बोधिसत्व के अनेक जन्मों की कहानी, ब्राह्मणवाद का प्रचार-
अगर आप दुश्मन को परास्त नहीं कर सकते तो उसकी शरण में जा, उसका शिष्य बन कर उसके विचारों में घाल-मेल पैदा कर दो। यह एक ट्रिक है जिसकी खोज ब्राह्मणों ने की है । यह ट्रिक दिखने में तो आसान लगती है मगर, इसके परिणाम बेहद घातक और दूरगामी होते हैं ।
मैं अधिक दूर नहीं जा रहा । हम कबीर को लें । ईश्वर सहित ब्राह्मणवाद के विरुद्ध कबीर कितने उग्र और तीक्ष्ण थे ? उनकी उग्रता की धार ने पण्डे, पुजारी, मौलवी सबका अंग-भंग कर दिया था। अंग-भंग ऐसा कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से लेकर रामचन्द्र शुक्ल तक 'ब्राह्मण की लंगोटी' संभालने में लगे रहे । और, परिणाम सामने है । आज, चाहे कबीर-गद्दी खरसिया हो, बुरहानपुर या दामाखेड़ा, उनके अनुयायी उन्हें किसी अवतारवादी भगवान से कम मानने को तैयार नहीं !
उक्त घटना तो 14-15 वीं सदी की है। मगर हम, आज से 2500 वर्ष पहले देखें तो बुद्ध के साथ इससे भी भयानक हादसा हुआ। कबीर के समय, कबीर के पीछे बुद्ध थे। मगर, बुद्ध में पीछे कोई नहीं था। बुद्ध को अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होना था। उसे अपने ही बल से टिके रहना था। और रहा भी और, आज भी है। मगर, इसके लिए उसे कितनी कीमत चुकानी पड़ी ? जो भिक्खु मैत्री और करुणा का पाठ पढ़ाते थे, ऐसे कितने ही भिक्खुओं की बलि देनी पड़ी। कितने अपने ही विश्वविद्यालयों को आग की लपटों में धू-धू के जलते देखने का साक्षी होना पड़ा !
बुद्ध, अवतारवाद के विरोधी थे। मुझे नहीं लगता, इसमें किसी को कोई आपत्ति है। मैं बुद्धिस्ट चिंतकों की बात कर रहा हूँ। अगर वे अपनी सैद्धांतिकी में स्पष्ट है, दिग्ग भ्रमित नहीं हैं, तो मुझे नहीं लगता वे इससे अलग राय रखेंगे। विचारों में स्पष्टता जरुरी है। यही नहीं, यह स्पष्टता सामने वाले को दिखनी भी चाहिए। आप किचन में लगे वित्तु बाबा के फोटो को यह कह कर सामने वाले को दरकिनार नहीं कर सकते कि 'श्रीमतीजी का कमरा' है। यह व्यक्तित्व का दोहरापन ही होगा कि किचन में कुछ और ड्राईंग रूम में कुछ।
'बुद्धा एंड धम्मा' में बाबासाहब डॉ अम्बेडकर स्पष्ट लिखते हैं कि जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत के सर्वथा (Enlightenment and the Vision of a New Way- 4/21: Part IV) समान है। किन्तु भदन्त आनंद कोसल्यायन जब इसका अनुवाद करते हैं तो वे अपने अनुवाद में लिखते हैं कि 'जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत के सर्वथा प्रतिकूल है'(भगवान् बुद्ध और उनका धर्म, पृ 67 ) । भदन्त जी की इसके लिए आलोचना भी हुई। मगर, जो नुकसान हुआ, वह अपरिमित है।
बुद्ध के मुख से निकले उपदेश किस तरह प्रदूषित हुए, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। एक भाणक ने सुना फिर उसका कथन दूसरे भाणक ने सुना. फिर उसका कथन तीसरे ने, चौथे, पांचवे....। सैकड़ों वर्षों तक यह सिलसिला चलता रहा । इसमें बुद्ध वचन प्रश्नगत भी होते रहे, नए-नए सम्प्रदाय भी बनते रहे। बुद्ध महापरिनिर्वाण के करीब 250 वर्ष के अंदर ही अशोक काल तक कुल 18 सम्प्रदाय अस्तित्व में आ चुके थे । फिर, ईसा की पहली सदी में उन्हें लिपिबद्ध किया गया, जिस रूप में भी वे उस समय थे । पूर्व ब्राह्मणवादी संस्कारों में संस्कारित चिवरधारी भिक्खुओं ने जो गलतियाँ की होगी, वह तो अलग है, परन्तु, जो परिवर्तन होश में हुए, वे कैसे क्षम्य हो सकते हैं ? हमें नहीं लगता कि भदन्तजी ने वह अनुवाद अनजाने में किया हो ?
