हम बुद्ध को जानते हैं, बोधिसत्व के नाम से भी परिचित हैं। लेकिन ये अवलोकितेश्वर क्या है ? मंजुश्री कौन है, वज्र पाणि कौन है ? तारा कौन हैं ?
बुद्ध, ईश्वर, आत्मा नहीं मानते। वे इसका निषेध करते हैं। थेरवादी मानते हैं कि जो सत है, वह क्षणिक है। महायानी तो क्षण को भी वास्तव सत्ता नहीं स्वीकारते। शून्यता, नि:स्वभावता में विहरते हैं । फिर, इनमे इतना बड़ा देव परिवार कैसे बना ? इसका औचित्य क्या है ? संगती कैसे है((लेख महायान बौद्ध परम्परा; स्वरूप और प्रयोजन : कृष्ण नाथ ) ?
गुह्य समाज तन्त्रम बौद्ध तंत्र का आधारभूत ग्रन्थ है। इसका बौद्ध तांत्रिक साहित्य में प्रामाण्य है। इस पर अनेक टीकाएँ हुई हैं। इसकी साधना विधि गुह्य है। कहा गया है की इसका विधिवत अभ्यास करने से ही फल प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं(वही)।
अवलोकितेश्वर करुणा
अवलोकितेश्वर करुणा का प्रतीक है। सद्धध्म्मपुण्डरीकसुत्त के 24वें परिवर्त में इसका वर्णन है। इस परिवर्त को ‘समन्तमुख परिवर्त’ कहा गया है। समन्त का अर्थ है- प्रत्येक दिसा में, चहुं-ओर मौजूद । और इसलिए अवलोकितेश्वर समन्तमुख है।
अलोकितेश्वर के अनेक रूप-
आर्य अवलोकितेश्वर को लोकेश्वर भी कहते हैं। परम्परागत तिब्बती विद्वानों के अनुसार अवलोकितेस्वर के करीब 15 प्रकार के चित्र प्राप्त होते हैं। गुह्य समाज सूत्रं की भूमिका में श्री विनय तोष भट्टाचार्य लिखते हैं कि नेपाल में इसको कम-से-कम 108 रूपों में बनाते हैं।
अलोकितेश्वर के अनेक हाथ, सिर और आँख
खसर्पण लोकेश्वर दो हाथ वाले होते हैं। चार हाथ लोकेश्वर के दो हाथ जुड़े होते हैं। उनके बीच में मणि होती है। एक हाथ में स्फटिक की माला और एक हाथ में पद्म होता है। फिर छह हाथ और एक सिर भी बनते हैं। नौ या ग्यारह सिर और एक हजार हाथ वाला अवलोकेतेश्वर भी बनाते हैं। हजार हाथों में से हरेक में आँख होती है। आर्य आँखों से तो देखते ही हैं, हाथों की आँख से भी देखते हैं और करुणा करते हैं।
अलोकितेश्वर की पोशाक और लिबास-
अवलोकितेस्वर को सफेद रंग से बनाते हैं। मंजुश्री को पीला रंग । वज्र पाणि को नीला। इनके आठ अलंकार और पांच वस्त्र लिखते हैं। तिब्बती ज-म-लोक में इसका पूरा वर्णन है(बौद्ध निबंधावली: समाज और संस्कृति : कृष्ण नाथ : वाणी प्रकाशन)।
अलोकितेश्वर के गुरू अमित देव
अवलोकितेश्वर सिर के उपर 'अमित देव' होते हैं। कभी इनका रुद्र रूप होता है। अमितदेव अलोकितेश्वर के गुरू माने जाते हैं ।
अलोकितेश्वर का स्थान
अवलोकितेस्वर का स्थान पोतलक पर्वत है।
गंडव्यूह सूत्र में सेट्ठी सुधन ने बोधिचित का उत्पाद कर लिया है। किन्तु वह बोधिसत्व की चर्या नहीं जानता । इसके जानने के लिए वह अनेक 'कल्याण मित्रों' के पास जाता है। इसी सिलसिले में वह अवलोकितेश्वर के भी पहुंचता है।
दलाईलामा, अवलोकितेश्वर के अवतार
दलाईलामा अवलोकितेश्वर के अवतार माने जाते हैं। इनका स्थान भी पोतलक है।
अलोकितेश्वर बोधिसत्व
अवलोकितेश्वर बोधिसत्व हैं। सुधन को बताते हैं कि वे महा करुणा मुखावलंबन नाम की बोधिचर्या जानते हैं। इनके द्वारा सभी सत्वों को सब प्रकार के भय से मुक्त करते हैं(वही )।
अलोकितेश्वर का मन्त्र 'ॐ मणि पद्मे हूॅं'
