पृष्ठभूमि -
बाबासाहब अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करने का निर्णय लिया। तत्संबंधित निवेदन 27 अग 1955 के
'जनता' अंक में प्रकाशित हुआ थ । धर्मान्तरण के बाद राजनीतिक पार्टी के रूप में पूर्व में गठित
'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' को भंग करना आवश्यक था क्योंकि, इसमें जाति की सीमाएं थीं । कांग्रेस और देश के अखबार प्रचार कर रहे थे कि अगर डा अम्बेडकर बौद्ध धर्म ग्रहण करते हैं तो वे 'शेड्यूल्ड कास्ट' में कैसे रह सकते हैं और कैसे वह संगठन चला सकते हैं ?
बाबासाहब आंबेडकर द्वारा 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया' के गठन का निर्णय -
इधर, 30 सित 1955 को डा अम्बेडकर के निवास स्थान 26 अलीपुर रोड दिल्ली में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की केन्द्रीय संचालन समिति की बैठक हुई जिस में 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी' के गठन का निर्णय लिया गया
13 अक्टू 1956 को धम्म चक्क पवत्तन कार्य के निमित नागपुर पधारे डा अम्बेडकर ने पत्रकार भेट वार्ता में बतलाया कि उन्होंने देश में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित राजनीतिक पार्टी के गठन का निर्णय लिया है जिस में जाति और धर्म से परे समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होगा। उनका प्रयास होगा कि समान विचारधारा के लोग इस संगठन में आएं।
24 सित और 5 अक्टू 1956 को उन्होंने डा लोहिया को पत्र लिख कर इस हेतु बात करने आमंत्रित किया। अपने महापरिनिर्वाण के एक दिन पूर्व डा अम्बेडकर ने प्र. के. अत्रे और एस. एम. जोशी को भी पत्र लिखे थे(धम्म चक्र प्रवर्तन के बाद परिवर्तन ; डा प्रदीप आगलावे पृ 238-239)।
बाबासाहब अम्बेडकर का परिनिर्वाण -
6 दिस 1956 को बाबासाहब डा अम्बेडकर के आकस्मिक निधन से दलित और बौद्ध समाज नेतृत्व से शून्य हो गया । सामूहिक नेतृत्व की बात उठी। 31 दिस 1956 को
बैरिस्टर राजा भाऊ खोब्रागडे की अध्यक्षता में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के संचालन समिति की हुई। इस बैठक में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के अध्यक्ष पद पर बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे को और महासचिव के पद पर
एडव्होकेट हरिदास आंवले को एकमत से चुना गया। साथ ही ७ सदस्यों का एक अध्यक्षीय मंडल बनाया गया(वही, पृ 256 )।
शीघ्र ही वर्ष 1957 में होने वाले सार्वजनिक चुनावों के मद्देनजर रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना न कर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के बैनर तले ही चुनाव लड़ने का निर्णय हुआ(वही)। सनद रहे, चुनाव में लोकसभा के लिए 9, राज्य सभा में 2 और राज्य विधान सभाओं के लिए 20 उम्मीदवार चुन कर आए थे। इस में महाराष्ट्र से ही विधान सभा में 13 विधायक चुन कर आए थे। कुल 9 सांसदों में अकेले मुंबई से 7 सांसद चुने गए थे।
फेडरेशन के स्थापना वर्ष 1942 से अब तक के चुनावों में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की यह सबसे बड़ी जीत थी।
अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना -
