कनार्टक को आई. टी. (सूचना तकनीकी) का हब (केंद्र) कहा जाता है.आई. टी. का हब यानि वैज्ञानिक सोच की पराकाष्ठा.परन्तु, इसी राज्य में एक जगह ऐसी है, जहाँ दलित समाज के लोग ब्राह्मणों के थूक को चाटते हैं, उस पर लोटते हैं, इस विश्वास के साथ कि इससे उनकी समस्याएं /बीमारियाँ दूर होगी.
सदियों से चली आ रही इस गन्दी परम्परा को 'मडे स्नाना' कहा जाता है .कहा जाता है कि यह 4,000 सालों से चली आ रही परम्परा है. यह आयोजन प्रत्येक वर्ष नव.-दिस. महीने में चंपा शास्ती/सुब्रमन्या शास्ती के अवसर पर कूके सुब्रमन्या तीर्थ स्थल पर होता है.कूके सुब्रमन्या मन्दिर कनार्टक के दक्षिण कनारा जिले में स्थित है.इस मन्दिर में नौ सिरों वाले सांप की मुर्ति को भगवान् सुब्रमन्या के नाम से पूजा जाता है.
परम्परा से चले आ रहे इस मडे स्नाना में पिछले 29 नव. को भी लगभग 25,000 दलित, ब्रह्मणों के थूक पर लोटे और जिला प्रशासन इसे लाचारी से देखता रहा.
विदित हो कि यह क्षेत्र भाजपा का मजबूत गढ़ है.कर्नाटक के समाज कल्याण मंत्री जो खुद भी दलित समाज के हैं, अपने गुस्से का इजहार करते हुए कहते हैं कि यह छुआछुत को बढ़ावा देता है.उनका मंत्रालय इस गंदी प्रथा को बंद करवाने के लिए मन्दिर-प्रबन्धन को पत्र लिखेगा.दक्षिण कनारा के एक ब्राहमण नेता और कर्णाटक के वरिष्ठ मंत्री वी. एस. आचार्य ब्राहमण संगठनों और संघ परिवार के नेताओं की भावनाओं को स्वर देते हुए आगे कहते हैं कि यह एक धार्मिक प्रथा है, जो सदियों से चली आ रही है.ब्राहमणों के थूक पर दलितों को लोटने के लिए उन्हें कोई बाध्य नहीं कर रहा है. लोगों की इस मान्यता को दलित विरोधी क्यों कहा जाना चाहिए ? सरकार को इसमें दखल नहीं देनी चाहिए.
सदियों से चली आ रही इस परम्परा को दक्षिण कनारा जिले के डिप्टी कमिश्नर एन एस चेंप्पा गौड़ा ने इस साल प्रतिबंधित कर दिया था. उन्होंने यह फैसला सामाजिक कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों के विरोध के बाद किया था. मगर, मडे स्नाना के ठीक एक दिन पहले डिप्टी कमिश्नर को सरकार और संघ परिवार के दबाव के चलते यह प्रतिबन्ध उठाना पड़ा.
वर्षों से चली आ रही इस परम्परा के समर्थन में धर्म-स्थल के पुजारियों का तर्क है कि जो ब्राहमण वहां थूकते हैं,वे भगवान् सुब्रमन्या के प्रतिनिधि माने जाते हैं. उनका थूक भगवान् का थूक माना जाता हैं.वे आगे कहते हैं कि स्कन्द पुराण के मुताबिक भगवान् कृष्ण के बेटे साम्ब और उनकी पत्नी जाम्बवंती का कुष्ठ रोग ब्राहमणों के इस थूक पर लोटने से ठीक हुआ था. पुजारियों के अनुसार, ब्राहमणों के थूक पर लोग इस विश्वास से लोटते हैं कि इससे उनकी बीमारियाँ दुरुस्त हो जाएगी. यह एक मनोवैज्ञानिक उपचार है, जिसकी जड़े आयुर्वेद में है. इसे यूँ ही ख़त्म नहीं किया जा सकता.
कर्नाटक के एक साहित्यकार और एक्टिविस्ट के. वाई. नारायण स्वामी के अनुसार, हो सकता है कि साँपों की बाँबियों से निकले कीचड़ में रोग-मुक्त करने की क्षमता हो. शायद, ऐसे ही कुछ धारणा पर इस परम्परा की शुरुआत हुई होगी.परन्तु, यह तय है कि बाद में इसने वैदिक रस्म का स्वरूप ले लिया और इसे अगड़ी जाति के लोग नियंत्रित करने लगे.लिंगायत और वोक्कालिंगा जैसी बीच की कुछ जातियों ने मलेकुडिया जन-जाति को आगे करके इस रिवाज से पीछा छुड़ा लिया.
नारायण स्वामी आगे कहते हैं कि आज, यह इंसानियत को अपमानित करने के आलावा और कुछ नहीं है.कर्नाटक के मुख्यमन्त्री डी. वी. सदानन्द, जो इसी जिले के हैं, भी इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में हैं. परन्तु ,वे कहते हैं कि इसके लिए लोगों को विश्वास में लेने की जरुरत है ! अब भला, 'लोग' अर्थात बी.जे.पी. और संघ परिवार के लोग कब उनके विश्वास में होने लगे ?
