे अपना समय दया-धर्म के कार्य करने, धार्मिक पुस्तकों का पाठ करने और आत्म-चिन्तन में व्यतीत करते हैं। यदि कोई विदेशी यात्री किसी विहार में आता है तो उसकी पदवी पूछकर उसका यथोचित सम्मान किया जाता है(वही,  पृ. 498)।

पाटलिपुत्र और अशोक के महल से फाह्यान अत्यन्त प्रभावित था। अशोक के बनवाए एक स्तूप के निकट दो विहार थे। एक में महायान और दूसरे में हिनयान शाखा के बौध्द भिक्षु रहते थे। दानों विहारों में 600-700 भिक्षु रहते थे। भिक्षु अपनी विद्वता के लिए इतने प्रसिध्द थे कि दूर-दूर से विद्यार्थी तथा जिज्ञासु उनके भाषण सुननें आते थे। स्वयं फाह्यान ने संस्कृत भाषा सीखने में तीन वर्ष लगाए( वही, पृ. 498-99)।

फाह्यान बताता है कि गया शहर खाली और उजड़ा हुआ था। बोधगया के पवित्र स्थानों के चारों ओर जंगल बन गए थे। कपिलवस्तु और कुशीनगर के पवित्र स्थान भी उजाड़ और खाली थे। बहुत थोड़े भिक्खु और उनके सेवक अब भी उनकी पवित्रता और अपनी श्रध्दा के कारण वहां रहते थे और दान पर निर्वाह करते थे(वही, पृ. 499)। 

व्हेनसांग

व्हेनसांग( 586/602-664 ईस्वी)
ह्वेन सांग (युआन च्वांग्स) का जन्म 602 र्ठस्वी में हुआ था। बीस वर्ष की आयु में वे भिक्षु हो गए। उसने 29 वर्ष की अवस्था में भारत की यात्रा शुरू की थी। तारकन्ध और समरकन्द के रास्ते वह ईस्वी 630 में गांधार पहुंचा था(प्राचीन भारत का इतिहासः वी डी महाजन, पृ. 584)।

कन्नोज के महाराज हर्षवर्धन ने उनका बहुत सम्मान किया था । वह भारत में लगभग 15 वर्ष रहा। इनमें से 8 वर्ष वह सम्राट के दरबार में रहा। नालन्दा विश्वद्यिालय में आचार्य शीलभद्र के पास वे  5 वर्ष अध्ययन करते रहे।

व्हेनसांग ने भारत के लगभग प्रत्येक प्रांत की यात्रा की थी । वह कश्गर, यर्कण्डा और खोतान के रास्ते अप्रेल 645 ईस्वी में चीन पहुंचा था । वह अपने साथ 600 ग्रन्थ ले गया था। भारत से लौटने पर चीनी सम्राट ली-मी-सिन् ने उन्हें मंत्री पद से सम्मानित करना चाहा था किन्तु ह्वेन सांग ने आदर के साथ इसे अस्वीकार कर शेष जीवन बौध्द विहार में ही बिताया। ह्वेन-सांग 6२ वर्ष की अवस्था में 664 ईस्वी में परिनिब्बुत हुए थे(भगवान बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन, पृ. 386)।

भदन्त धर्मकीर्तिजी लिखते हैं कि वह आसाम, ताम्रलिप्ती गया और वहां से दक्षिण भारत में कांजिवरम होता हुआ उसने महाराष्ट्र , वल्लभि, उज्जैन आदि प्रदेशों में भ्रमण किया। इसके बाद सिन्धु नदी पार कर गान्धार से पामीर के मार्ग से वह स्वदेश लौट गया (वही)।

ह्वेन-सांग ने अपना यात्रा विवरण तो लिखा ही किन्तु इसके साथ साथ उन्होंने 75 ग्रंथों का अनुवाद किया। ह्वेन-सांग ने अधिकतर योगाचार, अभिधर्म, प्रज्ञापारमिता और सर्वास्तिवादी अभिधर्म का अनुवाद किया। अनुवादों के अतिरिक्त ह्वेन-सांग ने विज्ञानवादी योगाचार की चीन में स्थापना की। उन्होंने दिग्गनाग के दो ग्रंथों न्यायमुख और आलम्बनपरीक्षा का भी अनुवाद किया(राहुल सांकृत्यायन: बौध्द संस्कृति, पृ. 421 )।

ह्वेनसांग ने लिखा है कि कसाई, मछियारे, नाचने वाले जल्लाद, भंगी आदि शहर के बाहर रहते हैं। आते-जाते समय ये लोग जब तक अपने घर पहुंच जाएं, सडक के बायी ओर चलते हैं। उनके घर नीची दीवारों से घिरे हैं और उनके मौहल्ले अलग हैं (प्राचीन भारत का इतिहासः वी डी महाजन, पृ. 586 )। नगर की दीवारें ईटों या टाइलों की बनाई जाती है। दीवारों के ऊपर के मीनार लकड़ी या बांस के बनाये जाते हैं। घरों की अटारियां और छज्जे लकड़ी के है जो मिट्टी या चूने के पलस्तर तथा टाइलों से ढके हुए हैं। दीवारें चूने या गारे से ढकी है और पवित्राता के लिए उसमें गोबर मिला दिया जाता है(वही )।
संघारामों का निर्माण में चारों कोणों पर तीन मंजीलों के बुर्ज बनाए जाते हैं। शहतीर और उभरे हुए सिरों पर विभिन्न आकारों में खोदकर मूर्तियां बनाई जाती हैं। द्वारों, खिड़कियों और नीची दीवारों पर बहुत से चित्र बनाये जाते हैं। भिक्षुओं के कमरे अन्दर से सुसज्जित और बाहर से सादे हैं। इमारत के बीचों-बीच एक ऊंचा और चौड़ा हॉल है। द्वार पूर्व की ओर खुलते हैं और राज-सिंहासन भी पूर्व की ओर मुंह किए हैं। लोग बहुधा उजले सफेद कपड़े पहनते हैं। रंगदार या सजे हुए कपड़ों का वे मान नहीं करते। पुरुष  कमर पर अपने कपड़े बांधते हैं और फिर उन्हें बगल के नीचे इकट्ठा करके शरीर पर बायी ओर लटका देते हैं(वही )।