धर्मांतरण को एक वर्ष होने वाला था। इसके मद्देनजर 3 अक्टू 1957 को नागपुर में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का अंतिम अधिवेशन कर इस संगठन को भंग किया गया और बाबासाहब डा अम्बेडकर की इच्छा अनुरूप 'रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया' की स्थापना की गई (वही, पृ 257 )। पार्टी का अध्यक्ष बाबासाहब के निकट सहयोगी रहे मद्रास के वयोवृद्ध नेता
रावबहादुर एन शिवराज को चुना गया। पार्टी का महासचिव बैरिस्टर राजा भाऊ खोब्रागडे को बनाया गया। अखिल भारतीय स्तर पर 'रिपब्लिकन पार्टी' की स्थापना से दलित आंदोलन को एक नई दिशा प्राप्त हुई । भारतीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में उसे एक कद और पहचान मिली ।
दलित बौद्धों की अनुसूचित जाति के बतौर मिल रही सुविधाएं केंद्र द्वारा समाप्त-
इधर, धर्मान्तरण के बाद दलित बौद्धों की अनुसूचित जाति के बतौर मिल रही सुविधाएं कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकारों ने समाप्त कर दिया ।
3 अक्टू 1957 की बैठक में यह भी प्रस्ताव पारित किया गया कि धर्मान्तरित बौद्धों को केंद्र और राज्य सरकारों में अनुसूचित जाति का लाभ बहाल किया जाए( वही, पृ 259 )।
पार्टी-संविधान की निर्मिति-
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया का संविधान तैयार किया गया और इसे 10 मार्च 1959 को लागू किया गया। संविधान निर्माण में एडव्होकेट बी सी कामले, एडव्होकेट बाबू हरिदास आवले, बैरिस्टर राजा भाऊ खोब्रागडे, एन शिवराज, ए जी पवार, दादासाहेब रूपवते आदि ने प्रमुख रूप से भाग लिया था। कुछ समय बाद पार्टी के केंद्रीय सञ्चालन समिति के द्वारा 1959 के संविधान में 16 दिस 1967 को संशोधन किया गया जो आज तक अस्तित्व में है। संविधान में 24 धाराएं हैं(वही)।
पार्टी द्वारा लोकसभा में अनु. जाति से बने बौद्धों को उन्हें पूर्व में मिल रही सुविधाएं दिए जाने की मांग -
लोकसभा में रिपब्लिकन पार्टी के 9 सांसद और राज्य सभा में एक; बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे थे। 14 फर 1958 को सांसद दत्ता कट्टी ने लोकसभा में प्रस्ताव किया कि भारतीय संविधान में जो सुविधाएं अनुसूचित जातियों को प्राप्त हैं, अनुसूचित जाति से बने बौद्धों को दिए जाए और इसके लिए आवश्यक होने पर तत्संबंध में संविधान में संशोधन कर कानून पारित किए जाएं। अपने प्रस्ताव में सांसद महोदय ने कहा की कि उनकी यह मांग केवल धर्मान्तरित बौद्धों के लिए नहीं है वरन उन सभी अछूत जातियों के लिए है जिनसे छुआछूत बरता जाता है। वे धर्मान्तरित बौद्ध हैं इसलिए नहीं बल्कि, इसलिए कि उन से छुआछूत बरता जाता है( वही, पृ 260 )।छुआछूत का पालन करना अपराध है, फिर भी बहुत बड़ी मात्रा में इसका पालन किया जाता है।
समय-समय पर रिपब्लिकन पार्टी के अन्य सांसदों ने भी दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों की समस्याओं संसद के सामने पुरजोर शब्दों में उठाते रहें(वही, पृ 260 )।
संसद में दादासाहेब गायकवाड़ द्वारा धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध के विरोध में मुनस्मृति के पन्ने फाड़ना-
4 मार्च 1960 को सांसद प्रकाशवीर शास्त्री ने अनुसूचित जाति, जन-जाति और पिछड़े वर्ग के धर्मान्तरण को रोकने के बारे में विधेयक पटल पर रखा जिसका रिपब्लिकन सांसद
