Saturday, June 2, 2018

अशोक शिलालेख(Inscriptions of Asoka)

सम्राट अशोक के राज्य की सीमा जितनी विस्तृत थी, उससे कहीं विस्तृत सम्राट का हृदय था जो जनता की भलाई के लिए हमेशा समर्पित रहता था। उसने राजाज्ञा प्रसारित करवा रखी थी, ‘ मैं खाता होऊं , अंतपुर में होऊं या शयनागार में प्रतिवेदन लोग प्रजा कार्य मुझे सर्वत्र सूचित करें...।’ इस प्रकार के अपने आदेशों को सम्राट ने स्तम्भ-लेख, शिलालेख आदि के द्वारा पूरे राज्य में प्रसारित करवा रखा था। अशोक ने बौद्ध ग्रंथों को भी इन अभिलेखों(स्तम्भ और शिलालेखों ) में अंकित करवा दिया था कि लोगों को धम्म के बार में अच्छी तरह परिचय मिल सकें।

हमारे देश में प्राप्त अधिकांश शिलालेख मौर्यवंशीय सम्राट अशोक कालीन हैं। यह सभी शिलालेख पाषाण स्तम्भों, चट्टानों, गुहा-भित्तियों पर उत्कीर्ण किए हुए हैं।

असोक के सिला लेख दो प्रकार के हैं। प्रथम वे हैं जिन में सम्राट ने बौद्ध संघ से अपने सम्बन्धों की घोषणा की है।  दूसरे वे हैं जिन में प्रजा के नाम पर सम्राट की घोषणा है। इस कोटि में बड़े और छोटे सिलालेख और स्तूप वाले राज्यादेश आते हैं।  इन से उनकी धम्म नीति का पता चलता है(पृष्ठ भूमि और स्रोत: असोक और मौर्य साम्राज्य का पतन: पृ- 2-3; रोमिला थापर )।

भाषा और लिपि-
असोक ने बुद्ध के समान वैदिक छांदस (संस्कृत) का नहीं बल्कि सामान्य प्रजा की भासा पालि प्राकृत का ही प्रयोग किया था । ये धम्म लिपि में लिखे गए हैं।  मनसेहरा और साहबाजगढ़ी से प्राप्त दो महत्वपूर्ण उत्तरी सिलालेख खरोष्टि लिपि में उत्कीर्ण किए गए हैं, जो फारसी (ऐरमइक) से निकली है। सबसे बाद में प्राप्त कंदहार का सिलालेख दो भासाओं; यूनानी और ऐरमइक में उत्कीर्ण है। (वही, पृ. 7)

धम्म लिपि-
अशोक शिलालेखों की लिपि को धम्मलिपि कहना उचित है न कि 'ब्राह्मीलिपि'। धम्मलिपि को ब्राह्मीलिपि, नागरीलिपि को देवानागरी लिपि कह कर प्रचारित करने का कोई भी आधार नहीं है। भासा और समाज शास्त्र अध्येयताओं के अनुसार, धम्मलिपि भारतीय भाषाओं के साथ सिरिलंका, तिब्बत, प्राचीन मध्य एशिया के बुद्धिस्ट देशों के साथ, बर्मा, कम्बोडिया, फिलिपाईन आदि देशों के वर्णमाला की जन्मदात्री  मानी जाती है।

खरोष्ठी लिपि-
पश्चिमोत्तर प्रदेश के मनसहरा और शाहबाजगढ़ी में कुछ अशोक शिलालेख खरोष्ठी-लिपि में भी प्राप्त हुए हैं। जिससे सिध्द है कि वह हमारे देश की दो प्राचीनतम लिपियों(धम्म लिपि और खरोष्ठी ) में से एक है और उसका प्रयोग उस समय गांधार में होता था। यह लिपि अरबी की भांति दाहिने से बाएं लिखी जाती है(खरोष्ठी- लिपि में प्राकृत अभिलेखः बौध्द संस्कृति, पृ. 308)।

 पूरे भारत में अशोक अभिलेखों का पाया जाना -
अशोक शिलालेख उत्तर में हिमालय से दक्षिण में तमिलनाडु और पश्चिम में गुजरात के गिरनार से पूर्व में धौली(उड़िसा) और जौंगड़ तक विस्तृत क्षेत्रा में फैले हैं। अर्थात लगभग पूरे भारत में ये शिलालेख प्राप्त हुए हैं और अभी भी प्राप्त हो रहे हैं ।