ह्वेन-सांग आगे लिखता है कि सोने और चांदी दोनों के सिक्के प्रचलित थे। कौड़ियां और मोती भी मुद्रा के रूप में प्रचलित थे। लोगों का मुख्य आहार गेहूं की चपातियां, भुने हुए दाने, चीनी, घी और दूध के पदार्थ थे। कुछ अवसरों पर मछली, मृग और भेड़ का मांस भी खाया जाता था। गााय तथा कुछ जंगली जानवरों का मांस पूर्णतः वर्जित था। जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता उसे निष्कासित किया जा सकता था(वही)।

नए नगर बन गए थे और पुराने नगर समाप्त हो रहे थे। पाटलिपुत्र अब उत्तरी भारत का प्रमुख नगर नहीं रहा था और उसका स्थान कन्नौज ने ले लिया था। उसमें सैकड़ों संघाराम और 200 हिन्दू मंदिर थे। प्रयाग एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका था। किन्तु श्रावस्ती अब नष्ट हो रहा था और कपिलवस्तु में केवल 30 भिक्षु थे। नालन्दा और वल्लभि में बौध्द धर्म का जोर था(वही, पृ- 586-87)।

रेशम और सूत के कपड़े बनाने की कला अत्यन्त परिष्कृत थी। किसी जंगली जानवर की ऊन का  बना कपड़ा पहने जाते थे। राजा तथा उच्च व्यक्तियों के आभूषण असाधारण थे। कीमती पत्थर का ‘तारा’ और हार उनके सिर के आभूषण हैं और उनके शरीर, अंगूठियों, कंगनों तथा मालाओं से सुसज्जित हैं। धनवान व्यापारी केवल कंगन पहिनते हैं। यद्यपि लोग सादे कपड़े पहिनते हैं, तथापि वे आभूषणों के शौकिन प्रतीत होते थे। औद्योगिक जीवन जातियों तथा बड़ी-बड़ी श्रेणियों तथा निगमों पर आधारित था। देश के औद्योगिक जीवन में ब्राह्मणों का कोई भाग नहीं था। खेती और परिचर्या का काम शुद्र के हाथों में था(वही, पृ. 587)। 

ह्वेन-सांग लिखता है कि जाति-प्रथा ने हिन्दू समाज को जकड़ रखा था। ब्राह्मण धर्म-कर्म करते थे। क्षत्रिय शासक वर्ग थे। राजा प्रायः क्षत्रिय होते थे। वैश्य व्यापारी तथा वणिक थे। धनी व्यापारी सोने की वस्तुओं का व्यापार करते थे। वे प्रायः नंगे पांव जाते हैं। बहुत कम लोग पादुकाएं पहिनते हैं। वे अपने दांतों पर लाल या काले निशान लगाते हैं। वे अपने बाल ऊपर बांधते हैं और कानों में छिद्र करते हैं। शारीरिक सफाई का वे बहुत ध्यान रखते है। खाने के पहले वे हाथ-मुंह धो लेते हैं। जूठन वे कभी नहीं खाते। प्रयोग करने के बाद लकड़ी तथा मिट्टी के बर्तन नष्ट  कर दिए जाते हैं। धातु के बर्तनों को रगड़ कर मांजा जाता है। खाने के बाद वे अपने मुंह को दातुन से साफ करते हैं और हाथ-मुंह धो लेते हैं(वही)।

ह्वेन-सांग लिखता है कि अन्तर्जातीय विवाह नहीं होते थे। भोजन तथा विवाह की दृष्टि में विभिन्न जातियों में कुछ नियन्त्रण थे लेकिन उनमें सामाजिक आचार-व्यवहार के मार्ग में ये नियन्त्रण बाधक नहीं थे। विधवा विवाह की प्रथा नहीं थी। उच्च वर्गों में पर्दे की प्रथा नहीं होती थी। सती प्रथा प्रचलित थी। रानी यशोमति अपने पति प्रभाकर वर्धन के साथ ही सती हो गई थी। राजश्री भी सती होने वाली थी और उसकी जीवन-रक्षा बड़ी कठिनाई से की गई(वही, पृ. 588)।

ह्वेन-सांग लिखता है कि अनुशासन बौध्द धर्म ग्रंथों के नियमों के अनुकूल ही था। उसका उल्लंघन करने पर  उसे मौन धारण करने के लिए बाध्य किया जाता था। शिक्षा धार्मिक थी और उन्हें विहारों के माध्यम से प्रसारित किया जाता था। धार्मिक पुस्तकें लिखी हुई थी। किन्तु वेदों को मौखिक रूप से प्रचलित रखा गया था और उन्हें कागज या पत्तों पर नहीं लिखा जाता था। उस समय प्रचलित लिपि को ब्राह्मी कहा जाता था जो ब्रह्मा के मुख से निःसृत मानी जाती थी। संस्कृत विद्वान वर्ग की भाषा थी। संस्कृत व्याकरण को विधिवत नियमों में जकड़ दिया गया था(वही )।

