धम्मपद की प्रासंगिकता
पिछले दिनों साप्ताहिक धम्म संगोष्ठी के अवसर पर एक वक्ता ने बुद्ध विहार में बाबासाहब अम्बेडकर कृत 'बुद्ध और उनका धम्म' के स्थान पर धम्मपद का पाठ करना श्रेयकर बताया। उन्होंने सलाह दे डाली कि हिन्दुओं की दीपावली के जैसे हमें प्रति वर्ष 'धम्मपद महोत्सव' मनाना चाहिए। उनका मत था कि धम्मपद समन्वयनात्मक भावना का प्रतीक है। ति-पिटक ग्रंथों में जो भगवान् बुद्ध के उपदेश हैं, उन में से चुनिंदा गाथाओं का संकलन धम्मपद है ।
धम्मपद, बेशक, बुद्ध के अनुयायियों में एक सम्मानित ग्रन्थ है। इसे हर बुद्धिस्ट अपने पास रखता है। हिन्दुओं में जिस तरह हर घर में आपको मानस या गीता मिल जाएगी, ठीक उसी तरह बुद्ध अनुयायियों के घर भी धम्मपद मिल जाएगा। हिन्दू जैसे बात-बात में मानस की चौपाई उद्दरित करता है, ठीक उसी तरह एक बुद्धिस्ट भी धम्मपद की गाथा उद्दरित करते मिल जाएगा।
धम्मपद की जहाँ तक बात है, मैं उसे एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ मानता हूँ । महत्वपूर्ण इसलिए कि लोग उसे महत्वपूर्ण मानते हैं ! दरअसल, यह ग्रन्थ मुझे उतना रुचिकर नहीं लगा जितना कि बाबासाहब अम्बेडकर कृत बुद्ध और उनका धम्म। मैं 'बुद्ध और उनके धम्म' को सामाजिक चेतना और परिवर्तन के लिए आवश्यक मानता हूँ। धम्मपद को मैं, नैतिक शिक्षा का एक स्रोत तो मानता हूँ किन्तु, इस में जगह-जगह जिस तरह ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया गया है, ब्राह्मणवाद का बखान किया गया है , स्वर्ग-नर्क की बात की गई है, मुझे फिर उसी कीचड़ में धकेले का यह एक षडयंत्र लगता हैजिससे बड़े मुश्किल से हम बाहर निकल पाएं हैं।
अपनी बारी आने पर मैंने अपने वक्तव्य में उक्त वक्ता की गैरजरुरी सलाह पर कड़ा एतराज जताया। मैंने सिलसिले वार अपनी बात रखते हुए कहा कि 'बुद्ध और उनका धम्म' के सामने 'धम्मपद' कहीं नहीं ठहरता। दरअसल, दोनों की तुलना ही गलत है। आईए, इस पर बिंदुवार बात करें -
1 . धम्मपद की गाथाएं ति-पिटक के विभिन्न ग्रंथों से ली हैं। कुछ गाथाओं के पद तो ति-पिटक ग्रंथों से बाहर अबौद्ध-ग्रंथों से ली गई हैं। (सुरेंद्र कुमार अज्ञात ; बुद्ध, अम्बेडकर और धम्मपद , पृ 55 )।
2 . धम्मपद में सभी गाथाएं हैं। जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश गाथाओं में दिए ही नहीं । बुद्ध ने न सिर्फ अपने वचनों के वैदिक छांदस( संस्कृत) में न संरक्षित करने को अपराध (ढुक्कट) बताया वरन छंद(पद्य ) में कहने को भी धम्म के लिए खतरनाक और हानिकारक बताया( देखें- आणि सुत्त: सुत्त निकाय, भाग- 1 )।
3. बुद्ध वर्ण-व्यवस्था और जाति-पांति के विरोधी थे, बावजूद इसके वर्ण और जाति की श्रेष्ठता यत्र-तत्र सर्वत्र दिखती है। ब्राह्मण और क्षत्रिय श्रेष्ठता की महिमा धड़ल्ले से गायी गई है। यही नहीं, 40 के ऊपर गाथाओं का एक पूरा वग्ग (अध्याय) है, जिस में ब्राह्मण की प्रशंसा खुले रूप से की गई है।
4. धम्मपद में अनेक स्थानों में आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, देव और ब्रह्मलोक का बखान किया गया हैं। क्या बुद्ध को ये सब मान्य थे ? कुछेक अनुवाद कर्ता सहानभूति वश स्वर्ग का अर्थ सुख, नरक का अर्थ दुक्ख जैसा कर बुद्ध की मूल स्थापना को संभालने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु ऐसा कितना और कहाँ-कहाँ किया जा सकता है ? एकाध जगह हो तो उसे 'प्रिंटिंग मिस्टेक' कह कर पल्ला झाड़ा जा सकता है किन्तु आधे से अधिक गाथाओं में इस तरह की बातें गले नहीं उतरती हैं।
5. लेख है कि सम्राट अशोक ने धम्मपद की कुछ गाथाओं को सुना था(प्रकाशकीय: धम्मपद गाथा और कथा; ताराराम)। निस्संदेह इससे उसकी ऐतिहासिकता पर प्रश्न नहीं उठता किन्तु उसका स्वरूप और आकार तो प्रश्नगत है ही ?
