ज्ञानदास साहेब |
हमारे गुरु जी महंत बालकदास साहेब को कबीरपंथ की गुरु गद्दी महंत गुरु ज्ञानदास साहेब, कटंगी वाले से मिली थी। ज्ञानदास साहेब से मेरा सीधा परिचय नहीं है। स्वभावत: ज्ञानदास साहेब के बारे में मुझे जानने की इच्छा हुई। गुरुजी अक्सर मुझे उन पलों की कहानी सुनाया करते थे कि कैसे गुरु ज्ञानदास साहेब ने उन्हें अपने उत्ताधिकारी के रूप में चुना था। इस चर्चा में कटंगी का नाम आता था। कटंगी में, ज्ञानदास साहेब की एक पुत्री है, इस तरह की जानकारी मेरे पास थी और एक बात, देवाची चिचखेड़े को मैं पहले से जानता था। मगर, मुझे यह नहीं मालूम था कि देवा जी चिचखेड़े और ज्ञानदास साहेब की पुत्री में कोई रिश्ता है.
बहरहाल,पिछले मार्च 11 को, अवसर निकाल कर मैंने कटंगी का विजिट किया। हम लोग सालेबर्डी, जो मेरा नेटिव गावं है, से निकले थे। प्लान के अनुसार येरवाघाट के खिनाराम बोरकर साहेब को भी हमने अपने साथ रख लिया। हम नवेगावं होते हुए कटंगी पहुंचे। खिनाराम बोरकर 'टेलर साहेब' के नाम से जाने जाते हैं। आप गुरु जी के प्रथम शिष्य हैं। प्रथम शिष्य होने से गुरु जी के शिष्यों में उनको खास मुकाम हासिल है। मुझे पता था कि गुरु ज्ञानदास साहेब की पुत्री/दामाद से टेलर साहेब का परिचय है। हम सीधे चिचखेड़ेजी के घर पहुचे। चिचखेड़ेजी के घर पहुँचते-पहुचते रात हो गई थी। अत: हमने रात्रि विश्राम भी उन्हीं के यहाँ करने का फैसला किया ताकि विस्तार से चर्चा हो सके।
ज्ञानदास साहेब का पहले का नाम भसवड़ था। 'ज्ञानदास' की पदवी तो उन्हें कटंगी के जमींदार जगराम पालीवाल ने दी थी। ज्ञानदास साहेब धर्म, दर्शन और अध्यात्म के बड़े विद्वान थे। शायद, इसी कारण उन्हें 'ज्ञानदास' की पदवी मिली थी। वे ऊँचे-पुरे अच्छे कद-काठी के व्यक्ति थे। वे हमेशा सिर पर कोसे का साफा बांधा करते थे। उनके एक हाथ में कुबड़ी(यौगिक क्रिया में श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करने के लिए लकड़ी का एक यंत्र) और दूसरे हाथ में झारी( पीने का पानी रखने के लिए लकड़ी का बर्तन) हमेशा उनके पास होता था। ज्ञानदास साहेब ने उमरी(कटंगी) में अपनी पुत्री के यहाँ 17 जून 1968 को अपना शरीर छोड़ा था।
ज्ञानदास साहेब के गुरु का नाम रामदास साहेब था.रामदास साहेब की कबीर गुरु-गद्दी समनापुर थी। समनापुर काफी बड़ा कस्बा है। यह गोंदिया-बालाघाट रेलवे रूट पर स्थित है। बताया जाता है, रामदास साहेब रिटायर्ड पुलिस आफिसर थे.
ज्ञानदास साहेब का जन्म हिरकने परिवार में हुआ था। उनकी तीन संतान थी। पुत्र का नाम हाऊसिदास तथा हंसा और सेवंता नामक दो पुत्रियाँ थी। सेवंता, उमरी के गढ़पाल परिवार में ब्याही गई थी। सेवंता की पुत्री का विवाह कटंगी के एक समृध्द परिवार, देवाजी चिचखेड़े के साथ हुआ था। देवाजी चिचखेड़े का बाप-दादाओं से लम्बा-चौड़ा कारोबार है। उनके पास खेती के आलावा आज भी दो आयल मिलें,राईस मिल और आटा चक्की हैं।
रात्रि में चर्चा के दौरान मिसेज चिचखेड़े ने उस दिलचस्प वाकया का बयां किया, जिसे मैंने अपने गुरु जी से कई बार सुना था। ज्ञानदास साहेब को अपनी देह छोड़ने का पूर्वाभास् हो गया था। उन्होंने अपने अन्तिम संस्कार से सम्बन्धित सारी तैयारियां खुद अपने सामने करवाई। यहाँ तक की डोली भी तैयार करवाई थी। संत परम्परा में शव को अर्थी में न ले जा कर डोली में समाधि अवस्था में बैठे हुए भजन-मंडळी के साथ ले जाया जाता है। मिटटी भी समाधि अवस्था में बैठे हुए दी जाती है।
बालकदास साहेब वगैरे एक दिन पहले ही उनके दर्शन कर जा चुके थे। उनके प्रिय अन्य दो महंत कल्याणदास साहेब और सुखरामदास साहेब भी जा चुके थे। यद्यपि, बालकदास साहेब को, साहबजी काफी रोक रहे थे किन्तु, कोई जरुरी कार्य-वश उन्हें जाना पड़ा था। समय को सन्निकट देख साहेबजी को चिंता होने लगी। उन्होंने सेवंता को पास में बुलाया और कुछ अस्पष्ट शब्दों में कहा- सेवंता, मुझे मुक्ति कौन देगा ? सेवंता भी संत की बेटी थी। उसने तुरंत आगे बढ़ कर दृढ शब्दों में कहा- पिताजी, मुक्ति मैं दूंगी। ज्ञानदास साहेब तब, उस अवस्था में भी मुस्करा दिए थे। सनद रहे, संत परम्परा में, देह-त्याग के पहले मनासन्न संत/साधू के कान में एक खास मन्त्र पढ़ कर फूंक मारनी पड़ती है। तभी वह सांसारिक बधनों से मुक्त होता है,ऐसा कहा जाता है और यह काम कोई योग्य-उत्तराधिकारी ही करता है।
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