जन-कवि 'अदम' गौंडवी
एक हुए थे, दुष्यंत कुमार. आपको स्मरण आ रहा होगा-'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए'- यह ग़ज़ल उसी शख्स की है, जिसके सीने में 1965-75 के दौर में कहीं कुछ जल रहा था, सुलग रहा था.दुष्यंत कुमार भी उ.प्र. से थे.उन्होंने ग़ज़लों में जो लोकप्रियता हाशिल की थी, वह बेमिशाल थी.दुष्यंत कुमार की लम्बी उम्र नहीं थे. जिसका सीना कोयले की सिगड़ी की तरह अन्दर ही अन्दर सुलग रहा हो, भला वह, कब तक जल सकता है ?
उसी उ. प्र. में फिर, एक दूसरे ग़ज़लकार पैदा होते हैं-'अदम' गौंडवी। ठेठ देहाती ताना-बाना.देहाती अंदाज। मगर, जिसके एक-एक शब्द खंजर की तरह व्यवस्था के सीने पर उतरते हैं। उस 'अदम' गौंडवी का जन्म 22 अक्टू. 1947 को गोंडा (उ.प्र.) के आटा परसपुर गावं में हुआ था। 'अदम' का असली नाम रामनाथसिंह था.
'अदम' की एक और पहचान थी, पहनावे की। वे कवि सम्मेलनों व् मुशायरों में घुटनों तक मटमैली धोती , सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले जाते थे। एक ठेठ देहाती इन्सान के रूप में वे मंच पर पहुँचते थे। पहली नजर में वे कतई असर नहीं डालते थे,लेकिन जैसे ही माइक सम्भालते, श्रोता गावं के माहौल में खो जाते थे। निपट गंवई अंदाज में महानगरी चकाचौंध को हैरान कर देनेवाली उनकी अदा सबसे जुदा और अद्भुत थी। व्यवस्था के खिलाफ पीड़ा और विद्रोह उनकी रचनाओं में बड़ी सहजता से नजर आता था. अगर हम उन्हें अपनी रचनाओं में शोषण के विरुध्द लड़ने वाले एक योध्दा कवि के रूप में याद करे तो यह उनके प्रति सच्चा प्रेम होगा।
'अदम' गोंडवी उ.प्र. के जिस इलाके से आते थे,वहां की मिटटी और वहां के साधारण लोगों के जीवन की गूंज उनकी रचनाओं में भरपूर थी। वे बेहद साधारण लगने वाली हिंदी-उर्दू की मिली-जुली जुबान में ग़ज़ल लिखा करते थे। अदम के ग़ज़लों के दो संग्रह; 'धरती की सतह पर' और 'समय से मुठभेड़' प्रकाशित हो चुके हैं। म.प्र. शासन द्वारा आपको सन 1998 में 'दुष्यंत कुमार अवार्ड' से नवाजा गया था।
इधर, 'अदम' काफी समय से बीमार चल रहे थे। उन्हें लीवर सम्बन्धी रोग ने जकड़ा था। और अंतत; 18 दिस 2011 उनकी मृत्यु हो गई। जन-कवि 'अदम' गोंडवी की कुछ गज़ले पेशे-नज़र है-
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करे
वेद में जिनका हवाला, हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास, लेकर क्या करें।
वे अभागे आस्था विश्वास, लेकर क्या करें।
लोकरंजन हो जहां, शंबूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित, इतिहास लेकर क्या करें।
कितना प्रगतिमान रहा, भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें।
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का, मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्स का, एहसास लेकर क्या करें।
गर्म रोटी की महक, पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्यार का, मधुमास लेकर क्या करें।
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वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है
वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक, आपके बंगले में आई है।
इधर एक दिन की आमदनी का, औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के, चेलों की कमाई है।
कोई भी सिरफिरा धमका के, जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में, बुधुआ की लुगाई है।
रोटी कितनी महँगी है, ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के, ये क़ीमत चुकाई है।
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उधर लाखों में गांधी जी के, चेलों की कमाई है।
कोई भी सिरफिरा धमका के, जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में, बुधुआ की लुगाई है।
रोटी कितनी महँगी है, ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के, ये क़ीमत चुकाई है।
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गर गलतियाँ बाबर ने की, जुम्मन का घर फिर क्यों जले ?
हिन्दू या मुस्लिम के, अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए, जज्बात को मत छेड़िए।
अपनी कुरसी के लिए, जज्बात को मत छेड़िए।
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थी, जुम्मन का घर फिर क्यों जले ?
ऐसे नाज़ुक वक़्त में, हालात को मत छेड़िए।
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए।
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी, नग़मात को मत छेड़िए।
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तारीख बताती है, तुम भी लुटेरे हो
गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की, तक़दीर बदल दोगे
जायस से वो हिंदी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?
जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक, तस्वीर बदल दोगे ?
तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी, जागीर बदल दोगे ?
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गाँव तक वो रोशनी, आयेगी कितने साल में। जायस से वो हिंदी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?
जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक, तस्वीर बदल दोगे ?
तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी, जागीर बदल दोगे ?
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गावं तक वो रोशनी , आएगी कितने साल में
जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल मेंबूढ़ा बरगद साक्षी है, किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोपड़ी, सरपंच की चौपाल में।
हमको पट्टे की सनद, मिलती भी है तो ताल में
जिसकी क़ीमत कुछ न हो, इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालिए मत, जिस्म की टकसाल में।
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उतरा है रामराज्य,विधायक के निवास में
काजू भुने प्लेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज, विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के, उजले लिबास में।
आजादी का ये जश्न, मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर, घर की तलाश में।
पैसे से आप चाहें, तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है, यहाँ की नख़ास में।
जनता के पास एक ही, चारा है- बगावत
यह बात कह रहा हूँ, मैं होशो-हवास में।
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भुखमरी के मोर्चे पर , ढल गया इनका शबाब।
पेट के भूगोल में, उलझा हुआ है आदमी
इस अदद में किसको फुर्सत है , पढ़े दिल की किताब।
इस सदी की तिश्नगी का , जख्म होठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफर में , जिंदगी है इक अज़ाब।
डाल पर मज़हब की पैहम, खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब।
चार दिन फुटपाथ के, साये में रह कर देखिए
डूबना आसान है , आखों के सागर में ज़नाब
उतरा है रामराज, विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के, उजले लिबास में।
आजादी का ये जश्न, मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर, घर की तलाश में।
पैसे से आप चाहें, तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है, यहाँ की नख़ास में।
जनता के पास एक ही, चारा है- बगावत
यह बात कह रहा हूँ, मैं होशो-हवास में।
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डूबना आसान है , आखों के सागर में ज़नाब
जुल्फ़ -अंगड़ाई-तबस्सुम, चाँद-आईना -गुलाबभुखमरी के मोर्चे पर , ढल गया इनका शबाब।
पेट के भूगोल में, उलझा हुआ है आदमी
इस अदद में किसको फुर्सत है , पढ़े दिल की किताब।
इस सदी की तिश्नगी का , जख्म होठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफर में , जिंदगी है इक अज़ाब।
डाल पर मज़हब की पैहम, खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब।
चार दिन फुटपाथ के, साये में रह कर देखिए
डूबना आसान है , आखों के सागर में ज़नाब
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