भिक्षु जगदीश काश्यप( 1908-1976)
भिक्षु जगदीश कश्यप, भदन्त आनंद कौसल्यायन व महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के समकालीन। आपने बौध्द साहित्य समृध्द करने के साथ साथ कई संस्थाओं का निर्माण भी किया था।
भदन्त जगदीश कस्सप पालि भाषा और साहित्य के बेजोड़ पण्डित हुए। पालि व्याकरण के क्षेत्र में उनका कार्य अप्रतिम है। उनके प्रमुख ग्रंथ नागरी लिपि में 41 भागों में संपादित और प्रकाशित सम्पूर्ण पालि तिपिटक, पालि महाव्याकरण, तर्क शास्त्र (आगमन), तर्क शास्त्र( निगमन), अभिधम्म फिलास्फी, पालि निस्सेनी(लघु पालि व्याकरण) , बुध्दिज्म फार एवरीबडी, बुध्दिस्ट आऊटलुक, पालि त्रि-पिटक सद्दानुक्कमणिका, दीघनिकाय (हिन्दी व्याकरण), संयुत्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद भाग-2), मिलिन्द प्रश्न आदि।
भदन्तजी का जन्म 2 मई 1908 का रांचीे, बिहार (वर्तमान में झारखंड)के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम जगदीश नारायण था। जगदीश नारायण के पिता श्याम नारायण रांची कोर्ट में कर्मचारी थे। जगदीश नारायण ने सन् 1929 में पटना कालेज से बी. ए. किया था। तत्पश्चात इन्होने बनारस हिन्दू विश्वद्यिालय से दर्शन शास्त्र में एम. ए. किया।
प्रारम्भ में जगदीश नारायण आर्य समाज से जुड़े थे। वर्ष 1931-33 में आपने गुरुकुल संस्कृत विद्यापीठ में प्राचार्य के पद पर कार्य किया था। वे बलिष्ट कद-काठी और रोबदार व्यक्तित्व के धनी थे। किन्तु शीघ्र ही गुरूकुल के संगठन से उनका मोह भंग हो गया। उन्होंने देखा कि आर्य-समाजी सामाजिक-संबंधों में अपनी जाति से मुक्त नहीं हो पाए थे।
इस बीच उनका रुझान धम्म की ओर बढ़ने लगा। बौध्द धर्म में उच्चतर अध्ययन के लिए काशी के डॉ. भगवान दास और आर्य समाजी गुरू अयोध्या प्रसाद ने उन्हें बतलाया कि इसके लिए उन्हें मूल पालि में ति-पिटक का अध्ययन करना होगा। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि इस हेतु उन्हें सिरिलंका ही जाना होगा। जगदीश नारायण ने सिरिलंका के विद्यालंकार परिवेण के विहार प्रमुख को पत्र लिखा। शीघ्र ही उन्हें इसका विहार प्रमुख पूज्य भंते धम्मानंद महाथेर की ओर से पत्र मिला। यह पत्र राहुल सांस्कृत्यायन का था। राहुल सांस्कृत्यायन ने उन्हें सलाह दी थी कि वह उनके भारत आगमन पर उनसे मिले।
राहुल सांस्कृत्यायन जब बौध्द ग्रंथों की की तिब्बति पांडुलिपियों का विशाल संग्रह लेकर भारत आए तब जगदीश नारायण ने उनसे मुलाकात की। यह विपुल बौध्द साहित्य प्राचीन काल में नालंदा महाविहार से ही तिब्बत और अन्य देशों में गया था। जगदीश नारायण यह सब देख कर काफी प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि नालंदा को फिर से वही स्थान देने के लिए क्यों न काम किया जाए। उन्होंने राहुलजी अपने मन की बात बतायी।