'ॐ मणि पद्मे हूॅं’ अवलोकितेश्वर का मंत्र है। इसका अर्थ है- ‘मुझे लोकोत्तर शक्ति दीजिए’। इसमें मणि ‘उपाय’ और पद्म 'प्रज्ञा' का प्रतीक है । इसके छह अक्षर छह प्रज्ञापामिताओं को दर्शाते हैं। इससे छह मल-क्लेश दूर होते हैं। तिब्बत में बौद्ध धर्म के संस्थापक कहे जाने वाले‘सोंगचेन’ गम्पो( सातवीं सदी) के ग्रंथ ‘मणि-क-बुम’ में इस मंत्र की सविस्तार महत्ता बतलायी गई है। महायानी लोग इसका जाप करते पाएं जाते हैं। तंत्र में ॐ का बड़ा महात्म्य है।
अलोकितेश्वर की ध्यान-भावना
ध्यान भावना में महायानी प्रथम ‘ति-सरणागमन’ के बाद ‘चित-उत्पाद’ गाथा का पाठ करते हैं। इस गाथा का अर्थ है- ‘मैंने दान आदि जिन पुण्यों का अर्जन किया है, उनके फलस्वरूप प्राणियों के हित के लिए मुझे बुद्धत्व प्राप्त हो’। तत्पश्चात अपने सिर के ऊपर अथवा सामने पास में लोकेश्वर की भावना करते हैं। यहां साधक भावना करता है कि सभी प्राणियों सहित उसके सिर पर श्वेत कमल है। श्वेत कमल के ऊपर चन्द्रमा है। चन्द्रमा के ऊपर 'ह्री' अक्षर है। इस 'ह्री' अक्षर से ही अवलोकितेश्वर उत्पन्न है। शुभ और स्वच्छ देह से पांच प्रकार की प्रभास्वर श्वेत किरणें निकल रही हैं। चेहरे पर मुस्कान है। करुणा की दृष्टी से देख रहे हैं। चार हाथों में से पहले दो हाथ जिदे हैं और उनके बीच मणि है और नीचे दो हाथों में से एक में स्फटिक की माला और एक में सफेद कमल है। वस्त्र और अलंकार से अलंकृत हैं। मृग-चर्म धारण किए हुए हैं। निर्मल चन्द्रमा की टेक लगाए हुए हैं। समस्त शरण-स्थलों के पुंज स्वरूप हैं। मैं समस्त प्राणियों के साथ अभिन्न होकर भावना करता हूँ(वही)।
शान्तीदेव ने 'बोधिचर्यावतार' के 9 परिच्छेदों में इस चर्या का वर्णन किया है। 10वें परिच्छेद में वे परिणामना करते हैं- यह हो, वह हो। तंत्र के लिए पारमिता और बोधिचित आवश्यक अंग है।
कारण्ड व्यूह में अवलोकितेश्वर की महिमा का विस्तार है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास : डॉ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय पृ 338)।
बुद्ध, ईश्वर, आत्मा नहीं मानते। वे इसका निषेध करते हैं। थेरवादी मानते हैं कि जो सत है, वह क्षणिक है। महायानी तो क्षण को भी वास्तव सत्ता नहीं स्वीकारते। शून्यता, नि:स्वभावता में विहरते हैं । फिर, इनमे इतना बड़ा देव परिवार कैसे बना ? इसका औचित्य क्या है ? संगती कैसे है((लेख महायान बौद्ध परम्परा; स्वरूप और प्रयोजन : कृष्ण नाथ ) ?
गुह्य समाज तन्त्रम बौद्ध तंत्र का आधारभूत ग्रन्थ है। इसका बौद्ध तांत्रिक साहित्य में प्रामाण्य है। इस पर अनेक टीकाएँ हुई हैं। इसकी साधना विधि गुह्य है। कहा गया है की इसका विधिवत अभ्यास करने से ही फल प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं(वही)।
अवलोकितेश्वर करुणा
अवलोकितेश्वर करुणा का प्रतीक है। सद्धध्म्मपुण्डरीकसुत्त के 24वें परिवर्त में इसका वर्णन है। इस परिवर्त को ‘समन्तमुख परिवर्त’ कहा गया है। समन्त का अर्थ है- प्रत्येक दिसा में, चहुं-ओर मौजूद । और इसलिए अवलोकितेश्वर समन्तमुख है।
अलोकितेश्वर के अनेक रूप-
आर्य अवलोकितेश्वर को लोकेश्वर भी कहते हैं। परम्परागत तिब्बती विद्वानों के अनुसार अवलोकितेस्वर के करीब 15 प्रकार के चित्र प्राप्त होते हैं। गुह्य समाज सूत्रं की भूमिका में श्री विनय तोष भट्टाचार्य लिखते हैं कि नेपाल में इसको कम-से-कम 108 रूपों में बनाते हैं।
अलोकितेश्वर के अनेक हाथ, सिर और आँख
खसर्पण लोकेश्वर दो हाथ वाले होते हैं। चार हाथ लोकेश्वर के दो हाथ जुड़े होते हैं। उनके बीच में मणि होती है। एक हाथ में स्फटिक की माला और एक हाथ में पद्म होता है। फिर छह हाथ और एक सिर भी बनते हैं। नौ या ग्यारह सिर और एक हजार हाथ वाला अवलोकेतेश्वर भी बनाते हैं। हजार हाथों में से हरेक में आँख होती है। आर्य आँखों से तो देखते ही हैं, हाथों की आँख से भी देखते हैं और करुणा करते हैं।
