Tuesday, June 7, 2011

indian Baba culture; root & cause

             हमने देखा  की बाबा रामदेव किस तरह रामलीला मैदान में योग शिविर के लिए परमिशन माँगते हैं और देखते ही देखते एक  बड़े स्तर पर सरकार को धमकाने के लिए तैयारी कर लेते  हैं ! निश्चित रूप में यह भारत में ही हो सकता है. हमारे देश में आज भी राजनीति बाबा बन कर की जाती है. और हो भी क्यों न ? जब बीजेपी जैसी प्रमुख राजनितिक पार्टी बाबाओं से पैदा होती है, बाबाओं के सपोर्ट से जिन्दा रहती है, तो फिर आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं. बेशक, लोकतंत्र में बाबा अछूत नहीं है, मगर, यह इण्डिया में ही हो सकता है की कोई बाबा ख़म ठोक कर  चुनौति दे  और सरकार अपने चार केंद्रीय मंत्री भेज कर  उसे एयर पोर्ट में रिसीव करे  !
            यह बात नहीं  कि लोग बाबाओं के चरित्र से परिचित न हो. आज तक जितने भी बाबा हुए हैं, लोग भली प्रकार जानते हैं- उन्हें और उनके चरित्र को. दूसरे, यह बात भी नहीं कही जा सकती  कि लोग बाबाओं के झांसे में जल्दी आ जाते है. हमारे यहाँ जनता का बौद्धिक  स्तर इतना भी कम नहीं है.तो फिर, क्या बात है कि बाबा  जब मंच से पब्लिक में कूदता  है तो उसे सर-आँखों  पर उठा लिया जाता  हैं ?
                निश्चित रूप में इसका  कारण इस देश की सामाजिक-धार्मिक और  सांस्कृतिक विरासत है. यूरोप के लोग भारत को सांप-सपेरों का  देश कहते थे. हो सकता है यह अतिशयोक्ति हो.मगर,यह सच  है कि शिक्षा और तकनिकी मामलों में हम काफी पीछे थे. वहीँ  दूसरी और,बाबा और उनके मठों  के मामलों में काफी आगे थे. 
                बेशक, ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों ने  शिक्षा के माध्यम से जो माहौल खड़ा किया,वस्तुत: उसने इस देश के सामाजिक-धार्मिक-मठाधिशों को हिला कर रख दिया. उन्हें लगने लगा कि सेकड़ों वर्षों से जो  सामाजिक-धार्मिक संरचना उन्होंने खड़ी की थी, उसकी चूले हिलने में अब देर नहीं लगने वाली है.जो हालत राजा-महाराजाओं की हुई है,देर-सबेरे एक दिन  वही हाल उनका भी होना  है.
             यद्यपि डा. आम्बेडकर जैसी हस्तियाँ संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी में थी मगर, जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी तक की जैसी प्रगतिशील हस्तियों  ने जो  कडा रूख प्रिवीपर्श समाप्त करने के लिए दिखाया, वैसा कोई रूख वे इस देश के बाबा और मठों के विरूद्ध न रख सके.निश्चित रूप से इसके लिए गांधीजी जिम्मेदार थे. गांधीजी,जो सिर्फ सत्ता का ट्रांफर चाहते थे न की ट्रांसफर की प्रक्रिया में अंतरनिहित  सामाजिक-धार्मिक समस्याओं का समाधान. वे इसे मूलत: हिन्दू समाज का आंतरिक मामला समझते थे.
           गांधीजी, न सिर्फ बाबा बन कर जिए बल्कि, बाबा फिलासफी का उन्होंने जम कर प्रचार किया . उन्हें बैरिस्टर और बाबा में कोई असंगति नजर नहीं आयी.वे प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को राजनीति समझाने के साथ-साथ यह भी बताते  रहे की इस दौरान हाथ की माला फेरना बंद न हो.निश्चित रूप से गांधीजी एक ऊँची राजनीती कर रहे थे. 
          राजनीति में सब जायज है, कहना ठीक है. मगर, इसके परिणाम भी अवश्यसम्भाव्य है. आप कृष्ण की राजनीति देखिये. आप भगवान् राम की राजनीति देखिये.ऐसा नहीं है कि समाज पर इनके घातक परिणाम नहीं हुए ? बेशक  हुए हैं, और लोग भुगत भी रहे हैं. लोग लतियाते हैं   इन मिथकों को.
