Tuesday, January 10, 2012

लोक शाहिर विलास घोगरे(Vilas Ghogare)

       11 जुला. सन 1997  को मुंबई के रमाबाई नगर में पुलिस ने 10  दलितों को गोलियों से भून डाला था.इस सामूहिक हत्या कांड में 35 लोग बुरी तरह जख्मी हुए थे. इस निर्मम गोलीबारी में मारी गयी एक दलित महिला भी थी.लोक शाहिर विलास ने घटना-स्थल के कई चक्कर लगाये थे.दलितों की इतनी निर्मम हत्या और फिर शहीदों को दी गई अग्नि; इन सब घटनाओं का एक सन्वेदनशील और भावुक कवि प्रत्यक्ष-दर्शी था.उसने अपनी आँखों से यह सब घटित होते देखा था.वह घटना से एकदम विचलित हो गया था.सन 1978 के ' मराठवाडा नामांतर-आन्दोलन के बाद, ये दूसरा बड़ा दलित नर-संहार था.
      शासन-प्रशासन की क्रूरता से क्षुब्द हो कर दलित लोक शाहिर विलास घोगरे ने 17 जुला. 1997  को घर में ही फांसी लगा कर आत्म-हत्या का ली थी.ब्राह्मणवादी  व्यवस्था के निर्दयी चेहरे ने एक संवेदनशील दलित कवि को आत्म-हत्या के लिए मजबूर कर दिया था.विलास घोगरे की जिन्दगी और मौत, दलित-अस्मिता की एक ऐसी घटना है, जो भुलाये नहीं जा सकती.आइये, ऐसे सन्वेदनशील और भावुक शाहिर को जानने का यत्न करें.
        विलास का जन्म पूना के मंगलवारा पेठ में  1 जून 1946  को एक दलित महार समाज में हुआ था.इनके पिता का नाम भिकाजी घोगरे था. विलास का घराना कबीर पंथी था.वह देवी-देवता और पोंगा-पंथियों में विश्वास नहीं करता था. विलास करीब 4-5  साल का रहा होगा, तभी इनके माता-पिता चल बसे थे.विलास का बचपन उनके काका और बुआ के पास बीता था. विलास ने बड़े ही आर्थिक तंगी में अपना बचपन गुजरा था.वह बमुश्किल मेट्रिक तक पढ़ सका था.
        स्कूल छोड़ने के बाद विलास का सामना जिंदगी की कडुवी सच्चाई से हुआ था.उसके सामने पेट भरने की समस्या आई.विलास ने कैसा भी काम करने में कोई शर्म नहीं की. हम्माली लेकर सब्जी-भाजी बेचने तक का कार्य विलास ने किया.मगर,विलास को गाने का शौक था. उसे बचपन से ही गाने का शौक था.10-12 वर्ष की आयु से ही विलास रोज शाम को बच्चों को इकठ्ठा करके टीन का डिब्बा  बजा-बजा कर गायन किया करता था. उसके पिता को भी गाने का शौक था. वे इकतारा बजा कर गाते थे.
      विलास को जब भी मौका मिलता, चाहे आम्बेडकर जयंती हो या गणेश-उत्सव, वह मंच पर शायरी करने पहुँच जाता.विलास सन 1965  में मुम्बई आ कर कुर्ला के झोपड़-पट्टी में अपनी चचेरी बहन के पास रहने लगा था.यहाँ पर उसने साड़ी में जरी करने का काम किया. मगर, वह शाहिरी भी कर रहा था.उसने 'विलास आर्केस्ट्रा' बना कर मोहम्मद रफ़ी के गीत गाना शुरू किया था.
      विलास की शायरी में ही उसे एक लड़की के प्रेम हो गया. लड़की जो चमार समाज की थी, से विलास ने विवाह कर लिया.मगर, उनका दांपत्य-जीवन अधिक समय तक चल न सका.एक साल के अन्दर ही डिलेवरी के समय आई गड़बड़ी के कारण जच्चा और बच्चा चल बसे. विलास एकाकी हो गया.एकाकी से सम्भलने विलास को थोडा वक्त लगा.उसने शायरी के क्षेत्र में खुद को झोक दिया.विलास ने अपना पहला स्व-रचित गीत सन 1971  में एक कार्य-क्रम के दौरान गाया था.तब, 'गर्जा महाराष्ट्र' नामक विलास के इस गीत ने लोगों के बीच बड़ी धूम मचाई थी.
