Monday, February 13, 2012

किसन फागु बनसोड( Kisan Fagu Bansode)

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  किसन फागु बनसोडे (1879 -1946 )

  सामाजिक-आन्दोलन की जो मशाल गोपाल नाक विट्ठल नाक वलंगकर ने जलाई थी, किसन फागु बनसोडे ने उस मशाल को आगे बढाया था। किसन फागु बनसोडे ने भी चेतना साहित्य को अपने विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम बनाया था.आपने दलित-चेतना को अपनी कविताओं में उतार कर समाज पर होने वाले उत्पीडन और अत्याचारों को लोगों के सामने बड़े प्रभावशाली ढंग से रखा. दलित समाज स्वाभिमानी है,उसके रगों के वीरता, शौर्य और जुझारूपन है, किसन फागु बनसोडे की रचनाओं में यही झलकता था.

किसन फागु बनसोडे का जन्म 18 फर 1879 को नागपुर (महाराष्ट्र) के पास मोहपा नामक गावं में हुआ था। तब नागपुर, सी.पी.(सेन्ट्रल प्रोवियेंस) एण्ड बरार की राजधानी हुआ करती थी. किसन फागु बनसोडे की पत्नी का नाम तुलसा बाई था.उस ज़माने में तुलसा बाई ने जिस तरह सामाजिक चेतना के आन्दोलन में पति की सहायक बन उनके कंधे से कन्धा मिला कर काम किया था, नि:संदेह वह स्तुतीय है
 
किसन फागु बनसोडे नागपुर शहर के पांचपावली में रहते थे.बनसोडे और पाटिल महार समाज में एक ही होते है. सामाजिक आन्दोलन की शुरुआत आपने सन 1901 में नागपुर से ही की थी.किसन फागू बनसोडे-दम्पति ने अपने जीवन का ध्येय सामाजिक-चेतना का कार्य  चुना था.अपने कार्य को अंजाम देने के लिए उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस खोला था.प्रिंटिंग प्रेस का सारा काम तुलसा बाई देखती थी.यह उस समय की बात है जब दलित जातियों के उत्पीडन और अत्याचार की खबरे चारों ओर से आ रही थी. इस समय प्रिंटिंग प्रेस खोलना ओर समाचार पत्र निकालना वह भी एक दलित के द्वारा, बड़ा ही जोखिम भरा काम था.

समाज को संगठित करने के लिए 9  अक्टू. 1903  में किसन फागु बनसोडे ने  'सन्मार्ग बोधक अस्पृश्य समाज संस्था '  नाम से एक संस्था की स्थापना की थी. उन्होंने सन 1907 में 'चोखामेला' के नाम पर लड़कियों के लिए स्कूल खोला. किसान फागु बनसोडे ने सन 1910 से 1936 के दौरान 'निराश्रित हिंद नागरिक'(1910), 'विताळ  विध्वंसक'(1913), 'मजूर पत्रिका'(1918) और 'चोखामेळा (1931-36) ' ऐसी चार पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया. 'संत चोखामेळा चरित्र ' नामक ग्रन्थ,'चोखामेळा ' तथा  'सत्यशोधक जलसा' नामक दो नाटक और 'प्रदीप' नामककाव्य-संग्रह आदि की रचना की थी।

'निराश्रित हिन्द नागरिक' में सामाजिक-धार्मिक सवालों की चर्चा होती थी। 'विटाळ विध्वंशक' पत्रिका विदर्भ के  एक नेता कालीचरण नंदागवली के संयुक्त प्रयास से प्रकाशित की जा रहीं थी वही, 'मंजूर पत्रिका' मजदूरों के सवालों पर केन्द्रित होती थी(डॉ गंगाधर  पानतावणेे; महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर).

डॉ अम्बेडकर पूर्व काल में समाचार पत्रों का प्रभावी प्रयास करने वाला किसान फागु बनसोडे के अलावा दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है । निस्संदेह,  बनसोडे ने अपनी प्रभावी और तेज कलम के द्वारा दलित समाज में अन्याय के प्रति, न्याय के लिए तथा समता के प्राप्ति के लिए जो प्रभावी व्यापक जाग्रति पैदा की, उसका दलित वर्ग के इतिहास में कोई मुकाबला नहीं है(वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर)।

समाचार पत्र निकालने के आलावा वे अन्य स्थानों से प्रकाशित होने  वाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं यथा सुबोध, केशरी, मुम्बई वैभव, ज्ञान प्रकाश आदि में सतत अपने लेख लिखा करते थे. अपने लेख में वे दलित समाज में व्याप्त बुराईयों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों पर जम कर चोट करते थे. इसके लिए वे अपने दलित समाज के लोगों को भी कड़ी फटकार लगाते थे.