दादासाहेब गायकवाड़ ने जोरदार विरोध किया। सांसद ने मनुस्मृति के पन्ने फाड़ते हुए कहा कि सरकार हिन्दुओं के अत्याचार से सताए हुए दलित जातियों के धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाने के स्थान पर हमें उन धार्मिक ग्रंथों पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाना चाहिए जो इस तरह की घृणा करने के लिए हिन्दुओं को प्रेरित करती है(वही, पृ 263-264 )।
समता सैनिक दल का पुनर्गठन -
दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों पर सवर्ण हिन्दुओं के बढ़ते अत्याचारों की घटनाओं के मद्देनजर रिपब्लिकन पार्टी ने
सैनिक समता दल को पुनर्जीवित करने का निश्चय किया। त्तत्सम्बन्ध में 2 अक्टू 1957 को दीक्षाभूमि नागपुर में दादासाहेब गायकवाड़ की अध्यक्षता में अखिल भारतीय समता सैनिक दल का चौथा अधिवेशन आयोजित किया गया(वही, पृ 264 )।
पार्टी द्वारा महिला, विद्यार्थी और मजदूर संगठनों की स्थापना -
महिलाओं का संगठन बनाने के लिए पार्टी ने 2 अक्टू 1957 को अखिल भारतीय महिला परिषद् का आयोजन किया। इसी प्रकार, 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन विद्यार्थी फेडरेशन' नाम से विद्यार्थियों का संगठन और मजदूर संगठन भी पार्टी के मार्ग-दर्शन में स्थापित किए गए (वही)।
पार्टी द्वारा भूमिहीनों के लिए आंदोलन -
रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण आंदोलन भूमिहीनों का आंदोलन है। डॉ अम्बेडकर की मंशा अनुसार 1954 में दादासाहेब गायकवाड़ और बी एस मोरे के नेतृत्व में बेकार पड़ी जमीन भूमिहीनों को देने के सम्बन्ध में मराठवाड़ा से सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ था। दिस 1958 में नासिक, जलगांव, धुले और अहमदनगर जिलों में कई भूमिहीनों के सत्याग्रह किया। 12 अग 1959 को लोकसभा में खानदेश के भूमिहीनों के सत्याग्रह के सम्बन्ध में सांसद दादासाहेब गायकवाड़ आदि पार्टी नेताओं ने स्थगन की सूचना दी। वर्ष 1959 की अवधि में सम्पूर्ण महाराष्ट्र में भूमिहीनों ने प्रचंड सत्याग्रह किया। उस समय 35,000 लोगों को सजा हुई थी(वही, पृ 265 )।
भूमिहीनों को भूमि देने जैसी कई मांगों के लिए 1 अक्टू 1964 को पार्टी की ओर से संसद पर करीब 1,00000 लोगों ने प्रदर्शन किया और तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को एक मांग पत्र दिया।
ऐतिहासिक सत्याग्रह -
इसके बाद 6 दिस 1964 को दादासाहेब गायकवाड़ के नेतृत्व में सम्पूर्ण देश भर में सत्याग्रह प्रारम्भ किया गया जिसे सभी राज्यों में भरपूर समर्थन मिला। यह सत्याग्रह करीब दो माह चला जिस में 40,000 सत्यागरियों को जेल में ठूंसा गया था। देश के सारे जेलखाने सत्याग्रहियों से ठसाठस भर गए थे, उन्हें रखने जगह नहीं बची थी। यह सत्याग्रह रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास में अविस्मरणीय ऐतिहासिक घटना है।
प्रधानमंत्री द्वारा मांगों पर विचार के लिए आमंत्रित -
इस सत्याग्रह की व्यापकता और इसे मिले प्रचंड समर्थन को देख कर देश के प्रधान मंत्री ने रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं को उनकी मांगों पर विचार के लिए आमंत्रित किया। पार्टी की और से दादासाहेब गायकवाड़, बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे , बुद्धप्रिय मौर्य, आर, मुगम और एडव्होकेट नीले ने प्रधानमंत्री को अपना मांग-पत्र सौंपा।प्रधानमंत्री के आश्वाशन के बाद सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया(वही, पृ 266)।