सदियों से चली आ रही इस गन्दी परम्परा को 'मडे स्नाना' कहा जाता है .कहा जाता है कि यह 4,000 सालों से चली आ रही परम्परा है. यह आयोजन प्रत्येक वर्ष नव.-दिस. महीने में चंपा शास्ती/सुब्रमन्या शास्ती के अवसर पर कूके सुब्रमन्या तीर्थ स्थल पर होता है.कूके सुब्रमन्या मन्दिर कनार्टक के दक्षिण कनारा जिले में स्थित है.इस मन्दिर में नौ सिरों वाले सांप की मुर्ति को भगवान् सुब्रमन्या के नाम से पूजा जाता है.
परम्परा से चले आ रहे इस मडे स्नाना में पिछले 29 नव. को भी लगभग 25,000 दलित, ब्रह्मणों के थूक पर लोटे और जिला प्रशासन इसे लाचारी से देखता रहा.
विदित हो कि यह क्षेत्र भाजपा का मजबूत गढ़ है.कर्नाटक के समाज कल्याण मंत्री जो खुद भी दलित समाज के हैं, अपने गुस्से का इजहार करते हुए कहते हैं कि यह छुआछुत को बढ़ावा देता है.उनका मंत्रालय इस गंदी प्रथा को बंद करवाने के लिए मन्दिर-प्रबन्धन को पत्र लिखेगा.दक्षिण कनारा के एक ब्राहमण नेता और कर्णाटक के वरिष्ठ मंत्री वी. एस. आचार्य ब्राहमण संगठनों और संघ परिवार के नेताओं की भावनाओं को स्वर देते हुए आगे कहते हैं कि यह एक धार्मिक प्रथा है, जो सदियों से चली आ रही है.ब्राहमणों के थूक पर दलितों को लोटने के लिए उन्हें कोई बाध्य नहीं कर रहा है. लोगों की इस मान्यता को दलित विरोधी क्यों कहा जाना चाहिए ? सरकार को इसमें दखल नहीं देनी चाहिए.
सदियों से चली आ रही इस परम्परा को दक्षिण कनारा जिले के डिप्टी कमिश्नर एन एस चेंप्पा गौड़ा ने इस साल प्रतिबंधित कर दिया था. उन्होंने यह फैसला सामाजिक कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों के विरोध के बाद किया था. मगर, मडे स्नाना के ठीक एक दिन पहले डिप्टी कमिश्नर को सरकार और संघ परिवार के दबाव के चलते यह प्रतिबन्ध उठाना पड़ा.
वर्षों से चली आ रही इस परम्परा के समर्थन में धर्म-स्थल के पुजारियों का तर्क है कि जो ब्राहमण वहां थूकते हैं,वे भगवान् सुब्रमन्या के प्रतिनिधि माने जाते हैं. उनका थूक भगवान् का थूक माना जाता हैं.वे आगे कहते हैं कि स्कन्द पुराण के मुताबिक भगवान् कृष्ण के बेटे साम्ब और उनकी पत्नी जाम्बवंती का कुष्ठ रोग ब्राहमणों के इस थूक पर लोटने से ठीक हुआ था. पुजारियों के अनुसार, ब्राहमणों के थूक पर लोग इस विश्वास से लोटते हैं कि इससे उनकी बीमारियाँ दुरुस्त हो जाएगी. यह एक मनोवैज्ञानिक उपचार है, जिसकी जड़े आयुर्वेद में है. इसे यूँ ही ख़त्म नहीं किया जा सकता.
कर्नाटक के एक साहित्यकार और एक्टिविस्ट के. वाई. नारायण स्वामी के अनुसार, हो सकता है कि साँपों की बाँबियों से निकले कीचड़ में रोग-मुक्त करने की क्षमता हो. शायद, ऐसे ही कुछ धारणा पर इस परम्परा की शुरुआत हुई होगी.परन्तु, यह तय है कि बाद में इसने वैदिक रस्म का स्वरूप ले लिया और इसे अगड़ी जाति के लोग नियंत्रित करने लगे.लिंगायत और वोक्कालिंगा जैसी बीच की कुछ जातियों ने मलेकुडिया जन-जाति को आगे करके इस रिवाज से पीछा छुड़ा लिया.
नारायण स्वामी आगे कहते हैं कि आज, यह इंसानियत को अपमानित करने के आलावा और कुछ नहीं है.कर्नाटक के मुख्यमन्त्री डी. वी. सदानन्द, जो इसी जिले के हैं, भी इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में हैं. परन्तु ,वे कहते हैं कि इसके लिए लोगों को विश्वास में लेने की जरुरत है ! अब भला, 'लोग' अर्थात बी.जे.पी. और संघ परिवार के लोग कब उनके विश्वास में होने लगे ?
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