Sunday, April 29, 2018

रामचंद्र खंडाले

रामचंद्र जी. खंडाले
देश में ऐसे कई सामाजिक परिवर्तन में सहाय्य नेता हुए हैं जिन्हे नमन करने की जरुरत है। बाबासाहब डा आंबेडकर से अनुप्रेरित होकर जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों के अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य अनुसार कार्य कर सामाजिक परवर्तन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है. हमें उन स्रोतों को खंगालने की जरुरत है जहाँ से उनका पता चल सकता है, इतिहास मिल सकता है.

ऐसे ही एक सामाजिक परिवर्तनकारी शख्स महाराष्ट्र के मांग समाज में पैदा हुए रामचंद्र खंडाले है।
आर. जी. खंडाले का जन्म 21  मई 1913 को महाराष्ट्र,  पुणे जिले के कुरकुंभ गावं में हुआ था। इनका पूरा नाम रामचंद्र गेबूजी खन्ड़ाले था। इनके पिता गेबूजी खन्ड़ाले कृषि मजदूर थे। बालक रामचंद्र ने 4 थी कक्षा 1931 में उत्तीर्ण की थी। इनकी पत्नी का नाम लालबाई था।

आपने कई गावं-देहातों में किन्हीं मुश्किलातों में पैदा हुए बच्चे को किसी पण्डे/पुजारी की सलाह पर गावं देवी की सेवा में लगे हुए देखा होगा।  बालक रामचंद्र को भी इसी तरह पोटराज (देवी का अटेंडेंट ) के रूप में अर्पित किया गया था। उसके सिर पर लम्बे-लम्बे बाल थे। किन्तु जय हो, बाबासाहब डा अम्बेडकर के नेतृत्व में चले दलित आंदोलन का कि दौंद(पुणे) निवासी बाबासाहब आंबेडकर के अनुयायी बाबा वाघमारे द्वारा समझाने-बुझाने पर उसके सिर के बाल काटे गए और तभी से बालक रामचंद्र  बाबासाहब डा आंबेडकर का अनुयायी हो गया। सनद रहे,  यह घटना 1930 की हैं।

हम बतला चुके हैं कि बचपन से ही रामचंद्र खन्ड़ाले बाबासाहब डा आंबेडकर के द्वारा चलाए गए दलित-आंदोलन से बहुत प्रभावित थे । रामचंद्र ने भी, जिस समाज में वे पैदा हुए थे, उस मातंग समाज को संगठित करने का संकल्प लिया।  इस उद्देश्य के निमित्त रामचंद्र खंडाले ने 1932 में 'अखिल भारतीय मातंग सेवा समाज' की स्थापना की। इसी प्रकार, वर्ष 1934 की अवधि में पुणे की दौंद तालुका में, रामचंद्र खांडाले ने बम्बई प्रदेश मातंग परिषद की बड़ी सभा आयोजित की थी जिसमें मुख्य अतिथि बी. के. गायकवाड़ और अध्यक्ष पी. एन. राजभोज थे। इस सभा में एक स्वर से बाबासाहब  डा आंबेडकर का अनुकरण करने का संकल्प लिया गया था।

हिन्दुओं की हठ-धर्मिता देख कर बाबासाहब डा आंबेडकर ने दलितों की अस्मिता की रक्षा के लिए जब इंडियन नेशनल कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के आगे  'पृथक निर्वाचन' की मांग रखी तो रामचंद्र खंडाले ने 'मातंग समाज' की ओर इसका पुरजोर समर्थन किया था।

रामचंद्र खंडाले, सामाजिक बुराइयों यथा मद्यपान, गो  मांस भक्षण, हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा के विरोधी थे । 'पोटराज प्रथा', 'देव दासी प्रथा' और 'मुराली प्रथा' के भी रामचंद्र खन्ड़ाले सख्त विरोधी थे। वे महारों और मांगों द्वारा परम्परागत की जा रही 'महारकी' और 'मांगकी' प्रथा के खात्मे के प्रबल समर्थक थे । महाराष्ट्र में उन्होंने मांग और महारों की एकता के लिए जी तोड़ प्रयास किया था।

रामचंद्र खन्ड़ाले का राजनितिक जीवन उललरखनीय है। आप 1937  में 'इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी' में सम्मिलित हुए थे।  1939 में जिला स्थानीय बोर्ड पुणे के सदस्य चुने गए थे। रामचंद्र खन्ड़ाले 1942 में शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के पदाधिकारी थे। वे वर्ष 1957  में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया में सम्मिलित हुए थे।

रामचंद्र खंडाले ने नागपुर दीक्षा भूमि में 14 अक्टू 1956 को बाबासाहब के साथ बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का गौरव प्राप्त किया था। वे बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सतत कार्य करते रहे।  वे बौद्ध होने के कारण 1957 के चुनाव में सुरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ सकें थे। 1958 में जब इनकी पत्नी का निधन हुआ था, सामाजिक कार्यों में व्यस्त होने के कारण ये घर से बाहर थे।

रामचंद्र खंडाले ने दौंद में 1959 में अनु जाति के विद्यार्थियों के लिए 'नव जीवन विद्यार्थी वसती गृह' नामक छात्रावास की स्थापना की थी। वे आजीवन उसकी देखभाल करते रहे।

रामचंद्र खन्ड़ाले 1960 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के महाराष्ट्र इकाई के संयुक्त सचिव चुने गए थे। उन्होंने 1962  और 1972 में चुनाव लड़ा था किन्तु वे विजयी न हो सके थे। समाज के प्रति उल्लेखनीय सेवाओं के लिए  21 मई 1987 को रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया पुणे इकाई के एक विशाल कार्यक्रम में  रू. 15051 की राशि भेट कर उनका सार्वजानिक सम्मान किया गया था(Source:Encyclopaedia of Dalits in India:Leaders Page 287-289)।

Friday, April 27, 2018

बुद्ध की दृष्टि में स्त्री

आनंद- "भगवान! स्त्रियों के सम्बन्ध में हमें कैसा बर्ताव करना चाहिए ?"
तथागत- "उन्हें देखो मत। "
आनंद- "अगर देखने की विवशता आ पड़े तो ?"
तथागत-  "उनसे बोलो मत। "
आनंद- "यदि वे ही हम से बोलने लगे तो ?"
तथागत- " शील पालन में सतर्क रहो ।"

उक्त प्रसंग सुत्तपिटक का है।  सुत्तपिटक, जो बौद्ध ग्रंथों में प्रमुख है, के महापरिनिब्बान सुत्त में उक्त कथानक आया है। इस कथानक के अनुसार महापरिनिर्वाण के कुछ ही क्षणों पूर्व बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य आनंद को स्त्रियों के लिए 'अदर्शन' और 'असंलाप' की बात की थी।

इस तारतम्य में, बाबासाहब डा अम्बेडकर कहते  हैं कि ये ग्रंथ बौद्ध चिंतन शैली के लिए एकदम अपरिचित एवं अकल्पित, पुराण-पंथी मान्यताओं से भरे दिखाई देते हैं। इन में मूल विचारों को ब्राह्मणशाही ढंग से इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है कि जो लोग बौद्ध-शिक्षाओं के तत्व को जानते हैं, उन्हें उपलब्ध ग्रन्थ देखकर आश्चर्य होता है।"

डा अम्बेडकर के कथनानुसार, कई तथ्य हैं,जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि अनेक कथानकों के साथ यह कथानक भी भिक्खुओं द्वारा कालांतर में प्रक्षिप्त किया गया। यह सुविदित तथ्य है कि तथागत के महापरिनिर्वाण के 400 वर्षों तक ति-पिटक मौखिक ही रहा। दूसरे,  बुद्ध के समय ही उनके वचनों को तोड़-मरोड़ कर प्रचारित करने की घटनाएं होती रही हैं । एक और महत्वपूर्ण बात, जिन्होंने इसका संकलन और संपादन किया, वे भिक्खु थे। निस्संदेह, स्त्री संसर्ग से दूरी उनके लिए यथार्थ और आदर्श थी ।

डा अम्बेडकर  के अनुसार, कालामो को दिए गए बुद्ध उपदेश की कसौटी की तर्ज पर हम यह जांचे कि क्या ऐसे प्रश्न करना आनंद के लिए अभीष्ट थे ? ति-पिटक ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग हैं, जहाँ महिलाएं, आनंद के उपदेश से भाव-विभोर हो जाती हैं और जैसे ही आनंद चुप होते हैं, वे उदास हो जाती हैं। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था।  श्रद्धालु स्त्रियों से मिलना आनंद के लिए सामान्य बात थी। दूसरे, तथागत स्वयं भी स्त्रियों से मिलने में परहेज नहीं करते थे।

विशाखा ने, जो बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में एक थी, क्या तथागत से दर्शन और संलाप किए बिना इतना बड़ा सम्मान का पद प्राप्त कर लिया था। राजनर्तकी अम्बपाली, जो स्वयं तथागत के पास गई थी और भिक्खुओं को भोजन के लिए अपने घर आमंत्रित किया था, क्या बुद्ध अथवा भिक्खुओं ने उससे कोई परहेज किया था ?  महाप्रजापति गौतमी 500 स्त्रियों को लेकर तथागत के पास धम्म का उपेदश लेने पहुंची थी,  क्या उन्हें देखकर बुद्ध भाग खड़े हुए थे ? महाराजा प्रसेनजित की महारानी मल्लिका का भगवान के उपदेश सुनने की लिए जब-तब उनके पास जाने का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में यहाँ-वहां मिलता है।

उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बुद्ध, स्त्रियों से मिलने परहेज नहीं करते थे और न ही स्त्रियां उनके पास आने से डरती अथवा संकोच करती थी। इसके विपरीत उन्होंने भिक्खुओं से कहा था की वे समयानुकूल स्त्रियों को माता-बहन या पुत्री के रूप में देखें।

जहाँ तक स्त्रियों को घर से बेघर हो, प्रवज्या लेने की बात है अथवा भिक्खुनी-संघ को भिक्खु-संघ के अधीन रखने का मसला, दोनों हो प्रसंगों में बुद्ध की यह कतई देशना नहीं थी कि स्त्रियां पुरुषों से किसी भी मामले में कमतर हैं। आनंद के प्रश्न के उत्तर में तथागत ने स्पष्ट कहा था कि स्त्रियां निर्वाण का सुख प्राप्त करने की समान हकदार हैं। दरअसल,  बुद्ध के सामने व्यवहारिक कठिनाई थी। भिक्खु-संघ आचार और धम्म के मामले में अनुभवी था। किन्तु नई भिक्खुणियों को प्रशिक्षित किए जाने की जरुरत थी। दूसरे, स्त्री-पुरुष में एक-दूसरे के प्रति स्वाभाविक यौन आकर्षण के मद्देनजर यह आवश्यक था कि भिक्खुणियों का संघ भिक्खु-संघ से पृथक रहे(सन्दर्भ- भारतीय नारी का उत्थान और पतन: डा. बी. आर. आंबेडकर )।
  

Thursday, April 26, 2018

दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ़ इंडिया

दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ़ इंडिया(भारतीय बौद्ध महासभा) की स्थापना बाबासाहब डा अम्बेडकर ने  4 मई 1955 को की थी।
बौद्ध धर्म प्रचार समिति के सचिव आर डी  भंडारे

लक्ष्य-
धाम का प्रचार करना
-बुद्ध विहारों की स्थापना
-स्कूलों और कालेजों की स्थापना करना।
-बुद्धिस्ट साहित्य का प्रचार
-नया भिक्खु संघ तैयार करना यदि आवश्यक हो

समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित समाज की स्थापना ।
- बौद्ध समाज की पहचान बनाना ।
-बुद्धिस्ट पर्सनल लॉ तैयार करना।
- भिक्खु संघ में व्याप्त भिन्नता समाप्त करना।
-सामनेर प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना, आदि हैं।
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Tuesday, April 24, 2018

रॉव बहादूर एन शिवराज (N Shivraj)

रॉव बहादूर एन सिवराज (1892-1964)

N. Shivraj with Dr Ambedkar
 एन शिवराज का पूरा नाम नमसिवयम सिवराज() था। इनका जन्म   नमसिवयम 29  सित 1892  में हुआ था। सिवराज का विवाह अन्नै मीणाम्बल(Annai Menambal) से हुआ था.

 आपके पिताजी नमो शिवाय  मद्रास स्टेट के कुडप्पा (आंध्र प्रदेश ) में
 एकाउंटेंट थे।

आपने मेट्रिक के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास से  1911  में बी ए  और 1915 में मद्रास यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ़ लॉ किया था।
इसके बाद मद्रास हाई कोर्ट में आपने प्रेक्टिस शुरू की। आपने गवर्नमेंट लॉ कॉलेज मद्रास में  13  वर्ष तक प्रोफ़ेसर रहे थे।

आपने पेरियार रामास्वामी नायकर की जस्टिस पार्टी से अपनी राजनैतिक यात्रा शुरू की थी। सन 1926 में जस्टिस पार्टी की टिकिट पर आप मद्रास असेम्बली के लिए चुने गए जहाँ आप 1937 तक आपने प्रतिनिधत्व किया।  1937 से 1945  तक आप इम्पीरियल लेजिस्लेचर ऑफ़ इंडिया के रूप में देश की सेवा करते रहे।
1945-46 की अवधि में आप मद्रास कार्पोरेशन के मेयर रहे थे।
एन सिवराज 1952 में सांसद के रूप में चुने गए थे।  पुन: भारतीय संसद में चेंगलपट्टु का प्रतिनिधित्व करते हुए आप  1957 से 1962 की अवधि तक सांसद रहे।

देश के राजनैतिक परिदृश्य में अनु. जाति  के हितों की आवाज को रखने नागपुर में बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने 17-20 जुलाई, 1942 को 'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' का गठन किया था। एन सिवराज इसके इसके अध्यक्ष चुने गए थे।  1957 में शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन को ख़त्म कर उसके स्थान पर जब रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया का गठन किया गया तब, पार्टी का प्रथम अध्यक्ष एन शिवराज को ही बनाया गया था।


Annai Menambal Shivarajअन्नै मीणाम्बल
एन शिवराज की पत्नी अन्नै मीणाम्बल भी दक्षिण भारत की एक प्रमुख दलित नेत्री थी। पति एन सिवराज के साथ वह कंधे-से कन्धा मिला कर चलती थी। 'ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कॉस्ट फेडरेशन' के महिला विंग का अधिवेशन जब 23 सित 1944 को मद्रास में हुआ था तब, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर इस अधिवेशन में उपस्थित हुए थे। इसी प्रकार 6  मई 1945 को मुंबई में संपन्न 'ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कॉस्ट फेडरेशन' के अधिवेशन की अन्नै मीणाम्बल ने अध्यक्षता की थी। इसके आलावा वे कई महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान रही। यह अन्नै मीणाम्बल ही थी जिसने ई वी आर रामास्वामी को मद्रास में संपन्न एक कांफ्रेंस में  ''पेरियार' की पदवी से अलंकृत किया था। 'पेरियार' अर्थात महान। इस महान दलित नेत्री का निधन 30 नव 1992 में हुआ था।

दीवान बहादूर श्रीनिवासन (R Srinivasan)

दीवान बहादूर आर श्रीनिवासन  (1960 -1945 )

पूरा नाम -दीवान बहादूर रेता मलाई श्रीनिवासन।

आर श्रीनिवासन स्वतंत्रता सेनानी थे। वे गांधीजी के करीबी रहे हैं । जिस साऊथ अफ्रिकन कोर्ट में श्रीनिवासन ट्रांसलेटर थे, उसी कोर्ट में गांधीजी एडव्होकेट के रूप में प्रेक्टिस करते थे। 

आपका जन्म सन 1960 में मद्रास प्रेसिडेंसी के एक परियार (Paraiyar)परिवार में हुआ था। आपने  'पारियां ' नामक  मासिक तमिल पत्रिका सन 1893 में शुरू की थी।

सन 1891 में आर  श्रीनिवासन ने 'पेरियार महाजन सभा' की स्थापना की थी जिसका बाद
में नाम  'आदि द्रविड़ महाजन सभा पड़ा  ।

सन 1922 में श्रीनिवासन मद्रास लेजिस्लेटिव असेम्ब्ली के लिए चुने गए थे।

सनद रहे, लंदन गोलमेज सम्मेलन के प्रथम और दूसरे सत्र  (1930-31) में आपने डॉ आंबेडकर के साथ शिरकत की थी। सन 1939 में डॉ आंबेडकर के सहयोग से आपने मद्रास प्रोविंस शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की थी।

प्रतीत होता है , राव बहादुर श्रीनिवासन,  डा अम्बेडकर के धर्मान्तरण आंदोलन के विरोधी थे( पृ  69 , धम्म चक्र के बाद के परिवर्तन )।

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 He was brother-in-law of Iyothee Thass.