एक व्यक्ति की शिक्षा नौ वर्ष की आयु से तीस वर्ष की आयु तक चलती थी। शिक्षा पूर्ण होने पर  गुरू को दक्षिणा दी जाती थी। कई लोग सारा जीवन अध्ययन में व्यतीत करते थे। नालंदा की शिक्षा का वर्णन करते हुए ह्वने-सांग ने लिखा है कि जब किसी व्यक्ति की कीर्ति सर्व-प्रसिध्द हो जाती है तो वह एक विचार-गोष्ठि का आयोजन करता है। गोष्ठि में भाग लेने वालों की योग्यता का वह अनुमान लगाता है और यदि उनमें से कोई अपनी परिष्कृत भाषा, सूक्ष्म खोज, गहन चिंतन और अकाट्य तर्क से विशिष्टता प्राप्त कर ले तो बहुमूल्य आभूषणों से सज्जित हाथी पर बैठा कर उसके प्रशंसक उसे विहार के द्वार पर लाते हैं। इसके विपरित यदि एक व्यक्ति वाद-विवाद में हार जाए या अश्लील वाक्य प्रयुक्त करे या तर्क के नियमों का उल्लंघन करे तो उसके ऊपर कीचड़ लगा कर उसे खाई में फैंक दिया जाता है(वही, पृ. 588-89)।

ह्वेन-सांग ने एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक एक बार लोकात्य समुदाय के एक आचार्य ने 40 सिध्दांत लिखे और नालंदा विश्वद्यिालय के द्वार पर इस सूचना के साथ उन्हें लटका दिया कि यदि कोई व्यक्ति इन सिध्दांतों को गलत सिध्द कर दे तो उसकी विजय के उपलक्ष्य में मैं उसे अपना सिर दूंगा। ह्वेन-सांग ने इस चुनौति को स्वीकार किया और उस व्यक्ति को एक सार्वजनिक वाद-विवाद में हरा दिया। किन्तु ह्वेन-सांग ने उसे क्षमा कर दिया और वह ह्वेन-सांग का शिष्य बन गया(वही, पृ. 589)।

शासन प्रणाली के बारे में ह्वेन-सांग ने लिखा हे कि राजभूमि 4 भागों में बंटी थी। राज-कार्य चलाने के लिए एक भाग, मन्त्रियों और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए दूसरा भाग, प्रवीण व्यक्तियों को पुरष्कृत करने के लिए तीसरा भाग और चौथा भाग धार्मिक सम्प्रदायों को देने के लिए है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी वस्तुओं को शांतिपूर्वक अपने पास रखता है और निर्वाह के लिए सभी खेती करते हैं। जो राजभूमि पर खेती करते हैं वे उत्पादन का छठा भाग शुल्क के रूप में देते हैं(वही)। 

व्यापार करने वाले व्यक्ति अपने व्यवसाय के कारण इधर-उधर यात्रा करते हैं। थोड़ा सा धन देने पर नदियां और चौकियां यात्रियों के लिए खोल दी जाती हैं। सार्वजनिक कार्यों के लिए श्रमिकों को लगाया जाता है लेकिन उन्हें इसके लिए पारिश्रमिक दिया जाता है। पारिश्रमिक किए गए काम के अनुपात से ही दिया जाता है(वही )।

ह्वेनसांग कहता है कि अपराधी और विद्रोही कम हैं। नियमों को तोड़ने पर, शासक की शक्ति का उल्लंघन किया जाए तो अपराधी की खोज की जाती है और दंड दिया जाता है। शारीरिक दंड नहीं दिया जाता, उन्हें केवल जीने और मरने के लिए छोड़ दिया जाता है और उन्हें मनुष्यों में नहीं गिना जाता। पितृ-भक्ति में दोषी या बेईमान है तो उसके कान और नाक काट दिए जाते हैं। अपराध की खोज करते समय दोष-स्वीकृति का प्रमाण प्राप्त करने के लिए बल7प्रयोग नहीं किया जातां अभियुक्त से प्रश्नोत्तर के समय यदि वह साफ-साफ उत्तर दे तो उसका दंड घटा दिया जाता है लेकिन यदि वह हठपूर्वक अपराध को स्वीकार न करें तो सत्य की गहराई तक पहुंचने के लिए परीक्षा को प्रयुक्त किया जाता है(वही, पृ. 589- 90)।

महावंस

महावंस, पालि भाषा में लिखित ऐतिहासिक महाकाव्य है। पालि वांगमय में, तिपिटक और उसकी अट्ठकथाओं के बाद ऐतिहासिक वर्णन की दृष्टि से दीपवंस और महावंस ग्रंथों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इन दोनों ही ग्रंथों में भगवान बुद्ध के काल से ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक सिंहलदीप/लंकादीप के बौद्ध राजाओं का तथा प्रसंगवश तत्कालीन भारतीय राजाओं का, बौद्ध स्थविरों का एवं महाविहारों का तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रमाणिक विवरण सुरक्षित है जिसे इतिहासविदों और पुरातत्वविदों ने उत्खनन आदि प्रमाण स्रोतों से प्रमाणित कर दिया है।। इस समय के इतिहास का सम्यक अनुशीलन करने वाले किसी भी अनुसन्धाता के लिए इन दोनों ही ग्रंथों का अध्ययन अत्यावश्यक है।