धम्मपद, बेशक, बुद्ध के अनुयायियों में एक सम्मानित ग्रन्थ है। इसे हर बुद्धिस्ट अपने पास रखता है। हिन्दुओं में जिस तरह हर घर में आपको मानस या गीता मिल जाएगी, ठीक उसी तरह बुद्ध अनुयायियों के घर भी धम्मपद मिल जाएगा। हिन्दू जैसे बात-बात में मानस की चौपाई उद्दरित करता है, ठीक उसी तरह एक बुद्धिस्ट भी धम्मपद की गाथा उद्दरित करते मिल जाएगा।
धम्मपद की जहाँ तक बात है, मैं उसे एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ मानता हूँ । महत्वपूर्ण इसलिए कि लोग उसे महत्वपूर्ण मानते हैं ! दरअसल, यह ग्रन्थ मुझे उतना रुचिकर नहीं लगा जितना कि बाबासाहब अम्बेडकर कृत बुद्ध और उनका धम्म। मैं 'बुद्ध और उनके धम्म' को सामाजिक चेतना और परिवर्तन के लिए आवश्यक मानता हूँ। धम्मपद को मैं, नैतिक शिक्षा का एक स्रोत तो मानता हूँ किन्तु, इस में जगह-जगह जिस तरह ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया गया है, ब्राह्मणवाद का बखान किया गया है , स्वर्ग-नर्क की बात की गई है, मुझे फिर उसी कीचड़ में धकेले का यह एक षडयंत्र लगता हैजिससे बड़े मुश्किल से हम बाहर निकल पाएं हैं।
अपनी बारी आने पर मैंने अपने वक्तव्य में उक्त वक्ता की गैरजरुरी सलाह पर कड़ा एतराज जताया। मैंने सिलसिले वार अपनी बात रखते हुए कहा कि 'बुद्ध और उनका धम्म' के सामने 'धम्मपद' कहीं नहीं ठहरता। दरअसल, दोनों की तुलना ही गलत है। आईए, इस पर बिंदुवार बात करें -
1 . धम्मपद की गाथाएं ति-पिटक के विभिन्न ग्रंथों से ली हैं। कुछ गाथाओं के पद तो ति-पिटक ग्रंथों से बाहर अबौद्ध-ग्रंथों से ली गई हैं। (सुरेंद्र कुमार अज्ञात ; बुद्ध, अम्बेडकर और धम्मपद , पृ 55 )।
2 . धम्मपद में सभी गाथाएं हैं। जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश गाथाओं में दिए ही नहीं । बुद्ध ने न सिर्फ अपने वचनों के वैदिक छांदस( संस्कृत) में न संरक्षित करने को अपराध (ढुक्कट) बताया वरन छंद(पद्य ) में कहने को भी धम्म के लिए खतरनाक और हानिकारक बताया( देखें- आणि सुत्त: सुत्त निकाय, भाग- 1 )।
3. बुद्ध वर्ण-व्यवस्था और जाति-पांति के विरोधी थे, बावजूद इसके वर्ण और जाति की श्रेष्ठता यत्र-तत्र सर्वत्र दिखती है। ब्राह्मण और क्षत्रिय श्रेष्ठता की महिमा धड़ल्ले से गायी गई है। यही नहीं, 40 के ऊपर गाथाओं का एक पूरा वग्ग (अध्याय) है, जिस में ब्राह्मण की प्रशंसा खुले रूप से की गई है।
4. धम्मपद में अनेक स्थानों में आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, देव और ब्रह्मलोक का बखान किया गया हैं। क्या बुद्ध को ये सब मान्य थे ? कुछेक अनुवाद कर्ता सहानभूति वश स्वर्ग का अर्थ सुख, नरक का अर्थ दुक्ख जैसा कर बुद्ध की मूल स्थापना को संभालने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु ऐसा कितना और कहाँ-कहाँ किया जा सकता है ? एकाध जगह हो तो उसे 'प्रिंटिंग मिस्टेक' कह कर पल्ला झाड़ा जा सकता है किन्तु आधे से अधिक गाथाओं में इस तरह की बातें गले नहीं उतरती हैं।
5. लेख है कि सम्राट अशोक ने धम्मपद की कुछ गाथाओं को सुना था(प्रकाशकीय: धम्मपद गाथा और कथा; ताराराम)। निस्संदेह इससे उसकी ऐतिहासिकता पर प्रश्न नहीं उठता किन्तु उसका स्वरूप और आकार तो प्रश्नगत है ही ?
6. जहाँ तक धम्मपद की विश्वसनीयता का प्रश्न है, डॉ रीज डेविड्स और डॉ विमलाचरण लाहा ने इसे क्रमश: जातक और विमानवत्थु, पेतवत्थु के समकक्ष रखा है(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 10: राहुल सांकृत्यायन)।
7. धम्मपद को 'समन्वयात्मक भावना' का प्रतीक कहा है। किन्तु बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि भारत का इतिहास दरअसल, बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच जातीय संघर्ष का इतिहास है(लेख 'ब्राह्मणवाद की विजय :बाबासाहब डॉ अम्बेडकर; सम्पूर्ण वांगमय खंड 7 )।
तब, क्या कारण है कि धम्मपद हमारे घरों में मानस अथवा गीता की तरह पूज्य है ? मुझे लगता है कि हम अभी ब्राह्मण मानसिकता से ऊबर नहीं पाएं हैं। खेद है कि अपेक्षा के विपरीत गोयनका जी के विपस्सना केंद्र इस मानसिकता को बनाए रखने एक बड़ी भूमिका में हैं। निस्संदेह, इन विपस्सना केंद्रों का नेट-वर्क ति-पिटक को पालि भासा में लोगों तक पहुंचा कर एक अनुत्तर और प्रसंशनीय कार्य कर रहा है किन्तु, महायानी परम्परा को कन्धा दे अम्बेडकर मूवमेंट की धार को बोथरी भी कर रहा है। -अ ला. ऊके @ amritlalukey.blogspot.com
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