परिवर्तन स्कूलों के संचालक डा. आनंद से मेरा प्रथम परिचय
परिवर्तन स्कूलों के संचालक डा. आनंद से मेरा प्रथम परिचय सन 2001 में हुआ था. उस समय उमरिया जिला (म.प्र.)के स.गा.ता.वि.केंद्र बिरसिंगपुर में मैं पदस्थ था.वहां तापीय विद्युत् की दो इकाइयाँ (200 x 2 MW ) कार्यशील थी जबकि 500 MW की एक नवीनतम इकाई अंडर-कंस्ट्रसन में थी. मैं के पावर-हॉउस क्र 1 ( 200 x 2 MW ) में कार्यपालन अभियंता के पद पर पदस्थ था.
परिवर्तन स्कूलों के संचालक डा. आनंद से मेरा प्रथम परिचय सन 2001 में हुआ था. उस समय उमरिया जिला (म.प्र.)के स.गा.ता.वि.केंद्र बिरसिंगपुर में मैं पदस्थ था.वहां तापीय विद्युत् की दो इकाइयाँ (200 x 2 MW ) कार्यशील थी जबकि 500 MW की एक नवीनतम इकाई अंडर-कंस्ट्रसन में थी. मैं के पावर-हॉउस क्र 1 ( 200 x 2 MW ) में कार्यपालन अभियंता के पद पर पदस्थ था.
शासकीय सेवा के साथ-साथ कुछ सामाजिक कार्य करते जाना मैं नौकरी का एक हिस्सा मानता हूँ.निश्चित रूप से नौकरी मुझे रिजर्व केटेगरी का होने से मिली.अत: जिस तरह नौकरी कर मैं अपने परिवार का पालन-पोषण करता हूँ ,ठीक इसी तरह उस समाज के प्रति भी मेरा फर्ज बनता है, जिस में मैं पैदा हुआ,पला बढ़ा हूँ. डा.बाबा साहेब आंबेडकर ने अपने समाज के नौकरीपेशा लोगों को जो 'पे बैक टू सोसायटी' का मेसेज दिया,मैं उसका कायल हूँ. निश्चित तौर पर मेरे जैसे लोग, अगर रिजर्व केटेगरी के नहीं होते; नौकरी में नहीं आते. जिस समाज/जाति को आप बिलोंग करते हैं,क्या उसके प्रति आपका फर्ज नहीं है ?अगर माँ-बाप ने पैदा किया,पाला-पोषा है, तो उस समाज का होने के कारण भी तो आपको नौकरी लगी है.जिस तरह आपका परिवार आपकी और देखता है ,समाज भी तो आपको आशा भरी नज़रों से देखता है.और फिर,आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरे समाज/जाति का व्यक्ति आपके समाज के लिया कुछ करेगा क्या ?
बहरहाल, नौकरी करते-करते कुछ किया जाना है,यह मेरे ध्यान में था.लोग, चाहे जिस बात पर एक मत न हो,धार्मिक मामलों एक हो जाते हैं.इसके दृष्टि-गत मैंने अपने समाज के लोगों के सामने कालोनी में बौद्ध-विहार बनाने का प्रस्ताव रखा.मेरे जेहन में यह बात थी कि अपने समाज के कालोनी में मात्र १०-१५ लोग ही है,तब बौद्ध-विहार बनाने में दिक्कत आ सकती थी.किन्तु, मुझे इस बात का भी भान था की कई जगह दो-तीन लोग ही बस जाते हैं और वहां मंदिर बन जाता है ! खैर,नियत समय पर भंतेजी को बुलाया गया.कालोनी एरिया में जगह की दिक्कत होती है.किन्तु,जगह भी निश्चित हो गई.स्थानीय प्रशासन को लिखा गया की कालोनी में अन्य धर्मों के पूजा-स्थल हैं तो बौद्धों का पूजा-स्थल क्यों नहीं होना चाहिए.स्थानीय प्रशासन ने भी थोडा ना-नुकुर के बाद मस्जिद के बगल में बौद्ध-विहार बनाने की अलिखित हामी भर दी.