     इसी बीच विलास, आशा नामक एक लड़की के साथ विवाह-सूत्र में बन्ध गए.उनके तीन बच्चें हुए .परिवार के साथ मुम्बई आकर विलास मुलुंड डम्पिंग रोड स्थित लान्जेवाड़ी की झोपड़-पट्टी में रहने लगे.इस बार विलास को वागले स्टेट की एक रबर फेक्ट्री में काम मिल गया.यहाँ पर अपने साथ काम करने वाले कामगारों के शोषण को विलास ने नजदीक से देखा. परन्तु , यह फेक्ट्री जल्दी ही बंद हो गई.विलास फिर सडक पर आ गया. उसने परिवार का पेट भरने के लिए हम्माली का काम करना शुरू किया.उसकी सोच भी थी कि सामाजिक-परिवर्तन के गीतों के लिए जीवन में संघर्ष का होना जरुरी है.विलास मुलुंड में जहाँ वह रहता था,वहां कवि-गायकों की मंडळी थी. विलास उसका प्रमुख शाहिर था. विलास ज्यादातर बुध्द ओर भीम के गीत गाया करता था.प्रत्येक वर्ष 6 दिस. को विलास अपने गायन पार्टी के साथ दादर के चैत्य भूमि में हाजिर रहता था.वहां पर पूरी रात विलास का कार्यक्रम चलता.ऐसे अवसरों के लिए विलास ने कुछ खास गीत रचे थे.
      जंगमस्वामी नामक शाहिर का विलास बडा दीवाना था. यद्यपि उनसे, विलास की मुलाकात कभी नहीं हुई. इसी बीच विलास नवरंग राजणे नामक शाहीर के सम्पर्क में आये.आगे जाकर विलास पूना के ही शाहिर बाल पाटस्कर की मंडळी में  रहने लगे थे. बाल पाटस्कर के साथ विलास लम्बे अरसे तक रहे.विलास ने उनसे काफी कुछ सिखा. इसी बीच विलास नक्सलवादी आन्दोलन से प्रेरित संस्था  'आव्हान नाट्य मंच ' के संपर्क में आये.
         नक्सलवादी आन्दोलन से प्रेरित संस्था 'आव्हान नाट्य मंच' की स्थापना  सन 1979 में की गई थी.इस  संस्था के सदस्य जन-चेतना के लिए चौराहों पर नुक्कड़ नाटक किया करते थे.स्मरण रहे, इसी समय आंध्र-प्रदेश के तेलंगाना में 'पीपुल्स वार' नामक नक्लवादी आन्दोलन चल रहा था.प्रसिध्द क्रन्तिकारी लोक कवि ग़दर इसी वार ग्रुप के सदस्य थे.वास्तव में, लोक जन-चेतना के गीतों की शुरुआत गदर द्वारा ही शुरू की गई थी.उनके ही नेतृत्व में 'आव्हान नाट्य मंच' ने आम जनता की लोक-कला की गायन शैली में गाने लिखने और  गाने की शुरुआत की थी.विलास को ग़दर की काव्य शैली से बड़ी प्रेरणा मिली थी.उसने इसी शैली को अपने लोकगीतों और शायरी में अपनाया था. ग़दर जैसी हस्तियों से सम्बन्ध होने के कारण विलास की पहचान भारत के कई राज्यों के लोक-रचनाकारों से हुई.उसे जन-चेतना के लिए विभिन्न राज्यों में आयोजित कार्यक्रमों में जाने का अवसर मिला था.निश्चय ही इससे विलास की दुनिया व्यापक हुई थी.कहा जाता है कि भूमिगत होने के दौरान ग़दर,कुछ दिन विलास के घर ठहरे थे. विलास ने 1980-90 के दशक में लोक-जाग्रति की अभिनव शाहिरी की.
         सन 1982 में मुलुंड के लोहाना ट्रस्ट के एक स्कूल में विलास को चपरासी की नौकरी मिल गई थी.इससे उसके घर में थोडा सुधर आया.मगर तब भी वह अपने लिए एक अदद घर नहीं बना सका.विलास के लिए गीत लिखना बाये हाथ का खेल था. वह किसी भी ज्वलंत समस्या पर बैठे-बैठे गीत बना लेता था.वह चंद मिनटों में ही गीतों को लय-बध्द  कर लेता था.मराठी, हिंदी ओर गुजराती तीनों भाषाओँ पर उसका प्रभुत्व था.इसी कारण वह अनुवाद भी जीवंत कर लेता था.उसने कई गुजराती,तेलगु गीतों का अनुवाद किया था.विलास के हिंदी गीतों को पढ़ कर कहीं से नहीं लगता कि वह हिंदी भाषी नहीं है.उसने हिंदी का अत्यंत सरल और सहज रूप स्वीकार कर अपनी अभिव्यक्ति को सक्षम बनाया था. विलास शब्दों को बहुत घिसा नहीं करता था.उसके गीतों में अनुभव की व्यापकता और आंतरिक तडप दिखाई देती थी.
