समाज में ऐसी महिलाएं कम ही होती है जो अपने पति के सामाजिक कार्यों में कंधे से कन्धा मिला कर साथ चलती है.इतिहास के विद्यार्थी जब ऐसी महिलाओं पर रिसर्च करेंगे तो क्रांतिज्योत सावित्रीबाई फुले को वे अपनी तमाम जातीय-हितों के पूर्वाग्रहों के बावजूद नजरअंदाज नहीं कर पाएंगे.सावित्रीबाई फुले एक ऐसा नाम है कि वह उनके दिल-दिमाग में अवश्य क्रांतिज्योत जगायेगा.
सामाजिक आंदोलनों के इतिहास में सावित्रीबाई तब फलक पर आती है, जब ब्रिटिश भारत में समाज के निचले तबके के साथ हिन्दुओं के अत्याचार बदस्तूर जारी हैं. अंग्रेजों से अपेक्षा थी की वे हिन्दुओं के अत्याचारों पर ब्रेक लगाते. मगर, अंग्रेजों ने इस पचड़े में पड़ना ठीक नहीं समझा था. ब्रिटिश-शासन, हिन्दू उच्च जातियों के दबदबे के कारण ज्यादा कुछ करने के भी हक़ में नहीं था.आखिर, अंग्रेज यहाँ समाज-सुधार करने तो आये नहीं थे ? फिर भी, देश की दबी-पिछड़ी जातियां अपने अधिकारों की आवाज उठा रही थी.
पूना शहर उस समय सनातनी हिन्दुओं का गढ़ माना जाता था. यह वही हिन्दुओं की संस्कारधानी है, जहाँ पेशवाओं के शासन-काल में अस्पृश्यों को सडकों पर चलते समय मुंह के सामने मिटटी का मटका और कमर में झाड़ू लटकाना पड़ता था कि वह थूके तो जमीन पर न गिरे और जिस पर अनजाने में किसी सवर्ण हिन्दू का पैर पड़ने पर वह अपवित्र न हो जाये.
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जन. 1831 को महाराष्ट्र में सतारा जिले के नायगावं में माली समाज के परिवार में हुआ था.इनके पिता का नाम खंडोजी नेवसे पाटिल और माँ का नाम लक्ष्मी था. 9 वर्ष की उम्र में सावित्री का विवाह सन 1840 में पूना के ज्योतिबा फुले के साथ हुआ.सावित्री बाई की स्कूली-शिक्षा नहीं हुई थी क्योंकि उस समय, खास कर दबी-पिछड़ी जातियों में, लडकियों को स्कूल भेजने का रिवाज नहीं था. ज्योतिबा विवाह के समय 3 री कक्षा तक पढ़े थे.
ज्योतिबा ने शादी के बाद भी पढाई जारी रखी. वे चाहते थे कि सावित्री भी पढ़ना-लिखना सीख जाये और इसके लिए वे अपनी छुट्टियों के दिनों में सावित्री को पढ़ाने बैठ जाते थे.सावित्री के साथ ज्योतिबा की मौसेरी बहन सगुणा भी पढ़ रही थी. कुछ समय के बाद ज्योतिबा ने इन दोनों को एक अंग्रेजी मिशनरी स्कूल में प्रवेश दिला दिया. सावित्री और सगुणा ने सन 1946-47 में इस स्कूल से कक्षा 3 री और 4 थी पास किया.इस स्कूल से निकलने के बाद ज्योतिबा ने सोचा कि अब सावित्री को अध्यापन का प्रशिक्षण करा दिया जाय.इसके लिए उन्होंने सावित्री और सगुणा को एक अंग्रेजी नार्मन स्कूल में प्रवेश करा दिया. नार्मन स्कूल से इन दोनों ने बाकायदा अध्यापन का प्रशिक्षण प्राप्त किया था.
सावित्री, आम लडकियों से हट कर थी.एक गृहिणी के कर्तव्य के आलावा और कुछ करने के वे तमाम गुण उस में मौजूद थे.यह अच्छा ही था कि ज्योतिबा को अर्ध्दान्गनी के रूप में सावित्री मिली थी. ज्योतिबा दम्पति ने अब अपने कदम सामाजिक-सुधार के क्षेत्र में रखे. उनका ध्यान दबी-पिछड़ी जातियों की लड़कियों के अशिक्षा पर गया. सबसे पहले उन्होंने इसी दिशा में कार्य करने का फैसला लिया. फुले दम्पति ने जन.1, सन 1848 को पूना के बुधवारा पेठ में लड़कियों का पहला स्कूल खोला. यह स्कूल एक मराठी सज्जन भिंडे साहेब के हवेली में खोला गया था.इस स्कूल की प्रधान अध्यापिका सावित्रीबाई फुले थी.