एक दिन राहुल सांस्कृत्यायन ने जगदीश नारायण का ध्यान कालामों को बुध्द के उपदेश की ओर खींचा जिसमें बुध्द ने कहा था कि उनकी बात को केवल इसलिए ही स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि यह उन्होंने कही है। उसके बारे में आश्वत होने के बाद ही उसे स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए। जगदीश नारायण पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
जगदीश नारायण के माता-पिता उनके विवाह न करने के निर्णय से वैसे ही क्षुब्ध थे, किन्तु जब उन्हें यह जब पता हुआ कि वह अध्ययन के लिए सिरीलंका जा रहे हैं, तो उन्हें भारी आघात लगा। सन् 1934 में में जगदीश नारायण ने सिरिलंका में रह कर पूज्य महाथेरो धम्मानंद से प्रवज्या ली थी। दीक्षित होने के बाद आपका नाम भिक्खु जगदीश काश्यप हो गया। सिरिलंका विद्यालंकार परिवेण से आपने ‘ति-पिटकाचार्य’ की उपाधि प्राप्त की। पालि का अध्ययन करने के बाद आपने बौध्द ग्रंथों पर लिखना आरम्भ किया।
इसी बीच राहुलजी के साथ भिक्षु जगदीश काश्यप ने जापान की यात्रा की। किन्तु भारत में गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें आगे जाने नहीं दिया गया। वे पेनांग में ही रुक कर पालि ग्रंथों के अनुवाद के साथ-साथ चीनी सीखने लगे। यही पर उन्होंने ‘दीघनिकाय’ और ‘मिलिन्द पन्ह' के हिन्दी अनुवाद की पांडुलिपि छपने के लिए भारत भेज दी। पेनांग में काश्यप जी लगभग एक वर्ष रुके थे। बौध्द पंडित के रूप में उनकी काफी ख्याति फैली।
काश्यपजी को ‘आनापान सतिपट्ठान (विपस्सना साधना) का अच्छा खासा अभ्यास था। आपने काफी समय बौध्द योग साधना में बिताया। वे इसमें और उच्चतम अवस्था प्राप्त करना चाहते थे। जबकि राहुल सांस्कृत्यायन और भदन्त आनन्द कौसल्यायन चाहते थे कि उन्हें बुध्द की तरह चारिका करते हुए धम्म प्रचार करना चाहिए। किन्तु भिक्खु जगदीश काश्यप अपने दोनों गुरू भाईयों की सलाह को दरकिनार कर एक वर्ष शालागल जंगल में ‘सतिपट्ठान’ का उच्चतम अभ्यास करते रहे। वे वर्ष 1936 के अंत में भारत लौट आए।
भिक्खु जगदीश काश्यप वर्ष 1937 में सारनाथ की महाबोधी सोसायटी के सम्पर्क में आए। महाबोधि सोसायटी के महासचिव देवप्रिय वलिसिंहा के साथ यहां एक स्कूल स्थापित कर दलित वर्ग के बच्चों को पढ़ाया। यहीं से प्रतिदिन वाराणसी विद्यापीठ जाकर आप पालि पढ़ाया करते थे।
पूज्य भंते जगदीश काश्यप ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन कार्य किया।उन्होंने न केवल संस्कृत विभाग में पालि पढ़ाई अपितु दर्शन विभाग में बौध्द तर्कशास्त्र का अध्यापन किया। उन्होंने वहां पालि और बौध्द धर्म के अध्ययन को प्रारम्भ करने का प्रयास किया।
वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो नालंदा के गौरव को फिर से स्थापित करने के पूर्व संकल्प की ओर उनका ध्यान गया। वर्ष 1949 में बनारस से त्याग-पत्र देकर नालन्दा आ गए। वे बिहार में पैदा हुए थे और बिहार के माटी का कर्ज उन्हें झकजोर रहा था। बुध्द की जहां-तहां बिखरी मूर्तियां उनसे सवाल कर रही थी। बिहार की स्थानीय भाषा उन्हें पालि के अत्यन्त निकट जान पड़ी। जगदीश काश्यप ने लोगों को इस सत्य से अवगत कराया कि विहारों से पटे पड़े रहने के कारण ही प्रदेश का नाम विहार पड़ा था। नालंदा के निकट ‘सारि-चक’ गांव सारिपुत्त के नाम पड़ा था।