        तो क्या हमारे आदर्श पुरुष लतियाने वाले मिथक होना चाहिए ? अगर सौ करोड़ लोगो के आदर्श पुरुष मजाक का सबब हो  तो उस समाज की सामाजिक-चारित्रिक स्थिति कैसी हो सकती है ? हम झेल रहे है आज इन बाबाओं को तो इसके कारण कुछ इसी तरह के हैं.
            कुछ लोग तर्क देते है कि संसार के जितने भी आदर्श पुरुष हुए हैं, आखिर वे आदमी ही थे. और आदमी में अच्छाई-बुराई तो होती ही हैं. अगर कृष्ण और राम में ये मानवीय स्वभाव है तो इसमें अजीब बात  क्या है ? और फिर, सभी धर्मों के आदर्श पुरुषों में कुछ न कुछ अवगुण तो है ही.हो सकता है जिन्हें  हम आज अवगुण कह रहे है, उस काल-विशेष  में वे गलत न रहे हो. आप बुरे गुणों को छोड़ दीजिये और अच्छे गुणों का अनुशरण  करिए.
         उक्त तर्क सटीक तो है मगर यह भी तो सही है कि आदर्श पुरुषो की लीला समाज की सांस्कृतिक-थाती  होती है. आदर्श पुरुष समाज के लिए टार्च (रौशनी)का काम करते है. जब-जब कोई किसी सांसारिक-व्यवहारिक मुसीबत में पड़ता है तो वहां से उबरने के लिए तत-क्षण  वह अपने आदर्श पुरुष की तरफ देखता है.और तब, वैसी परिस्थिति में उस आदर्श पुरुष द्वारा अपनाई गई रीती-निति ही उसका मार्ग प्रशस्त करती है.  
         हिन्दू समाज में  आदर्श पुरुषों का अकाल है, यह बात नहीं है.परन्तु, समाज के बुद्धि-जीवी वर्ग अर्थात ब्राह्मण वर्ग ने आदर्श पुरुषों को चुना या गढ़ा तो या तो वह कृष्ण था या भगवान् राम. आप के सामने अगर च्वाइस  की  बात आये तो निश्चित रूप में जो  आप को सूट होगा,जिसमे आपके व्यक्तिगत/वर्गगत हितों का प्रतिबिम्ब झलकेगा , आप उसी को चुनेंगे.ब्राह्मणों ने यही किया.यह हिन्दू समाज का दुर्भाग्य था.
             अब वृहत  हिन्दू समाज को सिर्फ ढोना है. जब तक इस समाज को ब्राह्मणों का नेतृत्व मान्य है, कोई अल्टरनेटिव नहीं है. आप आदर्श पुरुषों को पुराने कपड़ों की मानिंद बदल नहीं सकते. क्योंकि, यह आपकी संस्कृति होती है और संस्कृति विरासत में मिलती है. आप अपने आदर्श पुरुषों की बुराई भी सुन नहीं सकते.क्योंकि, आपको बचपन से सिखाया जाता है कि वे आपके गर्व का सबब हैं.आप को उनके चरित्र का अनुशरण करना है.
तो फिर, हिन्दू समाज करे तो क्या  करे ?    
           इस प्रश्न  का उत्तर इतना सरल होता तो हिन्दू समाज कब का सुधर गया होता. हिन्दू समाज में एक से एक  बड़े-बड़े धुरंधर विद्वान् , योगी-भोगी और सदाचारी  हुए हैं. निश्चित रूप में उन्होंने इस मुद्दे पर चिंतन किया है और हल न पाने के कारण वे बस ढोते और उसे जस्टिफाई करते रहे हैं.
            आज रामदेव बाबा के पास इतनी बड़ी फ़ौज क्यों है ? क्या लोगों को बाबाओं की करतूत नहीं मालूम ? वे सब जानते है. मगर वही, कोई अल्टरनेटिव  नहीं है .आम तौर  पर समाज भेड़िया-धसान होता है चूँकि, आप्सन नहीं होते. अतयव  जो सामने दीखता है, चल  पड़ते है. इन में बुद्धि-जीवि, नान बुद्धि-जीवि दोनों तरह के होते हैं. नान-बुद्धि-जीवि बाबा को कालजयी मानते हैं. वे बाबा की हर बात को तर्क-वितर्क के परे मानते हैं.जबकि, बुद्धि-जीवियों के पास कोई अल्टरनेटिव नहीं होता. दूसरे, वे मास(पब्लिक) में रहना चाहते है. और फिर, बचपन से  खून में रचे -बसे संस्कारों को त्यागना इतना आसान नहीं होता. और फिर, आदमी को कोई खूंटा तो चाहिए. बिना खूंटे के आप पल भर नहीं रह सकते.
               

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