यह इतिहास का एक नया अध्याय था. इससे पूर्व, प्रथम तो दबी-पिछड़ी जाति की बच्चियों को स्कूल में भेजने का ही रिवाज नहीं था.माली समाज के इस लड़की ने शादी के बाद पति के सहयोग से न सिर्फ पढाई की वरन, अध्यापन की ट्रेनिंग लेकर और स्वत: का स्कूल खोल प्रधान अध्यापिका बनने का गौरव हासिल किया.फुले दम्पति ने इसी वर्ष सन 1848 में पूना के ही उस्मान शेख के बाड़े में प्रोढ़-शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला. दोनों स्कूलों का सञ्चालन ठीक ढंग से होने लगा.दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, खासकर लड़किया बड़ी संख्या में इन स्कूलों में आने लगी. अपनी पहली मेहनत को फलीभूत देख ज्योतिबा दम्पति ने अगले 4 वर्षों में ऐसे ही और 18 स्कूल विभिन्न स्थानों में खोले.
मगर, फुले दम्पति के दबी-पिछड़ी जातियों के लिए पाठ-शालाएं खोलना सरल नहीं था. इसके लिए सावित्रीबाई और ज्योतिबा को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा. पैसे की तंगी के साथ-साथ सामाजिक-विरोध का जम कर सामना करना पड़ा.हिन्दू उच्च जातियों का भारी दबाव उन्हें कदम-कदम पर झेलना पड़ा.मगर, फुले-दम्पति भी हिम्मत के कच्चे नहीं थे. सावित्रीबाई और ज्योतिबा पर सनातनी हिन्दुओं का जब दबाव काम नहीं आया तो उन्होंने ज्योतिबा के पिता गोविन्दराव को अपने घेरे में लिया.हिन्दू ,धर्म-ग्रन्थों का हवाला दे कर गोविन्दराव को समझा रहे थे कि उसके बहु-बेटे जो कुछ कर रहे हैं, वह धर्म विरुध्द है. गोविन्द राव ने बेटे-बहू को समझाया मगर, वे अपने पवित्र कार्य से टस से मस नहीं हुए. सनातन हिन्दुओं के दबाव में आकर अंतत: गोविनराव ने बेटे-बहू को घर से निकाल दिया.
घर से निकाले जाने के बावजूद सावित्रीबाई अपने काम में जुटी रही. यह सन 1849 के आस-पास की घटना थी .हिन्दुओं ने जब देखा कि घर से निकाल दिए जाने के बाद भी सावित्रीबाई का कार्य बदस्तूर जारी है तब, रास्ते में जाते हुए सावित्रीबाई के शरीर पर कीचड़ और कचरा फेकना शुरू किया. सावित्रीबाई इससे भी हताश नहीं हुई. अब वह 3-4 साड़ियाँ साथ में ले जाने लगी. सावित्रीबाई के ऊपर कचरा फेकने में सनातनी हिन्दू स्त्रियाँ भी पीछे नहीं थी. वे नए-नए तरीके से सावित्री बाई को हतोत्साहित करती थी. मगर, सावित्रीबाई थी कि उतने ही हिम्मत से अपना कार्य और अच्छे तरीके से करने लग जाती थी.
दबी-पिछड़ी जातियों में शिक्षा के कार्य ने तत्कालीन ब्रिटिश-हुकूमत का ध्यान आकर्षित किया.शासन ने इस दम्पति को शिक्षा से सम्बन्धित सेवाओं के लिए सन 1852 में सार्वजानिक रूप से उन्हें शाल पहना कर उनके कार्यों का अभिनन्दन किया. इसी वर्ष महिलाओं में चेतना जागृत करने और उनके धार्मिक-अन्धविश्वास और जड़ता को ख़त्म करने के उद्देश्य से सावित्रीबाई फुले ने 'महिला सेवा मंडल' की सथापना की.
सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने अब अपना ध्यान बाल-विधवा और बाल-हत्या पर केन्द्रित किया. 29 जून 1853 में इस दम्पति ने बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह की स्थापना की. इस अनाथालय की सम्पूर्ण व्यवस्था सावित्रीबाई फुले सम्भालती थी.अनाथालय के प्रवेश-द्वार पर सावित्रीबाई ने एक बोर्ड टंगवा दिया. जिस पर लिखा था, 'विधवा बहने, यहाँ आ कर गुप्त रीती से और सुरक्षित तरीके से अपने बालक को जन्म दे सकती है. आप चाहे तो अपने बालक को ले जा सकती है या यहाँ रख सकती है.आपके बालक को यह अनाथाश्रम एक माँ की तरह रखेगा और उसकी रक्षा करेगा. एक-दो वर्षों में ही इस आश्रम में सौ से ज्यादा विधवाओं ने अपने नाजायज बच्चों को जन्म दिया. सावित्रीबाई, इन बच्चों का पालन-पोषण उनकी माँ की तरह कर रही थी.
इसी प्रकार, गावं के खेत-खलिहानों में जो मजदूर काम करते थे, उन्हें पढ़ने-लिखने की सुविधा नहीं थी. फुले दम्पति ने सन 1855 में ऐसे मजदूरों के लिए रात्रि-पाठशाला खोली. ज्योतिबा फुले समय-समय पर शिक्षा और सामाजिक-चेतना के सन्दर्भ में जगह-जगह भाषण देते थे. ज्योतिबा के इन भाषणों का संग्रह 25 दिस.1856 को प्रकाशित हुआ,जिसका सम्पादन सावित्रीबाई फुले ने किया था.
सावित्री बाई स्वत: भी एक अच्छी लेखक और कवियत्री थी. सामाजिक-आंदोलनों के अनुभवों को उसे जब भी समय मिलता, कविता के रूप में लिपिबध्द करती थी. उनके कविताओं का एक संग्रह 'काव्य-फुले' सन 1954 में पूना के शिला प्रेस से प्रकाशित हुआ था. इस काव्य-संग्रह के प्रकाशन से उस ज़माने में ज्योतिबा के, पत्नी के व्यक्तित्व को एक नया आयाम देने की ललक और तडप को भी, समझा जा सकता है.
सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने सन 1863 में अनाथ बच्चों के लिए एक अनाथालय खोला. इसी प्रकार तब, अस्पृश्य जातियों को सार्वजानिक कुए से पानी खींचने का अधिकार नहीं था. सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने सन 1868 में अपने घर का कुआ अस्पृश्यों के लिए खोल दिया.इसी वर्ष ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव की मृत्यु हो गई.
ज्योतिबा-दम्पति को कोई संतान नहीं थी. उन्होंने काशीबाई नाम की एक ब्राहमण विधवा स्त्री के नाजायज बच्चे को सन 1874 में गोद लिया.विदित हो, यह वही काशीबाई है जो नाजायज बच्चे को पैदा किये जाने के अभिशाप में आत्म-हत्या कर रही थी और जिसे महात्मा ज्योतिबा फुले ने बचाया था. यह बच्चा पढ़-लिख कर आगे चलकर एक बड़ा डाक्टर बना. बालक का नाम यशवंतराव था. यही बालक ज्योतिबा-दम्पति का वारिस हुआ. यशवंतराव का अंतर्जातीय-विवाह हुआ था. माली और दीगर समाज ने इस पर भारी हो-हल्ला मचाया था. मगर, ज्योतिबा दम्पति ने किसी की एक न सुनी. वे परम्परा से चले आ रहे जातीय-बंधनों को तोडना चाहते थे.
सन 1876-77 के दौरान पूना शहर में भारी अकाल पड़ा.लोग अन्न के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे थे. उस दौर में सावित्री बाई और ज्योतिबा दम्पति ने 52 विभिन्न स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और भूखे-कंगाल लोगों को मुप्त में खाना खिलाया.
