Friday, April 2, 2021

चीनी धम्मपद: ताराराम

 धम्मपद 

धम्मपद पहला वग्ग : अनित्यता (Impermanency)

1. इसकी पहली गाथा/कथा शक्र से संबंधित है। ब्राह्मणी साहित्य में शक्र की तुलना ब्रह्मा से की जाती है, हालांकि कईं कारणों से ये दोनों एक-ही चरित्र नहीं है।  कईं प्रसंगों में शक्र को इंद्र का समतुल्य मानकर शक्र का अनुदित रूप इंद्र भी  किया जाता है। जो भी हो।

      इस पहली गाथा में कहा यह गया कि एक बार शक्र ने कुम्हार के घर में गधे की योनि में जन्म लिया... ---गर्भाधान के समय गधी बड़ी प्रसन्न हुई और उसने लातों से कुम्हार के सब बर्तन तोड़-फोड़ दिए ------कुम्हार ने उसे बहुत पीटा----इसका संधान करते हुए बुध्द ने कहा। कुछ भी स्थायी नहीं है, जो पैदा होता है, फलता-फूलता है, वह एक न एक दिन विनिष्ट होता है। मनुष्य जन्म लेता है और मर जाता है। इस से बचने की खुशी मिट्टी के बर्तनों की तरह ही है---! जिसे कुम्हार बड़ी मेहनत और तल्लीनता से बनाता है---अंत में नष्ट होना होता है।-----

2.

धम्मपद : अनित्यता वग्ग

   गाथा 2

            धम्मपद के अनित्यता वर्ग की दूसरी गाथा महाराजा प्रसेनजित से संबंधित है। महाराजा प्रसेनजित राजमाता की मृत्यु के बाद दाह-संस्कार से लौटते हुए भगवान बुद्ध से मिलते है। भगवान बुद्ध उस समय श्रावस्ती में विहार कर रहे होते है। कुशलक्षेम पूछने के बाद भगवान बुद्ध देसना देते है कि हे राजन! चार चीजे है, जो सनातन काल से अब तक मनुष्य को चिंताग्रस्त और भयग्रस्त किये हुए है। वे है; बुढ़ापे का भय, बीमारी का भय, मृत्यु का भय और मृत्यु पर दुखाप्त भय। मनुष्य का जीवन ऐसा और इतना ही अनित्य है, जितना हम अपने आसपास विनिष्ट होती चीजों को देखते है। आज वे फली-फूली दिखती है तो कल खत्म हुई दिखती है, जिस प्रकार हमेशा पंच-नद का पानी दिन-रात बहता हुआ दिखता है, उसी प्रकार यह जीवन है। जिस प्रकार से नदियों का पानी कितने ही उफान और बहाव के साथ बहता है, वह वापस नहीं बह सकता है, उसी प्रकार से मनुष्य के जीवन का बहाव है। जो बीत गया वह लौट कर वापस नहीं आ सकता है।-----

      भगवान बुद्ध द्वारा राजा को इसप्रकार देसना दिए जाने से राजा और उनके अनुचर व श्रोतागण विषाद से उभरे। जीवन की क्षण भंगुरता का उन्हें ज्ञान हुआ....

 

3.

धम्मपद : अनित्यता वग्ग

    गाथा 3

3. अनित्यता वग्ग की तीसरी गाथा राजगृह नगर से संबंधित है। किसी समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार कर रहे थे। ----वे नगर में देसना के बाद विहार में लौट रहे थे तो रास्ते नगर के द्वार पर जानवरो के एक झुंड को ले जाते हुए एक ग्वाला मिला, जिसके हाथ में एक लाठी यानी दंड था, जिसे ग्वाले अक्सर अपने पास रखते है और जानवरों को उससे हांकते, लाते- ले जाते है। 

