बात उस समय की है जब मरे हुए जानवरों का मांस न खाने के लिए डा. आंबेडकर दलित जातियों को समझा रहे थे. कुछ अस्पृश्य जातियों का काम हिन्दुओं के घरों से मरे जानवरों को उठाना था. वे उसे कन्धों पर लादे गावं के बाहर 'ढोरफोड़ी' ( मरे जानवरों को ठिकाने लगाने की निर्धारित जगह) में ले जाते और उसका चमडा निकाल कर मांस खाने के लिए घर ले आते थे.हिन्दुओं ने इन्हें दूसरे काम करने को मना कर रखा था.रोजी-रोटी के अन्य विकल्प के अभाव तब ये लोग मरे जानवरों के मांस को न सिर्फ खाने को बाध्य थे वरन इस मांस को धुप में सुखाया जाता था ताकि उसे बाद में खाया जा सके.
मरे जानवरों का मांस खाने और उसे घर के बाहर सुखाने से इनके घरों में भारी गन्दगी रहती थी.लोग इसके घरों के बाहर से गुजरने में झिझकते थे.यहाँ तक की इनके मोहल्लों में आने से कतराते थे.जबकि इसके लिए वे कतई जिम्मेदार नहीं थे. बल्कि, ये कहना ज्यादा सही होगा की इस तरह जीने के लिए वे मजबूर किये गए थे.
बाबासाहब भाषण कर रहे थे तभी किसी ने भरी सभा में से पूछा- "साहब,फिर, हम क्या खाय ?" तब, डा. आंबेडकर ने उस व्यक्ति की ओर देखते हुए कहा- "मरे जानवर का मांस खाने से बेहतर मर जाना है.आत्म-सम्मान की जिंदगी जीने के लिए यदि भूखे भी मरना पड़े तो उसे हमें बर्दास्त करना चाहिए." -लोगों ने तालियों की गडगडाहट से डा. आंबेडकर की बात का समर्थन किया.
मरे जानवरों का मांस खाने और उसे घर के बाहर सुखाने से इनके घरों में भारी गन्दगी रहती थी.लोग इसके घरों के बाहर से गुजरने में झिझकते थे.यहाँ तक की इनके मोहल्लों में आने से कतराते थे.जबकि इसके लिए वे कतई जिम्मेदार नहीं थे. बल्कि, ये कहना ज्यादा सही होगा की इस तरह जीने के लिए वे मजबूर किये गए थे.
बाबासाहब भाषण कर रहे थे तभी किसी ने भरी सभा में से पूछा- "साहब,फिर, हम क्या खाय ?" तब, डा. आंबेडकर ने उस व्यक्ति की ओर देखते हुए कहा- "मरे जानवर का मांस खाने से बेहतर मर जाना है.आत्म-सम्मान की जिंदगी जीने के लिए यदि भूखे भी मरना पड़े तो उसे हमें बर्दास्त करना चाहिए." -लोगों ने तालियों की गडगडाहट से डा. आंबेडकर की बात का समर्थन किया.
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