नालंदा के खंडहर जगदीश काश्यप को आमंत्रित कर रहे थे कि वे उसके स्वर्णीम गौरव को पुनः स्थापित करने में वे पहल करें। काश्यपजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय (खण्डहर) के पास मुस्लिम भाईयों से जमीन लेकर आपने नव-नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की। दरअसल, प्राचीन नालंदा विश्वद्यिालय के खंडहरों की निकटवर्ती भूमि इस्लामपुर रियासत के मुस्लिम जमींदार की थी। एक दिन भंतेजी चारिका करते जमींदार की डेहरी पर पहुंचे। भिक्षा-पात्र आगे करते हुए भंतेजी ने जमींदार से कहा- ‘आपके पूर्वजों पर नालंदा को जलाकर फूंकने का जो कलंक है, उसे धोने का यह उचित समय है। नालंदा में फिर से उसी स्थान पर पुराने विश्वविद्यालय को खड़ा किया जा रहा है। यह क्षेत्र आपके अधिकार में हैं। भवन के लिए आप जमीन दे दें।’ जमींदार आश्चर्य चकित था। उसने तुरंत भूमि का हुक्मनामा पात्र में डाल कर भंतेजी को प्रणाम किया। भंतेजी ने पुण्यानुमोदन स्वरूप जमींदार को भरपूर आर्शिवचन देकर उनसे विदा ली।
नव-नालंदा विश्वद्यिालय का उद्घाटन 20 नव. 1951 को देश के प्रथम राष्टपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के हाथों हुआ था। डॉ. राजेन्द्रप्रसाद रूढ़िवादी हिन्दू थे किन्तु पूज्य भंते काश्यपजी उन्हें मनाने में सफल हुए। भंतेजी में बात ही कुछ ऐसी थी। नव-नालंदा विश्वद्यिालय के पुस्तकालय के लिए काश्यपजी ने अकथ परिश्रम किया। भंतेजी नालंदा को श्रमण धर्म और संस्कृति का केन्द्र बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बौध्द धर्म के साथ जैन धर्म के दोनों निकायों- श्वेताम्बर और दिगम्बर को नालंदा में स्थापित किया।
पूज्य जगदीश काश्यप के प्रयासों से ति-पिटक के नागरी लिपि में प्रकाशन को भारत सरकार ने स्वीकार किया। सम्पूर्ण ति-पिटक पालि, सिंहली, बर्मी, थाई एवं कम्बोडिया लिपियों में उपलब्ध थे। पालि टेक्स सोसायटी लन्दन ने सम्पूर्ण ति-पिटक को रोमन लिपि में प्रकाशित कर दिया था। किन्तु नागरी लिपि में ति-पिटक उपलब्ध नहीं था। यह वही समय था जब भारत सरकार ने बुध्द के महापरिनिर्वाण के 2500 वीं वर्षगांठ पर बुध्द जयंती मनाने का निश्चय किया था। पूरे ति-पिटक को नागरी लिपि में प्रकाशित करने की भंतेजी की योजना को भारत सरकार ने एक पंचवर्षीय योजना के रूप में स्वीकृति दे दी। आपने ति-पिटक के 41 भागों को अपने अत्यन्त कठिन परिश्रम से सन् 1956 से 1961 की अवधि में प्रकाशित करा दिया।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन, राहुल जी को गुरू भाई कहते थे। जबकि अनागारिक धम्मपाल व धम्मानंद कौसम्बी आपसे ज्येष्ठ थे। जीवन के अंतिम दिनों में भिक्खु जगदीश काश्यप का आश्रय राजगिरी स्थित जापान निर्मित शांति स्तूप हो गया था। यही रहते हुए 28 जन. 1976 को आप परिनिब्बुत्त हुए(संदर्भ- भदन्त आनन्द कोसल्यायन; जीवन और कार्य : मुन्शीलाल गौतम) हैं ।
