Friday, December 9, 2011

मेरी कविताएँ

30.04.11

जूतियाँ


शो रूम में सजी जूतियाँ देख कर
वे बोले
पैरों की जूती, पैरों में रहनी चाहिए
*               *                     *                       *

07.12.11

ख्वाहिश 


गुम हो जाएँगे हम,
तुम देखते रह जाओगे
अगर मिलना भी चाहो,
तो मिल न पाओगे

हालाकि, हम चाहते हैं
जनाजा यहीं से निकले
दुआ हो या बद-दुआ
तुम से निकले
*            *             *                   *

झोपड़-पट्टी


ऐसा क्यों होता है कि
जहाँ बस्ती ख़त्म होती है
ऊग आती है, वहां  दलदल
घास-फूस और थर्ड क्लास पोलीथिन से
अपनी इज्जत ढांकती झोपड़ियाँ ?

आखिर क्यों वही आवारा कुत्ते
छिनाल कुत्तियों को सूंघते हैं ?
क्यों कच्ची दारू की बोतलों से
झोपड़े बजबजाते हैं ?
और मन्दिर की घंटियाँ
सबसे ज्यादा यही टन-टनाटी है ?
*            *               *                 *

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