एक और क्रन्तिकारी कदम इस दम्पति ने अपने हाथ में लिया. पति के मृत्यु के बाद पत्नी के बाल कटवा दिए जाते थे. उसे सफेद वस्त्र पहनने को बाध्य किया जाता था.बिना जेवर पहिने उसे कहा जाता था कि वह जोगिन की तरह एकांतवास में रहे.उसे किसी से मिलने-जुलने की मनाही थी. विधवा के बाल मुन्डाने की इस प्रथा को केशवपन कहा जाता था. यह प्रथा हिन्दुओं में सदियों से चली आ रही थी. सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने इसके विरुध्द आवाज उठाई. पहले तो इस कुप्रथा के विरुध्द लोगों को समझाया परन्तु जब इससे बात नहीं बनी तब, इस दम्पति ने गावं-देहातों से भारी मात्र में नाइयों को बुलाकर पेशवाओं की नगरी पूना में एक आमसभा की. सभा में नाइयों ने न सिर्फ इस कार्य में मदद की वरन आइन्दा विधवाओं के बाल न काटने का वचन भी दिया. इतिहास में पहली बार नाइयों ने परम्परा से चली आ रही इस कु-प्रथा से अपने हाथ झटक लिए.
बहुजन समाज के मानवीय अधिकारों की प्राप्ति हेतु सामाजिक आन्दोलन चलाने के लिए सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने 23 सित. 1873 को 'सत्य-शोधक समाज' की स्थापना की.इस मंच के द्वारा सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने अपने सामाजिक आन्दोलन को गावं और शहर के लोगों को जोड़ने का वृहत पैमाने पर कार्य किया. 4 फर. 1889 को डा. यशवंतराव का विवाह ससाने की पुत्री के साथ संपन्न हुआ.
सामाजिक आन्दोलन के इस संघर्ष में महात्मा ज्योतिबा फुले 28 नव. सन 1890 में सावित्रीबाई का साथ छोड़ गए. ज्योतिबा के गुजर जाने के बाद सावित्रीबाई ने बड़ी मजबूती के साथ इस आन्दोलन की जिम्मेदारी सम्भाली.इसी वर्ष महाराष्ट्र के सासवड में सम्पन्न सत्य-शोधक समाज के अधिवेशन में सावित्रीबाई फुले ने जो गर्जना की उसने दबी-पिछड़ी जातियों के लोगों में आत्म-सम्मान की हुँकार भर दी.सावित्रीबाई का दिया गया यह भाषण उनके प्रखर क्रन्तिकारी और विचार-प्रवर्तक होने का परिचय देता है.
जैसे की हम पूर्व में बतला चुके हैं, सावित्रीबाई प्रतिभाशाली कवियित्री थी.इनके कविताओं में सामाजिक जन-चेतना की आवाज पुरजोर शब्दों में मिलाती है.उनकी कविताओं में शब्दों का चयन और रख-रखाव, विषय पर उनकी प्रतिभा और पकड़ को दर्शाता है. पति ज्योतिबा के देहांत के बाद सावित्रीबाई फुले का दूसरा काव्य-संग्रह 'बावनकशी सुबोध रत्नाकर' सन 1882 में प्रकाशित हुआ था. इस काव्य-संग्रह में सावित्रीबाई फुले ने सामाजिक आन्दोलन के इतिहास के साथ उनके पति ने किस तरह इस आन्दोलन को आगे बढाया, इस पर कलम चलाया है.
सचमुच सावित्रीबाई फुले प्रतिभाशाली कवियित्री आदर्श अध्यापिका,निस्वार्थ समाजसेविका और सत्य-शोधक समाज की कुशल नेतृत्व करने वाली महान नेता थी.सन 1897 में पूना में प्लेग फैला.प्लेग की इस महामारी में सावित्रीबाई और उनका पुत्र यशवंत दोनों माँ-बेटे लोगों की सेवा में जुट गए. वे कन्धों पर उठा-उठा कर लोगों को अस्पताल पहुँचाने का काम करते थे.सावित्रीबाई की उम्र यद्यपि 66 वर्ष की हो गई थी फिर भी वह तन-मन से लोगों की सेवा में लगी रही. इसी बीच उन्हें भी प्लेग ने धर दबोचा और 10 मार्च 1897 को वह क्रांतिज्योत हमेशा हमेशा के लिए हम से जुदा हो गई.
सामाजिक आंदोलनों के इतिहास में सावित्रीबाई तब फलक पर आती है, जब ब्रिटिश भारत में समाज के निचले तबके के साथ हिन्दुओं के अत्याचार बदस्तूर जारी हैं. अंग्रेजों से अपेक्षा थी की वे हिन्दुओं के अत्याचारों पर ब्रेक लगाते. मगर, अंग्रेजों ने इस पचड़े में पड़ना ठीक नहीं समझा था. ब्रिटिश-शासन, हिन्दू उच्च जातियों के दबदबे के कारण ज्यादा कुछ करने के भी हक़ में नहीं था.आखिर, अंग्रेज यहाँ समाज-सुधार करने तो आये नहीं थे ? फिर भी, देश की दबी-पिछड़ी जातियां अपने अधिकारों की आवाज उठा रही थी.