          उस समय भगवान ने उसको प्रसंग/विषय बनाते हुए कहा कि जिस प्रकार से यह व्यक्ति/ग्वाला हाथ में दंड लेकर मवेशियों को पालता है और नियंत्रित करता है, घेरता है और चारागाह ले जाता है, उसी प्रकार से बुढापा और मृत्यु नष्ट हो रहे हमारे जीवन को घेरे रहते है; चाहे वह किसी भी वर्ग का आदमी हो या औरत, छोटा हो या बड़ा; धनवान हो या गरीब, अंत में उन्हें खत्म होना है और विलुप्त होना है। जिसने भी जन्म लिया है वह हर एक दिन - रात क्षरण को प्राप्त हो रहा है। जिस प्रकार से बांध से छिन छिन रिसता हुआ पानी एक दिन खत्म हो जाता है, उसी प्रकार से निरंतर रूप से जीवन का क्षरण हो रहा है।----

          इस प्रकार कहते हुए भगवान वेणुवन में पहुंचे। हाथ-पैर धोकर चीवर को ठीक करके भगवान जब अपने आसन पर बैठ गए तो आनंद उनके पास आया और भगवान से निवेदन किया कि भगवान ने जो गाथा कही है, उस को स्पष्ट रूप से समझाने की कृपा करें। .......

          इस अवसर पर भगवान ने उसे पुनः स्पष्ट करते हुए बताया कि जिस प्रकार से ग्वाला प्रतिदिन बैलों को चराने ले जाता है, उसे पालता है और हृष्टपुष्ट होने पर उसकी बलि दे दी जाती है अर्थात कत्ल कर लिया जाता है, जीवन की भी यही गति है। कुछ क्षणों के लिए जीवन निखरता है और फिर मृत्यु को प्राप्त होता है। ---

           इस अवसर पर उपस्थित दो सौ स्रोताओं ने अर्हत्व को प्राप्त किया।

          चाइनीज धम्मपद के अनित्यता वग्ग की यह गाथा पाली धम्मपद की गाथा क्रमांक 135 (दंडवग्ग की गाथा क्रमांक 7 ) से मिलती है। पालि धम्मपद की गाथा संख्या 135:  "यथा दण्डेन गोपालो, गावो पाचेति गोचरं। एवं जरा च मच्चु च, आयु पाजेंति पाणिनं।।"

 

धम्मपद : अनित्यता वर्ग

(प्रचलित पालि धम्मपद में अनित्यता वग्ग नहीं है। यह वग्ग चाइनीज धम्मपद में है, जिसका जिक्र धम्मपद पर मेरी कृति 'धम्मपद: गाथा और कथा' में किया है। मेरा ऐसा मानना है कि मूल धम्मपद में यह अध्याय जरूर रहा होगा, तभी चीन देश में उसका अनुवाद हुआ, परंतु समय के साथ-साथ धम्मपद के पाठ-भेद हो गए और जब सत चित आनंद का दर्शन फैलने लगा तो देश-काल के अनुसार प्रचलित पालि धम्मपद से कुछ वग्ग और गाथाएं निरसित कर ली गयी होगी। वर्तमान में जो पालि धम्मपद प्रचलित है, वह बाद का रूप है। 'धम्मपद:गाथा और कथा' प्रचलित पालि धम्मपद की गाथाओं का ही संपादन है।

       कुछ मित्रों, जिस में निर्वाण-प्राप्त शांतिस्वरूप बौद्ध भी थे, ने निवेदन किया था कि चाइनीज़ धम्मपद की उन गाथाओं का सार रूप भी अगर उपलब्ध हो जाये तो यह हिंदी जगत के लिए उपलब्धि होगी।

      लिहाजा, बील महोदय की चाइनीज़ धम्मपद की अंग्रेजी प्रति से उन गाथाओं के सार को यहां पर संक्षिप्त में रखने का यह लघु यत्न है। यह न तो सकल अनुवाद है और न ही स्वतंत्र लेखन। यह अंग्रेजी में उपलब्ध चाइनीज़ धम्मपद की उन गाथाओं का सार रूप ही है, जो पालि में अप्राप्य है। त्रुटि हेतु क्षमाप्रार्थी🙏)

धम्मपद: अनित्यता वर्ग

गाथा 4.