       सन 1978 में मराठवाडा नामांतर ने तीव्र रूप धारण कर लिया था.मराठवाडा में आगजनि,क़त्ल और बलात्कार जैसी घिनौनी घटनाओं ने भीषण रूप धारण कर लिया था.गावं ओर शहरों में दलितों पर हमले होने लगे थे.विलास ओर उसके साथियों ने इस कत्लेआम का विरोध करने के लिए मुम्बई की सडकों पर गाने का कार्यक्रम रखा.इसी वक्त विलास ने 'जलतोय मराठवाडा' गीत की रचना की थी.इस गीत ने मराठवाडा के गावं-गावं में तहलका मचा दिया था.विलास मराठवाडा के गावं-शहरों में घूम-घूम कर दलित मोहल्लों में अलख जगा रहे थे.जेलों में ठूंस दिए गए निरपराध दलितों को रिहा करने के उद्देश्य से विलास गली-सडकों की खाक छान रहे थे.
         15 जुला. 1995  को घटी एक घटना ने विलास को तोड़ कर रख दिया. विलास की बड़ी बेटी नूतन ने घर कलह से तंग आ कर आत्म-हत्या कर ली थी.विलास ने अपने तीनों बच्चों को आर्थिक तंगी के बावजूद बड़े जतन से पाला था.वह शायरी के सिलसिले में घर से बाहर तो रहता मगर, जब भी घर पर रहता, बच्चों का पूरा ख्याल रखता.उसने बच्चों को अपने पैरों पर खड़े होने की शिक्षा दी थी.
       विलास के एक बेटे को सरकारी नौकरी मिल गई थी.वह बेटे की शादी भी करने वाले थे. दादर के आम्बेडकर भवन में 12 अप्रेल 1997 को पुलिस द्वारा हमले के विरोध में ली गई आम सभा विलास का अन्तिम कार्यक्रम था.

Saturday, January 7, 2012

चोखामेला ( Chokhamela :1300-1400)

Chokhoba Samadhi(blue) just before
Vithoba Temple:Pandharpur
      महाराष्ट्र के महार समाज में एक बड़े नामी संत हुए हैं- नाम हैं,चोखामेला. संत चोखामेला ने कई अभंग लिखे हैं, जिसके कारण उन्हें भारत का पहला दलित-कवि कहा गया है.सामाजिक-परिवर्तन के आन्दोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति-काल के दौर में सामाजिक-गैर बराबरी को लोगों के सामने रखा.अपनी रचनाओं में वे दलित  समाज के लिए खासे चिंतित दिखाई पड़ते हैं.
       चोखामेला के जीवन सम्बन्धित बहुत कम जानकारी उपलब्ध है.चूँकि संत नामदेव (1270-1350) को उनका गुरु कहा जाता है अत: उनकी कालावधि इसी के आस-पास होना चाहिए. चोखामेला का जन्म महाराष्ट्र के दलित जाति में हुआ था.वे मेहुनाराजा नामक  गावं में पैदा हुए थे, जो जिला बुल्ढाना की दियोलगावं राजा तहसील में आता है.
      चोखामेला बचपन से ही विठोबा के भक्त थे.हिन्दू समाज-व्यवस्था में निम्न कही गई जाति के लोगों को और कोई आसरा तो था नहीं,अतयव गंभीर प्रकृति के लोग भगवान्-भक्ति को ही उध्दारक मानते थे.ये अलग बात है कि तथाकथित भगवान् के मन्दिर में उन्हें प्रवेश भी करने नहीं दिया जाता था. एक बार चोखामेला  पंढरपुर आये जहाँ संत नामदेव का कीर्तन हो रहा था.वे नामदेव महाराज के कीर्तन से मंत्र-मुग्ध हो गए.