गिरनार का सिलालेख-
इयं धम्मलिपि देवानं प्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता।  इध न किंचि जीवं आरभित्या प्रजूहितव्यं। न च समाज्ये कतव्यो।  बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवानं प्रियो प्रियदसि राजा। अस्ति पितु एकचा समाजा सधुमता देवानं प्रियस प्रियदसिनो राञो ।  पूरा महानसम्हि  देवानं प्रियस प्रियदसिनो राञो अनुदिवसं बहूनि प्राणसत सहस्रानि आरभिसु सूपाथाय। से अज यदा अयं धम्मलिपि लिखिता तो एव प्राणा आरभरे सूपाथाय- द्वे  मोरा, एको मगो।  सोपि मगो न धुवो।  एतेपि त्री प्राणा पछा न आरभिसठे(पालि परिचय: डा. प्रियसेन सिंह )।

यह धम्मलिपि देवताओं के पिय्य पियदस्सि राजा ने लिखवाया है।  यहाँ कोई जीव मार कर बलि न दिया जाए और न कोई समाज किया जाए। क्योंकिं देवताओं के पिय्य राजा पियदस्सि समाज में बहुत दोस देखते हैं। किन्तु कुछ ऐसे समाज हैं, जिनका देवताओं के पिय्य पियदस्सि राजा समर्थन करते हैं। पहले देवताओं के पिय्य पियदस्सि राजा के पाकसाला में प्रति दिन सैकड़ों जीव मांस के लिए मारे जाते थे।  लेकिन, जब, इस अभिलेख के लिखे जाने के समय, सिर्फ 3 पशु प्रति दिन मारे जाते हैं- दो मोर और एक मृग, और मृग हमेशा नहीं मारा जाता।  वे तीनों पशु भी भविस्य में नहीं मारे जायेंगे। 


शिलालेखों को पढ़ना-
भारत में अंग्रेजों के समय पुन: इन अभिलेखों और पुराने सिक्कों के अध्ययन में तेजी आयी।  इस अध्ययन और अनुसन्धान के लिए 1784 ईस्वी में कोलकाता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की गई। अंतत:  अंग्रेज विद्वान् जेम्स प्रिंसेज(1799 -1840 ) इस रहस्य से पर्दा उठाने में कामयाब हुए। उसने पहले साँची के बौद्ध स्तूप के छोटे-छोटे दो शब्दों के लेख पढ़ने में सफलता पाई और इनकी मदद से सारी वर्णमाला को समझ लिया। ईस्वी 1837 में उसने अशोक के शिलालेख पढ़ लिए। सिर्फ 41 वर्ष की आयु में जेम्स प्रिंसेज ने जो कर दिखाया, वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे।

अभिलेखों का वर्गीकरण-
अशोक के अभिलेखों का वर्गीकरण निम्नानुसार है-
1. दीर्घ शिलालेख- 14
2. लघु अभिलेख
3. स्तम्भ लेख- 7

अभिलेखों के प्रकार-
14 दीर्घ शिलालेख(Rock Edicts)-
 कालसी, मानसेहरा, साहबाजगढ़ी(युफजई, पेशावर), गिरनार, सोपारा, येर्रागुड़ी, धौली और जौगढ़।
छोटे शिलालेख- वैराट, रूपनाथ, सहसराम, ब्रह्मगिरि, गाविमठ, जटिंग-रामेस्वर, मस्की, पालकीगुंडु, रजूल-मंडगिरि, सिद्दपुर, येर्रागुड़ी, गुजर्रा और झांसी। स्तूपलेख-7ः इलाहाबाद, दिल्ली-टोपरा, दिल्ली-मेरठ, लौरिया-अरराज, लौरिया-नंदगढ़, और रामपूर्वा। टोपरा और मेरठ के स्तम्भ लेख अब दिल्ली में हैं। लौरिया-अरराज, लौरिया-नंदनगढ़ और राम पूर्वा,  तीरहुत के चंपारण जिले में हैं(पृ. 3: रोमिला थापर)। अन्य अभिलेख बराबर की गुफाओं में (3 अभिलेख) और रूम्मिन्देई, निगली-सागर, इलाहाबाद, सांची, सारनाथ और वैराट । हाल ही में एक छोटा-सा अभिलेख यूनानी ऐरमइक(फिलिस्तीनी या सीरियाई ) कंदहार में मिला है(पृष्ठभूमि और स्रोतः असोक और मौर्य साम्राज्य का पतनः पृ. 5)।

