बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के अनुसार, बुद्ध यदि बुद्धिवादी नहीं थे, तो वे कुछ भी नहीं थे।
बुद्ध बहुत ही स्पष्टवादी थे। डॉ सुरेंद्र कुमार अज्ञात के शब्दों में; वे प्राणी-मात्र के प्रति जितने करुणामय थे, स्पष्टता के मामले में उतने ही निर्मम. इसलिए उन्होंने न अपने आप को 'सर्वज्ञ' कहा और न अपनी शिक्षाओं को किसी को आँख मूंद कर स्वीकार करने को प्रेरित किया।
उन्होंने कहा की मेरी बातों को तपा कर, तौल कर, कसौटी पर परख कर ही स्वीकार करना चाहिए, जैसे सोने के मामले में किया जाता है। भिक्खुओं को सम्बोधित करते हुए बुद्ध ने कहा की मेरे बातों को मेरे प्रति आदर के कारण मत स्वीकार करो।
बुद्ध बहुत ही स्पष्टवादी थे। डॉ सुरेंद्र कुमार अज्ञात के शब्दों में; वे प्राणी-मात्र के प्रति जितने करुणामय थे, स्पष्टता के मामले में उतने ही निर्मम. इसलिए उन्होंने न अपने आप को 'सर्वज्ञ' कहा और न अपनी शिक्षाओं को किसी को आँख मूंद कर स्वीकार करने को प्रेरित किया।
उन्होंने कहा की मेरी बातों को तपा कर, तौल कर, कसौटी पर परख कर ही स्वीकार करना चाहिए, जैसे सोने के मामले में किया जाता है। भिक्खुओं को सम्बोधित करते हुए बुद्ध ने कहा की मेरे बातों को मेरे प्रति आदर के कारण मत स्वीकार करो।
अपनी शिक्षाओं के बारे में बुद्ध ने कहा कि इनसे उसी प्रकार काम लो जैसे नदी पार करने के लिए नौका से किया जाता है। जैसे नदी पार कर चुकने के बाद कोई भी नौका को सर पर उठा कर नहीं चलता, उसी प्रकार इन शिक्षाओं के बोझ को सिर पर मत उठाए फिरो।
ऐसे निर्मम महापुरुष की शिक्षाओं का कोई प्रामाणिक संग्रह उनके जीवन काल में ही यदि बन गया होता तो वह मानवता का अमूल्य खजाना होता। खेद है की बुद्ध के महापरिनिर्वाण के शताब्दियों बाद संगृहीत ति-पिटक के अतरिक्त आज कोई भी बुद्ध वचनों का संग्रह कहीं उपलब्ध नहीं है।
ऐसे में जाने- अनजाने ऐसे बुद्ध कथनों का बुद्ध वचनों के तौर पर प्रचलित हो जाना अस्वाभाविक नहीं, जो बौद्ध-सार तत्व के अनुकूल न हो, खुद ति -पिटक इस बात का साक्षी है कि बुद्ध के जीवन काल में कई बातें उनके नाम पर प्रचलित हो रही थी, जिनका उन्होंने स्पष्ट तौर पर प्रतिवाद किया था(प्राक्कथन: बुद्ध आंबेडकर और धम्मपद )।
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