नामदेव विठ्ठल-भक्त थे और तब वे पंढरपुर में ही रह रहे थे. नामदेव के आकर्षण और विठ्ठल-भक्ति ने चोखामेला को पंढरपुर खिंच लाया.वे अपनी पत्नी सोयरा और पुत्र कर्मामेला के साथ पंढरपुर के पास मंगलवेध में आ कर  रहने लगे. चोखामेला नित्य विठोबा के दर्शन करने पंढरपुर आते और मन्दिर की साफ-सफाई करते. यद्यपि, महार होने के कारण मन्दिर में प्रवेश की उन्हें इजाजत नहीं थी.चोखामेला की एक बहन निर्मला भी ही जो विठोबा की भक्त थी.चोखामेला के एक शिष्य बंका का भी उल्लेख आता है.बंका, चोखामेला की पत्नी सोयरा का ही भाई था.
      चोखामेला वारकरी सम्प्रदाय के थे.वारकरी सम्प्रदाय के अनुयायी जो पूरे महाराष्ट्र में फैले हैं.वारकरी का अर्थ है, यात्री. वारकरी सम्प्रदाय ये लोग प्रत्येक वर्ष पंढरपुर की यात्रा करते हैं. ये अभंग गाते हुए नंगे पैर चलते रहते हैं.अभंग और ओवी महाराष्ट्र के संतों की वाणी है. अभंग, ओवी का ही एक रूप है जो महिलाऐं गाती हैं.चोखामेला के अभंगों की संख्या 300 के करीब बतलाई जाती हैं जिनमें सोयरा,कर्ममेला और बंका के नाम से भी रचित अभंग मिलते हैं. इनमे से कई अभंग चोखामेला पर हुए ब्राह्मण-पंडितों के अत्याचारों का कारुणिक और ह्रदय-स्पर्शी वर्णन करते हैं
       भारत में भक्ति-काल को मोटे तौर पर एक सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन कहा जा सकता है जिसके तहत सदियों की सामाजिक-धार्मिक जड़ता को संत- महात्माओं के द्वारा प्रश्नगत किया गया. भक्ति-आन्दोलन से  निश्चित रूप से निम्न कही जाने वाली जातियों को बल मिला. वे दूर से ही सही, ढोल-मंजीरे के साथ उच्च जाति हिन्दुओं के कानों में अपनी आवाज पहुँचाने लगे. वे पूछने लगे कि 'नीच' होने में उनका कसूर क्या हैं ? कमोवेश यही स्थिति हिन्दू समाज में नारी की थी. शूद्रों और अति-शूद्रों के साथ हिन्दू नारी भी पूछने लगी कि उसके साथ अछूत-सा बर्ताव क्यों ?नामदेव, जो दर्जी समाज के थे और जिनकी सामाजिक स्थिति शूद्रों में थी,चोखामेला को बहुत चाहते थे.वे चोखामेला की विठ्ठल-भक्ति से अभिभूत थे. हमें ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जब नामदेव ने सनातन हिन्दू पंडा-पुजारियों के क्रोध से चोखामेला का बीच-बचाव किया था.
       चोखामेला के बाप-दादाओं का कार्य गावं के हिन्दू घरों में मरे हुए जानवरों को उठा गावं के बाहर ले जा कर ठिकाने लगाना होता था.इसके लिए उन्हें कोई मेहनतनामा नहीं दिया जाता था.तब, महारों के अलग मोहल्ले गावं के बाहर होते थे.हिन्दुओं की जूठन पर महारों का गुजर होता था.महारों को हिन्दू ,अपनी वर्ण-व्यवस्था में चौथे वर्ण में भी नहीं गिनते थे. उन्हें वर्ण-बाह्य माना  जाता था.उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की मनाही थी.उन्हें सामान्य सुविधाएँ जैसे सार्वजानिक कुँए से पानी भरने की मनाही थी.उनके मन्दिर-प्रवेश पर पाबन्दी थी.
       पंढरपुर में विठोबा का मन्दिर है. यह महाराष्ट्र में बड़ा प्रसिध्द मन्दिर  है. विठोबा को विठ्ठल भी कहा जाता है.विठोबा का मन्दिर भीमा नदी की सहायक नदी चंद्रभागा के किनारे है.विठ्ठल, विष्णु का ही रूप है जिन्हें कभी कृष्ण तो कभी शिव के स्वरूप में पूजा जाता है.चोखामेला, विठ्ठल-भक्त थे.नामदेव से मिलकर चोखामेला की विठ्ठल-भक्ति और भी दृढ हो गई थी.