Monday, April 23, 2018

रामसूरत साहेब

रामसूरत साहेब-
रामसूरत साहेब का जन्म सन 1916 को खिरचीपुर जिला गोंडा(उ. प्र.) के एक कुर्मी परिवार में हुआ था।  आपके पिता का नाम रघुवीर वर्मा था।  आपने 12 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग दिया था । आपको साधु का वेश बड़हरा के वैष्णव साधु राजाराम दास ने  दिया था। रामसूरत साहेब ने कबीर निर्णय मंदिर  बुरहानपुर (खंडवा, जिला म. प्र.) के लाल साहेब से बीजक-पंचग्रंथी  की विधिवत शिक्षा प्राप्त की थी।

रामसूरत साहेब को महंत की पदवी लाल साहेब ने सन 1942 में दी थी। रामसूरत  साहेब  का कार्य-क्षेत्र मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात आदि था। आपने सन 1970  में जियनपुर, अयो ध्या में कबीर आश्रम की स्थापना की थी । राम सूरत साहेब ने  'विवेक प्रकाश', 'रहनि  प्रबोधनी', 'बोधसार', 'गुरु पारख बोध आदि ग्रंथों की रचना की थी ।  आपका देहांत 23 जुलाई 1998 को हुआ था।

कल्याणदास साहेब

कल्याणदास साहेब
कल्याणदास साहेब -
कल्याणदास साहेब को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। वे बड़े मिलनसार और सज्जन पुरुष थे।
गुरु बालकदास साहेब और उन के बीच गाढ़ी मित्रता थी, संभवत: दोनों कबीर पंथ के महंत होने के कारण। कल्याणदास साहेब का प्रवास प्राय: गुरूजी के यहाँ हुआ करता था। महंत कल्याणदास साहेब के शिष्य भी भंडारा-बालाघाट क्षेत्र में काफी थे।

कल्याणदास साहेब के गुरु ग्राम सेलूद जिला दुर्ग के विद्यासाहेब थे। सेलूद में उनका कबीर-आश्रम था। गुरु विद्यासाहेब का निधन 16  अग.1968 को हुआ था।  विद्यासाहेब के देहांत के बाद गुरु गद्दी कल्याणदास साहेब मिली थी। 

खिनाराम बोरकर

खिनाराम बोरकर
खिनाराम बोरकर 
खिनाराम बोरकर 'टेलर साहेब' के नाम से जाने जाते हैं। दरअसल वे कपडे सिला करते थे। ऐसा नहीं हैं कि यही उनके परिवार की जीविका थी। वे एक बड़े किसान के बेटे थे। शायद, किसानी में उनका मन रमता नहीं था। या तो वे किसी सामाजिक चर्चा में होते अथवा सत्संग/भजन मंडळी में और इसलिए लोग उन्हें 'टेलर साहेब ' के नाम से बुलाया करते हैं।

टेलर साहेब मेरे पैतृक गावं सालेबर्डी से सटे हुए येरवाघाट के रहने वाले थे। उनके पिता तुकाराम बोरकर बड़े किसान थे। टेलर साहेबजी का जन्म सन 1927 में हुआ था। आपने 4 थी प्रायमरी तक शिक्षा प्राप्त की थी। टेलर साहेब, एक बहुत ही सादे स्वभाव के और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी है।  वे संत घराने से तब से हैं, जबसे उनकी शादी हुई थी। अपनी शादी के बारे में, टेलर साहेब ने एक बड़ी दिलचस्प घटना सुनाई थी-

बालकदास साहेब पूर्व में रामानंदी पंथ के थे। गुरूजी के पिता बपेरा(महाराष्ट्र) निवासी  वासनिक  परिवार से थे । गुरूजी और कचेखनी के फलिराम साहेब गुरु-भाई थे। फलिराम साहेब के पिताजी का नाम पंडित गुणाराम था। वे मेश्राम(सातदेवे) थे। इस संत-घराने के गुरु रामदास साहेब थे। फलिराम साहेब पंडिताई का काम करते थे। पंडिताई का पेशा इन्हें बाप-दादाओं से मिला था। पंडिताई का कार्य करने के कारण लोग उन्हें 'बाबाजी' कहते थे।

फलिराम बाबा का आना-जाना टेलर साहेब के यहाँ होता था। उस समय टेलर साहेब विधुर थे।  उनकी पत्नी किसी बीमारी की वजह से चल बसी थी। यद्यपि टेलर साहेब के पिताजी चाहते थे कि लड़का दूसरी शादी  करले मगर, टेलर साहेब को कोई लडकी पसंद  नहीं आ रही थी। इसी बीच टेलर साहेब को फलिराम बाबा की लडकी भा गई। टेलर साहेब ने अपनी इच्छा से पिताजी को अवगत कराया। मगर, यहाँ एक जबर्दस्त पेंच था। फलिराम बाबा संत थे और वे चाहते थे की उनकी लडकी का विवाह संत घराने में ही हो।

बालकदास साहेब तब रामानंदी पंथ के महंत थे।  वे अक्सर महाराष्ट्र और म.प्र. से जुड़े क्षेत्र; भंडारा-बालाघाट में प्रवचन/कीर्तन करने आया-जाया करते थे। तब, उनके सिर पर लम्बी-लम्बी जटा हुआ करती थी। तब, वे बीडी का कारखाना भी चलाया करते थे। कीर्तन/प्रवचन और बीड़ी ठेकेदारी के कारण वे इधर आया-जाया करते थे।

काफी समय के बाद टेलर साहेब बाबाजी की लड़की पसंद आयी थी। उन्होंने पिताजी को कह दिया था कि अगर बाबाजी संत घराने में ही लडकी देना चाहते हैं तो वे संत बनने तैयार है। टेलर साहेब के पिता तुकारामजी को माजरा समझते देर नहीं लगी। संतान के नाम पर टेलर साहेब अकेली संतान थे। उन्होंने बपेरा के बालकदास साहेब को जांचा-परखा था।  पिताजी ने उन्हें आमंत्रित किया और विधि-विधान से परिवार के लोगों ने गुरु-दीक्षा ली।

गुरु-दीक्षा लेने के विधि-विधान के बारे में टेलर साहेब ने बताया कि तब,  कमरे के दरवाजे-खिड़कियाँ सब बंद कर दिए जाते थे, जब गुरु शिष्य के कान में फूंक मार कर 'तिनका तोड़ने' का तारक मंत्र देते थे। उधर, भजन मंडळी जोर-जोर से ढोलक-मंजीरे की ताल पर भजन गाती थी ताकि तारक-मन्त्र को कोई सुन न लें ।


सनद रहे, संत बनना सहज नहीं होता। संतों को कड़े आचरण और नियमों का पालन करना होता है। मांस खाना और मद का सेवन वर्ज्य होता है। घर और बाहर तन-मन से शुध्दता रखनी पडती है। यहाँ तक कि  अगर कहीं आप जाते हैं, फिर चाहे नजदीकी रिश्तेदारी में क्यों न हो, खाना आपको खुद पकाना होता है।

बहरहाल, फलिराम बाबा की पुत्री से टेलर साहेब का विवाह हुआ। यह घटना 1949 की है। पीढ़ियों से चले आ रहे संत घराने में पली-बढ़ी लडकी नए-नए संत बने घर में बहू बन कर आयी तो उसे कई चीजें अटपटी लगी । एक दिन हुआ ये कि बहू ने पानी गरम करने का बर्तन, रसोई में खाना बनाने के चूल्हे पर देख लिया।  तब, मिटटी के बर्तन हुआ करते थे।  टेलर साहेब बताते हैं कि उस ज़माने में, संतों के घरों में दो चूल्हे होते थे- एक रसोई में खाना बनाने का और दूसरा, रसोई के बाहर स्नान वगैरे के लिए पानी गर्म करने का । रसोई वाले चूल्हे को सबेरे-सबेरे घर की बहू को स्नान-ध्यान कर छुई से लीपना-पोतना पड़ता था और तब, उसमें आग जलाई जाती  थी। टेलर साहेब को जब पत्नी ने शिकायत की और कहा कि ऐसा उसने इसके पहले भी एक-दो बार देखा है तो  उन्हें बड़ा गुस्सा गया। उन्होंने गुस्से-गुस्से से लकड़ी का डंडा पकड़ा और रसोई में जो भी बर्तन दिखे,फोड़ डाला ।

उधर, पिताजी ने जब यह देखा तो उन्हें बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने मुझे घर से निकल जाने को कहा। तैश में, मैं भी घर से निकलकर आपके गावं सालेबर्डी चला आया और एक रिश्तेदार के यहाँ ठहर गया। पिताजी का गुस्सा जब शांत हुआ तब उन्होंने करीबी 2-3 लोगों के साथ मेरे घरवाली को मुझे मनाने भेजा। 

ज्ञानदास साहेब

ज्ञानदास साहेब
ज्ञानदास साहेब
हमारे गुरु जी महंत बालकदास साहेब को कबीरपंथ की गुरु गद्दी महंत गुरु ज्ञानदास साहेब, कटंगी वाले से मिली थी। ज्ञानदास साहेब से मेरा सीधा परिचय नहीं है। स्वभावत: ज्ञानदास साहेब के बारे में मुझे जानने की इच्छा हुई। गुरुजी अक्सर मुझे उन पलों की कहानी सुनाया करते थे कि कैसे गुरु ज्ञानदास साहेब ने उन्हें अपने उत्ताधिकारी के रूप में चुना था।  इस चर्चा में कटंगी का नाम आता था। कटंगी में, ज्ञानदास साहेब की एक पुत्री है, इस तरह की जानकारी मेरे पास थी और एक  बात, देवाची चिचखेड़े को मैं पहले से जानता था। मगर, मुझे यह नहीं मालूम था कि देवा जी चिचखेड़े और ज्ञानदास साहेब की पुत्री में कोई रिश्ता है.

बहरहाल,पिछले मार्च 11 को, अवसर निकाल कर मैंने कटंगी का विजिट किया। हम लोग सालेबर्डी, जो मेरा नेटिव गावं है, से निकले थे।  प्लान के अनुसार येरवाघाट के खिनाराम बोरकर साहेब को भी हमने अपने साथ रख लिया। हम नवेगावं होते हुए कटंगी पहुंचे। खिनाराम बोरकर 'टेलर साहेब' के नाम से जाने जाते हैं। आप गुरु जी के प्रथम शिष्य हैं। प्रथम शिष्य होने से गुरु जी के शिष्यों में उनको खास मुकाम हासिल है।  मुझे पता था कि गुरु ज्ञानदास साहेब की पुत्री/दामाद से टेलर साहेब का परिचय है। हम सीधे चिचखेड़ेजी के घर पहुचे।  चिचखेड़ेजी के घर पहुँचते-पहुचते रात हो गई थी। अत: हमने रात्रि विश्राम भी उन्हीं के यहाँ करने का फैसला किया ताकि विस्तार से चर्चा हो सके।

ज्ञानदास साहेब का पहले का नाम भसवड़ था। 'ज्ञानदास' की पदवी तो उन्हें कटंगी के जमींदार जगराम पालीवाल ने दी थी। ज्ञानदास साहेब धर्म, दर्शन और अध्यात्म के बड़े विद्वान थे।  शायद, इसी कारण उन्हें 'ज्ञानदास' की पदवी मिली थी। वे ऊँचे-पुरे अच्छे कद-काठी के व्यक्ति थे। वे हमेशा सिर पर कोसे का साफा बांधा  करते थे। उनके एक हाथ में कुबड़ी(यौगिक क्रिया में श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करने के लिए लकड़ी का एक यंत्र) और दूसरे हाथ में झारी( पीने का पानी रखने के लिए लकड़ी का बर्तन) हमेशा उनके पास होता था। ज्ञानदास साहेब ने उमरी(कटंगी) में अपनी पुत्री के यहाँ 17 जून 1968 को अपना शरीर छोड़ा था।

ज्ञानदास साहेब के गुरु का नाम रामदास साहेब था.रामदास साहेब की कबीर गुरु-गद्दी समनापुर थी। समनापुर काफी बड़ा कस्बा है।  यह गोंदिया-बालाघाट रेलवे रूट पर स्थित है। बताया जाता है, रामदास साहेब रिटायर्ड पुलिस आफिसर थे.