बौद्ध-विहार निर्माणाधीन स्थल को डवलप करने के इरादे से वहां मैंने अशोक के पौधे लगाये.ट्री-गार्ड अरेंज किया बौद्ध-विहार स्थल मेरे क्वार्टर से करीब १०० मीटर की दूरी पर था.मैं रोज सबेरे ५-५ लीटर वाले प्लास्टिक के डिब्बों में क्वार्टर से पानी भर कर ले जाता ओर लगाए गए पौधों को पानी देता. यह मेरा सुबह-शाम का नित्य कर्म था.
बौद्ध-विहार स्थल के पीछे नाला लिए हुए कुछ उबड-खाबड़ जमीन थी. नाले के किनारे-किनारे उबड-खाबड़ जमीन पर उन मजदूरों के झोपड़-पट्टे थे,जो पावर-हॉउस में मजदूरी करते थे.ये मजदूर आस पास के गाँव-देहातों से काम की तलाश में आते हैं ओर इस तरह के झोपड़-पट्टे बना कर गुजर-बसर करते हैं.पावर-हॉउस में अनन्य कार्य ठेकेदारों के मार्फ़त कराये जाते हैं.ये मजदूर ठेकेदारों के अंडर में ही काम करते हैं.मजदूर तो ठेकेदारों के अंडर में काम करते हैं किन्तु उनकी औरते ओर बच्चें, कालोनी के क्वार्टरों में झाड़ू-पोछा कर अपने आदमी के दो जून की कमाई में हाथ बटाते हैं.आखिर,ठेकेदार उनको मजदूरी देता कितना है ? जो बच्चें बहुत छोटे हैं वे झोपड़-पट्टों के आस-पास खेलते रहते हैं.बौद्ध-विहार स्थल में लगाये अशोक के पौधों को सुबह-शाम पानी देने के दौरान मेरा सामना इन बच्चों से होता था.मैं उनसे बतियाता, ओर इंटरेक्ट करने की कोशिस करता था. इंटरेक्ट करने के दौरान मालूम हुआ की ये बच्चें स्कूल नहीं जाते हैं,यद्यपि स्कूल जाने की उम्र मैं कईयों की देख रहा था.शाम को इन बच्चों की माताएं जो क्वार्टरों से झाड़ू-पोछा कर लौट रही थी, मैंने जानना चाहा तो बड़ी लाचारी से वे बताने लगी की तब, झाड़ू-पोछा कौन करेगा ? मैं अवाक्-सा उन्हें देखता रह गया. मैं समझ गया की उन में शिक्षा के प्रति सामाजिक-चेतना की कमी है.सरकार ने मुप्त शिक्षा के साथ खिचड़ी-दलिया का बंदोबस्त तो स्कूलों में कर दिया मगर, उन में शिक्षा के प्रति सामाजिक चेतना नहीं जगा सकी.वर्ना क्या कारण है कि ये बच्चें स्कूल नहीं जा रहे हैं ?
मैंने इसी दौरान झोपड़-पट्टे की जिंदगी को बड़े नजदीक से देखा.इस झोपड़-पट्टे में अधिकांश गोंड, बैगा, रैदास आदि दलित-आदिवासी समाज के लेबर थे जो डिन्डोरी-मंडला क्षेत्र से मजदूरी करने आये थे.
बौद्ध-विहार निर्माणाधीन स्थल को डवलप करने के इरादे से वहां मैंने अशोक के पौधे लगाये.ट्री-गार्ड अरेंज किया बौद्ध-विहार स्थल मेरे क्वार्टर से करीब १०० मीटर की दूरी पर था.मैं रोज सबेरे ५-५ लीटर वाले प्लास्टिक के डिब्बों में क्वार्टर से पानी भर कर ले जाता ओर लगाए गए पौधों को पानी देता. यह मेरा सुबह-शाम का नित्य कर्म था.