लघु , स्तम्भ और गुहा आदि शिलालेख जो अब तक प्रकाश में आए हैं, इस प्रकार हैं- सिद्दपुर, ब्रम्हगिरि(मैसूर ) और जटिंग-रामेश्वर(मैसूर) के लघु शिलालेख, गिरनार लघु शिलालेख(जूनागढ़, काठियावाड़ा), लौरिया अरेराज(राधिया, चंपारण) और लौरिया नन्दनगढ़ (मठिया, चंपारण) स्तम्भ, रामपुर्वा(चंपारण) के शिलालेख, दिल्ली-मेरठ स्तम्भ, टोपरा(अम्बाला) का स्तम्भ, धौली (भुवनेश्वर, उड़िसा) के लघु शिलालेख, सहसराम (बिहार) के लघु शिलालेख, शाहबाजगढ़ी(युफजई, पेशावर) लघु शिलालेख, जौगढ़ के लघु शिलालेख(गंजाम, उड़िसा), कालसी के शिलालेख(देहरादून), वैराट(जयपुर, राज.) के लघु शिलालेख, रूपनाथ का लघु शिलालेख(जबलपुर, म. प्र.), गुर्जर(म. प्र.) लघु शिलालेख, राजुल(मंदगिरि) लघु शिलालेख, येर्रागुड़ी(कर्नूल, आ.प्र.) लघु शिलालेख, गवोमठ और पालकीगुण्डु(रायचूर, आ.प्र.) लघु शिलालेख, मास्की(मैसूर) के शिलालेख, मास्की (रायचुर, आ. प्र.), सोपारा (ठाणे, मुम्बई.) के शिलालेख, मानसेहरा(ऐबटाबाद, हजारा) चट्टान लेख, निगली सागर स्तम्भ लेख( ), रुम्मिनदेई(लुम्बिनी, नेपाल) स्तम्भ लेख, सारनाथ स्तम्भ लेख(आमुखः अशोक, लेखक राधाकुमुद मुखर्जी)।


गुफा लेख बुद्धगया के निकट बराबर की पहाड़ियों में हैं(वही)।

तराई के स्तम्भ लेखों में से एक नेपाल में रुम्मिन देई के स्थान पर और दूसरा नेपाल की तराई में निग्लीवा के स्थान पर स्थित है।  इन लेखों से प्रमाणिक रूप से पता चलता है कि असोक ने बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित पवित्र स्थानों की यात्रा की थी।  इन सिलालेखों से ही पता लगाया जा सकता है कि बुद्ध का जन्म किस स्थान पर हुआ था। ये लेख बतलाते हैं कि असोक ने बुद्ध के पूर्व जन्म को स्वीकार किया है।  (प्राचीन भारत का इतिहास: बी डी. महाजन) ।


अशोक-शिलालेखों में पालि भासा के भिन्न-भिन्न रूप-
अशोक-शिलालेखों में पालि के भिन्न-भिन्न रूप पाएं जाते हैं। एक ही लेख के अलग-अलग पाठों को देखने से यह अन्तर स्पष्ट रूप में समझ आता है। वास्तव में, यह अन्तर अलग-अलग स्थानों की बोलियों के प्रान्तीय प्रभावों के कारण है। ठीक वैसे ही, जैसे आज भी मगही, भेजपुरी, मैथली तथा अवधी आपस में काफी भिन्नता रखती है, तो भी सभी की समझ में आती है(भूमिका- पालि परिचय पृ. 42ः डा. प्रियसेन सिंह)।


अभिलेखों का उद्देश्य-
 इन अभिलेखों का उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों को इन आदेशों से परिचित कराना था। प्रायः अधिक महत्वपूर्ण आदेश बड़ी-बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण किए गए थे। इन अभिलेखों को महत्वपूर्ण स्थानों, नगरों के निकट, प्रसिद्ध व्यापारिक और यात्रा-मार्गों पर या धार्मिक महत्व के स्थानों के आस-पास उत्कीर्ण करवाया गया था।