 ज्ञानदास साहेब का जन्म हिरकने परिवार में हुआ था। उनकी तीन संतान थी। पुत्र का नाम हाऊसिदास तथा हंसा और सेवंता नामक दो पुत्रियाँ थी। सेवंता, उमरी के गढ़पाल परिवार में ब्याही गई थी। सेवंता की पुत्री का विवाह कटंगी के एक समृध्द परिवार, देवाजी चिचखेड़े के साथ हुआ था। देवाजी चिचखेड़े का बाप-दादाओं से लम्बा-चौड़ा कारोबार है।  उनके पास खेती के आलावा आज भी दो आयल मिलें,राईस मिल और आटा चक्की हैं।

 रात्रि में चर्चा के दौरान मिसेज चिचखेड़े ने उस दिलचस्प वाकया का बयां किया, जिसे मैंने अपने गुरु जी से कई बार सुना था। ज्ञानदास साहेब को अपनी देह छोड़ने का पूर्वाभास् हो गया था। उन्होंने अपने अन्तिम संस्कार से सम्बन्धित सारी तैयारियां खुद अपने सामने करवाई। यहाँ तक की डोली भी तैयार करवाई थी।  संत परम्परा में शव को अर्थी में न ले जा कर डोली में समाधि अवस्था में बैठे हुए भजन-मंडळी के साथ ले जाया जाता है। मिटटी भी समाधि अवस्था में बैठे हुए दी जाती है।

बालकदास साहेब वगैरे एक दिन पहले ही उनके दर्शन कर जा चुके थे। उनके प्रिय अन्य दो महंत कल्याणदास साहेब और सुखरामदास साहेब भी जा चुके थे। यद्यपि, बालकदास साहेब को, साहबजी काफी रोक रहे थे किन्तु, कोई जरुरी कार्य-वश उन्हें जाना पड़ा था। समय को सन्निकट देख साहेबजी को चिंता होने लगी। उन्होंने सेवंता को पास में बुलाया और कुछ अस्पष्ट शब्दों में कहा- सेवंता, मुझे मुक्ति कौन देगा ? सेवंता भी संत की बेटी थी।  उसने तुरंत आगे बढ़ कर दृढ  शब्दों में कहा- पिताजी, मुक्ति मैं दूंगी। ज्ञानदास साहेब तब, उस अवस्था में भी मुस्करा दिए थे। सनद रहे, संत परम्परा में, देह-त्याग के पहले मनासन्न संत/साधू के कान में एक खास मन्त्र पढ़ कर फूंक मारनी पड़ती है। तभी वह सांसारिक बधनों से मुक्त होता है,ऐसा कहा जाता है और यह काम कोई योग्य-उत्तराधिकारी ही करता है। 

kabir Ashram damakheda

कबीर आश्रम दामाखेड़ा-  












कबीर मेला रायपुर-






भिक्षु जगदीश काश्यप

भिक्षु जगदीश काश्यप( 1908-1976)

भिक्षु जगदीश कश्यप, भदन्त आनंद कौसल्यायन व महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के समकालीन। आपने बौध्द साहित्य समृध्द करने के साथ साथ कई संस्थाओं का निर्माण भी किया था।

भदन्त जगदीश कस्सप पालि भाषा और साहित्य के बेजोड़ पण्डित हुए। पालि व्याकरण के क्षेत्र में उनका कार्य अप्रतिम है। उनके प्रमुख ग्रंथ नागरी लिपि में 41 भागों में संपादित और प्रकाशित सम्पूर्ण पालि तिपिटक, पालि महाव्याकरण, तर्क शास्त्र (आगमन), तर्क शास्त्र( निगमन), अभिधम्म फिलास्फी, पालि निस्सेनी(लघु पालि व्याकरण) , बुध्दिज्म फार एवरीबडी, बुध्दिस्ट आऊटलुक, पालि त्रि-पिटक सद्दानुक्कमणिका, दीघनिकाय (हिन्दी व्याकरण), संयुत्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद भाग-2), मिलिन्द प्रश्न आदि।

भदन्तजी का जन्म 2 मई 1908 का रांचीे, बिहार (वर्तमान में झारखंड)के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम जगदीश नारायण था। जगदीश नारायण के पिता श्याम नारायण रांची कोर्ट में कर्मचारी थे। जगदीश नारायण ने सन् 1929 में पटना कालेज से बी. ए. किया था। तत्पश्चात इन्होने बनारस हिन्दू विश्वद्यिालय से दर्शन शास्त्र में एम. ए. किया।

प्रारम्भ में जगदीश नारायण आर्य समाज से जुड़े थे। वर्ष 1931-33 में आपने गुरुकुल संस्कृत विद्यापीठ में प्राचार्य के पद पर कार्य किया था। वे बलिष्ट कद-काठी और रोबदार व्यक्तित्व के धनी थे। किन्तु शीघ्र ही गुरूकुल के संगठन से उनका मोह भंग हो गया। उन्होंने देखा कि आर्य-समाजी सामाजिक-संबंधों में अपनी जाति से मुक्त नहीं हो पाए थे।

इस बीच उनका रुझान धम्म की ओर बढ़ने लगा। बौध्द धर्म में उच्चतर अध्ययन के लिए काशी के डॉ. भगवान दास और आर्य समाजी गुरू अयोध्या प्रसाद ने उन्हें बतलाया कि इसके लिए उन्हें मूल पालि में ति-पिटक का अध्ययन करना होगा। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि इस हेतु उन्हें सिरिलंका ही जाना होगा। जगदीश नारायण ने सिरिलंका के विद्यालंकार परिवेण के विहार प्रमुख को पत्र लिखा। शीघ्र ही उन्हें इसका विहार प्रमुख पूज्य भंते धम्मानंद महाथेर की ओर से पत्र मिला। यह पत्र राहुल सांस्कृत्यायन का था। राहुल सांस्कृत्यायन ने उन्हें सलाह दी थी कि वह उनके भारत आगमन पर उनसे मिले।

राहुल सांस्कृत्यायन जब बौध्द ग्रंथों की की तिब्बति पांडुलिपियों का विशाल संग्रह लेकर भारत आए तब जगदीश नारायण ने उनसे मुलाकात की। यह विपुल बौध्द साहित्य प्राचीन काल में नालंदा महाविहार से ही तिब्बत और अन्य देशों में गया था। जगदीश नारायण यह सब देख कर काफी प्रभावित हुए। उन्हें  लगा कि नालंदा को फिर से वही स्थान देने के लिए क्यों न काम किया जाए। उन्होंने राहुलजी अपने मन की बात बतायी।
एक दिन राहुल सांस्कृत्यायन ने जगदीश नारायण का ध्यान कालामों को बुध्द के उपदेश की ओर खींचा  जिसमें बुध्द ने कहा था कि उनकी बात को केवल इसलिए ही स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि यह उन्होंने कही है। उसके बारे में आश्वत होने के बाद ही उसे स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए। जगदीश नारायण पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।

जगदीश नारायण के माता-पिता उनके विवाह न करने के निर्णय से वैसे ही क्षुब्ध थे, किन्तु जब उन्हें यह जब पता हुआ कि वह अध्ययन के लिए सिरीलंका जा रहे हैं, तो उन्हें भारी आघात लगा। सन् 1934 में में जगदीश नारायण ने सिरिलंका में रह कर पूज्य महाथेरो धम्मानंद से प्रवज्या ली थी। दीक्षित होने के बाद आपका नाम भिक्खु जगदीश काश्यप हो गया। सिरिलंका विद्यालंकार परिवेण से आपने ‘ति-पिटकाचार्य’ की उपाधि प्राप्त की। पालि का अध्ययन करने के बाद आपने बौध्द ग्रंथों पर लिखना आरम्भ किया।

इसी बीच राहुलजी के साथ भिक्षु जगदीश काश्यप ने जापान की यात्रा की। किन्तु भारत में गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें आगे जाने नहीं दिया गया। वे पेनांग में ही रुक कर पालि ग्रंथों  के अनुवाद के साथ-साथ चीनी सीखने लगे। यही पर उन्होंने ‘दीघनिकाय’ और ‘मिलिन्द पन्ह' के हिन्दी अनुवाद की पांडुलिपि छपने के लिए भारत भेज दी। पेनांग में काश्यप जी लगभग एक वर्ष रुके थे। बौध्द पंडित के रूप में उनकी काफी ख्याति फैली।

काश्यपजी को ‘आनापान सतिपट्ठान (विपस्सना साधना) का अच्छा खासा अभ्यास था। आपने काफी समय बौध्द योग साधना में बिताया। वे इसमें और उच्चतम अवस्था प्राप्त करना चाहते थे। जबकि राहुल सांस्कृत्यायन और भदन्त आनन्द कौसल्यायन चाहते थे कि उन्हें बुध्द की तरह चारिका करते हुए धम्म प्रचार करना चाहिए। किन्तु भिक्खु जगदीश काश्यप अपने दोनों गुरू भाईयों की सलाह को दरकिनार कर एक वर्ष शालागल जंगल में ‘सतिपट्ठान’ का उच्चतम अभ्यास करते रहे। वे वर्ष 1936 के अंत में भारत लौट आए।
भिक्खु जगदीश काश्यप वर्ष 1937 में सारनाथ की महाबोधी सोसायटी के सम्पर्क में आए। महाबोधि सोसायटी के महासचिव देवप्रिय वलिसिंहा के साथ यहां एक स्कूल स्थापित कर दलित वर्ग के बच्चों को पढ़ाया। यहीं से प्रतिदिन वाराणसी विद्यापीठ जाकर आप पालि पढ़ाया करते थे।

पूज्य भंते जगदीश काश्यप ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन कार्य किया।उन्होंने न केवल संस्कृत विभाग में पालि पढ़ाई अपितु दर्शन विभाग में बौध्द तर्कशास्त्र का अध्यापन किया। उन्होंने वहां पालि और बौध्द धर्म के अध्ययन को प्रारम्भ करने का प्रयास किया।

वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो नालंदा के गौरव को फिर से स्थापित करने के पूर्व संकल्प की ओर उनका ध्यान गया। वर्ष 1949 में बनारस से त्याग-पत्र देकर नालन्दा आ गए। वे बिहार में पैदा हुए थे और बिहार के माटी का कर्ज उन्हें झकजोर रहा था। बुध्द की जहां-तहां बिखरी मूर्तियां उनसे सवाल कर रही थी। बिहार की स्थानीय भाषा उन्हें पालि के अत्यन्त निकट जान पड़ी। जगदीश काश्यप ने लोगों को इस सत्य से अवगत कराया कि विहारों से पटे पड़े रहने के कारण ही प्रदेश का नाम विहार पड़ा था। नालंदा के निकट ‘सारि-चक’ गांव सारिपुत्त के नाम पड़ा था।

नालंदा के खंडहर जगदीश काश्यप को आमंत्रित कर रहे थे कि वे उसके स्वर्णीम गौरव को पुनः स्थापित  करने में वे पहल करें। काश्यपजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय (खण्डहर) के पास मुस्लिम भाईयों से जमीन लेकर आपने नव-नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की। दरअसल, प्राचीन नालंदा विश्वद्यिालय के खंडहरों की निकटवर्ती भूमि इस्लामपुर रियासत के मुस्लिम जमींदार की थी। एक दिन भंतेजी चारिका करते जमींदार की डेहरी पर पहुंचे। भिक्षा-पात्र आगे करते हुए भंतेजी ने जमींदार से कहा- ‘आपके पूर्वजों पर नालंदा को जलाकर फूंकने का जो कलंक है, उसे धोने का यह उचित समय है। नालंदा में फिर से उसी स्थान पर पुराने विश्वविद्यालय को खड़ा किया जा रहा है। यह क्षेत्र आपके अधिकार में हैं। भवन के लिए आप जमीन दे दें।’ जमींदार आश्चर्य चकित था। उसने तुरंत भूमि का हुक्मनामा पात्र में डाल कर भंतेजी को प्रणाम किया। भंतेजी ने पुण्यानुमोदन स्वरूप जमींदार को भरपूर आर्शिवचन देकर उनसे विदा ली।

नव-नालंदा विश्वद्यिालय का उद्घाटन 20 नव. 1951 को देश के प्रथम राष्टपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के हाथों हुआ था। डॉ. राजेन्द्रप्रसाद रूढ़िवादी हिन्दू थे किन्तु पूज्य भंते काश्यपजी उन्हें मनाने में सफल हुए। भंतेजी में बात ही कुछ ऐसी थी। नव-नालंदा विश्वद्यिालय के पुस्तकालय के लिए काश्यपजी ने अकथ परिश्रम किया। भंतेजी नालंदा को श्रमण धर्म और संस्कृति का केन्द्र बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बौध्द धर्म के साथ जैन धर्म के दोनों निकायों- श्वेताम्बर और दिगम्बर को नालंदा में स्थापित किया।

पूज्य जगदीश काश्यप के प्रयासों से ति-पिटक के नागरी लिपि में प्रकाशन को भारत सरकार ने स्वीकार किया। सम्पूर्ण ति-पिटक पालि, सिंहली, बर्मी, थाई एवं कम्बोडिया लिपियों में उपलब्ध थे। पालि टेक्स सोसायटी लन्दन ने सम्पूर्ण ति-पिटक को रोमन लिपि में प्रकाशित कर दिया था। किन्तु नागरी लिपि में ति-पिटक उपलब्ध नहीं था। यह वही समय था जब भारत सरकार ने बुध्द के महापरिनिर्वाण के 2500 वीं वर्षगांठ पर बुध्द जयंती मनाने का निश्चय किया था। पूरे ति-पिटक को नागरी लिपि में प्रकाशित करने की भंतेजी की योजना को भारत सरकार ने एक पंचवर्षीय योजना के रूप में स्वीकृति दे दी। आपने ति-पिटक के 41  भागों को अपने अत्यन्त कठिन परिश्रम से सन् 1956 से 1961 की अवधि में प्रकाशित करा दिया।

भदन्त आनन्द कौसल्यायन, राहुल जी को गुरू भाई कहते थे। जबकि अनागारिक धम्मपालधम्मानंद कौसम्बी आपसे ज्येष्ठ थे। जीवन के अंतिम दिनों में भिक्खु जगदीश काश्यप का आश्रय राजगिरी स्थित जापान निर्मित शांति स्तूप हो गया था। यही रहते हुए 28 जन. 1976 को आप परिनिब्बुत्त हुए(संदर्भ- भदन्त आनन्द कोसल्यायन; जीवन और कार्य : मुन्शीलाल गौतम) हैं । 

डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन

डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन(1905-1988 )

भदन्तजी के बचपन का नाम  हरिनामदास था। आपका जन्म 25/5  जन. 1905 को चंडीगढ़ के पास सुहाना नामक गांव के एक खत्री परिवार में हुआ था। आपके पिता रामसरनदास अम्बाला में हाईस्कूल के हेडमास्टर थे।
हरिनामदास के माता-पिता का देहान्त बचपन में ही हो गया था। उनकी शिक्षा बड़ी कठिनाई में हुई थी।

हरिनामदास के माता-पिता का देहान्त बचपन में ही हो गया था। उनकी शिक्षा बड़ी कठिनाई में हुई थी। इसी बीच हरिनामदास की मुलाकात एक साधू से हुई, जिसका नाम रामोदार दास ( राहुल सांसकृत्यायन ) था। इस साधू ने बालक हरिनामदास को परिव्राजक( श्रामणेर) के कपड़े देते हुए बुध्द का मार्ग अपनाने को कहा। अब हरिनामदास का नाम बदलकर विश्वनाथ हो गया। साधू ने विश्वनाथ को चारिका करते हुए बौध्द तीर्थों की यात्रा करने की सलाह दी। गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए विश्वनाथ ने भारत में बौध्द तीर्थों की यात्रा की।