          चाइनीज धम्मपद के अनित्यता वग्ग की चौथी गाथा अनाथपिंडक से संबंधित है। बुद्ध-साहित्य में अनाथपिंडक के अवदान का कोई सानी नहीं है। श्रावस्ती में उसने भगवान के विहार हेतु स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर भूमि को खरीदकर उस पर भव्य जेतवन विहार का निर्माण कराया था। जिसके खंडहर आज भी उसकी वैभव-गाथा को संजोए हुए है।

          अनाथपिंडक के एक खूबसूरत पुत्री थी, जिसे वह बेहद प्यार करता था। लाडो-प्यार में पली यह पुत्री चौदह-पंद्रह वर्ष की वय आते ही काल-कवलित हो गयी। उसके निधन से अनाथपिंडक बहुत ही विक्षुब्ध हो गया और घोर विषाद को प्राप्त हुआ।  किसी अवसर पर भगवान बुद्ध श्रावस्ती पधारे और जेतवन विहार में विहार कर थे। अनाथपिंडक वहां जाता है।------

          ----------भगवान बुद्ध उसे जीवन की अनित्यता का उपदेश देते है, जिससे उसका विषाद दूर हो जाता है---भगवान उपदिष्ट करते है कि जो कुछ स्थायी दिखायी देता है, वह स्थायी नहीं है। एक न एक दिन उसे विनिष्ट होना होता है। जो ऊंचा है वह भी एक दिन नीचे आ जाता है। जहां उन्नति है, वहां अवनति भी होती है। जो साझा है, उस में विभाजन है। जहाँ जन्म होता है, वहाँ मृत्यु भी होगी। -----

           भगवान के मुखारविंद से इस प्रकार की देसना सुनकर अनाथपिंडक को ज्ञान हो गया और उसका विषाद दूर हो गया----!

गाथा 5.

          अनित्यता वग्ग की पांचवी गाथा राजगृह की है। भगवान बुद्ध गृद्धकूट पर विहार कर रहे होते है। राजगृह में पुंडरी नाम की एक बेहद खूबसूरत सुंदरी होती है। उसके सौंदर्य की शोभा और शालीनता की सानी अन्य किसी से नहीं की जा सकती है। वह---वह अनिंद्य सुंदरी अपने जीवन से उकता जाती है-----वह भगवान बुद्ध के संघ में शामिल होने के लिए व भिख्खूणी बनने के लिए भगवान बुद्ध जहां विहार कर रहे होते है, उधर चल पड़ती है।-----

          .... वह पहाड़ की आधी चढ़ाई चढ़ती है तो उसे वहां पोखर दिखता है। पानी पीने के लिए वह थोड़ी देर के लिए उस पोखर पर रुकती है। वह ज्योहीं तालाब के पानी को हाथों में लेकर ऊपर उठाती है, त्यों ही उसको अपनी छवि तालाब में दिखती है। अपने मुंह तक हाथों में लिए हुए पानी को पीने को उद्यत पुंडरी जब अपनी छवि को देखती है तो उसको निहारने लग जाती है। वह अपने रूप-वैभव को देखकर----उसका मन बदल जाता है। उसकी अद्वितीय सुंदरता, अप्रतिम रंग-रूप, सुनहरे केश और लचकता शरीर----! वह उस में खो जाती है। उसके मन में विचारों का तूफान खड़ा हो जाता है। वह सोचती है कि क्या उस जैसी अनिंद्य सुंदरी को संसार त्याग करके वैरागी बनना चाहिए?----! क्या यह रूप इसीलिए है---नहीं! ----उसे रूप-वैभव का आनंदोपभोग करना चाहिए---उसे वैरागी नहीं होना---।---ऐसा सोचते हुए वह वापस जाने के लिए उद्यत होती है। वह अपने घर की ओर रवाना होती है।