महावंस का रचनाकाल स्पष्ट तौर पर ज्ञात नहीं है और न ही इसके रचयिता का नाम। यद्यपि महावंस का दूसरा भाग ‘चूळवंस’ जो बाद का प्रतीत होता है, के 38वें परिच्छेद का उल्लेख कर इसका खुलासा करने का प्रयास हुआ है। यह खुलासा महावंस के टीकाकार ने किया है। विदित हो कि महावंस की टीका 12 वीं सदी में लिखी गई थी। महावंस-टीकाकार के अनुसार ‘महावंस’ के रचियता का नाम महानाम स्थविर है। महावंस टीकाकार ने महानाम स्थविर को सिंहलदीप के शासक धातुसेन (460-478 ईस्वी)  के समकालीन बतलाया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि महावंस के कम-से-कम 150 वर्ष पहले सिंहलदीप का ऐतिहासिक ग्रंथ ‘दीपवंस’ लिखा गया था। दोनों ग्रंथों का वर्णित विषय एक है। शंका होती है कि तब, महावंस क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न का उत्तर महावंसकार ने ग्रंथ के प्रारम्भ में ही दे दिया है। उसके अनुसार, दीपवंस बहुत ही संक्षेप में था। दीपवंस के विषय को ही महावंस में विस्तार देकर उसे क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित बनाया गया है। ग्रंथ में सरलता से समझने वाली भाषा-शैली का प्रयोग किया गया है।

महावंस का अंग्रेजी अनुवाद 1837 ईस्वी में जार्ज टर्नर महोदय ने किया था। इसके बाद विल्हेल्स गायगर के सम्पादन में 1908 ईस्वी में इसका दूसरा प्रकाशन हुआ। भदन्त आनन्द कौसल्यायन के द्वारा इसी का अनुवाद 1942 ईस्वीं में  ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग’ से प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ का मूल (पालि) पाठ नागरी लिपि में हिन्दी अनुवाद के साथ महात्मा गांधी विद्यापीठ वाराणसी ने ‘बौद्ध आकर ग्रंथ माला’ के तहत 1996 ईस्वी में प्रकाशित हुआ।

महावंस अपने मौलिक रूप में 37वें परिच्छिेद की 50वीं गाथा पर ‘महावंसो निट्ठितो’ ऐसे लिखे हुए वाक्य पर समाप्त हो जाता हैॅ। किन्तु, बाद में , आगे चलकर इस ग्रंथ में अन्य लेखकों द्वारा परिवर्धन-संवर्धन भी होता रहा है। इस बाद के अंश को ‘चूळवंस’ कहते हैं।

महावंस के ततिय, चतुत्थ और 5 वें परिच्छेद में तीन बौद्ध संगीतियों का क्रमवार वर्णन है। छटवें से 10 तक के परिच्छेदों में लाड़ नरेश सिंहबाहु के पुत्र विजय का सिंहलदीप आगमन, राज्यभिषेेक एवं उनके वंश के राजाओं का वर्णन है। एकादस परिच्छेद से राजा देनानम्पिय तिस्स का वर्णन है। यही वह समय है जब बौद्ध धर्म यहां व्यवस्थित रूप से पहुंचा। इसी परिच्छेद से ज्ञात होता है कि राजा देवानम्पिय तिस्स ने सम्राट अशोक को बहुत से अमूल्य उपहार भेजे थे। बदले में सम्राट अशोक ने देवानम्पिय तिस्स को सिंहलदीप का राजा स्वीकार किया था। सिंहलदीप से पाटलिपुत्त तक का स्थल और जल-मार्गों का इसमें वर्णन है।

द्वादस परिच्छेद में मगध से विश्व के विविध देशों में जाकर बौद्ध स्थविरों द्वारा किए गए सद्धर्म प्रचार का क्रमानुसार वर्णन है। तेरहवें से चौदहवें परिच्छेदों में महिन्द स्थविर एवं संघमित्रा का सिंहलदीप में आगमन का विस्तार से वर्णन है। पन्द्रहवें से बीसवें परिच्छेदों में राजा देवानम्पिय तिस्स द्वारा बौद्ध धम्म के प्रचारार्थ किए गए कार्य, संघमित्रा द्वारा पाटिलपुत्त से सिंहलदीप में महाबोधि वृक्ष का आनयन, महिन्द स्थविर का परिनिर्वाण आदि वर्णित है।

इक्कीसवें परिच्छेद में देवानम्पिय तिस्स के बाद राजा वट्ठगामणी के पूर्व पांच राजाओं का वर्णन है। बावीसवें से बत्तीसवें परिच्छेदों में राजा वट्ठगामणी के कार्य-कलाप, द्रविड़ों का सिंहलदीप से निष्कासन आदि का  वर्णन है। संैतीसवें परिच्छेद की पचासवीं गाथा तक राजा महासेन के शासन-काल का वर्णन है।

महावंस में वर्णित सूचनाएं अन्य ग्रंथों तथा पुरातत्व के अनुसन्धानों से समर्थन प्राप्त कर चुके हैं। सम्राट अशोक के द्वारा सद्धम्म प्रचारार्थ विदेशों में भेजे गए बौद्ध-स्थविरों के नाम भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा सांची-स्तूप में किए गए अनुसन्धान से प्रमाणित हो चुके हैं। इसी प्रकार संघमित्रा द्वारा  सिंहलदीप में बोधि-वृक्ष जाने का वर्णन सांची स्तूप के नीचे वाले तथा बीच के द्वारों पर अंकित  है। महावंस में राम-रावण कथा ऐतिहासिक समर्थन करने वाली सामग्री का कोई उल्लेख नहीं है।