बौद्ध-विहार स्थल के पीछे नाला लिए हुए कुछ उबड-खाबड़ जमीन थी. नाले के किनारे-किनारे उबड-खाबड़ जमीन पर उन मजदूरों के झोपड़-पट्टे थे,जो पावर-हॉउस में मजदूरी करते थे.ये मजदूर आस पास के गाँव-देहातों से काम की तलाश में आते हैं ओर इस तरह के झोपड़-पट्टे बना कर गुजर-बसर करते हैं.पावर-हॉउस में अनन्य कार्य ठेकेदारों के मार्फ़त कराये जाते हैं.ये मजदूर ठेकेदारों के अंडर में ही काम करते हैं.मजदूर तो ठेकेदारों के अंडर में काम करते हैं किन्तु उनकी औरते ओर बच्चें, कालोनी के क्वार्टरों में झाड़ू-पोछा कर अपने आदमी के दो जून की कमाई में हाथ बटाते हैं.आखिर,ठेकेदार उनको मजदूरी देता कितना है ? जो बच्चें बहुत छोटे हैं वे झोपड़-पट्टों के आस-पास खेलते रहते हैं.बौद्ध-विहार स्थल में लगाये अशोक के पौधों को सुबह-शाम पानी देने के दौरान मेरा सामना इन बच्चों से होता था.मैं उनसे बतियाता, ओर इंटरेक्ट करने की कोशिस करता था. इंटरेक्ट करने के दौरान मालूम हुआ की ये बच्चें स्कूल नहीं जाते हैं,यद्यपि स्कूल जाने की उम्र मैं कईयों की देख रहा था.शाम को इन बच्चों की माताएं जो क्वार्टरों से झाड़ू-पोछा कर लौट रही थी, मैंने जानना चाहा तो बड़ी लाचारी से वे बताने लगी की तब, झाड़ू-पोछा कौन करेगा ? मैं अवाक्-सा उन्हें देखता रह गया. मैं समझ गया की उन में शिक्षा के प्रति सामाजिक-चेतना की कमी है.सरकार ने मुप्त शिक्षा के साथ खिचड़ी-दलिया का बंदोबस्त तो स्कूलों में कर दिया मगर, उन में शिक्षा के प्रति सामाजिक चेतना नहीं जगा सकी.वर्ना क्या कारण है कि ये बच्चें स्कूल नहीं जा रहे हैं ?
मैंने इस दिशा में कुछ करनें की ठानी.शाम को मैंने उन बच्चों को आस-पास बैठाल कर कुछ हल्की-फुलकी बातें करना शुरू किया. ऐसा करीब 10-15 दिन तक किया. मुझे लगा की बच्चें घुल-मिल गए हैं. मुझे अंजान नहीं समझ रहे हैं.एक दिन मैंने 40-50 स्लेट-कलम लाया और बच्चों को पकड़ा दिया. मैंने उन से कहा की वे जो चाहे, कलम से स्लेट में बनाये. बच्चों ने आड़ा-टेढ़ा कुछ भी बनाया. मैं काफी देर तक हंसता रहा. मुझे लगा की बात बनेगी. झोपड़-पट्टे के लेबर मेरा ये तमाशा बड़े आश्चर्य से देख रहे थे.उन्हें अजीब-सा लग रहा था कि कालोनी का एक साहब उनके बच्चों को पढ़ाने की कोशिश कर रहा है ! उस झोपड़-पट्टे में एक लेबर अम्बेडकरी-विचारधारा का था.उसका नाम गुलाबसिंह कुशराम था. उसे बड़ा अच्छा लगा. वह मुझ से प्रभावित होने लगा.वह देर तक मेरे साथ बैठता और अम्बेडकरी मिशन की बातें करता. मुझे इससे ज्यादा और क्या चाहिए था ?
अगर आपका उद्देश्य पवित्र है ओर साथ में उद्देश्य के प्रति निष्ठा है तो कोई कारण नहीं कि आपको सफलता न मिले.बच्चों को अ आ इ ई और गिनती पढ़ाना शुरू हो गया.झोपड़- पट्टे के और भी लेबर मेरे कार्य से प्रभावित होने लगे. वे बच्चों को हिदायत देने लगे कि मैं जो पढ़ा रहा हूँ, उसका फायदा उठाए.कम-से कम अक्षर ज्ञान तो हो ही जायेगा. मौसम जब बदलने लगा तो रामस्वरूपसिंह सैयाम नाम के एक लेबर ने अपनी झोपड़ी आफर की बच्चों की क्लास लगाने.रामस्वरुपसिंह सैयामजी कारपेंटर का कार्य करते थे. कालोनी में छोटे-मोटे कारपेंटरी के कार्य की कमी नहीं होती. यही कारण है की सैयाम की हालत दूसरों की बनिस्पत ठीक थी.मैंने इसी दौरान झोपड़-पट्टे की जिंदगी को बड़े नजदीक से देखा.इस झोपड़-पट्टे में अधिकांश गोंड, बैगा, रैदास आदि दलित-आदिवासी समाज के लेबर थे जो डिन्डोरी-मंडला क्षेत्र से मजदूरी करने आये थे.