       चोखामेला के जन्म का कोई पता नहीं है जबकि नामदेव के बारे में पूरा इतिहास है.चोखामेला के मृत्यु के बारे में रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना है. कहा जाता है कि मंगलवेध में महारों को सवर्ण हिन्दुओं से अलग रखने के लिए एक बड़ी दीवार खड़ी की जा रही थी.चोखामेला को जब यह मालूम हुआ तो वे मंगलवेध के लिए रवाना हुए. वे नहीं चाहते थे कि ऐसी कोई दीवार खड़ी की जाय, जो अस्पृश्यों को हिन्दुओं से सदा-सदा के लिए अलग करे.कहा जाता है कि हिन्दू और अस्पृश्यों के इस संघर्ष में वह दीवार गिर गई,  जिसके नीचे चोखामेला आ गए .चोखामेला के मृत्यु की इस ह्रदय-विदारक घटना की खबर जब संत नामदेव को मिली तो वे सन्न रह गए.नामदेव तुरंत घटना स्थल पहुंचे और चोखामेला का दाह-संस्कार किया.बाद में उनकी अस्थियों को पंढरपुर लाया गया.उनकी अगाध विठ्ठल-भक्ति और मन्दिर की अटूट सेवा को देखते हुए पंढरपुर के विठ्ठल-मन्दिर के ठीक सामने उनकी समाधि बनायीं गयी और अस्थियों को सदा-सदा के लिए वहां रख दिया गया.आज, जो भी कोई पंढरपुर जाता है, विठ्ठल-मन्दिर में जाने के पहले वह चोखामेला की समाधि पर माथा जरुर टेकता है.
      महाराष्ट्र में चोखामेला ही ऐसे संत है जिसकी समाधि पंढरपुर में विठोबा मन्दिर के सामने बनी है.स्मरण रहे, बाबा साहेब डा. आंबेडकर जब पंढरपुर से गुजर रहे थे तब उन्हें भी महार होने के कारण मन्दिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली थी. उन्हें चोखामेला की समाधि के पास ही रोक लिया गया था.तब भी उन्होंने हिन्दुओं के साथ 'गद्दारी' नहीं की.धर्म-परिवर्तन भी किया तो उस मिटटी की खुशबु को ही चुना जिसमें वे पले,बढे और खिले.

Wednesday, January 4, 2012

जाति की पहचान

       जनसत्ता 3 जन 12 के अंक में उषा कुमारी शाह का  एक लेख 'पहचान की मुश्किल' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. लेखिका ने फेशबुक पर कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले युवाओं से गुफ्तगुं करने का जिक्र किया है जो ज्यादातर सामाजिक रूप से घोषित उच्च समुदाय से आते हैं और जिन्होंने अपने नाम के आगे अल्पसंख्यक समुदायों के बीच प्रचलित 'सरनेम' लगा रखे हैं.इन युवाओं के अनुसार, इससे उन्हें अल्पसंख्यकों के दर्द को समझने और इस तरह साम्प्रदायिकता ख़त्म करने के प्रयास को बल मिलेगा.
      साम्प्रदायिकता की एक कार्यशाला में लेखिका शरीक होती है जिसमें एक युवक ने,जो बाबा साहेब के उस विचार, कि वे धर्म और जाति का सर्वथा विरोध करते हैं; से अभिप्रेरित होकर, बतलाया कि उसने अपने नाम के साथ जुड़े उपनाम को बाकायदा पंजीकृत कर हटा दिया है.उक्त युवक के इस प्रयोग से असहमत-सा होते हुए दूसरा युवक कहता कि उप-नाम हटा लेने से जाति का पता नहीं चलता. मगर, धर्म का पता तो चलता है ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लोगों के नाम  001,002,003 या  S6, X5 जैसी श्रृंखला में हो !
       लेखिका स्वीकार करती है कि हिन्दुओं में नाम जाति-बोधक होते हैं. जिस उपनाम से श्रेष्ठता-बोध झलता है उससे शायद ही किसी को परेशानी होती हो. परन्तु जिस नाम से हीनता का बोध होता हो , निश्चय ही नाम जानते से ही उसकी सामाजिक हैसियत तय कर ली जाती है.
