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दल्ली राजहरा के शेंडे परिवार पति-पत्नी दोनों; दिल के बड़े ही साफ और सच्चे हमें लगे। उनकी सच्चाई और साफ़गोई देख कर हम बेहद अभिभूत हुए। शुरुआत से ले कर लड़की की विदाई तक हर एक कार्य को वे जिस तरह सलीके से कर रहे थे , दरअसल मुझे ईर्ष्या हो रही थी। हमें ख़ुशी है कि ऐसे परिवार से हमारा सम्बन्ध हुआ। यहाँ मुझे मुंबई का सीन रह रह कर याद आता है।
मैं भाग्य और भगवान को नहीँ मानता। दरअसल, मुझे इनकी सत्ता पर विश्वास कम; समाज पर पड़ रहे इन के दुष्परिणामों की चिंता ज्यादा होती है।
अमीर लोग भाग्य और भगवान को जेब मे ले कर चलते हैँ। मगर, गरीबों के साथ ऐसा नहीं होता। वास्तव में, भाग्य और भगवान से मेरी व्यक्तिवादी कम समष्टिवादी चिन्ता अधिक होती है। दरअसल , लॉ ऑफ़ प्राबेबिलिटी का चक्कर ऐसा है कि लोग भाग्य और भगवान को घसीट कर ला ही लेते हैं। वैसे , राहुल सांकृत्यायन के बात में भी दम है। यह कि भाग्य और भगवान समाज के बुद्धिजीवी और मक्कार लोगों के दिमाग़ की उपज है।
रिश्ते अच्छी जगह हो, अच्छे परिवार से हो; कौन नहीं चाहता। सब चाहते हैं कि काम ठीक-ठाक हो। रिश्ते बने और निभाए भी जाए।
दरअसल, वे पति-पत्नी दोनों विगत तीस-पैतीस वर्षों से वहाँ बस गए थे। दूसरे, मेडम शेंडे के माता-पिता वहीँ के थे। जाहिर है बड़े-बुजुर्गों को प्रॉब्लम होना स्वाभाविक था। मुझे उनकी उनकी रिक्वैस्ट जेनुईन लगी। हमने उन्हें कहा कि उस स्थिति में हम बारात वगैरे नहीं लायेंगे। बल्कि, शादी के 2-3 दिन पहले से हम लोग वही आ जाएँगे। ठहरने का और बाकि सब इंतजाम उन्हें करना होगा। जहाँ तक खर्च की बात है, जो भी खर्च होगा, उसका 50% हम वहन करेँगे। शेंडे परिवार ने मुस्करा कर हामी भरी।
यह गुजरातियों का मन्दिर है। मन्दिर परिसर में ऊपर छोटे-बड़े आठ कमरे और नीचे हॉल हैं। एक कमरे में अटेच्ड लेट-बाथ है जबकि बाकी कमरों के लिए कॉमन लैट-बाथ हैं। नीचे हॉल काफी बड़ा है जिससे लगा हुआ किचन है। हॉल में कुर्सियां लगा कर ख़ाना खाया जा सकता है। हल्दी का फंक्शन हम ने यही पर किया। शेंडे परिवार ने अपने निवास स्थान के साथ-साथ यहाँ हॉल में भी म्यूजिक सिस्टम की व्यवस्था करवा दी थी । हल्दी का फंक्शन विधि विधान और मस्ती के साथ देर रात तक चला।
जलाराम टेम्पल से सट कर सड़क की दूसरी तरफ़ एक बड़ा-सा लॉन है। शादी का फंक्शन यही होना था। लान को खूबसूरत तरीके से सजाया ज रहा था।
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घोड़ी और बेंड बारात में चार चाँद लगा रहे थे। बेंड वाले इतनी तन्मयता और जोश से बजा रहे थे कि बस उन्हें देखते ही बनता था । दूल्हा जैसे ही घोड़ी पर बैठा तो कुछ घबरा रहा था। मगर, थोड़ी देर बाद ही उसने खुद को संभाल लिया। मैं पास में था। मैंने छोटू को ढांढस बंधाया। दरअसल, घोड़ी का शौक ऐसा ही होता है !
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डिनर संतुलित और परफेक्ट था। मगर, इसी बीच किसी ने मेरी बड़ी बहू सोनू का पर्स चुरा लिया। वह दूल्हे की सहायिका के रूप में मंच पर विराजमान थी। किसी ने उनकी बेख्याली का फायदा उठा कर पीछे से पर्स पार कर दिया। आप जानते हैं , शादी में तरह-तरह के लोग आते हैं ।
पर्स, और वह भी विदेश मे बसने वाली बहू का ! जाहिर है, घटना को हल्के से नहीं लिया जा सकता था। कई-कई कयास लगाए गए। मेरी हालत तो माथा पीटने की थी , जैसे कि अक्सर होता है। यहाँ, मुझे स्वीकारना पडेगा कि ऐसी स्थितियों में मैं बडी गिव-अप की स्थिति मे आ जाता हूँ, जबकि यह गलत है। पिछली दो बार प्रयास करने पर सामान मिला भी है।
मेरी भांजी हेमलता महीस्वर जो जामिया मिलिया दिल्ली में प्रोफ़ेसर हैं, ने संबंधित किसी अफिसर से बात की। दूसरे दिन, सारा समान मिल गया सिवाय नगद रकम के। शादी के खर्च के लिए खुद मैने सोनू को 50,000/- दिया था। दूसरे, ताई ने भी सेफ समझ अपना हैन्ड-बेग सोनू को हवाले किया था।
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