पूना शहर उस समय सनातनी हिन्दुओं का गढ़ माना जाता था. यह वही हिन्दुओं की संस्कारधानी है, जहाँ पेशवाओं के शासन-काल में अस्पृश्यों को सडकों पर चलते समय मुंह के सामने मिटटी का मटका और कमर में झाड़ू लटकाना पड़ता था कि वह थूके तो जमीन पर न गिरे और जिस पर अनजाने में किसी सवर्ण हिन्दू का पैर पड़ने पर वह अपवित्र न हो जाये.
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जन. 1831 को महाराष्ट्र में सतारा जिले के नायगावं में माली समाज के परिवार में हुआ था.इनके पिता का नाम खंडोजी नेवसे पाटिल और माँ का नाम लक्ष्मी था. 9 वर्ष की उम्र में सावित्री का विवाह सन 1840 में पूना के ज्योतिबा फुले के साथ हुआ.सावित्री बाई की स्कूली-शिक्षा नहीं हुई थी क्योंकि उस समय, खास कर दबी-पिछड़ी जातियों में, लडकियों को स्कूल भेजने का रिवाज नहीं था. ज्योतिबा विवाह के समय 3 री कक्षा तक पढ़े थे.
ज्योतिबा ने शादी के बाद भी पढाई जारी रखी. वे चाहते थे कि सावित्री भी पढ़ना-लिखना सीख जाये और इसके लिए वे अपनी छुट्टियों के दिनों में सावित्री को पढ़ाने बैठ जाते थे.सावित्री के साथ ज्योतिबा की मौसेरी बहन सगुणा भी पढ़ रही थी. कुछ समय के बाद ज्योतिबा ने इन दोनों को एक अंग्रेजी मिशनरी स्कूल में प्रवेश दिला दिया. सावित्री और सगुणा ने सन 1946-47 में इस स्कूल से कक्षा 3 री और 4 थी पास किया.इस स्कूल से निकलने के बाद ज्योतिबा ने सोचा कि अब सावित्री को अध्यापन का प्रशिक्षण करा दिया जाय.इसके लिए उन्होंने सावित्री और सगुणा को एक अंग्रेजी नार्मन स्कूल में प्रवेश करा दिया. नार्मन स्कूल से इन दोनों ने बाकायदा अध्यापन का प्रशिक्षण प्राप्त किया था.
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यह इतिहास का एक नया अध्याय था. इससे पूर्व, प्रथम तो दबी-पिछड़ी जाति की बच्चियों को स्कूल में भेजने का ही रिवाज नहीं था.माली समाज के इस लड़की ने शादी के बाद पति के सहयोग से न सिर्फ पढाई की वरन, अध्यापन की ट्रेनिंग लेकर और स्वत: का स्कूल खोल प्रधान अध्यापिका बनने का गौरव हासिल किया.फुले दम्पति ने इसी वर्ष सन 1848 में पूना के ही उस्मान शेख के बाड़े में प्रोढ़-शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला. दोनों स्कूलों का सञ्चालन ठीक ढंग से होने लगा.दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, खासकर लड़किया बड़ी संख्या में इन स्कूलों में आने लगी. अपनी पहली मेहनत को फलीभूत देख ज्योतिबा दम्पति ने अगले 4 वर्षों में ऐसे ही और 18 स्कूल विभिन्न स्थानों में खोले.