भदन्त जी ने 23 वर्ष की उम्र में सिरिलंका विद्यालंकार विहार के प्रमुख धम्मानंद महास्थविर से प्रवज्या ली। अब विश्वनाथ से उनका नाम आनन्द कौशल्यायन हो गया। अभी उपसम्पदा लिए 5 वर्ष भी नहीं हुए थे कि वे महाबोधी सभा के संस्थापक अनागारिक धम्मपाल के साथ धम्म कार्य से लंदन गए।
भंतेजी स्वदेश आकर फिर धम्म-कार्य में लग गए। सारनाथ में आकर उन्होंने महाबोधी सभा से निकलने वाली पत्रिका ‘धर्मदूत’ का सम्पादन किया। भदन्त जी की प्रवज्या सिरिलंका में हई थी वे अकसर वहां जाते रहते थे। बाबा साहेब आम्बेडकर से उनकी मुलाकात सन् 1950 में सिरिलंका में ही हुई थी। अभिधम्मसंगहो’ जिसे महास्थविर अनिरुध्द ने 11वीं शताब्दी में लिखा था, का अनुवाद आपने किया।

भदन्त जी सन् 1969 में ‘आम्बेडकर समारक समिति’ के निमंत्रण पर  नागपुर आए तो फिर वे यहीं के होकर रह गए। यद्यपि, किन्हीं अज्ञात कारणों से सन् 1982 में उन्हें दीक्षाभूमि छोड़नी पड़ी थी। बाद में भदन्तजी ने बुध्दभूमी महाविहार का निर्माण कर सन् 1985 में उसे अपनी कर्त्तव्य- स्थली बनाया।

अप्रेल 88 में भदन्तजी ने इलाहाबाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। 22 जून 1988 को इस मनीषी ने इस जहां से विदा ली।

भदन्त जी ने लगभग 60 पुस्तकें लिखी हैं- अंगुत्तर निकाय 4 भागों में, जातक कथा 6 भागों में, महावंस, दर्शन(वेद से मार्क्स तक), क्राति के अग्रदूत; भगवान बुध्द, बौध्द धर्म की महान देन अनात्मवाद, बौध्द धर्म; एक बुध्दिवादी अध्ययन, श्रीलंका, धर्म के नाम पर, मनुस्मृति क्यों जलायी गई ?, अग्नि-परीक्षा किसकी?, हिन्दू समाज किधर?, राम कहानी; राम की जबानी, भगवदगीता की बुध्दिवादी समीक्षा, तुलसी के तीन पात, रामचरितमानस में ब्राह्मणशाही और नारी निन्दा,भगवदगीता और धम्मपद, बाबासाहेब; यदि बाबा न होते, ‘दी बुध्दा एण्ड धम्मा’ का हिन्दी अनुवाद ‘भगवान बुध्द और उनका धर्म’ आदि ( भदन्त आनन्द कौसल्यायन; जीवन और कार्य  :लेखक मुन्शीलाल गौतम)।

अंगुत्तर निकाय का अनुवाद करते समय इसके तिक-निपात में आए ‘कालाम सुत्त’ जिसे उन्होंने ‘ मानव समाज के स्वतंत्रा-चिंतन तथा स्वतंत्र-आचरण का घोषणा-पत्र’ कहा है, की चर्चा करते हुए ग्रंथ की प्रस्तावना में भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने लिखा है- इन पंक्यिों का लेखक तो इस सूक्त का विशेष ऋणी है, क्योंकि आज से पूरे 30 वर्ष पूर्व, भगवान का जो उपदेश विशेष रूप उसे उसके त्रिशरण गमन का निमित्त कारण हुआ था, यही वही कालाम सुत्त ही था।

महा पंडित राहुल सांकृत्यायन

महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ( 1893-1969)
महा पंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म ब्राह्मण जैसी हिन्दू समाज की उच्च जाति में हुआ था।  किन्तु , उनका सारा जीवन समाज के उपेक्षितों और दबे-कुचलों के लिए धड़का था। वे मार्क्स वादी चिंतन धारा के निष्णांत पंडित, चिन्तक, विचारक और अध्येयता रहे।  विश्व की 26  भाषाओँ के वे ज्ञाता थे।  उन्होंने अपना अधिकांश जीवन घुमक्कड़ी में बिताया।  राहुल संकृत्यायन जैसा घुमक्कड़ साधू और मानव इतिहास का अध्येयता आपको शायद ही मिले।

राहुलजी का जन्म 9 अप्रेल 1893 को हुआ था। उनके बचपन का नाम केदारनाथ था। उनके पिता का नाम गोवर्धन पांडे आजमगढ़ जिला, कनैला गांव के साधारण किसान थे। उनके माता का नाम कुलवंती देवी था।
‘दुनिया देखने के लिए’ केदार 13 वर्ष की अवस्था में घर से भाग गए।  तब उन्होंने छठवी कक्षा ही उत्तीर्ण की थी। वे प्रारम्भ से ही विद्रोही स्वभाव के थे। वे कई बार घर से भागे थे। यात्रा की ललक तथा ज्ञान की भूख उन्हें दुनियां घूमने को उत्साहित करती थी। इस घूमक्कड़ी में उनका सहवास कितने ही बाबाओं और धार्मिक-मठों से हुआ। वे इन मठों में रहकर सिध्दियां प्राप्त करते रहें, किन्तु न तो उन्हें कोई सिध्दि प्राप्त हुई और न ही किसी देवी-देवता ने उन्हें दर्शन दिए।
इस बीच उनकी मुलाकात महान तर्कवादी पंडित रामवतार शर्मा से हुई। उनके प्रोत्साहन से राहुल ने वाराणसी के दयानन्द स्कूल में 7 वीं कक्षा में दाखिला ले लिया। इसी समय छपरा(बिहार) के परसा नामक स्थान के एक मठाधीश महंत लक्ष्मणदास शिष्य की तलाश में बनारस आये थे। सित. 1912 में राहुल महंतजी के शिष्य होकर परसा चले गए। उनका नाम केदारनाथ से बदलकर ‘रामउदार दास’ कर दिया गया।
किन्तु रामउदार दास यहां भी अधिक समय टिक नहीं सकें। ‘ज्ञान की भूख’ और ‘यात्रा की ललक’ ने उन्हें परसा छोड़ने पर विवश कर दिया। इस बार उन्होंने दक्षिण भारत का रुख किया। साधु रामउदार दक्षिण भारत के तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते हुए अयोध्या पहुंच गए। यहां उनका सम्पर्क आर्य-समाज के प्रचारकों से हुआ। किन्तु आर्य समाज से भी शीघ्र ही उनका मोह-भंग हो गया।
इसी बीच राहुल सन् 1917 के मध्य लखनऊ के बौध्द भिक्षु बोधानंद के सम्पर्क में आए। उन्हें बुध्द के उपदेशों ने प्रभावित किया। वैदिक दर्शन जो उन्हें नहीं दे सका, शायद वह सब उन्हें बुध्द के दर्शन में मिला था। उन्होंने बुध्द को पढ़ना जारी रखा। 1920 में 27 वर्ष की आयु में पहली बार वे लुम्बिनी गए, जहां बुध्द का जन्म हुआ था। बोधगया गए, जहां बुध्द ने बोधि प्राप्त की थी। राहुल सांस्कृत्यायन ने उन सभी पवित्र-स्थलों की यात्रा की जहां विहार करते बुध्द ने धम्म देसना की थी।
अब राहुलजी ने राजनीति में कदम रखा। भारतीय राष्टीय कांग्रेस के असयोग आन्दोलन में सक्रिय भागीदार की। वे कई बार जेल गए। सन् 1922 के दशक में,  बुध्दगया के बोधिमहाविहार को उसके वैध स्वामियों अर्थात बौध्दों को हस्तांतरित करने की कांग्रेसी नेताओं से आग्रह किया किन्तु इसमें वे सफल नहीं हुए।
राहुल सांस्कृत्यायन सन् 1923 में नेपाल यात्रा पर गए। वहां वे चीन और मंगोलिया से आए बौध्द भिक्खुओं के सम्पर्क में आए। वर्ष 1926 में उन्होंने ‘एक खतरनाक यात्रा’ लद्दाख की किया। लौटते हुए पंजाब में उनकी भेट हरनामदास उर्फ ब्रह्मचारी विश्वनाथ से हुई।
भारत की महाबोधि सोसायटी के पूज्य सिरिनिवास नायक थेरा और डी. वलिसिंहा की सिफारिस पर राहुल सांस्कृत्यायन 16 मई 1927 को सीलोन में विद्यालंकार परिवेण में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए। इस समय तक राहुल हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाओं का अच्छा ज्ञान अर्जित कर चुके थे। अब उन्होंने पालि पर ध्यान दिया कुछसमय में समूचे तिपिटक ग्रंथों में महारत हासिल कर ली। इसके लिए उन्हें ति-पिटकाचार्य की उच्चतम उपाधि से विभूषित किया गया। इसी बीच उन्होंने सिंहनी भाषा भी सीखी।
राहुल सांस्कृत्यायन के निमंत्रण पर उनके मित्र ब्रह्मचारी विश्वनाथ भी सिरिलंका पहुंच गए। यही पर ब्रह्मचारी विश्वनाथ ने 10 फर. 1928 को धम्म में उपसम्पदा ग्रहण की। अब वे भिक्खु आनन्द कोसल्यायन हो गए।
वर्ष 1929 में राहुल ने उन बौध्द ग्रंथों की खोज के लिए तिब्बत की यात्रा की जो बौध्द धर्म को नेस्तनाबूद करने हिन्दू शासको के साथ-साथ मुस्लिम आतताईयों के आक्रमण के दौर में बौघ्द भिक्खु धम्म-ग्रंथों के साथ जान बचाकर भागे थे।। क्योंकि भारत में यह अप्राप्त थे।
तिब्बत में राहुल सांस्कृत्यायन ने कई प्राचीनतम बौध्द मठों की खोज-खबर ली। उन्होंने कई दुर्लभ  बौध्द ग्रंथों को खच्चरों पर लाद कर भारत लाया। विनय और सूत्र के 108 खंडों वाले कंजूर और विभिन्न अभिधर्म ग्रंथों  के 125 खंडों वाले तंजूर के अतिरिक्त वह 1619 तिब्बति पांडुलिपियां और चित्र भी लाए। यह अनमोल साहित्यिक खजाना उन्होंने पटना म्यूजियम को भेंट कर दिया।
तिब्बत से लौटने पर साधु रामउदार दास ने अपने मित्र भिखु आनन्द कौसल्यायन के गुरू पूज्य एल. धम्मानन्द महानायक थेरा से 20 जुलाई 1930 को धम्म की विधिवत् दीक्षा ली। अब राहुल सांकृत्यायन ने बौध्द धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ग्रंथ लिखना प्रारम्भ किया। उनका प्रसिध्द ग्रंथ ‘बुद्धचर्या’ वर्ष 1930 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 1932 में वे भदन्त आनन्द कौसल्यायन के साथ महाबोधि सोसायटी की ओर लंदन गए।
इसी बीच जगदीश नारायण नामक एक युवक से राहुल सांकृत्यायन से भेट हुई जिन्होंने अगले ही वर्ष सीलोन जाकर विद्यालंकार परिवेण के प्रमुख पूज्य धम्मानंद महानायक थेरा के हाथों धम्म की दीक्षा ली। उनका नाम अब भिक्षु जगदीश काश्यप हो गया था।
कुछ ही दिनों के बाद इस ‘तिकड़ी’ ने बौध्द धर्म के पुनर्जागरण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका पहला बड़ा योगदान था- पालि ग्रंथों का हिन्दी में उपलब्ध कराना। इन पुस्तकों के प्रकाशन का भार अनागारिक धम्मपाल द्वारा भारत में स्थापित महाबोधि सोसायटी ने उठाया। इस प्रकार वर्ष 1933 के बाद से धम्मपद, मज्झिम निकाय, विनय पिटक, दीघ निकाय, संयुक्त निकाय, उदान, सुत्तनिपात, जातक और मिलिन्द पह आदि ग्रंथ हिन्दी में उपलब्ध हुए।
इसी बीच राहुल सांकृत्यायन 3 बार तिब्बत हो आए। उन्होंने कई सारे मूल्यवान बौध्द ग्रंथ जो भारत में अनुपलब्ध थे, अपने साथ लाए। इन ग्रंथों की खोज में उन्होंने भारी मेहनत की। यहां ला कर उनमें से कुछ को उन्होंने स्वयं संपादित और प्रकाशित किया। उन्होंने जापान, कोरिया, सोवियत रूस आदि देशों की यात्रा की। इसी बीच सोवियत अकादमी ने उन्हें लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया। वे नव. 1937 से जन 1938 तक वहां अध्यापन करते रहे। यहां उनकी भेंट एक युवा रुसी महिला लोला(एलेना नार्वेरतोव्ना) से हुई जो भारत-तिब्बति विभाग की सचिव थी। वह महिला राहुल सांकृत्यायन से संस्कृत सिखने लगी तो इस दरम्यान उसने राहुल से विवाह करने की इच्छा प्रगट की। फलस्वरूप राहुलजी को बौध्द भिक्खु के वस्त्र त्यागने पड़े।
रूस से लौटने के बाद राहुल सांकृत्यायन एक फिर राजनीति में कूद पड़े। उन्होंने किसानों के हित में कई आन्दोलन किये। वर्ष 1940-42 के 29 महिने उन्होंने हजारीबाग और देवली की जेलों में काटे। उनके प्रसिध्द ग्रंथ ‘दर्शन-दिर्ग्शन, ‘मानव समाज’ और वोल्गा से गंगा’ प्रकाशित हुए।
जुलाई 1945 में रुसी सरकार ने उन्हें सोवियत संघ आने का निमंत्रण दिया और लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में उन्हें संस्कृत का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया। इस अवधि (1945 से 1947) में उन्होंने वहां हिन्दी, संस्कृत, तिब्बति और बौध्द तर्कशास्त्र का अध्ययन किया। उनकी पत्नी लोला और पुत्र ईशोर भी लेनिनग्राड में थें। वे अग. 1947 में अकेले ही भारत लौट आए।
वर्ष 1947-48 में राहुल सांकृत्यायन को उन्हें अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। भारत सरकार ने उन्हें संविधान अनुवाद समिति का सदस्य नामजद किया। एक नेपाली महिला कुमारी कमला पेरियार जो उनके टाइप का काम सम्भाले थी, से वर्ष 1950 में उन्होंने विवाह कर लिया।
इस बीच दो खंडों में लगभग 2,000 पृष्ठों में ‘मध्य एशिया का इतिहास’ ग्रंथ उनका प्रकाशित हुआ। इस कृति के लिए उन्हें वर्ष 1958 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला।
राहुल सांकृत्यायन असाधारण बुध्दिजीवी और विद्वान थे। उन्हें अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे। बौध्द धर्म से संबंधित उनकी कृतियां हैं- बुध्दचर्या(1930), धम्मपद(1933), मज्झिम निकाय(1933), विनय पिटक(1934), दीघ निकाय(1935), तिब्बत में बौध्द धर्म(1935), बौध्द दर्शन(1942), महामानव बुध्द(1956), बौध्द संस्कृति। सावत्थि पर उनका एक निबन्ध 1964 में प्रकाशित हुआ। बौध्द इतिहास और धर्म से संबंधित उनकी अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं- वोल्गा से गंगा, दर्शन-दिग्दर्शन, अतित से वर्तमान। इसके अलावा लद्दाख, किन्नौर, श्रीलंका, तिब्बत, चीन और जापान की उनकी यात्राओं के वृतान्त हैं।
राहुल सांस्कृत्यायन ने बौध्द धर्म से संबंधित संस्कृत की जिन कृतियों का संपादन और अनुवाद किया, वे हैं-अभिधर्म कोश(1930), विज्ञिप्तिमात्रता सिध्दि(1934), प्रमाणवार्तिक(1935), अध्यार्घ शतक(1935), प्रमाणवार्तिक भाष्य(1936),  प्रमाणवार्तिक स्ववृति(1936), प्रमाणवार्तित स्ववृति टीका(1937), विग्रहव्यवर्तिनी, वाद न्याय, विनय सूत्रा(1943), हेतु बिन्दू(1944), सम्बंध-परीक्षा(1944), निदान सूत्रा परीक्षा(1951), महापरिनिर्वाण सूत्रा(1951)।
राहुल सांकृत्यायन को उनकी विद्वता के लिए काशी पण्डित सभा ने  उन्हें सन् 1939 में ‘महापण्डित’ की उपाधि से उन्हें नवाजा था। श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया था। राहुलजी सन् 1959 से 1961 तक श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। लम्बी बिमारी के बाद इस महापुरुष ने 14 अप्रेल 1963 को 70 वर्ष। की उम्र में अंतिम सांस ली। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित कर उनकी असाधारण विद्वता को स्मरण किया(संदर्भ-1 ‘लेखक परिचय’; बौध्द संस्कृति: राहुल सांकृत्यायन।  2. अनुवादक परिचयः विनय-पिटक)।