महावंस में घटनाओं का काल-निर्धारण बुद्ध महापरिनिर्वाण (ई. पू. 544) से किया गया है। यही कारण है कि सिंहलदीप में बुद्ध का महापरिनिर्वाण 544 ई. पू. माना जाता है। सभी बौद्ध देशों में काल-गणना किए जाने वाले बुद्धाब्द का प्रारम्भ भी यही तिथि है। बौद्ध देशों की उपरोक्त परम्परा की मान्य तिथि और भारतवर्ष में उपलब्ध अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से जो तिथि निश्चित की गई है, उसमें लगभग 60 वर्ष का अन्तर आता है।
 
महावंस में कवि की भगवान बुद्ध में अत्यधिक श्रद्धा-वश कहीं-कहीं  काल्पनिक कथानक भी आए हैं।उदाहर-णार्थ ग्रंथ के प्रारम्भ में ही प्रथम और दुतिय परिच्छेद में भगवान बुद्ध का सिंहलदीप में दो बार आगमन और उनके द्वारा यक्षदमन, नागदमन का वर्णन दिखाया गया है। इसी प्रकार कल्याणी नदी पर नागों पर कृपा करने हेतु बुद्ध का तीसरा आगमन वर्णित है। स्मरण रहे, इसी कथानक के आधार पर सिंहलदीप निवासी वहां के समन्तकूद पर्वत पर अंकित चरण-चिन्हों को भगवान बुद्ध का मानती है।

इसी प्रकार बुद्ध के जन्म आदि से संबंधित कई काल्पनिक और अविश्वनीय कथानकों ने बुद्ध के मानवीय पहलू और संदेश को ढंक दिया है। अन्य धर्म के लोगों द्वारा अपने-अपने इष्ट महापुरुषों को दैवीय और चमत्कारिक बतलाने का साफ असर यहां महावंस के रचनाकार पर दिखता है। निस्संदेह, महावंस में जो कुछ लिखा है, सारा का सारा मानने योग्य नहीं है, छननी से छान कर ही ग्रहण करने योग्य है(महावंसः सम्पादकीय एवं भूमिका)।

बुद्धघोस  के जीवन चरित का विवरण महावंस से प्राप्त होता है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ , 234  : डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय )। 

सध्दम्मपुण्डरिक

सध्दम्मपुण्डरिक

‘पुण्डरिक’ का अर्थ है, ‘कमल का फूल’। सद्धम्मपुण्डरिक को ‘सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र’ भी कहा जाता है। सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र को बुद्ध के करुणा और शांति का दूत कहा जाता है। वह बुद्ध को, जो ऐतिहासिक महापुरुस हैं, अलौकिक और लोकोत्तर बतलाता है।

यह महायानी ग्रंथ है। महायान परम्परा में ‘वैपूल्य-सूत्र’ का बड़ा महत्व है। ‘वैपुल्य’ का अर्थ है, ‘विपुलता’। महायानी विचारधारा में इन वैपुल्य-सूत्र ग्रंथों को पवित्र समझा जाता है, उन्हें पूजा जाता है। इस वैपूल्य-सूत्र में नौ ग्रंथ आते हैं- प्रज्ञा-पारमिता सूत्र, सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र, ललितविस्तर, लंकावतार -सूत्र, सुवर्णप्रभास-सूत्र, गण्डव्यूह-सूत्र, तथागत गुह्य-सूत्र, समाधिराज-सूत्र और दसभूमिक-सूत्र।

सद्धम्मपुण्डरिक के रचयिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। यह ईसा की पहली सदी का प्रतीत होता है। यद्यपि इस ग्रंथ की रचना भारत में हुई थी, किन्तु यह अन्य बौद्ध-ग्रंथों की तरह भारत से लुप्त हो गया था। किन्तु भारत के बाहर चीन, तिब्बत, नेपाल, भूटान, जापान, ताईवान, मंगोलिया आदि देसों में इसके अनुवाद प्राप्त हुए हैं।
ग्रन्थ की भासा पालि-संस्कृत है। इस ग्रंथ में, निदान, उपाय कोसल, आदि कुल 27 परिवर्त अर्थात अध्याय हैं।

सद्धम्मपुण्डरिक का चीनी अनुवाद 223 ईस्वी में प्राप्त हुआ था। चीन में, वसूबन्धु कृत ‘सद्धम्मपुण्डरिक-टीका’ 508 ईस्वी में प्राप्त होने का उल्लेख है। जापान में सद्धम्मपुण्डरिक पर टीका वहां के राजपुत्र सी-तोकु-ताय द्वारा 615 ईस्वी में लिखी गई थी। जापानी बौद्ध भिक्खु फयूजी गुरूजी ने प्रथम च द्वितीय विश्व युद्ध की त्रासदी को देखकर ही जापान, भारत सहित दुनिया के कई देशों में ‘विश्व शांति-स्तूपों’ का निर्माण किया है। फयूजी गुरूजी के इन कार्यों के मूल में सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र ही रहा है।

सद्धम्मपुण्डरिक सूत्र का धार्मिक महत्व ही नहीं है, वरन इस ग्रंथ का सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्व भी है। यही नहीं, इसमें अंक गणितीय और औसधि-विज्ञान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हैं।

‘एव मया सुतं’ अर्थात ‘ऐसा मैंने सुना’ से सद्धम्मपुण्डरिक का प्रत्येक  सूत्र आरम्भ होता है। ग्रंथ में बोधिसत्व जीवन तथा बुद्धत्व प्राप्ति के  महत्व का वर्णन है। इसमें दुक्ख, दुक्ख से मुक्त होने का मार्ग आदि बौद्ध-संकल्पनाओं को समझाया गया है। यदि कोई व्यक्ति मुसीबत में उलझ गया तो किस तरह से रास्ता निकाला जाए और समस्या हल हो, इसे ग्रंथ के दूसरे परिवर्त ‘उपाय कौशल्य’ में बतलाया गया है(स्रोत- प्रस्तावनाः सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्राः प्रो. डॉ. विमलकीर्ति) ।