स्तम्भलेखों का स्थान से बेदखल करना-
कौतुक-वश कुछ स्तम्भों को अपने मूल स्थानों से हटा कर कहीं और रख दिया गया। फिरोजसाह तुगलक(1351 -88  ईसवी ) के शासन-काल में टोपरा(अम्बाला/हरियाणा ) और मेरठ के स्तम्भों को कोटला (दिल्ली)  लाया गया ताकि पता लगाया जाए कि  इसमें क्या लिखा है ? अकबर बादशाह (1556 - 1603 ) ने भी इसका राज खोलने के लिए देश-विदेश के कई विद्वानों को बुलाया मगर, तब भी कोई नहीं बतला सका कि उनमे क्या लिखा है। इसी प्रकार माना जाता है कि इलाहाबाद के स्तम्भ्भ का मूल स्थान कौसाम्बी था। वैराट के शिलालेख को कनिंघम कलकत्ता लाए थे (रोमिला थापर  पृ  6-7)।

व्हेनसांग, फाहियान द्वारा अशोक शिलालेखों का वर्णन-
सातवीं सदी में भारत की यात्रा के दौरान चीनी यात्राी ह्वेनसांग ने राजगृह, सावस्थी और अन्य दूसरे स्थानों के स्तम्भों का जिक्र किया है। इसी प्रकार बौद्ध भिक्खु फाहियान ने चौथी सदी में बौद्ध-ग्रंथों का भारत में संग्रह किया। उसने संकिसा में एक सिंह स्तम्भ और पाटलिपुत्र के पास एक लेख स्तम्भ होने का जिक्र किया है। अब तक इन में से एक भी नहीं मिल सका है(रोमिला थापर: पृ. 6)

शिलालेखों में वर्णित विषय-
सिरकप(तक्षशिला ) के एक घर की भित्ति पर ऐरमइक भासा में उत्कीर्ण अभिलेख रोमेदोते नामक एक उच्च अधिकारी के सम्मान में अंकित है। जलालाबाद के निकट काबुल नदी के उत्तरी घाट पर लम्पक या लमधन पर पाया गया ऐरमइक लिपि में लिखा अपूर्ण अभिलेख है । गोरखपुर जिले के सोहगौरा ताम्र-अभिलेख और बोगरा जिले में महास्थान अभिलेख उस समय पड़े अकाल के समय किए जाने वाले राहत-कार्य के संबंध में हैं।
असोक के पोते दसरथ द्वारा अंकित कराए गए नागार्जुनी पहाड़ी गुफा का अभिलेख तथा लगकड़े ई. 150 में रुद्रदमन के जूनागढ़ सिलालेख हैं ।

सिलालेखों की स्थापना-
सातवें अभिलेख में अशोक कहता है कि पहले से मौजूद स्तम्भों पर उसके आदेश खुदवाएं जाएं (पृ. 291)। इससे कुछ विद्वान सोचते हैं कि कुछ स्तम्भ अशोक-काल के पहले के हैं और कुछ को अशोक ने स्थापित किया।
जिन 9 स्तम्भों के आस-पास उत्खनन हुए हैं, उनमें से 4 सीधे जमीन में गाढ़ दिए गए थे। मजबूती के लिए उन्हें कोई्र आधार नहीं दिया गया था और इसलिए वे अधिक समय तक सीधे खड़े नहीं रह पाएं और अंत में गिर गए। दूसरे 5 स्तम्भ पत्थर की नींवों पर खड़े किए गए, इसलिए वे अधिक समय तक टिके रहे। इनमें से 4 पर अभिलेख हैं। ये चार सारनाथ, टोपरा, रातपुरवा(सिंह शीर्ष ) और लौरिया-नंदनगढ़ के स्तम्भ हैं। पांचवां एक लॉट मात्रा है जो गोतिहावा में स्थित है। स्तम्भ ईंटों से बने परिक्रमा-पथ से घिरे हुए हैं।

पत्थर तराशने की कला-
इन स्तम्भों से पहले पत्थर तराशने की क्रिया का काई साक्ष्य नहीं मिलता। इसलिए यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित है कि इसकी विधि का उद्भव भारत में कब और कहां हुआ( रोमिला थापर; असोक और मौर्य साम्राज्य का पतन, पृ. 294)?    

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