हमारे यहाँ पावर-हॉउस या इस तरह के प्रोजेक्ट तो लग जाते हैं मगर उन में काम करने के लिए मजदूर इसी तरह गाँव-देहात से आते हैं.पावर-हॉउस में जो स्टाफ डेपुट किया जाता है, वह लेबर का काम नहीं करता है. स्टाफ, पावर-हॉउस के संचालन-संधारण कार्यों का सुपरविजन करता है.वास्तव में, लेबर का काम तो इन मजदूरों से ठेकेदारों के मार्फत कराया जाता है.मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी में ठेकेदार का हिस्सा होता है.इसी हिस्से से ठेकेदार बिल पास करता है,ठेका पाता है.
झोपड़-पट्टे में मजदूर कैसे रहते हैं,उनकी जिंदगी कैसी होती है, इसका नंगा चित्रण फिल्मों ओर कई उपन्यासों में हो चूका है,जिसका हेतु यह लेख नहीं है.
खैर, स्कूल चल पड़ा.मगर, इसके साथ ही मेरी परेशानी बढ गई. मुझे आराम बिलकुल ही नहीं मिल पा रहा था.मैंने इसका हल निकाला. गुलाबसिंह कुशराम को बच्चों को सम्भालने के लिए तैयार किया,यद्यपि उस पर मुझे काफी कुछ वर्क करना पड़ा.स्कूल चलता देख बगल के गाँव के आदिवासी समाज की एक समाज सेवी सामने आयी.वह भी बच्चों को सम्भालने लगी. जल्दी ही मैंने रिलाइज किया कि इन गरीबों को मुप्त में एंगेज नहीं किया जा सकता.अत: मैंने उन्हें कुछ पारिश्रमिक देने का बंदोबस्त किया. मेरा यह कार्य कालोनी के आफिसरों की नजरों में आने लगा. वे मुझे निहारते, कुछ ठिठकते ओर चले जाते.धीरे-धीरे मुझे शाबासी मिलने लगी.कुछ मेरे अन्तरंग मित्र फायनेंसियल सपोर्ट की बात करने लगे.
अब,बच्चे नियमित आने लगे थे.. कुछ तो आस-पास के गाँव-देहातों से भी आने लगे. बच्चों से फ़ीस नहीं ली जा रही थी.दूसरे, पढ़ाने वाले टीचर उसी झोपड़-पट्टे के थे.बच्चों को टीचर उसी लहजे में समझा रहे थे जिसके की वे अभ्यस्त थे.जल्दी ही मुझे लगा कि स्कूल चल पड़ा है.क्लासेस लगाने के लिए टेम्पररी शेड बनाना होगा. मैंने इस बाबद अपने मित्रों से बात की.जी आई सीट्स की व्यवस्था हो गई.गुलाबसिंह कुशराम को मैंने शेड की आवश्यकता बतलाई . झोपड़-पट्टे के मजदूरों के बीच मीटिंग बुलाई गई.मैंने प्रस्ताव रखा कि जिस तरह वे अपना झोपड़ा बनाते हैं,उसी तरह का शारीरिक सहयोग कर उन्हें स्कूल के लिए एक शेड बनाना है.कुछ ही दिनों में स्कूल का शेड तैयार हो गया.
इधर, मैं काफी उदिग्न रहने लगा. परेशानी का सबब था, स्कूल के टीचर जो व्यवस्थित नहीं थे. जब तक मैं वहां रहता, व्यवस्था बनी रहती किन्तु जैसे ही मैं वहां से हटता, व्यवस्था गड़बड़ा जाती.मेरी उदिग्नता से पत्नी वाकिफ होने लगी. जल्दी ही उसने इसका हल निकाला.एक दिन जब पावर हॉउस से ड्यूटी कर बौद्ध विहार होते हुए आ रहा था, देखा बौद्ध विहार स्थल पर मेडम बच्चों को पढ़ा रही है ! एक क्लास वन आफिसर की बीबी का मुप्त में झोपड़-पट्टों के बच्चों को पढ़ाना मायने रखता है.मेरी छोटी बिटिया प्रेरणा,जो इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रही थी,जब भी छुट्टी के दिनों में घर आती,कभी अकेले और कभी अपनी मम्मी के साथ बच्चों को पढ़ाने में मदद करती थी.