Sunday, April 22, 2018

दादा साहेब कुंभारे (Dadasaheb N H Kumbhare))

दादासाहेब कुम्भारे को महाराष्ट्र के एक नामी बीड़ी कामगार नेता के जाना जाता है।   सन 1963  से 'परम पूज्य डॉ बाबासाहेब अंबेडकर स्मारक समिति दीक्षा भूमि नागपुर' के कार्याध्यक्ष
59 वर्ष की उम्र में 14 अक्टू 1982  को हृदयाघात से देहांत
दादासाहेब कुम्भारे महाराष्ट्र के नागपुर, कामठी, गोंदिया और तुमसर क्षेत्र के नामी बीड़ी मजदूर नेता थे।
महाराष्ट्र के अंदर कई बड़े सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन का आपने सफल नेतृत्व किया था। दीक्षा-भूमि स्थल पर उच्च शिक्षा के लिए आंबेडकर महाविद्यालय और पाली भाषा संशोधन संस्था के विकास में आपने अमूल्य योगदान दिया था।
आप लोक सभा के सदस्य रहे थे।  संसद सदस्य के रूप में आपका कार्य उल्लेखनीय था। आप भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के महासचिव थे। एशियन बुद्धिस्ट परिषद के नाते आपने रूस और दूसरे समाजवादी देशों का दौर किया था।

Saturday, April 21, 2018

पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी -

बाबासाहब डा अम्बेडकर ने बहुत ही कठिन परिस्थितियों में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और शिक्षा के महत्त्व को जाना था और इसलिए, वे चाहते थे कि उनके लोग अधिक से अधिक शिक्षित हों।

अपने समाज की उन्नति के बाबासाहब डा अम्बेडकर ने कहा- 'शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित हों'। सामाजिक उन्नति के इस महावाक्य में बाबासाहब  डॉ अम्बेडकर ने 'शिक्षा' को प्रथम स्थान दिया ।

पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी - 1945 में  उन्होंने इसके लिए  'पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी' की स्थापना कर मुंबई में 'सिद्धार्थ महाविद्यालय' और औरंगाबाद में 'मिलिंद महाविद्यालय' शुरू किए। 

सिद्धार्थ कॉलेज समूह-
बाबासाहब आंबेडकर ने बम्बई में 'मेकवा' और 'अलबर्ट' नाम की दो इमारतें खरीदी और उनके क्रमश: 'बुद्ध भवन' और 'आनंद भवन' नाम रखे।  इन्हीं में 'सिद्धार्थ कॉलेज समूह' का सञ्चालन किया गया जिसके अंतर्गत आज मुम्बई में सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंस, सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकनॉमिक्स, सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ़ लॉ, सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ़ जर्नलिस्म, सिद्धार्थ इंस्टीट्यूट ऑफ़ कॉमर्स, सिद्धार्थ नाईट स्कूल चल रहे हैं।

मिलिंद कॉलेज समूह-
बाबासाहब डा अम्बेडकर ने औरंगाबाद में अपने हाथों फावड़ा चला कर मिलिंद कॉलेज समूह स्थापित किया था । आज मिलिंद कॉलेज समूह में - मिलिंद कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, मिलिंद कॉलेज ऑफ़ साइंस, मिलिंद मल्टी-पर्पज है स्कूल चल रहे हैं।  इसके आलावा 'पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी' से सम्बद्ध अन्यत्र 'डॉ  बाबासाहब अम्बेडकर कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, साइंस एंड कॉमर्स  महाड़', 'डॉ  बाबासाहब अम्बेडकर कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स बडाला',  'डॉ  बाबासाहब अम्बेडकर कॉलेज ऑफ़ लॉ औरंगाबाद',  'डॉ  बाबासाहब अम्बेडकर कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड कॉमर्स औरंगाबाद' चल रहे हैं (वही, पृ  119 )।

अंतर्जातीय विवाह

बी टेक के छात्र-छात्रा कर्नाटक में प्रशिक्षु थे। दोनों में प्रेम हो गया।  छात्रा ब्राह्मण समाज से थी, वही छात्र जाटव समाज से था।  बी. टेक. की पढ़ाई पूरी करके छात्र भारतीय प्रशासनिक सेवा से चुन कर जिलाधिकारी नियुक्त हुआ। बात विवाह की चली तो युवक ने अपनी उस सहपाठी छात्रा का नाम प्रस्तावित किया। छात्रा के माता-पिता सहर्ष तैयार हो गए और विवाह संपन्न हो गया ।
विवाह के दो वर्ष बाद जिलाधिकारी की पत्नी से उनकी एक महिला मित्र -
"मैं तो मेरठ की हूँ, आपका तो मेरठ में ससुराल है ?
 "है तो, पर मैं वहां जाती नहीं हूँ। "
" क्यों ? ऐसी क्या बात है !  कलेक्टर साहब का परिवार तो बहुत अच्छा है ?"
 " परिवार से क्या होता है, है तो चमार ही। "( स्रोत- लेख 'बाबासाहब अम्बेडकर और अंतर्जातीय विवाह' द्वारा  नानकचंद हरित, सेवानिवृत न्यायाधीश: स्मारिका 2012  संपा. बी. आर. बुद्धप्रिय बरेली उ. प्र. ) 

Friday, April 20, 2018

बाबासाहब की धम्म दीक्षा

Related imageबाबासाहब डा अम्बेडकर क्या  14  अक्टू  1956  के पहले धम्म-दीक्षा ले चुके थे ?  प्रश्न अजीब-सा लगता है। किन्तु,  नवीनतम निष्कर्षों से ऐसे ही प्रमाण मिलते हैं ।

सामान्यत: हमें यही मालूम है कि बाबासाहब डा. अम्बेडकर ने 14 अक्टू 1956 को नागपुर में धम्म-दीक्षा दीक्षा ली थी । यही नहीं, वरन इसके साथ ही, इसके तुरंत बाद वहां लाखों की संख्या में एकत्र अपने अनुयायियों को 22  प्रतिज्ञाओं  के साथ धम्म दीक्षा दी थी ।
किन्तु महाराष्ट्र शासन द्वारा 'डा. अम्बेडकर; लेखन और भाषण' खंड- 17 में दिए गए विवरण के अनुसार, बाबासाहब डा. अम्बेडकर वर्ष 1950 में ही धम्म-दीक्षा ले चुके थे।  दिए गए विवरण के अनुसार बुद्ध पूर्णिमा के दिन प्रात: डा. अम्बेडकर ने अपनी पत्नी डा. सविता अम्बेडकर के साथ दिल्ली के महाबोधि बुद्ध विहार(बिरला मंदिर के पास) में बाकायदा विधिवत धम्म-दीक्षा ली थी।

आइए, अब देखें कि इस तथ्य के समर्थन में क्या और भी प्रमाण हैं जो उस बात की पुष्टि करते हैं। अपने ग्रंथ 'धम्मचक्र प्रवर्तन के बाद के परिवर्तन'में इसकी चर्चा करते हुए डा. प्रदीप आगलावे उन घटनाओं का सिलसिलेवार ब्यौरा दिया है, जो निस्संदेह, उक्त खुलासे की पुष्टि करते हैं -

1. 2 मई 1950 को  बाबासाहब डा. अम्बेडकर की अध्यक्षता में बुद्ध जयंती मनाई गई थी जिस में देश-विदेश के राजदूत और बौद्ध भिक्षु शामिल हुए थे। अपने उदबोधन में डा आंबेडकर ने कहा था- 'मुझे तो बौद्ध धम्म में ही सच्चे ज्ञान की किरण दिखाई देती है और बौद्ध धर्म के कारण ही भारत देश की महानता को हम सारे विश्व को बता सकते हैं'। धर्मान्तर के लिए किस धर्म का चुनाव करना चाहिए, इस का उत्तर देते हुए डा. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह दी। डा. अम्बेडकर ने कहा था कि बुद्ध का दर्शन जाति और वर्ग के विरुद्ध है (पृ  83 )।

2. महाबोधि सोसायटी के 'महाबोधि' जर्नल के मई 1950  के अंक में बाबासाहब डा. अम्बेडकर का एक लेख  'बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य' प्रकाशित हुआ था।  इस लेख में बाबासाहब डा. अम्बेडकर ने लिखा था - "केवल अच्छा बौद्ध बनना ही एक बौद्ध का कर्त्तव्य नहीं है बल्कि बुद्धा धम्म का प्रचार एवं प्रसार करना भी उसका कर्त्तव्य है (पृ  83 )।

3. 25  मई से 6  जून 1950  तक सीलोन बुद्धिस्ट कांग्रेस ने केन्डी (सीलोन) में 'विश्व बौद्ध भातृत्व सम्मलेन' का आयोजन किया था। पत्नी सविता अम्बेडकर सहित बाबासाहब डा. अम्बेडकर इस में शरीक हुए थे।  सम्मेलन के दूसरे दिन 26 मई और अंतिम दिन 6 मई को डा. अम्बेडकर का भाषण हुआ था (पृ  84 )।

4. 6 जून 1950 को कोलम्बो में  'सीलोन दलित फेडरेशन' की ओर से आयोजित एक और कार्यक्रम में बाबासाहब डा. अम्बेडकर ने इस बात का खुलासा किया था कि अछूतों की मुक्ति के लिए बौद्ध धर्म के आलावा अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है। तत्सम्बंध में वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं(पृ  84 )।

5. 14 जन  1951 को वर्ली(मुंबई ) के बुद्ध विहार में बुद्धदूत सोसायटी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में बाबासाहब डा. अम्बेडकर उपस्थित हुए थे। यहाँ,  उन्होंने किसी भिक्षु का उदाहरण देते हुए  कहा था-  बौद्ध होना सरल नहीं है।  मैं और मेरे लोग मिल-जल कर इसके लिए कुछ नियम बनाएंगें। जो उन नियमों का पालन करेगा, उनको ही दीक्षा दी जाएगी। दीक्षा लेने के बाद तुम लोग हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं को बुद्ध धर्म में नहीं ला पाओगे।  घर में खंडोबा और बाहर बुद्ध ऐसा नहीं चलेगा(पृ 84 )।

6 . 19-20  और 21  मई 1951  को दिल्ली शेड्यूल्ड कास्ट्स वेलफेयर एसोसिएशन और महाबोधि सोसायटी के द्वारा आयोजित बुद्ध जयंती के कार्यक्रम में बाबासाहब डा. अम्बेडकर ने आव्हान किया था कि भारत के सारे अछूतों को बुद्ध धर्म अपना लेना चाहिए।(पृ  85) ।

7. 27  मई 1953  को बुद्ध जयंती के अवसर पर दिए गए अपने भाषण में बाबासाहब डा. अम्बेडकर ने कहा था- "मैं धम्म पर केवल बोलता ही हूँ , ऐसा नहीं है।  मैंने अपना शेष जीवन धम्म प्रचार में खर्च करने का निश्चय किया है"(पृ  85 )।

 8. 25 दिस. 1954 को पुणे के देहू रोड के बुद्ध विहार में डा. बाबासाहब अम्बेडकर के हाथों भगवान् बुद्ध की मूर्ति की स्थापना की गई थी। सफ़ेद पत्थर की यह मूर्ति स्वयं बाबासाहब अम्बेडकर रंगून (बर्मा) से लाए थे(पृ  85 )। 

9.  3 अक्टू 1954 को आकाशवाणी दिल्ली केंद्र से 'मेरा निजी जीवन दर्शन' विषय पर भाषण करते हुए बाबासाहब डा. अम्बेडकर ने कहा था- "स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा यह अपना निजी जीवन दर्शन मैंने  फ़्रांस की राज्य क्रांति से उधार लिए हैं, ऐसा किसी को भी नहीं समझना चाहिए।  मैंने वैसा नहीं किया है।  मैं यह स्पष्ट बता रहा हूँ कि मेरे दर्शन का मूल राजनीति से न हो कर धर्म से है।  मैंने अपने गुरु भगवान बुद्ध की शिक्षा से ही यह दर्शन ग्रहण किया है"(पृ 86 )।

10.  4 दिस 1954 को रंगून में आयोजित तृतीय विश्व बौद्ध भातृत्व सम्मलेन में भाषण देते हुए बाबासाहब डा. अम्बेडकर ने कहा था- "इस जगह पर उपस्थित हम सभी लोग बुद्ध अनुयायी हैं।" - स्पष्ट है, बाबासाहब डा. अम्बेडकर 1956 के पहले ही धम्म दीक्षा ले चुके थे(पृ  86 )।

11. . संविधान की भाषा अनुसूची में पालि भाषा को स्थान दिलाना, राष्ट्रपति भवन में बुद्ध की मूर्ति स्थापित करना,  मूर्ति के नीचे 'धम्मचक्क पवत्तनाय'  अंकित करवाना, राष्ट्रीय ध्वज पर अशोक चक्र और अशोक स्तम्भ से ली गई चार सिहों की प्रतिकृति राजमुद्रा के तौर स्वीकृत करवाना - इस बात के साक्षी हैं कि बाबासाहब डा. अम्बेडकर धम्म दीक्षा इसके पूर्व ले चुके थे(पृ 86)।

