मेरा एक सहकर्मी मित्र, तन से तो पहलवान है ही, भाषा से भी पहलवान है. एक दिन जयप्रकाश कर्दम द्वारा सम्पादित पुस्तक 'दलित साहित्य १९९९' जिसे पढ़ते-पढ़ते अन्य कार्य में उलझने से मैंने टेबल पर रख दिया था, मित्र ने उठाया और काफ़ी देर तक उसके पन्ने उलटते-पलटते रहा.
"सर, इसे पढ़ कर तो खून खौलने लगता है ?"-पन्ने पलटना जारी रखते हुए उसने मेरी ओर देख कर कहा.
एकाएक जैसे मुझे विश्वास नहीं हुआ. स्तम्भित-सा उसे देखने लगा-
"तब तुम ऐसा साहित्य पढ़ते क्यूँ नहीं हो ?" मैंने उनके चेहरे पर नजर जमाये पूछा.
"अरे, कौन टेंशन पाले.मादरचो... यहाँ अपने घर-परिवार का ही टेंशन क्या कम है." -पहलवान मित्र ने अपने हाथी जैसे शरीर का टेंशन रिलीज करते हुए कहा. (दिनांक ०७.०७.०२/लेखक की डायरी से)
No comments:
Post a Comment