खैर, स्कूल चल पड़ा.मगर, इसके साथ ही मेरी परेशानी बढ गई. मुझे आराम बिलकुल ही नहीं मिल पा रहा था.मैंने इसका हल निकाला. गुलाबसिंह कुशराम को बच्चों को सम्भालने के लिए तैयार किया,यद्यपि उस पर मुझे काफी कुछ वर्क करना पड़ा.स्कूल चलता देख बगल के गाँव के आदिवासी समाज की एक समाज सेवी सामने आयी.वह भी बच्चों को सम्भालने लगी. जल्दी ही मैंने रिलाइज किया कि इन गरीबों को मुप्त में एंगेज नहीं किया जा सकता.अत: मैंने उन्हें कुछ पारिश्रमिक देने का बंदोबस्त किया. मेरा यह कार्य कालोनी के आफिसरों की नजरों में आने लगा. वे मुझे निहारते, कुछ ठिठकते ओर चले जाते.धीरे-धीरे मुझे शाबासी मिलने लगी.कुछ मेरे अन्तरंग मित्र फायनेंसियल सपोर्ट की बात करने लगे.
अब,बच्चे नियमित आने लगे थे.. कुछ तो आस-पास के गाँव-देहातों से भी आने लगे. बच्चों से फ़ीस नहीं ली जा रही थी.दूसरे, पढ़ाने वाले टीचर उसी झोपड़-पट्टे के थे.बच्चों को टीचर उसी लहजे में समझा रहे थे जिसके की वे अभ्यस्त थे.जल्दी ही मुझे लगा कि स्कूल चल पड़ा है.क्लासेस लगाने के लिए टेम्पररी शेड बनाना होगा. मैंने इस बाबद अपने मित्रों से बात की.जी आई सीट्स की व्यवस्था हो गई.गुलाबसिंह कुशराम को मैंने शेड की आवश्यकता बतलाई . झोपड़-पट्टे के मजदूरों के बीच मीटिंग बुलाई गई.मैंने प्रस्ताव रखा कि जिस तरह वे अपना झोपड़ा बनाते हैं,उसी तरह का शारीरिक सहयोग कर उन्हें स्कूल के लिए एक शेड बनाना है.कुछ ही दिनों में स्कूल का शेड तैयार हो गया.
इधर, मैं काफी उदिग्न रहने लगा. परेशानी का सबब था, स्कूल के टीचर जो व्यवस्थित नहीं थे. जब तक मैं वहां रहता, व्यवस्था बनी रहती किन्तु जैसे ही मैं वहां से हटता, व्यवस्था गड़बड़ा जाती.मेरी उदिग्नता से पत्नी वाकिफ होने लगी. जल्दी ही उसने इसका हल निकाला.एक दिन जब पावर हॉउस से ड्यूटी कर बौद्ध विहार होते हुए आ रहा था, देखा बौद्ध विहार स्थल पर मेडम बच्चों को पढ़ा रही है ! एक क्लास वन आफिसर की बीबी का मुप्त में झोपड़-पट्टों के बच्चों को पढ़ाना मायने रखता है.मेरी छोटी बिटिया प्रेरणा,जो इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रही थी,जब भी छुट्टी के दिनों में घर आती,कभी अकेले और कभी अपनी मम्मी के साथ बच्चों को पढ़ाने में मदद करती थी.
स्कूल से सम्बन्धित मेरा चितन जारी था कि इसे किस तरह रेगुलर किया जाये. मेरी सोच थी की इसे किसी सिस्टम से कनेक्ट किया जाये ताकि बेकप के साथ-साथ इसे रिकागनाईजेशन (पहचान ) मिले और अगरचे, मेरा स्थानांतरण हो गया तब भी स्कूल चलता रहे. लिटरेचर खंगालने के दौरान मुझे 'पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी' की याद आयी. मुझे ध्यान था की इसे बाबा साहेब डा. आम्बेडकर ने स्थापित किया था.पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी के तहत महाराष्ट्र में कई स्कूल और कालेज संचालित हैं, यह मेरी जानकारी में था. .मैंने पत्र-व्यवहार किया.पत्रोत्तर में बताया गया कि पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी का कार्य-क्षेत्र सिर्फ महाराष्ट्र है.