7 मार्च 1960 को पार्टी के शिष्ट मंडल ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चौहान को मांग-पत्र सौंप कर मांग की कि तमाम भूमिहीनों को सरकारी भूमि शीघ्र वितरित जाए। दूसरे, नागपुर के दीक्षा-भूमि की जगह तुरंत पार्टी को हस्तांतरित किया जाए ताकि उस पर भव्य स्मारक बनाया जा सके । तीसरे, बौद्ध बने अनु जाति के लोगों को पूर्व में मिल रही सुविधाएँ बहाल की जाए, क्योंकि हिन्दू तब भी उनसे छुआछूत का बर्ताव करते हैं। और चौथे, खानदेश के आदिवासियों को जमींदारों के अत्याचारों से मुक्त किया जाए (वही, पृ 266-67)।
धर्मान्तरित बौद्धों को अनु जाति की सुविधाएं बहाल -
मई 1, 1960 को महाराष्ट्र शासन ने धर्मान्तरित बौद्धों को अनु जाति के बतौर मिलने वाली सभी शैक्षणिक सुविधाएं देने की घोषणा की(वही, पृ 267 )।
बाबासाहब स्मारक के लिए दीक्षा भूमि की 14 एकड़ जमीन हस्तांतरित -
इसी प्रकार
दीक्षा भूमि की 14 एकड़ जमीन बाबासाहब स्मारक बनाने के लिए पार्टी को हस्तांतरित कर दी। यही वह दीक्षा भूमि की जगह है, जहाँ आज विश्व का सबसे बड़ा और भव्य बौद्ध स्तूप खड़ा है। यह दीक्षाभूमि देश और विदेश के बौद्धों और अम्बेडकर अनुयायियों के लिए प्रेरणा भूमि बन चुकी है(वही, पृ 267 )।
'नवदीक्षित बौद्धों' को अनु जाति के बतौर मिलने वाली शैक्षणिक सुविधाएं बहाल-
रिपब्लिकन पार्टी द्वारा लोकसभा में लगातार मांग किए जाने के मद्देनजर 30 अक्टू 1971 को इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने बौद्ध बने अनु जाति के विद्यार्थियों को शैक्षणिक सुविधाएं बहाल करने की घोषणा की और उस सम्बन्ध में राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश जारी किए । तत्संबंधित निर्देश में धर्मान्तरित बौद्धों को नवदीक्षित बौद्ध( 'शेड्यूल्ड कास्ट्स कन्वर्ट्स टू बुद्धिज़्म) कहा गया (वही, पृ 267 )।
ऐतिहासिक विजय-
उक्त जायज मांगों को केंद्र और प्रांतीय सरकारों द्वारा मान्य किया जाना रिपब्लिकन पार्टी की ऐतिहासिक विजय थी। सचमुच में, जिस उद्देश्य को प्राप्त करने पार्टी का गठन हुआ था, निस्संदेह उस में एक बड़ी सफलता प्राप्त हुई थी।
धर्मान्तरित बौद्धों को अनुसूचित जाति के तौर मान्यता-
अग 1977 में रिपब्लिकन पार्टी(गवई गुट ) के अध्यक्ष रा. सू. गवई ने नवदीक्षित बौद्धों को अनु जाति के बतौर आर्थिक और सरकारी सेवाओं में प्रदत्त सुविधाएं बहाल किए जाने की मांग की। इस तरह की लगातार मांग और बढ़ते जन दबाव से अंतत: जनता दल के शासन काल (1990 ) में प्रधान मंत्री वी पी सिंह ने संविधान संशोधन कर धर्मान्तरित बौद्धों को अनुसूचित जाति के बतौर मान्यता दे दी(वही, पृ 268 )। निस्संदेह, सन 1957 से लंबित धर्मान्तरित बौद्धों की लड़ाई में अंतत: वर्ष 1990 में आंशिक सफलता प्राप्त हुई थी किन्तु सरकारी सेवाएं और राजनितिक क्षेत्र अभी भी दूर थे ।
नेताओं की टकराहट और पार्टी का विघटन -