      उक्त लेख और कार्यशाला में आज के युवाओं के प्रयोग दिलचस्प है. मगर, अफ़सोस कि पूरा लेख जातिगत - घृणा की भयावता पर नहीं बल्कि,साम्प्रदायिक-घृणा पर केन्द्रित है.सीधी-सी बात है, खुद लेखिका और 'सामाजिक रूप से घोषित उच्च समुदाय' के युवा जो हिन्दू हैं, जातिगत-घृणा की भयावता पर क्यों सोचने लगे ? हिन्दू वे हैं जो जाति मानते हैं.जाति-पांति और उंच-नीच की घृणा हिन्दू धर्म में अंतर्भूत है.आप हिन्दू हैं तो आपको जाति को मानना ही होगा. बिना जाति के आप हिन्दू नहीं हो सकते ? जाति को त्यागना है, तो हिन्दू धर्म के दायरे के बाहर निकलना होगा.
       अब जहाँ तक लोगों के नाम 001,002,003  इत्यादि की श्रंखला में रखने की बात है तो सचमुच यह प्रयोग ही है.मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. वह समाज में रहता है. यदि उसे जीवित रहना है तो उसे समाज में रहना ही होगा. समाज उसे संरक्षण देता है.और आदमी ही क्यों,पशु-पक्षी  और जानवर भी समाज के बिना नहीं रह सकते.धर्म क्या है ? धर्म, मूलत: समाज की आचार-संहिता है.
      आगे, जब समाज का विस्तार हुआ तो आचार संहिता में नियमों का समावेश किया गया.जब इससे भी काम न चला तो नियमों के उलंघन पर दंड का प्रावधान किया गया.समय के साथ-साथ समाज में हुकूमत करने वाला एक वर्ग उभरा.यह भी ठीक है कि बाद में कार्य का बंटवारा किया गया. कुछ लोगों को समाज की रक्षा का कार्य सोंपा गया.कुछ को कृषि करने का और कुछ को व्यापार करने का.प्रत्येक तर्कशील व्यक्ति जिसने समाज शास्त्र का अध्ययन किया है, वह सहमत होगा की मानव-समाज के विकास की यह स्वाभाविक प्रक्रिया थी.सदियों से जीवित समाज में कुछ आचार-संहिताएँ और नियम रूढ़ भी हो सकते हैं, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता.विभिन्न मानव-समुदाय अलग-अलग जलवायु और वातावरण में रहने से उन्हें विशेष आचार-संहिताएँ और नियमों को बनाना पड़ा, इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता.बाद में ये आचार-संहिताएँ और नियम उस समाज-विशेष की पहचान बन गए.बाल और कंघा सिखों की पहचान बन गए.दाढ़ी और बुरका मुसलमानों की और चोटी हिन्दुओं की.
        अब सवाल ये कि क्या ये भिन्न-भिन्न मानव-समुदाय के लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने को तैयार हैं ? स्मरण रहे, ये भिन्न सांस्कृतिक पहचान उनके अस्तित्व की पहचान बन चुकी है.यहाँ तक की उनकी जनसंख्या के आधार पर सरकारी बजट पास होने लगे हैं ?
       दूसरे, तकलीफ न बाल-कंघे में है और न ही दाढ़ी-चोटी में. बल्कि, तकलीफ घृणा में है.उंच-नीच की घृणा. हिन्दू-मुस्लिम की घृणा.आखिर घृणा, चाहे दो समुदायों के बीच हो या फिर जातियों के बीच, उसे धर्म-सम्मत क्यों होना चाहिए ? अक्सर हिन्दू  कहते हैं की जाति का आधार कार्य था.ठीक है, सहमत हुआ जा सकता है.मगर, भंगी अस्पृश्य है, इसे कैसे गले उतारा जाये ? चमार, कितना ही स्वच्छ हो, उसके हाथ का पानी पीना अधर्म है, यह कहाँ तक उचित है ? आसन और बिलकुल आसन उपाय है और वह है धर्मों के ऐसे असंगत अध्यायों में परिवर्तन किया जाये.
     प्रत्येक धर्म में, उनके धार्मिक ग्रंथों में समय-समय पर संशोधन हुए हैं.कुछ अध्याय जोड़ दिए गए और कुछ अध्याय हटा दिए गए.जोड़ने का सिलसिला तो अनन्त है, मगर, हटाने का सिलसिला भी कम नहीं है. वाल्मीकि रामायण के कई अध्याय बाद में लिखे रामचरित मानस में विलोप कर दिए गए.सवाल है कि हिन्दू और हिन्दू धर्म के ठेकेदार चाहते क्या है ?  क्या वे 50 करोड़ दलितों के साथ बराबरी का सम्बन्ध करना चाहते हैं ?