आजकल नौकरी और बिजनेश के सिलसिले में कहीं भी रहना पड़ता हैं.किराये का क्वार्टर लेने या मकान बनाने के दौरान इस बात की कतई परवाह नहीं होती कि पास-पड़ोस में अपने समाज के लोग रहते भी हैं या नहीं .बल्कि,इस तरह की सोच रखना एक तरह से जाहिली और मुर्खता की बात समझते हैं. परन्तु सामाजिक/धार्मिक फंक्शन और संस्कार जो घर के आस-पास आये दिन होते हैं, में हमें मजबूरन शामिल होना पड़ता है. आप नहीं गए तो बच्चें तो जाते ही हैं.और इस तरह वे धार्मिक संस्कार न चाहते हुए भी आपकी पारिवारिक और सामाजिक संस्कृति का हिस्सा बनने लगते हैं.ये दो भिन्न समुदायों का सांस्कृतिक-करण सामाजिक समरसता के लिए तो ठीक है मगर, अगर आप किसी सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षरत है, तो इससे आपके कराये-धराये पर पानी पड़ सकता है.
एक मेरे साथी है.उन्होंने एक लम्बे समय से सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुत कछ किया है,काफी कुछ खोया है.भाई साहब का स्थानांतरण दूसरी जगह हुआ. वहां आस-पास पूजा-पाठ होती थी.कभी दुर्गा-पूजा तो कभी गणपति- पूजा. एक दिन उनके यहाँ मैडम बताने लगी- हमारे यहाँ का बब्लू कहने लगा कि मम्मी; हम भी गणेश जी अपने यहाँ रखेंगे ? अब मैडम प्रश्न-वाचक दृष्टी से मेरी ओर देखने लगी !
लोगों को कुछ-न-कुछ चाहिए ही पूजा-पाठ करने के लिए.धर्म के ठेकेदारों ने सिस्टम ऐसा बनाया ही है कि लोगों को साँस लेने कि फुर्सत न हो.मंदिरों का नेट-वर्क और तीज-त्यौहार एक-दूसरे से इतने लगे-लगाए रहते हैं कि एक उपवास महिलाओं का ख़तम हुआ ही नहीं कि दूसरा शुरू हो जाता है.समाज के ठेकेदार जानते हैं कि अगर आपने लोगों को बीजी नहीं रखा तो वे उनकी दैनिक जरूरतों के लिए आपका जीना हराम कर देंगे.
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