सद्धर्म पुंडरिक सूत्र के पंद्रहवे परिवर्त में आया है - 'असंख्य कल्प पहले ही बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया था।  उनकी आयु अपरिमित है तथा उन्होंने वस्तुत: अभी परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं किया है। अथवा यह कहा जाए कि उन्होंने संसार और परिनिर्वाण के भेद से व्यतीत सत्य का साक्षात्कार किया है। तथापि वे नाना रूपों में प्रकट हो कर लोक-हिट के लिए उपदेश करते हैं(डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय, पृ  351 )।

Wednesday, May 23, 2018

ललितविस्तर

ललितविस्तर-
यह सर्वास्तिवादियों का ग्रन्थ है, जो आगे चल कर महायान के रूप में परिणत हुआ । यह किसकी रचना है, अभी तक ज्ञात नहीं है।  इसका रचना काल ईस्वी 3 सदी के आस-पास माना जाता है।  यह संस्कृत महाकाव्य बुद्ध-जीवनी पर केंद्रित  है ।

ललितविस्तर का प्रारम्भ और उपसंहार स्पष्ट रूप से महायानिक है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ललितविस्तर नाम के वैपुल्य सूत्र के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्खुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। अंत में 'ललितविस्तर' का महामात्य गान किया गया है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि से अनन्तर धम्म चक्क पवत्तन तक का वृतांत निरूपित किया गया है।  प्राचीन विवरण से अधिकांश स्थलों में विशेषत: अभिनिष्क्रमण के अनन्तर मेल खाते हुए अनेक नवीन उद्भावनाएँ की गई हैं। वर्णन शैली में एक व्यापक महायानिक 'वैपुल्य' अथवा विस्तार की प्रवृति देखी जा सकती है'(डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय: महायान का उदगम  और साहित्य: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ. 327 )।

स्मरण रहे, इसी तर्ज पर कुछ समय बाद अस्वघोस ने 'बुद्धचरित' की रचना की। ललितविस्तर में संस्कृत के साथ-साथ पालि भाषा बहुतायत में प्रयोग हुई है । पाली के साथ साथ ग्रन्थ पर भोट (तिब्बती) भाषा का प्रभाव   है।  इसमें  27 अध्याय(परिवर्त ) हैं। प्रत्येक अध्याय गद्य और पद्य; दोनों में है। ग्रन्थ में बुद्ध के प्रारंभिक जीवन से लेकर धम्मचक्क पवत्तन तक की घटनाओं का विवरण है।

बुद्ध अपने जीवन काल में ही धम्म के उपदेशक तथा संघ के प्रतिष्ठापक होने के कारण अपने शिष्यों द्वारा पूजे जाते थे।  जिस प्रकार कोई अपने शिक्षक, माता-पिता, गुरु की सेवा करता है, उसी प्रकार बुद्ध के शिष्य उन्हें लौकिक जीवन के शास्ता/मार्गदाता के रूप में देखते थे। बुद्ध के समय में वैदिक साहित्य देवी-देवता, इश्वर-ब्रह्मा और उनके चमत्कारों से भरा था। ब्राह्मण इसका नेतृत्व  करता था। ब्राह्मण ने आम जन के अन्दर स्वयं को धर्म के रक्षक के तौर पर प्रतिष्ठापित कर रखा था (प्रस्तावना:ललितविस्तर: अनुवादक शांति भिक्षु शास्त्री: मानव संसाधन विकास मंत्रालय उ. प्र. हिंदी संस्थान लखनऊ) ।

बुद्ध तो ब्राह्मण व्यवस्था के विरुद्ध खड़े थे। किन्तु धीरे-धीरे उनके अनुयायी उन्हें भी दिव्य रूप से देखने लगे और कालांतर में यह दिव्यरूपता उनके मानवीय जीवन में घुल-मिल गई । बुद्ध जो भिक्खु-संघ के पथ-प्रदर्शक तथा सारिपुत्त और मोग्ग्ल्लान जैसे ब्राह्मण शिष्यों से घिरे रहते थे, वे कथा और गाथाओं में देवताओं से घिरे दिखने लगे। उन्हें लोकोत्तर का दर्जा दिया जाने लगा और उनके जीवन पर रागदरबारी कवियों द्वारा काव्य-ग्रन्थ लिखे जाने लगे( वही)।           

Friday, May 18, 2018

दिव्यादान

दिव्यादान
अवदान का अर्थ है- चरित-कथा। दिव्यादान, वास्तव में द्विव्य अवदानों या चरित्र-कथाओं का संकलन है। यह महायानी सर्वास्तिवादियों का प्रमुख ग्रंथ है।