आर एस एस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मन्दिर स्कूलों के सिस्टम से मैं परिचित था. स्कूलों के इस नेट वर्क को 'विद्या भारती' नामक एक केन्द्रीय संस्था चलाती है.चूँकि, दलित हितों के लिए यह संस्था कार्यरत नहीं है इसलिए मैं इससे जुडाव महसूस नहीं करता. बल्कि, दलित हितों को कुचलने का इन स्कूलों में पाठ पढाया जाता है.तो भी आर एस एस द्वारा संचालित इस नेट वर्क से मैं खासा प्रभावित हूँ कि कैसे वे एक लम्बी प्लानिंग के तहत सुनोयाजित ढंग से हिन्दू-सांस्कृतिक मूल्यों का पाठ बच्चों को शुरू से पढ़ाते हैं.क्रिचियनों का अपना नेट वर्क है. मुस्लिमों में मदरसों का नेट वर्क है. गुरुद्वारों में सिक्ख अपने स्कूल संचालित करते हैं.तब,दलित और आदिवासी भी तो एक सेपरेट आईडेनटीटी है, पृथक इथनिक ग्रुप है.तब इनके शिक्षा का पृथक नेट वर्क क्यों नहीं है ? मैं सतत इस उधेड़-बुन में रहता.
शासकीय सेवा के दौरान समय निकाल कर मैं उन कार्यक्रमों,अधिवेशनों में में जाने का प्रयास करता जिनका सम्बन्ध दलित-आदिवासियों के उत्थान से रहता. इसी तारतम्य में मुझे दतिया (म.प्र.) जाने का अवसर मिला. वहां पर बुद्धिस्ट सोसायटी आफ इण्डिया के प्रांतीय अध्यक्ष माखनलाल मौर्य ने प्रांतीय कार्य-कारिणी के सदस्यों की मीटिंग काल की थी.मैं बतौर प्रांतीय सदस्य शरीक हुआ था.मीटिंग स्थल के पास ही एक स्कूल था जिस में बच्चें सुबह की प्रेयर कर रहे थे-
जय भीम शोषितों के जन नायक,नमन तुम्हारा करते हैं
हम रहे सदा अज्ञान युगों से, दुःख की आहे भरते हैं
तुम जगे जगाया हम सबको, नव ज्योति मिली इस जीवन को
हे युग नायक, हे जन नायक, ये जोश दिया जर जर तन को
उपदेश तुम्ही ने दिया हम को,मानव मानव सब एक किये
अज्ञान, अविद्या, ढोंग, रुढ़, पाखंड, अँधेरा दूर किये .जय भीम शोषितों के जन नायक.....
संस्कार और विचारों से बुद्धिस्ट-आम्बेद्कराईट होने से मुझे अच्छा लगा. मीटिंग के बाद मैंने दरयाफ्त की. मुझे बताया गया कि यह परिवर्तन मिशन स्कूल है. इन स्कूलों में पढाई का पेटर्न भिन्न है. यहाँ पर ए सी 1 / ए सी 2 में बच्चों को A for Ambedkar, B for Buddha पढाया जाता है. मुझे बताया गया कि वहां पर 5th तक स्कूल है. मैंने पूछा की क्या और भी इस तरह के स्कूल हैं ? स्कूल के टीचर ने बतलाया की डा. आनंद इस तरह के स्कूल देश भर में संचालित करते हैं.वर्तमान में ये स्कूल, मिडिल और हाई स्कूल स्तर तक संचालित हो रहें हैं.मैंने आवश्यक बातें नोट की. पढाई जाने वाली पाढ्य पुस्तक की एक प्रति मांगने पर बड़े अनुनय-विनय के बाद टीचर ने उपलब्ध कराई.
दतिया से लौटते से ही मैंने डा आनंद से पत्र-व्यव्हार किया. मगर डा साहब से मुझे कोई पत्रोत्तर नहीं मिला. मेरे सतत ३-४ पत्रों के बाद अंतत: डा साहब ने मुझे रिप्लाय किया. डा साहब ने लिखा की वे मेरे कार्य के प्रति गम्भीरता को परख रहे थे.विचारों के आदान-प्रदान का सिलसिला जारी रहा और अंतत: डा साहब ने अपने परिवर्तन मिशन स्कूलों के नेट वर्क से एफ़ीलेशन हेतु आवश्यक औपचारिकताएँ पूर्ण करने के निर्देश दिए.
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