14 मई 1959 को एडव्होकेट बी. सी. काम्बले ने पार्टी में विघटन पैदा कर अपना अलग; कामले गुट बना कर सबको हैरान कर दिया । इस गुट को एडव्होकेट बाबू हरदास आवले, दादासाहेब रूपवते, ए. जी. पवार और एस. एन. काम्बले का समर्थन प्राप्त था। अक्टू 1964 में दादासाहेब गायकवाड़ के सहयोगी आर. डी. भंडारे ने फिर अपना अलग गुट तैयार किया (वही, पृ 269 )। कुछ समय बाद, आर. डी. भंडारे, दादासाहब रूपवते और एन. एम. काम्बले कांग्रेस में चले गए (वही, पृ 277 ) पार्टी में फुट का असर यह हुआ कि जहाँ 1957 के आम चुनाव में मुंबई से पार्टी के 7 सांसद चुने गए थे वहीँ, 1962 के आम चुनाव में महाराष्ट्र से एक भी सांसद नहीं चुना जा सका । केवल 3 विधायक ही महाराष्ट्र विधान सभा के लिए चुन कर आ सके थे (वही, पृ 275 )।
अक्टू 1, 1964 को पार्टी अध्यक्ष एन शिवराज का निधन हो गया जिससे दादासाहेब गायकवाड़ को अध्यक्ष बनाया गया। तत्कालिक तौर पर पार्टी अध्यक्ष बने दादासाहेब गायकवाड़ सर्व मान्य नेता नहीं थे।
महाराष्ट्र में दादासाहब गायकवाड़ ने 1967 में कांग्रेस से गठबंधन किया जिससे रा. सू. गवई को विधान परिषद में उपसभापति का पद मिला। किन्तु इस गठबंधन से पार्टी संगठन को भारी नुकसान हुआ। आपसी खींचातानी से दादासाहेब रूपवते पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए(वही, पृ 270 -71 )।
वर्ष 1967 के लोकसभा चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी का सिर्फ 1 सांसद अकबरपुर (उ प्र ) से रामजी राम चुनकर आए थे । जबकि विधान सभाओं के लिए 21 उम्मीदवार; आ. प्र. से 2, बिहार से 1, हरियाणा से 2, महाराष्ट्र से 4, मैसूर से 1, पंजाब से 3 और उ. प्र. से 8 चुनकर आए थे।
दादासाहेब गायकवाड़ का स्वास्थ्य ठीक न रहने से 1969 में उ प्र के बुद्धप्रिय मौर्य को पार्टी कार्याध्यक्ष बनाने का सुझाव एडव्होकेट ना. ह. कुम्भारे ने दिया किन्तु इसे माना नहीं गया। स्मरण रहे, बुद्धप्रिय मौर्य ने उ. प्र. में काफी काम किया था। उन्होंने मुस्लिम समाज में रिपब्लिकन पार्टी का काफी जनाधार बढ़ाया था। और यही कारण है कि उ. प्र. से लोकसभा और विधान मंडल में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार चुन कर आए थे। किन्तु अपेक्षित सम्मान न मिलने से वे पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए(वही, पृ 271 )।
बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे बाबासाहब अम्बेडकर के समय से ही शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के महासचिव थे। इस पद पर उनकी नियुक्ति 31 दिस. 1956 को हुई थी। स्पष्ट है, पार्टी में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। किन्तु दादासाहेब गायकवाड़ के ख़राब स्वास्थ्य के चलते पार्टी अध्यक्ष उन्हें न बनाया जा कर उलटे 1970 में उन्हें इस पद से हटा दिया गया और उनके स्थान पर
एडव्होकेट एन एच कुम्भारे को महासचिव बनाया गया। पार्टी निर्णय से नाराज बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे ने अपना अलग गुट तैयार किया (वही, पृ 271-72 )।
अक्टू 1970 में गायकवाड़ गुट और खोब्रागडे गुट के एकीकरण का प्रयास माननीय एडव्होकेट बाबू हरदास आवले ने किया किन्तु वे सफल नहीं हुए । हाँ, वे इस बीच कामले गुट छोड़कर खोब्रागडे गुट में शामिल हो गए(वही)।