इसमें निम्न 38 अवदानों/चरित-कथाओं का संकलन है-
1. कोटिककर्णावदान 2. पूर्णावदान 3. मैत्रोयावदान 4. बाहमणदारिकावदान 5. स्तूतिबाहमणवदान 6. इन्द्रबाहमणवदान 7. नगरावलम्बिकावदान 8. सुप्रियावदान 9. मेण्ढकगृहपति विभूति परिच्छेद 10. मेण्ढकावदान 11. अशोकवर्णावदान 12. प्रातिहार्य-सूत्र 13. स्वागतावदान 14. शूकरिकावदान 15. चक्रवर्तिव्याकृतावदान 16. शुतपोतकावदान 17. मान्धातावदान 18. धर्मरुच्यावदासन 19. ज्योतिष्कावदान 20. कनकवर्णावदान 21. सहसोद्रतावदान 22. चन्द्रप्रभ-बोधिसत्वचर्यावदान 23. संघरक्षितावदान 24. नागकुमारावदान 25. संघरक्षितावदान-शेष 26. पांशुप्रदानावदान 27. कुणालावदान 28. वीतशोकावदान 29. अशोकावदान 30. सुधनकुमारावदान 31. तोयिकामहावदान 32. रूपावत्यावदान 33. शार्दूलकर्णावदान 34. दानाधिकारमहायान-सूत्र 35. चूड़ापक्षावदान 36. माकन्दिकावदान 37. रुद्रायणावदान 38. मैत्राकन्यकावदान।

द्वियादान की भासा ‘पालि-संस्कृत’ है। मूल पालि के बौद्ध-ग्रंथों को जब संस्कृत में लिखा जाने लगा, तब इनकी भासा पालि-संस्कृत का मिश्रण थी और इसीलिए इसे ‘पालि-संस्कृत’ कहा गया।

द्वियादान बौद्धकालीन इतिहास और संस्कृति की धरोहर है। इसका ऐतिहासिक महत्व है। इतिहास की किताबों में बिना दिव्यादान के उद्धहरणों के प्राचीन इतिहास की पुष्टि असम्भव है। सम्राट असोक की जीवन-चर्या एवं महान कार्यों का प्रमाणिक विवरण दिव्यादान से ही प्राप्त होता है। इसमें ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध धर्म पर किए गए भयंकर आक्रमणों की घटनाएं दर्ज हैं। इसमें पुष्यमित्र शुंग को मौर्य वंश का अंतिम शासक बतलाया गया है।

दिव्यादान का चीनी अनुवाद 265 ईस्वी में हो गया था। इससे इन ग्रंथों का लेखन और संकलन के काल का अनुमान किया जा सकता है। इसका रोमन लिपि संस्करण 1886 ईस्वी में तथा नागरी लिपि संस्करण 1959 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था। अश्वघोष कृत बुद्धचरितं और संस्कृत ग्रन्थ ललितविस्तर का अनुवाद दिव्यादान के काफी पहले हो चुका  था । 

धम्मानन्द कोसम्बी

धम्मानन्द कोसम्बी (1876-1947)
धम्मानंद कोसंबी को पालि भाषा और साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित के तौर पर जाना जाता है। पाठक इन्हें डी.डी. कोसंबी के नाम से भी जानते हैं।
धम्मनद कोसंबी का जन्म 9 अक्टू. सन् 1876 में गोवा के एक गांव के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके मन में गृहस्थी के प्रति उपरति और बुध्द के प्रति लगाव बचपन से ही पैदा हो गया था। इन्होंने 22 वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिया था। आप बौध्द धर्म का अध्ययन करने लिए सिरिलंका गए। वहां सन् 1902 में भदन्त सुमंगलाचार्यजी से भिक्षु-दीक्षा प्राप्त की।
सिंहलद्वीप से लौटने के बाद धम्मानंद कोसंबी की मुलाकात बड़ोदा-नरेश सयाजी गायकवाड़ से हुई । महाराजा ने उन्हें पाली अध्ययन का काम निश्चिन्त होकर करने कहा।
पूना में डॉ. भण्डारकर की मदद से बम्बई यूनिवर्सिटी में कोसाम्बी ने पाली भाषा के अध्ययन को स्थान दिलाया। आपने अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में ‘विसुध्दिमग्ग’ के सम्पादन का काम किया। फर्ग्यूसन कॉलेज में आपने पालि पढ़ाने का काम किया। महात्मा गांधी की गुजरात विद्यापीठ में रहकर जैन और बौध्द धर्म पर ग्रंथ तैयार किए।
सन् 1921 में कोसाम्बी, सोवियत संघ गए। सन् 1030 के दौरान आपने स्वराज-आन्दोलन में भाग लिया। इसी बीच आपने ‘हिन्दी संस्कृति आणि अहिंसा’ नामक ग्रंथ लिखा। सारनाथ में आपने भिक्षु जगदीश कश्यप के साथ काम किया। जीवन के अंतिम दिनों में गांधी के सेवाआश्रम में रहे और वहीं आपने 5 जून 1947 को देह त्याग दिया।
कोसम्बी जी सभी धर्मों का आदर करते थे। वे जैन धर्म को उतना ही मानते थे जितना बौध्द धर्म को। गांधी जी के प्रति असीम आदर रखते हुए भी कोसम्बी उनकी टीका-टिप्पणी करने में नहीं चुकते थे।

कोसम्बी ने मराठी, हिन्दी, गुजराती में बौध्द धर्म पर अनेक ग्रंथ लिखे। आपकी उल्लेखनीय रचनाएं हैं- बुध्द धर्म आणि संघ, बुध्दलीला-सार संग्रह, बौध्द संघा चा परिचय, समाधि मार्ग, हिन्दी संस्कृति आणि अहिंसा। अभिधम्मसंगहो पर पाली में आपका ग्रंथ ‘नवनीत टीका’ एक पाण्डित्यभरी कृति है।

कोसाम्बी जी ने शान्तिदेव की पुस्तक ‘बोधिचर्यावतार का मराठी और गुजराती में अनुवाद किया। आप ने धम्मपद और सुत्तनिपात का अनुवाद किया। ‘विसुध्दिमग्ग’ पर ‘समाधिमार्ग’ नाम से आपने टीका लिखी (काकासाहब कालेलकर, लेख ‘भक्त पण्डित धर्मानंद कोसंबी, भगवान बुध्द जीवन और दर्शन;  धर्मानन्द कोसम्बी)।

