Wednesday, January 4, 2012

जाति की पहचान

       जनसत्ता 3 जन 12 के अंक में उषा कुमारी शाह का  एक लेख 'पहचान की मुश्किल' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. लेखिका ने फेशबुक पर कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले युवाओं से गुफ्तगुं करने का जिक्र किया है जो ज्यादातर सामाजिक रूप से घोषित उच्च समुदाय से आते हैं और जिन्होंने अपने नाम के आगे अल्पसंख्यक समुदायों के बीच प्रचलित 'सरनेम' लगा रखे हैं.इन युवाओं के अनुसार, इससे उन्हें अल्पसंख्यकों के दर्द को समझने और इस तरह साम्प्रदायिकता ख़त्म करने के प्रयास को बल मिलेगा.
      साम्प्रदायिकता की एक कार्यशाला में लेखिका शरीक होती है जिसमें एक युवक ने,जो बाबा साहेब के उस विचार, कि वे धर्म और जाति का सर्वथा विरोध करते हैं; से अभिप्रेरित होकर, बतलाया कि उसने अपने नाम के साथ जुड़े उपनाम को बाकायदा पंजीकृत कर हटा दिया है.उक्त युवक के इस प्रयोग से असहमत-सा होते हुए दूसरा युवक कहता कि उप-नाम हटा लेने से जाति का पता नहीं चलता. मगर, धर्म का पता तो चलता है ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लोगों के नाम  001,002,003 या  S6, X5 जैसी श्रृंखला में हो !
       लेखिका स्वीकार करती है कि हिन्दुओं में नाम जाति-बोधक होते हैं. जिस उपनाम से श्रेष्ठता-बोध झलता है उससे शायद ही किसी को परेशानी होती हो. परन्तु जिस नाम से हीनता का बोध होता हो , निश्चय ही नाम जानते से ही उसकी सामाजिक हैसियत तय कर ली जाती है.
      उक्त लेख और कार्यशाला में आज के युवाओं के प्रयोग दिलचस्प है. मगर, अफ़सोस कि पूरा लेख जातिगत - घृणा की भयावता पर नहीं बल्कि,साम्प्रदायिक-घृणा पर केन्द्रित है.सीधी-सी बात है, खुद लेखिका और 'सामाजिक रूप से घोषित उच्च समुदाय' के युवा जो हिन्दू हैं, जातिगत-घृणा की भयावता पर क्यों सोचने लगे ? हिन्दू वे हैं जो जाति मानते हैं.जाति-पांति और उंच-नीच की घृणा हिन्दू धर्म में अंतर्भूत है.आप हिन्दू हैं तो आपको जाति को मानना ही होगा. बिना जाति के आप हिन्दू नहीं हो सकते ? जाति को त्यागना है, तो हिन्दू धर्म के दायरे के बाहर निकलना होगा.
       अब जहाँ तक लोगों के नाम 001,002,003  इत्यादि की श्रंखला में रखने की बात है तो सचमुच यह प्रयोग ही है.मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. वह समाज में रहता है. यदि उसे जीवित रहना है तो उसे समाज में रहना ही होगा. समाज उसे संरक्षण देता है.और आदमी ही क्यों,पशु-पक्षी  और जानवर भी समाज के बिना नहीं रह सकते.धर्म क्या है ? धर्म, मूलत: समाज की आचार-संहिता है.
      आगे, जब समाज का विस्तार हुआ तो आचार संहिता में नियमों का समावेश किया गया.जब इससे भी काम न चला तो नियमों के उलंघन पर दंड का प्रावधान किया गया.समय के साथ-साथ समाज में हुकूमत करने वाला एक वर्ग उभरा.यह भी ठीक है कि बाद में कार्य का बंटवारा किया गया. कुछ लोगों को समाज की रक्षा का कार्य सोंपा गया.कुछ को कृषि करने का और कुछ को व्यापार करने का.प्रत्येक तर्कशील व्यक्ति जिसने समाज शास्त्र का अध्ययन किया है, वह सहमत होगा की मानव-समाज के विकास की यह स्वाभाविक प्रक्रिया थी.सदियों से जीवित समाज में कुछ आचार-संहिताएँ और नियम रूढ़ भी हो सकते हैं, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता.विभिन्न मानव-समुदाय अलग-अलग जलवायु और वातावरण में रहने से उन्हें विशेष आचार-संहिताएँ और नियमों को बनाना पड़ा, इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता.बाद में ये आचार-संहिताएँ और नियम उस समाज-विशेष की पहचान बन गए.बाल और कंघा सिखों की पहचान बन गए.दाढ़ी और बुरका मुसलमानों की और चोटी हिन्दुओं की.
        अब सवाल ये कि क्या ये भिन्न-भिन्न मानव-समुदाय के लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने को तैयार हैं ? स्मरण रहे, ये भिन्न सांस्कृतिक पहचान उनके अस्तित्व की पहचान बन चुकी है.यहाँ तक की उनकी जनसंख्या के आधार पर सरकारी बजट पास होने लगे हैं ?
       दूसरे, तकलीफ न बाल-कंघे में है और न ही दाढ़ी-चोटी में. बल्कि, तकलीफ घृणा में है.उंच-नीच की घृणा. हिन्दू-मुस्लिम की घृणा.आखिर घृणा, चाहे दो समुदायों के बीच हो या फिर जातियों के बीच, उसे धर्म-सम्मत क्यों होना चाहिए ? अक्सर हिन्दू  कहते हैं की जाति का आधार कार्य था.ठीक है, सहमत हुआ जा सकता है.मगर, भंगी अस्पृश्य है, इसे कैसे गले उतारा जाये ? चमार, कितना ही स्वच्छ हो, उसके हाथ का पानी पीना अधर्म है, यह कहाँ तक उचित है ? आसन और बिलकुल आसन उपाय है और वह है धर्मों के ऐसे असंगत अध्यायों में परिवर्तन किया जाये.
     प्रत्येक धर्म में, उनके धार्मिक ग्रंथों में समय-समय पर संशोधन हुए हैं.कुछ अध्याय जोड़ दिए गए और कुछ अध्याय हटा दिए गए.जोड़ने का सिलसिला तो अनन्त है, मगर, हटाने का सिलसिला भी कम नहीं है. वाल्मीकि रामायण के कई अध्याय बाद में लिखे रामचरित मानस में विलोप कर दिए गए.सवाल है कि हिन्दू और हिन्दू धर्म के ठेकेदार चाहते क्या है ?  क्या वे 50 करोड़ दलितों के साथ बराबरी का सम्बन्ध करना चाहते हैं ?

1 comment:

  1. धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
    धर्म व ईश्वर की उपासना एक दूसरे आश्रित, परन्तु अलग-अलग है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

    ReplyDelete