12. 14 जन 1955  को मुंबई के वरली में बौद्ध धर्म सलाहकार समिति की ओर से आयोजित व्याख्यान में डा. अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा था- "मैंने बुद्ध धर्म ग्रहण कर लिया है।  आप भी इसे स्वीकार करें। केवल अछूत समाज द्वारा ही इसे स्वीकारने से काम नहीं चलेगा।  सारे भारत और उसके साथ ही सारे विश्व को बुद्ध धर्म स्वीकार करना चाहिए, ऐसे मेरी मनोकामना है(पृ 87)। "

4 मई 1955 को बाबासाहब डा अम्बेडकर ने बुद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना की थी(पृ  87 )।

5  मई 1955 के बुद्ध जयंती का दिन डा अम्बेडकर ने ठाना जिले के नाला सोपारा नामक स्थान में बिताया था।  स्मरण रहे, भारतीय पुरातत्व विभाग को यहाँ अशोककालीन बौद्ध स्तूप और शिलालेख प्राप्त हुए हैं(पृ  87 )।

8 मई 1955 को मुंबई के नरे पार्क नामक स्थान में भारतीय बौद्ध जन समिति की और से आयोजित बुद्ध जयंती के कार्यक्रम में डा अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा था - "हमारा मुख्य कार्य धम्म प्रचार करने का है, हमें लोगों को बौद्ध बनाना है।  आज यही हमारा परम कर्तव्य है"(पृ  87 )।

4 फर 1956 को डा अम्बेडकर ने अपने साप्ताहिक पत्रिका 'जनता'  का नाम बदल कर 'प्रबुद्ध भारत' किया था(पृ  ८७ )।

24 मई 1956 को भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण वर्ष के 2500 वे अवसर पर भारतीय बौद्ध जन समिति, जो बाद में भारतीय बौद्ध महा सभा कहलाई की ओर से नरे पार्क मुंबई में बाबासाहब अम्बेडकर ने अपने सम्बोधन में कहा था- "अब बौद्ध धर्म की लहर आ चुकी है तो वह कभी भी मिटने वाली नहीं"(पृ  87 )।

10 और 23  जून 1956 को भारतीय बौद्ध जन समिति की ओर से आयोजित कार्यक्रमों में डा आंबेडकर में शिरकत की थी(पृ  87 )।

डा आंबेडकर ने 1945 से बौद्ध धर्म के बारे में लोगों को जाग्रत करने का काम किया था।  1950 के बाद तो उनके इस कार्य में विशेष गति आ गई।  1950 के बाद प्रति वर्ष बुद्ध जयंती के कार्यक्रम आयोजित करना, विश्व बौद्ध सम्मेलनों में शिरकत करना, अछूतों को  बौद्ध धर्म के बारे में सही जानकारी देना, उनके सर्वांगीण विकास के लिए बौद्ध धर्म ही एकमात्र मार्ग है; बतलाना आदि उनके कार्य इंगित करते हैं कि वे पूर्व में बौद्ध धर्म में दीक्षित हो चुके थे(पृ  88 )। यद्यपि, इसकी सार्वजनिक घोषणा उन्होंने कभी नहीं की। 

Thursday, April 19, 2018

बुद्ध


बुद्ध
समझता हूँ,  मैं तुझे मानव
और करता हूँ वंदन, तुझे
करता हूँ नमन
तेरी करुणा, मैत्री  और बंधुत्व को
अनुप्रेरित होता हूँ
तेरे अभिनिष्क्रमण से।

सम्बोधि प्राप्ति के बाद
तेरा गृह नगर आना
स्व-जनों के साथ
यसोधरा को सांत्वना देना
मैं समझता हूँ तुझे और
तेरी मानवीय गरिमा को।

तू चाहता
तो वट-वृक्ष बन सकता था
संघ के सारे अधिकार
अपने पास रख सकता था
किन्तु कालमो को
स्व-विवेक को सर्वोपरिय बता
तूने बौद्धिक स्वतंत्रता के
युग का प्रारंभ कर दिया।

तेरे अनित्यता का सिद्धांत
जमीनी हकीकत है
तभी तो पेड़ पौधों को, मैं
बढ़ते और खिलते देखता हूँ
परिवर्तन प्रकृति का नियम है
तभी तो हर दुख के बाद
सुख को लहलाते देखता हूँ।

पूजा तो
मैं भी करता हूँ
तेरी, तेरे प्रतिमा की
घर में/बुद्धविहार में ,
किन्तु
नहीं चाहता कुछ
जला कर मोमबत्ती तेरे चरणों में
प्रकाशित होता हूँ मैं
तूने ही तो कहा था-
'अत्त दीप भव'


-अ. ला. ऊके


'जयभीम' सम्बोधन में प्रणेता बाबू एन. एल. हरदास

Babu hardas.jpgबाबू एन. एल. हरदास( 1904 -1939)

हम उसी को याद करते हैं, जो इतिहास का निर्माण करते हैं। ‘जयभीम’ शब्द जो आज परस्पर सम्बोधन का पयार्यवाची बन गया है, के प्रणेता बाबू हरदास थे। यह वही शख्सीयत थे, जिन्होंने इस सम्बोधन का पहली बार भरी सभा में प्रयोग कर इतिहास का निर्माण किया था। जैसे हिन्दुओं में ‘नमस्कार’, मुस्लिमों में ‘आदाब-अर्ज’ और ईसाईयों में ‘गुड-मार्निंग’ का सम्बोधन प्रचलित हैं, ठीक उसी प्रकार दलित और बुद्धिस्टों में ‘जयभीम’ का जयघोष प्रचलित है।

बाबू एन. एल. हरदास, मध्य भारत और बरार (विदर्भ ) में दलित समाज के लोकप्रिय नेता थे। वे आल इण्डिया डिप्रेस्ड कास्ट्स फेडरेशन के कार्य कारिणी के सदस्य थे। वे प्रांतीय बीडी मजदूर संघ के सेक्रेटरी भी थे।  वे स्वतंत्र मजदूर पक्ष (Independent Lab our Party) के जनरल सेक्रेटरी और बाद में अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे। वे बाबासाहब के विश्वास पात्र थे।

अफसोस है, बाबू हरदास लम्बी उम्र नहीं जी सकें। वे मात्रा 35 वर्स की अल्पायु में ही चल बसे थे। किन्तु इतने कम समय में वे इतना काम कर गए कि लोग उनका नाम लेना गर्व का सबब समझते हैं। सच है, इतिहास गढ़ने के लिए लम्बी उम्र की दरकार नहीं होती?

बाबू हरदास का जन्म जन. 6, 1904 को कामठी (नागपुर) महाराष्ट्र के महार परिवार में हुआ था। उनके पिता लक्ष्मणराव नगरारे रेल्वे में क्लर्क के पद पर थे। हरदास ने मेट्रिक की पढ़ाई सन् 1920 मेें पटवर्धन हाई स्कूल नागपुर से उत्तीर्ण की थी। हरदास की पत्नी का नाम सहुबाई था। इनका विवाह 16 वर्ष की उम्र में हुआ था।

हरदास ने 17 साल की उम्र में दलित समाज में सामाजिक चेतना जाग्रत करने के लिए सन् 1921 में ‘महारठा’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन नागपुर में शुरू किया। काम बीड़ी कामगारों का शोषण रोकने यह बाबू हरदास ही थे जिसने कोऑपरेटीव आधार पर बीड़ी बनवाने की व्यवस्था आरम्भ की। आपने दलित महिलाओं को इस हेतु  ट्रेनिंग देने के लिए नागपूर में एक महिला आश्रम स्थापित किया था।

बाबू हरदास ने महार समाज को संगठित करने के निमित्त सन् 1922 में एक संगठन तैयार किया था। वे इसके महासचिव थे। हिन्दू अत्याचारों से समाज के लोगों की रक्षा करने इन्होंने ‘महार सेवक संघ‘ नामक एक यूवाओं को स्वयं-सेवी संगठन बनाया था। बाबू हरदास चाहते थे कि डिप्रेस्ड कास्ट में जितनी जातियां आती हैं, वे सब एक बेनर के नीचे आएं। दरअसल, वे इन जातियों में उप-जाति की बाधा खत्म करना चाहते थे। सन्त चोखामेला की पुन्य-तिथि के समारोह में वे इन सभी उप-जातियों के लोगों को आमत्रित कर सह-भोज का आयोजन करते थे।
सन् 1923 में बाबू हरदास ने मध्य-प्रान्त और बरार के वायसराय से आग्रह किया था कि विधान-परिषद, डिस्ट्रिक लोकल बोर्ड और नगरपालिकाओं में डिप्प्रेस्ड क्लॉस के लोगों को नामित कर उन्हें प्रतिनिधत्व दिया जाए ताकि विघायिका और कार्यपालिका में उनकी सहभागिता सुनिश्चित हो सकें। सन् 1924 की अवधि में बाबू हरदास ने कामटी और नागपुर में महार समाज के लोगों के लिए कई रात्रि-कालीन विद्यालय खोलें। कामटी में आपने सन्त चोखामेला पुस्तकालय खोला था। वे हर प्रकार के अन्ध-विश्वास, सड़ी-गली परम्पराओं के विरूद्ध थे। इस निमित्त इन्होंने अक्टू. 1924 में ‘मण्डल महात्मे‘ नामक एक पुस्तक लिखकर समाज के लोगों में वितरित की। इसी प्रकार ‘वीर बालक‘ नामक एक नाटक का मंचन भी किया था।

सन् 1927 में बाबू हरदास ने मूर्ति-पूजा के विरूद्ध रामटेक(नागपुर) में एक सभा, किशन फागुजी बन्सोड़ की अध्यक्षता में आयोजित की थी, जो उस समय के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता थे। इस सभा में हरदास बाबू ने समाज के लोगों को आव्हान किया कि वे मदिर की सीढ़ियों पर लेटना छोड़ दे और साथ ही अम्बादा तालाब के गंदे पानी में न नहाएं। यद्यपि, आपने नाशिक के कालाराम मंदिर-प्रवेश के लिए चल रहे सत्याग्रह में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने अपने आदमियों का एक दल 2 मार्च 1930 को भेजा था।

डिप्रेस्ड क्लासेस की कन्फ्रेन्स जो नागपुर में 8 अग. 1930 को हुई थी, के आयोजन में मुख्य भूमिका बाबू हरदास की थी। सनद रहे, इस कन्फ्रेन्स की अध्यक्षता बाबासाहेब अम्बेडकर ने स्वयं की थी। इस कन्फ्रेन्स में डिप्रेस्ड क्लासेस के लिए ‘पृथक चुनाव’ की मांग का प्रस्ताव पारित हुआ था। कन्फ्रेन्स में ऑल इण्डिया डिप्रेस्ड-क्लासेस फेडेरेशन का गठन हुआ था जिसका अध्यक्ष मद्रास के राव साहेब मूनिस्वामी पिल्लई को बनाया गया था। बाबू हरदास इसके सयुंक्त सचिव निर्वाचित हुए थे।

सन 1930 में ही ‘म. प्र. बीड़ी मजदूर संघ’ की स्थापना हुई थी जिसके सचिव बाबू हरदास और अध्यक्ष रामचन्द्र फुले थे। सन 1932 में ऑल इण्डिया डिप्रेस्ड क्लासेस फेडेरेशन का दूसरा अधिवेशन कामटी 7-8 मई का हुआ था। इस समय फेडरेशन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का चुनाव हुआ था जिसमे वाइस प्रेसिडेन्ट एम. बी. मलिक बंगाल, एलए एन. हरदास को सचिव, स्वामी अच्छूतानन्द लखनउ को संयुक्त सचिव चुना गया था।
 बाबू हरदास सन् 1936 में सीपी. एण्ड बरार के ‘इन्डीपेन्डेन्ट लेबर पार्टी’ के सचिव निर्वाचित हुए थे। आपने सन् 1937 में नागपुर-कामटी सुरक्षित क्षेत्र असेम्बली से चुनाव लड़ा था और निर्वाचित हुए थे। सन् 1938 में आप ‘इन्डीपेन्डेन्ट लेबर पार्टी’ सीपी. एण्ड बरार के अध्यक्ष नामित हुए थे।

जन. 1935 को कामटी में ‘समता संगठन’ की एक बड़ी सभा में बाबू हरदास ने ‘जयभीम’ का नारा दिया था। इसमें ‘भीम’ शब्द बाबासाहेब आम्बेडकर के मूल नाम ‘भीमराव’ को दर्शाता था। इस जयघोष का आशय था- बाबासाहेब भीमरॉव अम्बेडकर की जय हो, विजय हो। सभा द्वारा हर्ष-ध्वनि से अनुमोदन किया गया था कि जो लोग देश में समता, स्वतंत्राता और बन्धुता की स्थापना में विश्वास रखते हैं, वे इनके प्रणेता बाबासाहेब अम्बेडकर का जयघोष इस अभिवादन से करें। यह ऐतिहासिक सत्य है कि ‘जय-भीम’ सम्बोधन जो बुद्धिस्ट-आम्बेडकरियों के बीच मेल-मुलाकात के अवसर पर जयघोष किया जाता है, के प्रणेता बाबू हरदास ही थे जिन्होंने सन् 1937 में इसका सार्वजनिक प्रयोग एक भरी सभा में किया था।

12 जन. 1939 को आपने 35 साल की अल्प अवधि में दलित समाज को अलविदा कर एक ऐसा रास्ता दिखाया जिस पर चलने को समाज का बच्चा-बच्चा गर्व की अनुभूति करता है।

उनके निधन से समाज की अपूर्णीय क्षति हुई। बाबू हरदास की शव यात्रा में लाखों लोग शरीक हुए थे।  उन्हें कन्हान नदी के तट पर भारतीय सेना की भूमि पर दफनाया गया था।  तब सेना की और से आब्जेक्शन लिया गया था।  किन्तु बाद में  मिलट्री हेड आफिस जबलपुर से अनुमति ले कर  वहां एक बड़ा स्मारक बनाया गया।  अब इस स्थान पर संक्रांति के दिन विशाल मेला लगता है, जिस में दलित जनता अपने प्रिय नेता को श्रध्दांजलि अर्पित करती है। 

मूलनिवासी संकल्पना


मूलनिवासी संकल्पना

1. सन 1993 में बामसेफ (BAMCEF)  ने 'मूलनिवासी' की संकल्पना स्वीकार की थी । कहा जाता है कि यह संकल्पना बाबा साहेब के उस कोटेशन पर आधारित है जिसमे उन्होंने कहा था कि  'जो कौम अपना भविष्य निर्माण करना चाहती है, वह अपने इतिहास को जाने, अपने इतिहास को पहचाने'।

2. 'मूलनिवासी' वह शब्द है, जो पहचान कराता है कि दुश्मन कौन है और दोस्त कौन है। बिना दुश्मन  की पहचान के लड़ाई तेज नहीं हो सकती। चूँकि, ब्राहमण अपने आप को हिन्दू कहता है और हमारा आदमी भी अपने आप को हिन्दू कहता है, इसलिए दोनों में अंतर जानना जरूरी है।

