Monday, October 1, 2012

दलित मूर्तिकार

   दलित मूर्तिकार   

 दलित मूर्तिकार ने एक मूर्ति बनाई। मूर्ति बहुत ही लाजवाब थी।मूर्ति को इस तरह तराशा गया था कि वह सजीव हो उठी थी। लोग मूर्ति को देख कर अचंभित थे । खुद मूर्तिकार अपनी कला को देख हतप्रभ था।लोगों ने सलाह दी कि इसे किसी बड़े मन्दिर में प्रतिष्ठापित किया जाय। और अंतत: शहर के एक बड़े चौराहे पर स्थित मन्दिर में बड़ी ताम-झाम के साथ ब्राहमण पंडितों के मंत्रोचार से मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की गयी।
        एक दिन मूर्तिकार को ख्याल आया कि वह उस मूर्ति को देख आये जिसे बड़ी मेहनत से उसने बनाया था। वह शहर के उस चौराहे पर स्थित मन्दिर में गया। मगर, वहा ब्राहमण पंडितों ने उसे मूर्ति को करीब से देखने को रोक दिया। ब्राहमण पंडितों ने कहा कि वह नीच जाति का है और इसलिए उसे अन्दर नहीं जाने दिया जा सकता।
'मगर, मूर्ति मैंने बनाई है ? उसका एक-एक अंग मैंने अपने इन हाथों से तराशा है ?
तो क्या हुआ ? मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी है और अब तुम, मूर्ति का स्पर्श नहीं कर  सकते ?
मगर, क्यों ?
क्योंकि, तुम नीच जाति के हो।
मगर, इसमें मेरा क्या दोष है ? किस जाति में पैदा होना है, यह मेरे वश की बात नहीं थी ?
नहीं, ये तुम्हारे पूर्व-जन्म के कर्मों का परिणाम है।
मगर, तुम ये कैसे कह सकते हो ?
क्योंकि, ऐसा हमारे शास्त्रों में लिखा है।
शास्त्र तो तुम ने बनाये है ?
अच्छा है, तुम अपनी हद में रहो। धर्म-ग्रंथों की निंदा में तुम्हें जेल भी हो सकती है।
मूर्तिकार ने पल भर सोचा और कहा -
भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारे धर्म-ग्रन्थ। मैं जा कर इससे भी अच्छी दूसरी मूर्ति बनाता हूँ। 

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