          उस समय भगवान बुद्ध इन सब परिस्थितियों को देख रहे होते है। ---वे पुंडरी के मन में उठ रहे विचारों के तूफान को जान जाते है।--- भगवान सर्वज्ञ है। उन्हें पुंडरी के मन का हाल मालूम होता है।----भगवान करुणाशील है---! --पुंडरी को उससे भी बेहतर नारी के रूप में रूपांतरित करने का अवसर है---! पुंडरी के सामने उससे भी सुंदर एक रूपकाय उपस्थित होता है।

          उस सुंदर रूपकाय को देखकर पुंडरी सवाल करती है कि ----आप कहाँ से हो?---कहाँ जा रही हो---अति सुंदर---बिना किसी अनुचर के यों अकेले ही कैसी?-----उनमें वार्तालाप होता है। वह रूपकाय बोलती है कि वह अपने नगर से आ रही है---हालांकि हम एक दूसरे को नहीं जानती है, फिर हमसफ़र हो लें------!

          सभी साथ चल पड़ते है। रास्ते में एक झरना पड़ता है। वहां रुक जाते है।-----सभी विश्राम करते है। वह सुंदरी पुंडरी के सामने लेट जाती है। उसे नींद आ जाती है।----पुंडरी देखती है कि उस सुंदरी की सुंदर काया धीरे धीरे करके लाश में बदल जाती है...उसका अंग-प्रत्यंग उसे ढीला पड़ा हुआ नजर आया---बाल सफेद---दांत गिरते हुए---उस रूपकाया पर मक्खियां भिनभिनाने लगी----पुंडरी सिहर उठी---भयभीत हो गयी---वहां से भाग गई---उसने देखा कि यह अनिंद्य सुंदरी भी मृत्यु को प्राप्त हुई---जवानी गयी। रूप गया----- वह भागी-भागी ---बुद्ध की ओर चल पड़ी--!

          भगवान बुद्ध जहाँ विहार कर रहे थे,  जल्दी-जल्दी उसके कदम उस ओर बढ़ चले।---- महाकारुणिक के चरणों में गिर पड़ी। उसने जो कुछ देखा---, उस सब को भगवान को बताया। भगवान शांत थे। स्थिर थे----वे बोले कि हे पुंडरी! चार चीजे है, जो विषाद और असंतोष पैदा करती है, जो दुख और संताप का कारण होती है--- कोई कितना ही सुंदर हो, उसे एक न एक दिन बुड्ढा होना होता है, कोई कितना ही मजबूती से स्थिर हो उसका मरना निश्चित है, कोई कितने ही घनिष्ट स्नेह और संबंधों से बंधा हो, उसे बिछुड़ना होता है और कोई कितनी ही अकूत धन-संपत्ति को जोड़ दे, एक न एक दिन उससे हाथ धोना पड़ता है। अकूत संपत्ति भी खत्म हो जाती है----!

          बुढापा सभी प्रकार के आकर्षण को खत्म कर देता है----छिन-छिन व्याप्त भंगुरता और बीमारी ----शरीर झुक जाता है, शरीर का मांस लटक जाता है---यह शरीर का अंत है।---ऐसे शरीर का क्या फायदा----! यह बीमारी, बुढ़ापे और मृत्यु का कारागार है!------इस में आनंद --- लालसा----सब---! मनुष्य जीवन के परिवर्तन को भूलना---मनुष्य जीवन की नासमझी है---!

          भगवान के द्वारा ऐसा उपदेश दिए जाने पर पुंडरी ने जीवन की निस्सारता का साक्षात्कार कर लिया, उसकी आंखें खुल गयी, उसको सत्य का साक्षात्कार हो गया। --फूल-सा सुंदर शरीर ---उसे निस्सार लगा----उसने भगवान से भिक्षुणी बनने की आज्ञा मांगी।---- उसे दीक्षा दी गयी। ---वह भिक्षुणी संघ में शरीक हो गयी और अर्हत्व को प्राप्त किया। अर्हत्व प्राप्ति है----!