भिक्षु जगदीश कश्यप, भदन्त आनंद कौसल्यायन व महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के समकालीन। आपने बौध्द साहित्य समृध्द करने के साथ साथ कई संस्थाओं का निर्माण भी किया था।
भदन्त जगदीश कस्सप पालि भाषा और साहित्य के बेजोड़ पण्डित हुए। पालि व्याकरण के क्षेत्र में उनका कार्य अप्रतिम है। उनके प्रमुख ग्रंथ नागरी लिपि में 41 भागों में संपादित और प्रकाशित सम्पूर्ण पालि तिपिटक, पालि महाव्याकरण, तर्क शास्त्र (आगमन), तर्क शास्त्र( निगमन), अभिधम्म फिलास्फी, पालि निस्सेनी(लघु पालि व्याकरण) , बुध्दिज्म फार एवरीबडी, बुध्दिस्ट आऊटलुक, पालि त्रि-पिटक सद्दानुक्कमणिका, दीघनिकाय (हिन्दी व्याकरण), संयुत्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद भाग-2), मिलिन्द प्रश्न आदि।
भदन्तजी का जन्म 2 मई 1908 का रांचीे, बिहार (वर्तमान में झारखंड)के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम जगदीश नारायण था। जगदीश नारायण के पिता श्याम नारायण रांची कोर्ट में कर्मचारी थे। जगदीश नारायण ने सन् 1929 में पटना कालेज से बी. ए. किया था। तत्पश्चात इन्होने बनारस हिन्दू विश्वद्यिालय से दर्शन शास्त्र में एम. ए. किया।
प्रारम्भ में जगदीश नारायण आर्य समाज से जुड़े थे। वर्ष 1931-33 में आपने गुरुकुल संस्कृत विद्यापीठ में प्राचार्य के पद पर कार्य किया था। वे बलिष्ट कद-काठी और रोबदार व्यक्तित्व के धनी थे। किन्तु शीघ्र ही गुरूकुल के संगठन से उनका मोह भंग हो गया। उन्होंने देखा कि आर्य-समाजी सामाजिक-संबंधों में अपनी जाति से मुक्त नहीं हो पाए थे।
इस बीच उनका रुझान धम्म की ओर बढ़ने लगा। बौध्द धर्म में उच्चतर अध्ययन के लिए काशी के डॉ. भगवान दास और आर्य समाजी गुरू अयोध्या प्रसाद ने उन्हें बतलाया कि इसके लिए उन्हें मूल पालि में ति-पिटक का अध्ययन करना होगा। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि इस हेतु उन्हें सिरिलंका ही जाना होगा। जगदीश नारायण ने सिरिलंका के विद्यालंकार परिवेण के विहार प्रमुख को पत्र लिखा। शीघ्र ही उन्हें इसका विहार प्रमुख पूज्य भंते धम्मानंद महाथेर की ओर से पत्र मिला। यह पत्र राहुल सांस्कृत्यायन का था। राहुल सांस्कृत्यायन ने उन्हें सलाह दी थी कि वह उनके भारत आगमन पर उनसे मिले।
राहुल सांस्कृत्यायन जब बौध्द ग्रंथों की की तिब्बति पांडुलिपियों का विशाल संग्रह लेकर भारत आए तब जगदीश नारायण ने उनसे मुलाकात की। यह विपुल बौध्द साहित्य प्राचीन काल में नालंदा महाविहार से ही तिब्बत और अन्य देशों में गया था। जगदीश नारायण यह सब देख कर काफी प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि नालंदा को फिर से वही स्थान देने के लिए क्यों न काम किया जाए। उन्होंने राहुलजी अपने मन की बात बतायी।
एक दिन राहुल सांस्कृत्यायन ने जगदीश नारायण का ध्यान कालामों को बुध्द के उपदेश की ओर खींचा जिसमें बुध्द ने कहा था कि उनकी बात को केवल इसलिए ही स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि यह उन्होंने कही है। उसके बारे में आश्वत होने के बाद ही उसे स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए। जगदीश नारायण पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