मगर, फुले दम्पति के दबी-पिछड़ी जातियों के लिए पाठ-शालाएं खोलना सरल नहीं था. इसके लिए सावित्रीबाई और ज्योतिबा को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा. पैसे की तंगी के साथ-साथ सामाजिक-विरोध का जम कर सामना करना पड़ा.हिन्दू उच्च जातियों का भारी दबाव उन्हें कदम-कदम पर झेलना पड़ा.मगर, फुले-दम्पति भी हिम्मत के कच्चे नहीं थे. सावित्रीबाई और ज्योतिबा पर सनातनी हिन्दुओं का जब दबाव काम नहीं आया तो उन्होंने ज्योतिबा के पिता गोविन्दराव को अपने घेरे में लिया.हिन्दू ,धर्म-ग्रन्थों का हवाला दे कर गोविन्दराव को समझा रहे थे कि उसके बहु-बेटे जो कुछ कर रहे हैं, वह धर्म विरुध्द है. गोविन्द राव ने बेटे-बहू को समझाया मगर, वे अपने पवित्र कार्य से टस से मस नहीं हुए. सनातन हिन्दुओं के दबाव में आकर अंतत: गोविनराव ने बेटे-बहू को घर से निकाल दिया.
घर से निकाले जाने के बावजूद सावित्रीबाई अपने काम में जुटी रही. यह सन 1849 के आस-पास की घटना थी .हिन्दुओं ने जब देखा कि घर से निकाल दिए जाने के बाद भी सावित्रीबाई का कार्य बदस्तूर जारी है तब, रास्ते में जाते हुए सावित्रीबाई के शरीर पर कीचड़ और कचरा फेकना शुरू किया. सावित्रीबाई इससे भी हताश नहीं हुई. अब वह 3-4 साड़ियाँ साथ में ले जाने लगी. सावित्रीबाई के ऊपर कचरा फेकने में सनातनी हिन्दू स्त्रियाँ भी पीछे नहीं थी. वे नए-नए तरीके से सावित्री बाई को हतोत्साहित करती थी. मगर, सावित्रीबाई थी कि उतने ही हिम्मत से अपना कार्य और अच्छे तरीके से करने लग जाती थी.
दबी-पिछड़ी जातियों में शिक्षा के कार्य ने तत्कालीन ब्रिटिश-हुकूमत का ध्यान आकर्षित किया.शासन ने इस दम्पति को शिक्षा से सम्बन्धित सेवाओं के लिए सन 1852 में सार्वजानिक रूप से उन्हें शाल पहना कर उनके कार्यों का अभिनन्दन किया. इसी वर्ष महिलाओं में चेतना जागृत करने और उनके धार्मिक-अन्धविश्वास और जड़ता को ख़त्म करने के उद्देश्य से सावित्रीबाई फुले ने 'महिला सेवा मंडल' की सथापना की.
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इसी प्रकार, गावं के खेत-खलिहानों में जो मजदूर काम करते थे, उन्हें पढ़ने-लिखने की सुविधा नहीं थी. फुले दम्पति ने सन 1855 में ऐसे मजदूरों के लिए रात्रि-पाठशाला खोली. ज्योतिबा फुले समय-समय पर शिक्षा और सामाजिक-चेतना के सन्दर्भ में जगह-जगह भाषण देते थे. ज्योतिबा के इन भाषणों का संग्रह 25 दिस.1856 को प्रकाशित हुआ,जिसका सम्पादन सावित्रीबाई फुले ने किया था.
सावित्री बाई स्वत: भी एक अच्छी लेखक और कवियत्री थी. सामाजिक-आंदोलनों के अनुभवों को उसे जब भी समय मिलता, कविता के रूप में लिपिबध्द करती थी. उनके कविताओं का एक संग्रह 'काव्य-फुले' सन 1954 में पूना के शिला प्रेस से प्रकाशित हुआ था. इस काव्य-संग्रह के प्रकाशन से उस ज़माने में ज्योतिबा के, पत्नी के व्यक्तित्व को एक नया आयाम देने की ललक और तडप को भी, समझा जा सकता है.
सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने सन 1863 में अनाथ बच्चों के लिए एक अनाथालय खोला. इसी प्रकार तब, अस्पृश्य जातियों को सार्वजानिक कुए से पानी खींचने का अधिकार नहीं था. सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने सन 1868 में अपने घर का कुआ अस्पृश्यों के लिए खोल दिया.इसी वर्ष ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव की मृत्यु हो गई.