6.

धम्मपद: अनित्यता वर्ग


धम्मपद : अनित्यता वर्ग

      प्रचलित पालि धम्मपद में अनित्यता का अध्याय नहीं है। यह वग्ग चाइनीज धम्मपद में है, जिसका जिक्र धम्मपद पर मेरी कृति 'धम्मपद: गाथा और कथा' में किया है। मेरा ऐसा मानना है कि मूल धम्मपद में यह अध्याय जरूर रहा होगा, तभी चीन देश में उसका अनुवाद हुआ, परंतु समय के साथ-साथ धम्मपद के पाठ-भेद हो गए और जब 'सत-चित-आनंद' का दर्शन फैलने लगा तो देश-काल के अनुसार प्रचलित पालि धम्मपद से कुछ वग्ग और गाथाएं निरसित कर ली गयी होगी। वर्तमान में जो पालि धम्मपद प्रचलित है, वह बाद का रूप है। मेरी पूर्व रचना 'धम्मपद:गाथा और कथा' पुस्तक में प्रचलित पालि धम्मपद की गाथाओं का ही संपादन है। 

      पालि में प्रचलित धम्मपद का रचनाकार बुद्धघोष को माना जाता है, जबकि चीन में धम्मपद की जो सबसे प्राचीन प्रति मिलती है, उसका रचियता भदंत धर्मत्राता को माना जाता है। धर्मत्राता सम्राट कनिष्क के समय सम्पन्न हुई चौथी संगीति के अध्यक्ष रहे वसुमित्र के चाचा थे। महाराजा कनिष्क का समय ईसा पूर्व पहली शताब्दी है। इस तथ्य से यह प्रमाणित है कि चीन में उपलब्ध धम्मपद सबसे प्राचीन रचना है। वह ईसा पूर्व की रचना है और बुद्धघोष की रचना ईसा की चौथी शताब्दी की ठहरती है। जो भी हो, चीन में भी इसके चार से अधिक प्राचीन संस्करण मिलते है। जिसकी जानकारी हमें विभिन्न स्रोतों से मिलती है।

       धम्मपद: गाथा और कथा (सम्यक प्रकाशन) की भूमिका में मैंने धम्मपद के कुछ प्राचीन और विशिष्ट संस्करणों का जिक्र किया है। सबसे प्राचीन या पहला संस्करण 'फ़ा-ख्यो-किंग' नाम से प्रचलित है। दूसरा फ़ा-ख़यु-पि-यु कहलाता है। जिसका सैम्युअल बील महोदय ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। 'पि-यु' नामक संस्करण में फ़ा ख़यु किंग संस्करण की सभी गाथाएं नहीं है, बल्कि प्रत्येक अध्याय की कुछ प्रतिनिधि गाथाएं ही उस में संकलित की गई है और उसकी अर्थकथायें दी गयी है। बील महोदय ने उसी का मुक्तहस्त अनुवाद किया है अर्थात अंग्रेजी में हमें जो अनुवाद मिलता है वह भी 'पि-यु' कृति का सकल अनुवाद नहीं मिलता है। सैम्युअल बील के अनुवाद से अनित्यता वर्ग की गाथाओं का यहां सार दिया गया है।

       अनित्यता वर्ग की ये प्रतिनिधि गाथाएं है। इस वर्ग में इसी प्रकार की अन्य गाथाएं भी है, जो चीनी भाषा में उपलब्ध होती है, परंतु किसी अन्य भाषा में भी हो, इसकी जानकारी हमें नहीं है। इन प्रतिनिधि गाथाओं से यह ठीक ठीक पता लग जाता है कि बुद्ध के दर्शन में अनिच्चा का कितना अधिक महत्व रहा है। यह इस बात से और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि चीनी धम्मपद में पहला वर्ग या अध्याय ही अनित्यता पर है। अनिच्चा, अनत्ता और दुख, ये बौद्ध धर्म के तीन महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिन पर बुद्ध का पूरा दर्शन खड़ा है।