हरीप्रसाद टमटा

हरीप्रसाद टमटा
 भारत में दलितों का सर्वमान्य नेता कौन है, जब इस मुद्दे पर लन्दन के गोलमेज सम्मलेन में बहस हो रही थी, उस समय भारत से बाबासाहब डा. आंबेडकर को दलितों का मसीहा बताने वाला जो टेलीग्राम मिला था, उसे प्रेषित करने वाले अल्मोड़ा के जागीरदार राय साहेब मुंशी हरीप्रसादजी टमटा थे। 

मुंशी हरिप्रसाद टमटा का जन्म ताम्रकार परिवार में 26 अग 1887 को हुआ था। उन्होंने बचपन में मिडिल स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की थी। बालक हरिप्रसाद बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। स्वाभिमान की भावना उन में कूट-कूट कर भरी थी।   

जिस टमटा जाति  में हरिप्रसाद पैदा हुए थे, पूर्व में उन्हें डोम कहा जाता था।  डोम जाति को सामाजिक रूप से 'नीच' समझा जाता था। हरिप्रसाद ने इस नीच-उंच की घृणा को जन्म से भोगा था। जब वे बड़े हुए तो उन्होंने इसके विरुद्ध आवाज उठाया। समाज की कुरुतियों को दूर करने 1905 में उन्होंने  'टमटा समाज सुधार सभा' का गठन किया था ।

हरिप्रसाद टमटा अपने समाज में स्वाभिमान की अलख जगाने निरंतर कार्य करते रहे।  1920 से 1926 के दरम्यान हरिप्रसादजी ने लम्बा आंदोलन चलाया और टमटा जाति का नाम  बदल कर 'शिल्पकार' रखने में सफल हुए। आज, पहाड़ों में अगर शिल्पकार समाज को अनु. जाति का दर्जा प्राप्त है, तो यह हरीप्रसादजी टमटा की देन है।

बाबासाहब के कार्यों की अनुगूँज टमटा जी तक पहुंच चुकी थी।  वे बाबासाहब को व्यक्तिगत न जानते हुए भी उनके मुरीद हो चुके थे। इसके साथ ही ज्योतिबा फुले के कार्यों से भी वे अनुप्रेरित थे।  

याज्ञवल्क्य-गार्गी

प्रश्न पर अंकुश लगाना अथवा तर्क को कुतर्क कहना यह इंगित करता है कि आप प्रश्न-कर्ता को चुप कराना चाहते हैं। बुद्ध ने सवालों पर अथवा तर्क/कुतर्क पर कभी अंकुश नहीं लगाया। बौद्ध-ग्रंथों में ऐसा प्रसंग नहीं मिलता। जो भी संवाद का प्रसंग हम देखते हैं, उसमे पाते हैं कि लोग प्रश्न करते गए और वे उत्तर देते गए।

बौद्ध मत से इतर जितने भी धर्म हैं, वे प्रश्न अथवा तर्क/कुतर्क को सहन नहीं करते. यह बौद्ध धर्म की विशेषता है कि वह सवालों को आमंत्रित करता है. वह तर्क और कुतर्क को आमंत्रित करता है। हिन्दुओं के बृहदारण्यक उपनिषद का एक उदाहरण दृष्टव्य है-

 ब्रम्ह के बारे में ऋषि याज्ञवल्क्य बतला रहे थे कि ब्रम्ह इसे कहते है.. कि ब्रम्ह उसे कहते है. किन्तु शिष्या  गार्गी है कि प्रश्न पर प्रतिप्रश्न कर रही थी.याज्ञवल्क्य को क्रोध आ गया. क्रोधावेश में मुनि ने कहा- गार्गी, आगे प्रश्न करोगी तो तेरे सिर के दो टुकडें हो जाएँगे(दर्शन-दिग्दर्शन:राहुल सांकृत्यायन) । 

बुद्ध का चमत्कार से परहेज

बुद्ध का चमत्कार से परहेज
दीघनिकाय के पाथिकवग्ग में 'सुनक्खत्तवत्थु' नामक एक प्रसंग है। इसमें मल्लों के नगर अनुपिय्या के वज्जी ग्राम निवासी लिच्छवि पुत्र सुनक्खत का जिक्र है जो एक समय बुद्ध का बड़ा प्रशंसक था। किन्तु वह चाहता था कि अन्य चमत्कारी महापुरुषों की तरह बुद्ध भी लोगों को चमत्कार दिखाएं । उसने बुद्ध के सामने जा कर यह बात कही। तत्सम्बंध में बुद्ध और सुनक्खत के बीच हुआ संवाद दिलचस्प है-   
"भंते ! अब मैं भगवान के धम्म को छोड़ रहा हूँ। क्योंकि, आप मुझे चमत्कार नहीं दिखाते हैं ? "
"सुनक्खत! क्या मैंने तुझसे कहा था कि आ मेरे धम्म को स्वीकार कर, मैं तुझे चमत्कार दिखाऊंगा।  "
"नहीं भंते।"
"सुनक्खत! क्या तू समझता है कि चमत्कार दिखाने या न दिखाने से दुक्ख क्षय के लिए मेरे द्वारा उपदिष्ट  धम्म पर कोई अनुकूल/प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ?"
"नहीं भंते !"
"तो मोघ पुरुष  ! तू चमत्कार में क्यों पड़ता है ?"