3. आर्य विदेशी हैं, यह बात प्रमाणित हो चुकी है। वे ही आर्य, अब अपने को 'हिन्दू' कहने लगे हैं।

4. 'बहुजन' शब्द में कुछ कमी है। इसकी संकल्पना जाति  पर आधारित है। जबकि, मूलनिवासी शब्द राष्ट्रवाद पर आधारित है। यह हिन्दुओं के राष्ट्रवाद की सही और सटीक काट है।

5. मूलनिवासियों का धर्म हिन्दू नहीं है। क्योंकि, गुलाम का धर्म और गुलाम बनाने वालों का धर्म एक नहीं हो सकता।

Wednesday, April 18, 2018

बहुजन समाज पार्टी

Related imageआज, दलित राजनीति का नाम ही 'बहुजन समाज पार्टी' है। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्य. कांशीराम थे।

1978 में डी  के खापर्डे के साथ मिल कर कांशीराम ने 'बामसेफ' का गठन किया। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी नेताओं के गुटबाजी के कारण महाराष्ट्र के बहुत से अनु सूचित जाति-जन जाति के कर्मचारी और अधिकारीयों ने कांशीराम का तन मन और धन से साथ दिया ।

14 अप्रेल 1984 ; डा अम्बेडकर जयंती के दिन मान्य कांशीराम ने 'बहुजन समाज पार्टी' की स्थापना की। उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र उ प्र को बनाया। रिपब्लिकन पार्टी में रहते हुए बुद्धप्रिय मौर्य ने उ प्र  काफी काम  था।  किन्तु उनके कांग्रेस में चले जाने के कारण नेतृत्वहीनता के चलते 1969  के बाद यहाँ पार्टी काफी कमजोर हो गई थी।

1989 में हुए नौवें लोक सभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 3 सीटें मिली।  ये सीटें थी- उत्तर प्रदेश के बिजनौर से मायावती, आज़मगढ़ से रामकृष्ण और फिल्लौर (पंजाब) से हरभजन लाखा। देश में हुए कुल मतदान में 2. 47 % मत पार्टी को मिले थे। उत्तर प्रदेश विधान सभा में 13 विधायक पहुंचे थे।

Image result for kanshi ram photoजून 1991  के 10  वे लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 2 सीटें मिलीं, किन्तु पार्टी के कई उम्मीदवार दूसरे अथवा तीसरे स्थान पर थे। विजयी दो सीटों में स्वयं कांशीरामजी  उ  प्र के  इटावा (सामान्य) और भीमसिंह पटेल मध्य प्रदेश के रीवा सीट चुन कर आए थे।

उ  प्र  में 1993 के विधान सभा चुनाव में पार्टी को 67  सीटों पर सफलता मिलीं। यहाँ पार्टी का मत प्रतिशत 19. 64 % था। वही,  वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में 11 सीटों पर सफलता प्राप्त हुई।  इस चुनाव में पार्टी को देश भर के मत प्रतिशत में 4. 2 %  मत मिले थे।  स्पष्ट है, उ प्र के साथ देश के अन्य भागों में बहुजन समाज पार्टी का अच्छा जनाधार बढ़ा था।

इसके 2 वर्ष बाद फर  1998  में 12 वीं लोकसभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को यद्यपि  5 सीटें मिलीं जिस में 4 सीटें उ प्र और 1 हरियाणा से थी किन्तु इस चुनाव में पार्टी का मत प्रतिशत 4. 2 से बढ़कर  4. 67 %  हो गया था।

अक्टू  1999 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 14 सीटों पर सफलता हासिल की थी।  इस में विशेष बात यह थी कि  इस 14 स्थानों में 9 सीटें सामान्य और 5 सीटें आरक्षित थी। पार्टी ने 4. 16% मत प्राप्त कर देश के राजनैतिक  दलों में चौथा स्थान प्राप्त किया था । इस बार खास बात यह थी कि 14 विजयी उम्मीदवारों में  3 मुस्लिम उम्मीदवार थे।

वर्ष 2002 के उ प्र विधान सभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के 98 उम्मीदवार विजयी हुए जिस में इसका मत प्रतिशत 23. 06%  रहा । मई 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी को 19 सीटें प्राप्त हुई जिस मत प्रतिशत 5. 33% था।

सन 2007 के उत्तर प्रदेश विधान सभा में बहुजन समाज पार्टी ने कुल 403 सीटों में चुनाव लड़ा और 206 सीटें जीत कर स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लिया।  इस चुनाव में पार्टी को 30. 43%  मत हासिल हुए। इतिहास में पहली बार कुमारी मायावती स्वयं के बल पर स्पष्ट बहुमत से इस देश के सबसे बड़े राज्य उ  प्र  की मुख्यमंत्री बनी।

बहुजन समाज पार्टी के उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने से एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ।  गावं-देहात के जो लोग बाबासाहब डा. अम्बेडकर के अनुयायी होकर भी हिन्दुओं की तरह आचरण करते थे, खुले रूप में बुद्धिस्टों जैसे आचरण करने लगे, सार्वजनिक कार्यक्रम करने लगे। यही नहीं, इस तरह का प्रभाव अन्य राज्यों पर भी पड़ा। 

बुद्ध

बुद्ध
तुझे मैं ऐसा कभी भी नहीं देखता
जेतवन में
आंखें लगाए बैठा, ध्यानस्थ पद्मासन में
अथवा अजंता वेरूल  के अवशेषों में
पत्थर के ओंठ चिपके, अंतिम निद्रा लेते हुए

मैं तुझे देखता हूँ, चलता फिरता
दिन-दुखितों के दुखों पर मरहम लगाने वाला
जानलेवा अँधेरे में, हाथों में मशाल लिए हुए
झोपड़ी झोपड़ी में जाने वाला
संसर्ग-जन्य रोग के समान
नरडी का प्याला पीने वाला
दुःख के नए अर्थ बताने वाला
-दया पवार (स्रोत: धम्मचक्र प्रवर्तन के बाद के परिवर्तन )।

Monday, April 16, 2018

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया(Republican Party of India)

पृष्ठभूमि -
बाबासाहब अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करने का निर्णय लिया।  तत्संबंधित निवेदन 27 अग 1955 के  'जनता' अंक में प्रकाशित हुआ थ । धर्मान्तरण के बाद राजनीतिक पार्टी के रूप में पूर्व में गठित  'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' को भंग करना आवश्यक था क्योंकि, इसमें जाति की सीमाएं थीं । कांग्रेस और देश के अखबार प्रचार कर रहे थे कि अगर डा अम्बेडकर बौद्ध धर्म ग्रहण करते हैं तो वे 'शेड्यूल्ड कास्ट' में कैसे रह सकते हैं और कैसे वह संगठन चला सकते हैं ?
बाबासाहब आंबेडकर द्वारा 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया' के गठन का निर्णय -
इधर, 30 सित 1955 को डा अम्बेडकर के निवास स्थान 26 अलीपुर रोड दिल्ली में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की केन्द्रीय संचालन समिति की बैठक हुई जिस में 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी' के गठन का निर्णय लिया गया
13 अक्टू 1956 को  धम्म चक्क पवत्तन कार्य के निमित नागपुर पधारे डा अम्बेडकर ने पत्रकार भेट वार्ता में बतलाया कि उन्होंने देश में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित राजनीतिक पार्टी के गठन का निर्णय लिया है जिस में जाति और धर्म से परे समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होगा। उनका प्रयास होगा कि समान विचारधारा के लोग इस संगठन में आएं।
24 सित और 5 अक्टू 1956 को उन्होंने डा लोहिया को पत्र लिख कर इस हेतु बात करने आमंत्रित किया। अपने महापरिनिर्वाण के एक दिन पूर्व  डा अम्बेडकर ने प्र. के. अत्रे और एस. एम. जोशी को भी पत्र लिखे थे(धम्म चक्र प्रवर्तन के बाद परिवर्तन ; डा प्रदीप आगलावे पृ 238-239)।
बाबासाहब अम्बेडकर का परिनिर्वाण -
6 दिस 1956 को बाबासाहब डा अम्बेडकर के आकस्मिक निधन से दलित और बौद्ध समाज नेतृत्व से शून्य हो गया । सामूहिक नेतृत्व की बात उठी। 31  दिस 1956 को बैरिस्टर राजा भाऊ खोब्रागडे की अध्यक्षता में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के संचालन समिति की हुई।  इस बैठक में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के अध्यक्ष पद पर बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे को और महासचिव के पद पर एडव्होकेट हरिदास आंवले को एकमत से चुना गया।  साथ ही ७ सदस्यों का एक अध्यक्षीय मंडल बनाया गया(वही, पृ  256 )।
शीघ्र ही वर्ष 1957 में होने वाले सार्वजनिक चुनावों के मद्देनजर रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना न कर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के बैनर तले ही चुनाव लड़ने का निर्णय हुआ(वही)। सनद रहे, चुनाव में लोकसभा के लिए 9, राज्य सभा में 2 और राज्य विधान सभाओं के लिए 20 उम्मीदवार चुन कर आए थे। इस में महाराष्ट्र से ही विधान सभा में 13 विधायक चुन कर आए थे। कुल 9 सांसदों में अकेले मुंबई से 7 सांसद चुने गए थे।  फेडरेशन के स्थापना वर्ष  1942 से अब तक के चुनावों में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की यह सबसे बड़ी जीत थी।
अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना -
धर्मांतरण को एक वर्ष होने वाला था। इसके मद्देनजर  3 अक्टू  1957 को नागपुर में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का अंतिम अधिवेशन कर इस संगठन को भंग किया गया और बाबासाहब डा अम्बेडकर की इच्छा अनुरूप 'रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया' की स्थापना की गई (वही, पृ  257 )। पार्टी का अध्यक्ष बाबासाहब के निकट सहयोगी रहे मद्रास के वयोवृद्ध नेता रावबहादुर एन शिवराज को चुना गया। पार्टी का महासचिव बैरिस्टर राजा भाऊ खोब्रागडे को बनाया गया। अखिल भारतीय स्तर पर 'रिपब्लिकन पार्टी' की स्थापना से दलित आंदोलन को एक नई  दिशा प्राप्त हुई । भारतीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में उसे एक कद और पहचान मिली ।
दलित बौद्धों की अनुसूचित जाति के बतौर मिल रही सुविधाएं केंद्र द्वारा समाप्त-
इधर, धर्मान्तरण के बाद दलित बौद्धों की अनुसूचित जाति के बतौर मिल रही सुविधाएं कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकारों ने समाप्त कर दिया ।
3 अक्टू 1957 की बैठक में यह भी प्रस्ताव पारित किया गया कि धर्मान्तरित बौद्धों को केंद्र और राज्य  सरकारों में अनुसूचित जाति  का लाभ बहाल किया जाए( वही, पृ  259 )।
पार्टी-संविधान की निर्मिति-
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया का संविधान तैयार किया गया और इसे 10 मार्च 1959 को लागू किया गया। संविधान निर्माण में एडव्होकेट बी सी कामले, एडव्होकेट बाबू हरिदास आवले, बैरिस्टर राजा भाऊ खोब्रागडे, एन  शिवराज, ए  जी पवार, दादासाहेब रूपवते आदि ने प्रमुख रूप से भाग लिया था। कुछ समय बाद  पार्टी के केंद्रीय सञ्चालन समिति के द्वारा 1959 के संविधान में 16 दिस 1967 को  संशोधन किया गया जो आज तक अस्तित्व में है। संविधान में 24  धाराएं हैं(वही)।
पार्टी द्वारा लोकसभा में अनु. जाति से बने बौद्धों को उन्हें पूर्व में मिल रही सुविधाएं दिए जाने की मांग -
लोकसभा में रिपब्लिकन पार्टी के 9 सांसद और राज्य सभा में एक; बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे थे। 14 फर  1958 को सांसद दत्ता कट्टी ने लोकसभा में प्रस्ताव किया कि भारतीय संविधान में जो सुविधाएं अनुसूचित जातियों को प्राप्त हैं, अनुसूचित जाति से बने बौद्धों को दिए जाए और इसके लिए आवश्यक होने पर तत्संबंध में  संविधान में संशोधन कर कानून पारित किए जाएं। अपने प्रस्ताव में सांसद महोदय ने कहा की कि उनकी यह मांग केवल धर्मान्तरित बौद्धों के लिए नहीं है वरन उन सभी अछूत जातियों के लिए है जिनसे छुआछूत बरता  जाता है। वे धर्मान्तरित बौद्ध हैं इसलिए नहीं बल्कि, इसलिए कि उन से छुआछूत बरता जाता है( वही, पृ  260 )।छुआछूत का पालन करना अपराध है, फिर भी बहुत बड़ी मात्रा में इसका पालन किया जाता है।
समय-समय पर रिपब्लिकन पार्टी के अन्य सांसदों ने भी दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों की समस्याओं संसद के सामने  पुरजोर शब्दों में उठाते रहें(वही, पृ  260 )।
संसद में दादासाहेब गायकवाड़ द्वारा धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध के विरोध में  मुनस्मृति के पन्ने फाड़ना-
 4 मार्च 1960 को सांसद प्रकाशवीर शास्त्री ने अनुसूचित जाति, जन-जाति और पिछड़े वर्ग के धर्मान्तरण को रोकने के बारे में विधेयक पटल पर रखा जिसका रिपब्लिकन सांसद दादासाहेब गायकवाड़ ने जोरदार विरोध किया। सांसद ने मनुस्मृति के पन्ने फाड़ते हुए कहा कि सरकार हिन्दुओं के अत्याचार से सताए हुए दलित जातियों के धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाने के स्थान पर हमें उन धार्मिक ग्रंथों पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाना चाहिए जो इस तरह की घृणा करने के लिए हिन्दुओं को प्रेरित करती है(वही, पृ  263-264 )।
समता सैनिक दल का पुनर्गठन -
दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों पर सवर्ण हिन्दुओं के बढ़ते अत्याचारों की घटनाओं के मद्देनजर रिपब्लिकन पार्टी ने सैनिक समता दल को पुनर्जीवित करने का निश्चय किया। त्तत्सम्बन्ध में 2 अक्टू  1957 को दीक्षाभूमि नागपुर में दादासाहेब गायकवाड़ की अध्यक्षता में अखिल भारतीय समता सैनिक दल का चौथा अधिवेशन आयोजित किया गया(वही, पृ  264 )।
पार्टी द्वारा महिला, विद्यार्थी और मजदूर संगठनों की स्थापना -
महिलाओं का संगठन बनाने के लिए पार्टी ने 2 अक्टू 1957 को अखिल भारतीय महिला परिषद् का आयोजन किया। इसी प्रकार, 'अखिल भारतीय रिपब्लिकन विद्यार्थी फेडरेशन' नाम से विद्यार्थियों का संगठन और मजदूर संगठन भी पार्टी के मार्ग-दर्शन में स्थापित किए गए (वही)।
पार्टी द्वारा भूमिहीनों के लिए आंदोलन -
रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण आंदोलन भूमिहीनों का आंदोलन है। डॉ अम्बेडकर की मंशा अनुसार 1954 में दादासाहेब गायकवाड़ और बी एस मोरे के नेतृत्व में बेकार पड़ी जमीन भूमिहीनों को देने के सम्बन्ध में मराठवाड़ा से सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ था। दिस 1958 में नासिक, जलगांव, धुले और अहमदनगर जिलों में कई भूमिहीनों के सत्याग्रह किया। 12 अग 1959 को लोकसभा में खानदेश के भूमिहीनों के सत्याग्रह के सम्बन्ध में सांसद दादासाहेब गायकवाड़ आदि पार्टी नेताओं ने स्थगन की सूचना दी। वर्ष 1959 की अवधि में सम्पूर्ण महाराष्ट्र में भूमिहीनों ने प्रचंड सत्याग्रह किया। उस समय 35,000  लोगों को सजा हुई थी(वही, पृ  265 )।
भूमिहीनों को भूमि देने जैसी कई मांगों के लिए 1 अक्टू 1964 को पार्टी की ओर से संसद पर करीब  1,00000  लोगों ने प्रदर्शन किया और तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को एक मांग पत्र दिया।
ऐतिहासिक सत्याग्रह -
इसके बाद 6 दिस 1964 को दादासाहेब गायकवाड़ के नेतृत्व में सम्पूर्ण देश भर में सत्याग्रह प्रारम्भ किया गया जिसे सभी राज्यों में भरपूर समर्थन मिला। यह सत्याग्रह करीब दो माह चला जिस में 40,000 सत्यागरियों को जेल में ठूंसा गया था। देश के सारे जेलखाने सत्याग्रहियों से ठसाठस भर गए थे, उन्हें रखने जगह नहीं बची थी। यह सत्याग्रह रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास में अविस्मरणीय ऐतिहासिक घटना है।
प्रधानमंत्री द्वारा मांगों पर विचार के लिए आमंत्रित -
इस सत्याग्रह की व्यापकता और इसे मिले प्रचंड समर्थन को देख कर देश के प्रधान मंत्री ने रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं को उनकी मांगों पर विचार के लिए आमंत्रित किया। पार्टी की और से दादासाहेब गायकवाड़, बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे , बुद्धप्रिय मौर्य, आर, मुगम और एडव्होकेट नीले ने प्रधानमंत्री को अपना मांग-पत्र सौंपा।प्रधानमंत्री के आश्वाशन के बाद सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया(वही, पृ 266)।
7 मार्च 1960 को पार्टी के शिष्ट मंडल ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चौहान को मांग-पत्र सौंप कर मांग की कि तमाम भूमिहीनों को सरकारी भूमि शीघ्र वितरित जाए।  दूसरे, नागपुर के दीक्षा-भूमि की जगह तुरंत पार्टी को हस्तांतरित किया जाए ताकि उस पर भव्य स्मारक बनाया जा सके ।  तीसरे,  बौद्ध बने अनु जाति के लोगों को  पूर्व में मिल रही सुविधाएँ बहाल की जाए, क्योंकि हिन्दू तब भी उनसे छुआछूत का बर्ताव करते हैं। और चौथे, खानदेश के आदिवासियों को जमींदारों के अत्याचारों से मुक्त किया जाए (वही, पृ 266-67)।
धर्मान्तरित बौद्धों को अनु जाति की सुविधाएं बहाल -
मई 1, 1960 को महाराष्ट्र शासन ने धर्मान्तरित बौद्धों को अनु जाति के बतौर मिलने वाली सभी शैक्षणिक सुविधाएं देने की घोषणा की(वही, पृ  267 )।
बाबासाहब स्मारक के लिए दीक्षा भूमि की 14  एकड़ जमीन हस्तांतरित -
इसी प्रकार दीक्षा भूमि की 14 एकड़ जमीन बाबासाहब स्मारक बनाने के लिए पार्टी को हस्तांतरित कर दी। यही वह दीक्षा भूमि की जगह है, जहाँ आज विश्व का सबसे बड़ा और भव्य बौद्ध स्तूप खड़ा है। यह दीक्षाभूमि देश और विदेश के बौद्धों और अम्बेडकर अनुयायियों के लिए प्रेरणा भूमि बन चुकी है(वही, पृ  267 )।
'नवदीक्षित बौद्धों' को अनु जाति के बतौर मिलने वाली शैक्षणिक सुविधाएं बहाल-
रिपब्लिकन पार्टी द्वारा लोकसभा में लगातार मांग किए जाने के मद्देनजर 30 अक्टू 1971 को इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने बौद्ध बने अनु जाति के विद्यार्थियों को शैक्षणिक सुविधाएं बहाल करने की घोषणा की और उस सम्बन्ध में राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश जारी किए । तत्संबंधित निर्देश में  धर्मान्तरित बौद्धों को नवदीक्षित बौद्ध( 'शेड्यूल्ड कास्ट्स कन्वर्ट्स टू  बुद्धिज़्म) कहा गया (वही, पृ  267 )।
ऐतिहासिक विजय-
उक्त जायज मांगों को केंद्र और प्रांतीय सरकारों द्वारा मान्य किया जाना रिपब्लिकन पार्टी की ऐतिहासिक विजय थी। सचमुच में, जिस उद्देश्य को प्राप्त करने पार्टी का गठन हुआ था, निस्संदेह उस में एक बड़ी सफलता प्राप्त हुई थी।
धर्मान्तरित बौद्धों को अनुसूचित जाति  के तौर मान्यता-
अग 1977 में रिपब्लिकन पार्टी(गवई  गुट ) के अध्यक्ष रा. सू.  गवई ने नवदीक्षित बौद्धों को अनु जाति के बतौर आर्थिक और सरकारी सेवाओं में प्रदत्त सुविधाएं बहाल किए जाने की मांग की। इस तरह की लगातार मांग और बढ़ते जन दबाव से अंतत: जनता दल के शासन काल (1990 ) में प्रधान मंत्री वी पी सिंह ने संविधान संशोधन कर धर्मान्तरित बौद्धों को अनुसूचित जाति  के बतौर मान्यता दे दी(वही, पृ  268 )।  निस्संदेह, सन 1957 से लंबित धर्मान्तरित बौद्धों की लड़ाई में अंतत: वर्ष 1990 में आंशिक सफलता प्राप्त हुई थी किन्तु सरकारी सेवाएं और राजनितिक क्षेत्र अभी भी दूर थे ।
नेताओं की टकराहट और पार्टी का विघटन -
14  मई 1959 को एडव्होकेट बी. सी. काम्बले ने पार्टी में विघटन पैदा कर अपना अलग; कामले गुट बना कर सबको हैरान कर दिया । इस गुट को एडव्होकेट बाबू हरदास आवले, दादासाहेब रूपवते, ए.  जी. पवार और एस. एन. काम्बले का समर्थन प्राप्त था। अक्टू  1964 में दादासाहेब गायकवाड़ के सहयोगी आर. डी. भंडारे ने फिर अपना अलग गुट तैयार किया (वही, पृ  269 )। कुछ  समय बाद, आर. डी. भंडारे,  दादासाहब रूपवते और एन.  एम. काम्बले कांग्रेस में चले गए (वही, पृ  277 ) पार्टी में फुट का असर यह हुआ कि जहाँ 1957 के आम चुनाव में मुंबई से पार्टी के 7 सांसद चुने गए थे वहीँ, 1962 के आम चुनाव में महाराष्ट्र से एक भी सांसद नहीं चुना जा सका ।  केवल 3 विधायक ही महाराष्ट्र विधान सभा के लिए चुन कर आ सके थे (वही, पृ  275 )।