जगदीश नारायण के माता-पिता उनके विवाह न करने के निर्णय से वैसे ही क्षुब्ध थे, किन्तु जब उन्हें यह जब पता हुआ कि वह अध्ययन के लिए सिरीलंका जा रहे हैं, तो उन्हें भारी आघात लगा। सन् 1934 में में जगदीश नारायण ने सिरिलंका में रह कर पूज्य महाथेरो धम्मानंद से प्रवज्या ली थी। दीक्षित होने के बाद आपका नाम भिक्खु जगदीश काश्यप हो गया। सिरिलंका विद्यालंकार परिवेण से आपने ‘ति-पिटकाचार्य’ की उपाधि प्राप्त की। पालि का अध्ययन करने के बाद आपने बौध्द ग्रंथों पर लिखना आरम्भ किया।
इसी बीच राहुलजी के साथ भिक्षु जगदीश काश्यप ने जापान की यात्रा की। किन्तु भारत में गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें आगे जाने नहीं दिया गया। वे पेनांग में ही रुक कर पालि ग्रंथों के अनुवाद के साथ-साथ चीनी सीखने लगे। यही पर उन्होंने ‘दीघनिकाय’ और ‘मिलिन्द पन्ह' के हिन्दी अनुवाद की पांडुलिपि छपने के लिए भारत भेज दी। पेनांग में काश्यप जी लगभग एक वर्ष रुके थे। बौध्द पंडित के रूप में उनकी काफी ख्याति फैली।
काश्यपजी को ‘आनापान सतिपट्ठान (विपस्सना साधना) का अच्छा खासा अभ्यास था। आपने काफी समय बौध्द योग साधना में बिताया। वे इसमें और उच्चतम अवस्था प्राप्त करना चाहते थे। जबकि राहुल सांस्कृत्यायन और भदन्त आनन्द कौसल्यायन चाहते थे कि उन्हें बुध्द की तरह चारिका करते हुए धम्म प्रचार करना चाहिए। किन्तु भिक्खु जगदीश काश्यप अपने दोनों गुरू भाईयों की सलाह को दरकिनार कर एक वर्ष शालागल जंगल में ‘सतिपट्ठान’ का उच्चतम अभ्यास करते रहे। वे वर्ष 1936 के अंत में भारत लौट आए।
भिक्खु जगदीश काश्यप वर्ष 1937 में सारनाथ की महाबोधी सोसायटी के सम्पर्क में आए। महाबोधि सोसायटी के महासचिव देवप्रिय वलिसिंहा के साथ यहां एक स्कूल स्थापित कर दलित वर्ग के बच्चों को पढ़ाया। यहीं से प्रतिदिन वाराणसी विद्यापीठ जाकर आप पालि पढ़ाया करते थे।
पूज्य भंते जगदीश काश्यप ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन कार्य किया।उन्होंने न केवल संस्कृत विभाग में पालि पढ़ाई अपितु दर्शन विभाग में बौध्द तर्कशास्त्र का अध्यापन किया। उन्होंने वहां पालि और बौध्द धर्म के अध्ययन को प्रारम्भ करने का प्रयास किया।
वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो नालंदा के गौरव को फिर से स्थापित करने के पूर्व संकल्प की ओर उनका ध्यान गया। वर्ष 1949 में बनारस से त्याग-पत्र देकर नालन्दा आ गए। वे बिहार में पैदा हुए थे और बिहार के माटी का कर्ज उन्हें झकजोर रहा था। बुध्द की जहां-तहां बिखरी मूर्तियां उनसे सवाल कर रही थी। बिहार की स्थानीय भाषा उन्हें पालि के अत्यन्त निकट जान पड़ी। जगदीश काश्यप ने लोगों को इस सत्य से अवगत कराया कि विहारों से पटे पड़े रहने के कारण ही प्रदेश का नाम विहार पड़ा था। नालंदा के निकट ‘सारि-चक’ गांव सारिपुत्त के नाम पड़ा था।