ज्योतिबा-दम्पति को कोई संतान नहीं थी. उन्होंने काशीबाई नाम की एक ब्राहमण विधवा स्त्री के नाजायज बच्चे को सन 1874 में गोद लिया.विदित हो, यह वही काशीबाई है जो नाजायज बच्चे को पैदा किये जाने के अभिशाप में आत्म-हत्या कर रही थी और जिसे महात्मा ज्योतिबा फुले ने बचाया था. यह बच्चा पढ़-लिख कर आगे चलकर एक बड़ा डाक्टर बना. बालक का नाम यशवंतराव था. यही बालक ज्योतिबा-दम्पति का वारिस हुआ. यशवंतराव का अंतर्जातीय-विवाह हुआ था. माली और दीगर समाज ने इस पर भारी हो-हल्ला मचाया था. मगर, ज्योतिबा दम्पति ने किसी की एक न सुनी. वे परम्परा से चले आ रहे जातीय-बंधनों को तोडना चाहते थे.
सन 1876-77 के दौरान पूना शहर में भारी अकाल पड़ा.लोग अन्न के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे थे. उस दौर में सावित्री बाई और ज्योतिबा दम्पति ने 52 विभिन्न स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और भूखे-कंगाल लोगों को मुप्त में खाना खिलाया.
एक और क्रन्तिकारी कदम इस दम्पति ने अपने हाथ में लिया. पति के मृत्यु के बाद पत्नी के बाल कटवा दिए जाते थे. उसे सफेद वस्त्र पहनने को बाध्य किया जाता था.बिना जेवर पहिने उसे कहा जाता था कि वह जोगिन की तरह एकांतवास में रहे.उसे किसी से मिलने-जुलने की मनाही थी. विधवा के बाल मुन्डाने की इस प्रथा को केशवपन कहा जाता था. यह प्रथा हिन्दुओं में सदियों से चली आ रही थी. सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने इसके विरुध्द आवाज उठाई. पहले तो इस कुप्रथा के विरुध्द लोगों को समझाया परन्तु जब इससे बात नहीं बनी तब, इस दम्पति ने गावं-देहातों से भारी मात्र में नाइयों को बुलाकर पेशवाओं की नगरी पूना में एक आमसभा की. सभा में नाइयों ने न सिर्फ इस कार्य में मदद की वरन आइन्दा विधवाओं के बाल न काटने का वचन भी दिया. इतिहास में पहली बार नाइयों ने परम्परा से चली आ रही इस कु-प्रथा से अपने हाथ झटक लिए.
बहुजन समाज के मानवीय अधिकारों की प्राप्ति हेतु सामाजिक आन्दोलन चलाने के लिए सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने 23 सित. 1873 को 'सत्य-शोधक समाज' की स्थापना की.इस मंच के द्वारा सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने अपने सामाजिक आन्दोलन को गावं और शहर के लोगों को जोड़ने का वृहत पैमाने पर कार्य किया. 4 फर. 1889 को डा. यशवंतराव का विवाह ससाने की पुत्री के साथ संपन्न हुआ.
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जैसे की हम पूर्व में बतला चुके हैं, सावित्रीबाई प्रतिभाशाली कवियित्री थी.इनके कविताओं में सामाजिक जन-चेतना की आवाज पुरजोर शब्दों में मिलाती है.उनकी कविताओं में शब्दों का चयन और रख-रखाव, विषय पर उनकी प्रतिभा और पकड़ को दर्शाता है. पति ज्योतिबा के देहांत के बाद सावित्रीबाई फुले का दूसरा काव्य-संग्रह 'बावनकशी सुबोध रत्नाकर' सन 1882 में प्रकाशित हुआ था. इस काव्य-संग्रह में सावित्रीबाई फुले ने सामाजिक आन्दोलन के इतिहास के साथ उनके पति ने किस तरह इस आन्दोलन को आगे बढाया, इस पर कलम चलाया है.
सचमुच सावित्रीबाई फुले प्रतिभाशाली कवियित्री आदर्श अध्यापिका,निस्वार्थ समाजसेविका और सत्य-शोधक समाज की कुशल नेतृत्व करने वाली महान नेता थी.सन 1897 में पूना में प्लेग फैला.प्लेग की इस महामारी में सावित्रीबाई और उनका पुत्र यशवंत दोनों माँ-बेटे लोगों की सेवा में जुट गए. वे कन्धों पर उठा-उठा कर लोगों को अस्पताल पहुँचाने का काम करते थे.सावित्रीबाई की उम्र यद्यपि 66 वर्ष की हो गई थी फिर भी वह तन-मन से लोगों की सेवा में लगी रही. इसी बीच उन्हें भी प्लेग ने धर दबोचा और 10 मार्च 1897 को वह क्रांतिज्योत हमेशा हमेशा के लिए हम से जुदा हो गई.
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