उस समय, महानुभाव पंथ, खास कर दलित जातियों में व्यापक था। महार समाज के कई लोग महानुभाव पंथ की दीक्षा लेते थे और वे अपने को अन्य दलित जाति-बिरादरी से पृथक और ऊँचा समझते थे। किसन फागुजी बनसोडे ने इनकी तरीके से खबर ली थी। महानुभाव पंथी, किसन फागु बनसोडे पर अवमानना का आरोप लगाते हुए कोर्ट में भी गए थे किन्तु बनसोडे अपने समाज सुधार के कार्य से जरा भी विचलित नहीं हुए(वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर) ?)।

किसन फागु बनसोडे ने दलित उप-जातियों की भी खूब खबर लेते थे।  उन्होंने महार जाति की उप-जातियां बावने, बारके, लाडवन, सोम वंशी आदि भेदों का निषेध किया। ये उप-जातियां आपस में ही उंच-नीचता का व्यवहार करती हैं. महार जाति के कुछ लोग खुद को रामानंदी, कबीरपंथी, विट्ठल पंथी कह कर श्रेष्ठता का व्यवहार करते हैं ! वे पूछते थे कि क्या इससे उनके सामूहिक संघर्ष की शक्ति क्षीण नहीं होती ( वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर) ?

किसन फागु बनसोडे के समाज सुधार की संकल्पना आर्थिक और राजनैतिक सीमाओं  तक जाती थी।  वे इस सीमा में हिन्दू समाज की उन तमाम जातियों को लेते थे, जो शोषित और पीड़ित हैं । उनकी  यह संकल्पना अन्याय मुक्त समाज की थी।

यदि अछूत समाज को न्याय से दूर रखने का, उनके मानवी अधिकारों से दूर रखने का प्रयास होता हो तो न्याय और समता के लिए संघर्ष करना आवश्यक है, बनसोडे का मानना था. इसके लिए जो संघर्ष करना पड़ेगा, निस्संदेह वह ऊँची जातियों के खिलाफ होगा। संघर्ष के बगैर शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। बनसोडे का प्रयास दलित समाज की विभिन्न जातियों,  उप-जातियों में संवाद पैदा करना था ताकि एकता के धागे मजबूत हो सकें।
'स्वदेशी आन्दोलन, हो या राष्ट्रीय आन्दोलन; किसन फागु बनसोडे ने कभी विरोध नहीं किया। बस वे चाहते थे कि सामाजिक सवालों को लेकर राष्ट्रीय आन्दोलन आगे बढ़े। धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर उनकी सोच थी कि दलित समाज को हिन्दू धर्म में ही रहते हुए अपने सामाजिक सुधार के आन्दोलन चलाने चाहिए। तत सम्बन्ध में 'देश सेवक' में प्रकाशित उनका लेख पढ़ कर हिन्दू महासभा के नेता डॉ मुंजे ने उत्साहित होकर उनसे मिलने की इच्छा जताई थी( वही, महान पत्रकार डॉ अम्बेडकर)।

 सन 1920 के दरम्यान नागपुर में 'बहिष्कृत हितकारिणी परिषद्' की विशाल सभा हुई थी। सभा की अध्यक्षता छत्रपति साहूजी महाराज ने की थी। बाबासाहेब आंबेडकर स्वयं सभा में उपस्थित थे। इस सभा में किसन फागू बनसोडे ने बड़ा ही प्रभावशाली और जोशीला भाषण दिया था। 
मगर, किसन-तुलसा बनसोडे दम्पति के सामाजिक सुधार का कार्य सनातनी हिन्दुओं को भला कब रास आने वाला था ? कट्टर हिन्दुओं ने उनका प्रेस जला दिया था. मगर, इससे किसन फागु बनसोडे कतई विचलित नहीं हुए. वे अपने सामाजिक-चेतना के कार्य में और दुगने गति से लग गए थे.

दलित समाज के इस महापुरुष का देहांत 10 अक्टू  1946 को नागपुर में हुआ था।


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