अलोकितेश्वर की पोशाक और लिबास-
अवलोकितेस्वर को सफेद रंग से बनाते हैं। मंजुश्री को पीला रंग । वज्र पाणि को नीला। इनके आठ अलंकार और पांच वस्त्र लिखते हैं। तिब्बती ज-म-लोक में इसका पूरा वर्णन है(बौद्ध निबंधावली: समाज और संस्कृति : कृष्ण नाथ : वाणी प्रकाशन)।
अलोकितेश्वर के गुरू अमित देव
अवलोकितेश्वर सिर के उपर 'अमित देव' होते हैं। कभी इनका रुद्र रूप होता है। अमितदेव अलोकितेश्वर के गुरू माने जाते हैं ।
अलोकितेश्वर का स्थान
अवलोकितेस्वर का स्थान पोतलक पर्वत है।
गंडव्यूह सूत्र में सेट्ठी सुधन ने बोधिचित का उत्पाद कर लिया है। किन्तु वह बोधिसत्व की चर्या नहीं जानता । इसके जानने के लिए वह अनेक 'कल्याण मित्रों' के पास जाता है। इसी सिलसिले में वह अवलोकितेश्वर के भी पहुंचता है।
दलाईलामा, अवलोकितेश्वर के अवतार
दलाईलामा अवलोकितेश्वर के अवतार माने जाते हैं। इनका स्थान भी पोतलक है।
अलोकितेश्वर बोधिसत्व
अवलोकितेश्वर बोधिसत्व हैं। सुधन को बताते हैं कि वे महा करुणा मुखावलंबन नाम की बोधिचर्या जानते हैं। इनके द्वारा सभी सत्वों को सब प्रकार के भय से मुक्त करते हैं(वही )।
अलोकितेश्वर का मन्त्र 'ॐ मणि पद्मे हूॅं'
'ॐ मणि पद्मे हूॅं’ अवलोकितेश्वर का मंत्र है। इसका अर्थ है- ‘मुझे लोकोत्तर शक्ति दीजिए’। इसमें मणि ‘उपाय’ और पद्म 'प्रज्ञा' का प्रतीक है । इसके छह अक्षर छह प्रज्ञापामिताओं को दर्शाते हैं। इससे छह मल-क्लेश दूर होते हैं। तिब्बत में बौद्ध धर्म के संस्थापक कहे जाने वाले‘सोंगचेन’ गम्पो( सातवीं सदी) के ग्रंथ ‘मणि-क-बुम’ में इस मंत्र की सविस्तार महत्ता बतलायी गई है। महायानी लोग इसका जाप करते पाएं जाते हैं। तंत्र में ॐ का बड़ा महात्म्य है।
अलोकितेश्वर की ध्यान-भावना
ध्यान भावना में महायानी प्रथम ‘ति-सरणागमन’ के बाद ‘चित-उत्पाद’ गाथा का पाठ करते हैं। इस गाथा का अर्थ है- ‘मैंने दान आदि जिन पुण्यों का अर्जन किया है, उनके फलस्वरूप प्राणियों के हित के लिए मुझे बुद्धत्व प्राप्त हो’। तत्पश्चात अपने सिर के ऊपर अथवा सामने पास में लोकेश्वर की भावना करते हैं। यहां साधक भावना करता है कि सभी प्राणियों सहित उसके सिर पर श्वेत कमल है। श्वेत कमल के ऊपर चन्द्रमा है। चन्द्रमा के ऊपर 'ह्री' अक्षर है। इस 'ह्री' अक्षर से ही अवलोकितेश्वर उत्पन्न है। शुभ और स्वच्छ देह से पांच प्रकार की प्रभास्वर श्वेत किरणें निकल रही हैं। चेहरे पर मुस्कान है। करुणा की दृष्टी से देख रहे हैं। चार हाथों में से पहले दो हाथ जिदे हैं और उनके बीच मणि है और नीचे दो हाथों में से एक में स्फटिक की माला और एक में सफेद कमल है। वस्त्र और अलंकार से अलंकृत हैं। मृग-चर्म धारण किए हुए हैं। निर्मल चन्द्रमा की टेक लगाए हुए हैं। समस्त शरण-स्थलों के पुंज स्वरूप हैं। मैं समस्त प्राणियों के साथ अभिन्न होकर भावना करता हूँ(वही)।
शान्तीदेव ने 'बोधिचर्यावतार' के 9 परिच्छेदों में इस चर्या का वर्णन किया है। 10वें परिच्छेद में वे परिणामना करते हैं- यह हो, वह हो। तंत्र के लिए पारमिता और बोधिचित आवश्यक अंग है।
कारण्ड व्यूह में अवलोकितेश्वर की महिमा का विस्तार है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास : डॉ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय पृ 338)।