एक सुखद संयोग है कि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध के धर्म का झंडा राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में; पुन: उनकी मातृ-भूमि में जहाँ वे पैदा हुआ थे, इस तरह गाड़ दिया कि कोई इसे अब हिला नहीं सकता। सीधी सी बात है, धम्म को हमें उनके 'बुद्धा एंड धम्मा' में पढ़ना होगा, उन्ही के शब्द और भाव को पकड़ना होगा, जो वे बताना चाहते हैं । उन्हें दलितों के मर्ज का ठीक-ठीक पता था । डॉ अम्बेडकर ने साफ़-साफ़ लिखा है कि बुद्ध, परा-प्राकृतिक वाद के विरुद्ध थे। ऐसी कोई बात जो परा-प्राकृतिकवाद का समर्थन करती है, बुद्ध मत के विरुद्ध है।
बुद्ध, अवतारवाद के विरोधी थे। मुझे नहीं लगता, इसमें किसी को कोई आपत्ति है। मैं बुद्धिस्ट चिंतकों की बात कर रहा हूँ। अगर वे अपनी सैद्धांतिकी में स्पष्ट है, दिग्ग भ्रमित नहीं हैं, तो मुझे नहीं लगता वे इससे अलग राय रखेंगे। विचारों में स्पष्टता जरुरी है। यही नहीं, यह स्पष्टता सामने वाले को दिखनी भी चाहिए। आप किचन में लगे वित्तु बाबा के फोटो को यह कह कर सामने वाले को दरकिनार नहीं कर सकते कि 'श्रीमतीजी का कमरा' है। यह व्यक्तित्व का दोहरापन ही होगा कि किचन में कुछ और ड्राईंग रूम में कुछ।
'बुद्धा एंड धम्मा' में बाबासाहब डॉ अम्बेडकर स्पष्ट लिखते हैं कि जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत के सर्वथा (Enlightenment and the Vision of a New Way- 4/21: Part IV) समान है। किन्तु भदन्त आनंद कोसल्यायन जब इसका अनुवाद करते हैं तो वे अपने अनुवाद में लिखते हैं कि 'जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत के सर्वथा प्रतिकूल है'(भगवान् बुद्ध और उनका धर्म, पृ 67 ) । भदन्त जी की इसके लिए आलोचना भी हुई। मगर, जो नुकसान हुआ, वह अपरिमित है।
बुद्ध के मुख से निकले उपदेश किस तरह प्रदूषित हुए, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। एक भाणक ने सुना फिर उसका कथन दूसरे भाणक ने सुना. फिर उसका कथन तीसरे ने, चौथे, पांचवे....। सैकड़ों वर्षों तक यह सिलसिला चलता रहा । इसमें बुद्ध वचन प्रश्नगत भी होते रहे, नए-नए सम्प्रदाय भी बनते रहे। बुद्ध महापरिनिर्वाण के करीब 250 वर्ष के अंदर ही अशोक काल तक कुल 18 सम्प्रदाय अस्तित्व में आ चुके थे । फिर, ईसा की पहली सदी में उन्हें लिपिबद्ध किया गया, जिस रूप में भी वे उस समय थे । पूर्व ब्राह्मणवादी संस्कारों में संस्कारित चिवरधारी भिक्खुओं ने जो गलतियाँ की होगी, वह तो अलग है, परन्तु, जो परिवर्तन होश में हुए, वे कैसे क्षम्य हो सकते हैं ? हमें नहीं लगता कि भदन्तजी ने वह अनुवाद अनजाने में किया हो ?
एक सुखद संयोग है कि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध के धर्म का झंडा राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में; पुन: उनकी मातृ-भूमि में जहाँ वे पैदा हुआ थे, इस तरह गाड़ दिया कि कोई इसे अब हिला नहीं सकता। सीधी सी बात है, धम्म को हमें उनके 'बुद्धा एंड धम्मा' में पढ़ना होगा, उन्ही के शब्द और भाव को पकड़ना होगा, जो वे बताना चाहते हैं । उन्हें दलितों के मर्ज का ठीक-ठीक पता था । डॉ अम्बेडकर ने साफ़-साफ़ लिखा है कि बुद्ध, परा-प्राकृतिक वाद के विरुद्ध थे। ऐसी कोई बात जो परा-प्राकृतिकवाद का समर्थन करती है, बुद्ध मत के विरुद्ध है।
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