1971 में दादासाहेब गायकवाड़ का निधन हो गया। उनके निधन के बाद रा. सू. गवई इस गुट के अध्यक्ष बने। एडव्होकेट बी सी काम्बले जिसने पहली बार पार्टी में फुट डाली थी, 20 अक्टू 1971 को सभी गुटों के एकीकरण के लिए पुणे में एक बैठक आयोजित की परन्तु उस बैठक में कोई भी शामिल नहीं न हुआ(वही )।
स्मरण रहे, 1971 के लोकसभा चुनाव में पंढरपुर(आरक्षित) से दादासाहेब गायकवाड़ गुट के अकेले एन. एस. काम्बले चुनकर आए थे। चूँकि बुद्धप्रिय मौर्य कांग्रेस में शामिल हो गए थे इस कारण गायकवाड़, खोब्रागडे अथवा काम्बले गुट कोई भी अपना उम्मीदवार उ. प्र. में खड़ा नहीं कर पाए। वर्ष 1972 में राज्यों के विधान सभा चुनाव हुए जिस में महा. विधान सभा से 1 और आ. प्र. विधान सभा से 1; इस प्रकार केवल दो ही उम्मीदवार चुन कर आ सके थे (वही, पृ 276 )।
इधर, नेतृत्व का अभाव और पार्टी में फुट के चलते दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों पर अन्याय और अत्याचार की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। 9 जुला 1972 को
'दलित पेंथर' नाम से एक नया लड़ाकू संगठन खड़ा हुआ(वही, 271 -72 )।
26 जन 1974 को चैत्य भूमि मुम्बई में एक बार पुन: रिपब्लिकन पार्टी के सभी गुटों के एकीकरण के जोरदार प्रयास हुए किन्तु वह भी हवा हो गया।
1977 के आम चुनाव में खोब्रागडे गुट ने जनता पार्टी से गठबंधन किया था जिससे उस के 2 उम्मीदवार लोकसभा के लिए चुनकर आए थे । फर 1978 में विधान सभाओं के चुनावों में महा. विधान सभा के लिए 7 और कर्नाटक विधान सभा के लिए 1, इस प्रकार कुल 8 उम्मीदवार चुनकर आए थे(वही, पृ 276 )।
1980, 84, 89, 91 और 96 के लगातार 5 लोकसभा चुनावों में सतत 17 वर्षों तक रिपब्लिकन पार्टी के किसी भी गुट का कोई उम्मीदवार लोकसभा में नहीं पहुँच पाया(वही पृ 276 )।
पुन: 1995 में एकीकरण के प्रयासों में तेजी आई और 26 जन 1996 को उस समय के चारों गुटों; आठवले, गवई, कवाड़े और अम्बेडकर में सचमुच एकीकरण हो गया। चारों गुटों ने संयुक्त रिपब्लिकन पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ा। परिणामस्वरूप 1998 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के 4 सांसद;
रामदास आठवले,
रा सू गवई,
जोगेंद्र कवाड़े और
प्रकाश अम्बेडकर चुन कर आ गए । किन्तु यह एकता अधिक नहीं टिक पाई (वही, पृ 273 -74 ) और सतत पार्टी कमजोर होते चली गई। अपने-अपने स्वार्थ में नेता टूटते गए और बिखरते गए। कई रिपब्लिकन नेता कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस में चले गए और कुछ तक बी. जे. पी., शिवसेना में हैं !
भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने अम्बेडकर के अनुयायियों और विशेषत: धर्मान्तरित बौद्धों को एक राजनीतिक मंच प्रदान किया किन्तु बाबासाहेब अम्बेडकर के बाद, सर्व मान्य नेतृत्व के अभाव ने पार्टी के संठनात्मक ठांचे को खोखला कर दिया। कांग्रेस सहित देश के तमाम राजनैतिक दल यद्यपि आर.पी. आई. को महारों की पार्टी समझते रहे, किन्तु उससे कहीं अधिक नुकसान पार्टी का अपने ही शीर्ष नेताओं द्वारा हुआ । ऐसा नहीं है कि स्वार्थ की राजनीति अन्य पार्टियों में नहीं है, किन्तु यह दृढ़ नेतृत्व ही है कि सबको बांधे रखता है जिसका भयावह अभाव आज, भारतीय दलित राजनीति में है। स्मरण रहे, दलित समाज सामाजिक और राजनैतिक रूप से अपेक्षतया अधिक जाग्रत है किन्तु नेता ही बिकने लगे तो क्या किया जा सकता है ?