       बील महोदय ने अनित्यता वर्ग की 6 प्रतिनिधि गाथाओं को अंग्रेजी में दिया है। जिस में 1 से 5 का सार पहले प्रस्तुत कर दिया था। गाथा संख्या 6 का सार नीचे दिया जा रहा है।

       

       धम्मपद का अनित्यता वर्ग

अनित्यता गाथा 6

        6. चाइनीज़ धम्मपद के अनित्यता वर्ग की 6ठी गाथा राजगृह में उपदिष्ट की गई है। जिस समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणुवन में धम्म-प्रविचय कर रहे थे, उस समय एक परिव्राजक अपने तीन भाइयों के साथ साधना कर रहा था। वे परिव्राजक  साधना की कुछ सीढियां पार कर चुके थे। उन्हें यह साक्षात्कार हुआ कि 7 दिनों के अनंतर उनकी मृत्यु होने वाली है। उन्हें ऐसा आभाष होने पर एक बोला कि हम अपने अध्यात्म बल से स्वर्ग और पृथ्वी को उलट सकते है। सूरज और चन्द्रमा को छू सकते है। पर्वतों को फेर सकते है। बहती हुई नदियों को रोक सकते है, फिर भी हम मौत को वश में नहीं कर सकते है। उनमें से एक बोला कि मैं इस दानव को समुद्र की गहराई में तलाश करूंगा और इसे नष्ट कर दूंगा। दूसरा बोला कि वह इस दानव को सुमेरु पर्वत की चोटी पर चढ़कर ढूंढेगा और उसे विनिष्ट कर देगा। तीसरा बोला कि वह अंतरिक्ष में दूर-दूर तक इस दानव को ढूंढ निकलेगा और उसे मार गिरायेगा। चौथा बोला कि मैं इस दानव को पृथ्वी के रसातल तक खोजूंगा और उसे विनष्ट कर दूंगा।

            जब राजा के कानों तक ये बातें पहुंची तो राजा इन बातों की सच्चाई जानने के लिए भगवान बुद्ध के पास गया। उस समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार कर रहे थे। कुशलक्षेम के बाद राजा ने अपनी शंका भगवान बुद्ध से पूछी। उस समय भगवान बुद्ध ने कहा कि हे राजन! जब तक हम संसार में है तब तक हम इन चार चीजों से नहीं बच सकते है: पहला, इस या उस रूप में जन्म लेना हमारे लिए संभव नही है अर्थात हमारे हाथ में नहीं है। दूसरा, अगर जन्म ले लिया तो बुढ़ापे से बचना असंभव है। तीसरा, बुढ़ापे में दुर्बलता और रोग से बचना असंभव है और चौथा, इन परिस्थितियों में मृत्यु से बचना असंभव है।

            ऐसी देशना देते हुए भगवान ने गाथा कही कि 'न आकाश में, न समुद्र के मध्य में, न पर्वतों के विवर में प्रवेश करके और न ही कोई ऐसा अन्य स्थान है जहाँ जाकर मृत्यु से बचा जा सके।-----

            न अंतलिखे न समुद्दमज्झे, न पब्बतानं विवरं पवस्सी। 

            न विज्जति सो जगतिप्पदेसो,यत्थट्ठितं नप्पसहेय्य मच्चु।।

            -----ऐसा उपदेश देते हुए भगवां ने आगे कहा कि -----इसप्रकार से जानता हुआ मार्गारुढ़ भिक्षु ही मार की सेना को परास्त कर सकता है और जन्म व मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकता है।

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