अक्टू 1, 1964 को पार्टी अध्यक्ष एन शिवराज का निधन हो गया जिससे दादासाहेब गायकवाड़ को अध्यक्ष बनाया गया। तत्कालिक तौर पर पार्टी अध्यक्ष बने  दादासाहेब गायकवाड़ सर्व मान्य नेता नहीं थे।
महाराष्ट्र में दादासाहब गायकवाड़ ने 1967 में कांग्रेस से गठबंधन किया जिससे रा. सू. गवई को विधान परिषद में उपसभापति का पद मिला। किन्तु  इस गठबंधन से पार्टी संगठन को भारी नुकसान हुआ। आपसी खींचातानी से दादासाहेब रूपवते पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए(वही, पृ  270 -71 )।

वर्ष 1967 के लोकसभा चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी का सिर्फ 1 सांसद  अकबरपुर (उ  प्र ) से रामजी राम चुनकर आए थे । जबकि विधान सभाओं के लिए 21 उम्मीदवार; आ. प्र. से 2, बिहार से 1, हरियाणा से 2, महाराष्ट्र से 4, मैसूर से 1, पंजाब से 3 और उ. प्र. से 8  चुनकर आए थे।

दादासाहेब गायकवाड़ का स्वास्थ्य ठीक न रहने से 1969 में उ प्र के बुद्धप्रिय मौर्य को पार्टी कार्याध्यक्ष बनाने का सुझाव एडव्होकेट ना. ह. कुम्भारे ने दिया किन्तु इसे माना नहीं गया। स्मरण रहे,  बुद्धप्रिय मौर्य ने उ. प्र. में काफी काम किया था। उन्होंने मुस्लिम समाज में रिपब्लिकन पार्टी का काफी जनाधार बढ़ाया था।  और यही कारण है कि उ. प्र. से लोकसभा और विधान मंडल में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार चुन कर आए थे। किन्तु अपेक्षित सम्मान न मिलने से वे पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए(वही, पृ  271 )।

बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे  बाबासाहब अम्बेडकर के समय से ही शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के महासचिव थे।  इस पद पर उनकी नियुक्ति 31 दिस. 1956 को हुई थी। स्पष्ट है,  पार्टी में उनकी भूमिका  महत्वपूर्ण थी। किन्तु  दादासाहेब गायकवाड़ के ख़राब स्वास्थ्य के चलते पार्टी अध्यक्ष उन्हें न बनाया जा कर उलटे  1970 में उन्हें इस पद से हटा  दिया गया और उनके स्थान पर एडव्होकेट एन एच कुम्भारे को महासचिव बनाया गया। पार्टी निर्णय से नाराज बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागडे ने अपना अलग गुट  तैयार किया  (वही, पृ  271-72 )।

अक्टू 1970 में गायकवाड़ गुट और खोब्रागडे गुट के एकीकरण का प्रयास माननीय एडव्होकेट बाबू हरदास  आवले ने  किया किन्तु वे सफल नहीं हुए । हाँ, वे इस बीच कामले गुट छोड़कर खोब्रागडे गुट में शामिल हो गए(वही)।

1971  में दादासाहेब गायकवाड़ का निधन हो गया। उनके निधन के बाद रा. सू. गवई इस गुट के अध्यक्ष बने। एडव्होकेट बी सी काम्बले जिसने पहली बार पार्टी में फुट डाली थी,  20 अक्टू 1971 को सभी गुटों के एकीकरण के लिए पुणे में एक बैठक आयोजित की परन्तु उस बैठक में कोई भी शामिल नहीं न हुआ(वही )।

स्मरण रहे, 1971 के लोकसभा चुनाव में पंढरपुर(आरक्षित) से दादासाहेब गायकवाड़ गुट के अकेले  एन.  एस. काम्बले चुनकर आए थे।  चूँकि बुद्धप्रिय मौर्य कांग्रेस में शामिल हो गए थे इस कारण गायकवाड़, खोब्रागडे अथवा काम्बले गुट कोई भी अपना उम्मीदवार उ. प्र. में खड़ा नहीं कर पाए। वर्ष 1972 में राज्यों के विधान सभा चुनाव हुए जिस में महा. विधान सभा से 1 और आ. प्र. विधान सभा से 1; इस प्रकार केवल दो ही उम्मीदवार चुन कर आ सके थे (वही, पृ  276 )।

इधर, नेतृत्व का अभाव और पार्टी में फुट के चलते दलित जातियों और धर्मान्तरित बौद्धों पर अन्याय और अत्याचार की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई।  9 जुला 1972 को 'दलित पेंथर' नाम से एक नया लड़ाकू संगठन खड़ा हुआ(वही, 271 -72 )।

26  जन 1974  को चैत्य भूमि मुम्बई में एक बार पुन: रिपब्लिकन पार्टी के सभी गुटों के एकीकरण के जोरदार  प्रयास हुए किन्तु वह भी हवा हो गया।

1977 के आम चुनाव में खोब्रागडे गुट ने जनता पार्टी से गठबंधन किया था जिससे उस के 2 उम्मीदवार लोकसभा के लिए चुनकर आए थे । फर 1978 में विधान सभाओं के चुनावों में महा. विधान सभा के लिए 7  और कर्नाटक विधान सभा के लिए 1, इस प्रकार कुल 8 उम्मीदवार चुनकर आए थे(वही, पृ  276 )।

1980, 84, 89, 91 और 96 के लगातार 5 लोकसभा चुनावों में सतत 17 वर्षों तक रिपब्लिकन पार्टी के किसी भी गुट का कोई उम्मीदवार लोकसभा में नहीं पहुँच पाया(वही पृ  276 )।

पुन: 1995 में एकीकरण के प्रयासों में तेजी आई और 26  जन 1996 को उस समय के चारों गुटों; आठवले, गवई, कवाड़े और अम्बेडकर में सचमुच एकीकरण हो गया। चारों गुटों ने संयुक्त रिपब्लिकन पार्टी  के बैनर तले  चुनाव लड़ा।  परिणामस्वरूप  1998 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के 4 सांसद; रामदास आठवले, रा सू गवई, जोगेंद्र कवाड़े और प्रकाश अम्बेडकर चुन कर आ गए । किन्तु यह एकता अधिक नहीं टिक पाई (वही, पृ  273 -74 ) और सतत पार्टी कमजोर होते चली गई। अपने-अपने स्वार्थ में नेता टूटते गए और बिखरते गए।  कई रिपब्लिकन नेता कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस में चले गए और कुछ तक बी. जे. पी.,  शिवसेना में हैं !

भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने अम्बेडकर के अनुयायियों और विशेषत: धर्मान्तरित बौद्धों को एक राजनीतिक  मंच प्रदान किया किन्तु बाबासाहेब अम्बेडकर  के बाद, सर्व मान्य नेतृत्व के अभाव ने पार्टी के संठनात्मक ठांचे को खोखला कर दिया। कांग्रेस सहित देश के तमाम राजनैतिक दल यद्यपि आर.पी. आई. को महारों की पार्टी समझते रहे,  किन्तु उससे कहीं अधिक नुकसान पार्टी का अपने ही शीर्ष नेताओं द्वारा हुआ । ऐसा नहीं है कि  स्वार्थ की राजनीति अन्य पार्टियों में नहीं है, किन्तु यह दृढ़ नेतृत्व ही है कि सबको बांधे रखता है जिसका भयावह अभाव आज, भारतीय दलित राजनीति में है। स्मरण रहे, दलित समाज सामाजिक और राजनैतिक रूप से अपेक्षतया अधिक जाग्रत है किन्तु नेता ही बिकने लगे तो क्या किया जा सकता है ?