नालंदा के खंडहर जगदीश काश्यप को आमंत्रित कर रहे थे कि वे उसके स्वर्णीम गौरव को पुनः स्थापित करने में वे पहल करें। काश्यपजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय (खण्डहर) के पास मुस्लिम भाईयों से जमीन लेकर आपने नव-नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की। दरअसल, प्राचीन नालंदा विश्वद्यिालय के खंडहरों की निकटवर्ती भूमि इस्लामपुर रियासत के मुस्लिम जमींदार की थी। एक दिन भंतेजी चारिका करते जमींदार की डेहरी पर पहुंचे। भिक्षा-पात्र आगे करते हुए भंतेजी ने जमींदार से कहा- ‘आपके पूर्वजों पर नालंदा को जलाकर फूंकने का जो कलंक है, उसे धोने का यह उचित समय है। नालंदा में फिर से उसी स्थान पर पुराने विश्वविद्यालय को खड़ा किया जा रहा है। यह क्षेत्र आपके अधिकार में हैं। भवन के लिए आप जमीन दे दें।’ जमींदार आश्चर्य चकित था। उसने तुरंत भूमि का हुक्मनामा पात्र में डाल कर भंतेजी को प्रणाम किया। भंतेजी ने पुण्यानुमोदन स्वरूप जमींदार को भरपूर आर्शिवचन देकर उनसे विदा ली।
नव-नालंदा विश्वद्यिालय का उद्घाटन 20 नव. 1951 को देश के प्रथम राष्टपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के हाथों हुआ था। डॉ. राजेन्द्रप्रसाद रूढ़िवादी हिन्दू थे किन्तु पूज्य भंते काश्यपजी उन्हें मनाने में सफल हुए। भंतेजी में बात ही कुछ ऐसी थी। नव-नालंदा विश्वद्यिालय के पुस्तकालय के लिए काश्यपजी ने अकथ परिश्रम किया। भंतेजी नालंदा को श्रमण धर्म और संस्कृति का केन्द्र बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बौध्द धर्म के साथ जैन धर्म के दोनों निकायों- श्वेताम्बर और दिगम्बर को नालंदा में स्थापित किया।
पूज्य जगदीश काश्यप के प्रयासों से ति-पिटक के नागरी लिपि में प्रकाशन को भारत सरकार ने स्वीकार किया। सम्पूर्ण ति-पिटक पालि, सिंहली, बर्मी, थाई एवं कम्बोडिया लिपियों में उपलब्ध थे। पालि टेक्स सोसायटी लन्दन ने सम्पूर्ण ति-पिटक को रोमन लिपि में प्रकाशित कर दिया था। किन्तु नागरी लिपि में ति-पिटक उपलब्ध नहीं था। यह वही समय था जब भारत सरकार ने बुध्द के महापरिनिर्वाण के 2500 वीं वर्षगांठ पर बुध्द जयंती मनाने का निश्चय किया था। पूरे ति-पिटक को नागरी लिपि में प्रकाशित करने की भंतेजी की योजना को भारत सरकार ने एक पंचवर्षीय योजना के रूप में स्वीकृति दे दी। आपने ति-पिटक के 41 भागों को अपने अत्यन्त कठिन परिश्रम से सन् 1956 से 1961 की अवधि में प्रकाशित करा दिया।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन, राहुल जी को गुरू भाई कहते थे। जबकि अनागारिक धम्मपाल व धम्मानंद कौसम्बी आपसे ज्येष्ठ थे। जीवन के अंतिम दिनों में भिक्खु जगदीश काश्यप का आश्रय राजगिरी स्थित जापान निर्मित शांति स्तूप हो गया था। यही रहते हुए 28 जन. 1976 को आप परिनिब्बुत्त हुए(संदर्भ- भदन्त आनन्द कोसल्यायन; जीवन और कार्य : मुन्शीलाल गौतम) हैं ।
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