Friday, March 30, 2012

Sikhism: the religion of Bravery


    सिक्ख और उनके महान गुरुओं का लम्बा इतिहास रहा है. आम तौर पर सिक्खों को एक मेहनतकश और बहादूर कौम के रूप में देखा जाता है. नि:संदेह, इस पहचान के पीछे उनके गुरुओं की अहम भूमिका है. धार्मिक समुदाय के रूप में सिक्खों ने जो एक 'इथनिक आयडेनटीटी' स्थापित है, वह ऐतिहासिक है. मगर, इसके लिए सिक्ख समाज ने भारी क़ुरबानी भी दी है.पंजाब का लम्बा इतिहास रहा है.यहाँ की राजभाषा पंजाबी है,
      पंजाब, जिसका नाम सिन्धु नदी की पांच सहायक नदियाँ ब्यास,रावी,सतलज,चिनाब,झेलम के बहने से पड़ा. यह वही सिन्धु नदी है जिसके आस-पास आज से 30000  वर्ष पहले सिन्धु घाटी सभ्यता  फली-फूली थी

सिक्ख गुरु पम्परा -
गुरु नानक साहिब  : (1469-1539) -
       सिक्ख, अपनी गुरु परम्परा में नानक को अपना प्रथम गुरु मानते हैं. नानक ने अलग हट कर जो रास्ता अपनाया और जिस अधिकारिता से साथ अपनी बात उन्होंने लोगों के सामने बात रखी, नि:संदेह वह उन्हें गुरु के पद पर सुशोभित करती है.
       नानक का जन्म 15 अप्रेल सन 1469 ( बैसाख सुदी 3  सवंत  1526 ) को पाकिस्तान में लाहौर से करीब 50  की.मी. दूर गावं  'राय भोई दी तलवंडी'  के एक हिन्दू खत्री परिवार में  हुआ था. इनके माता का नाम तृप्ता और पिता का नाम  कल्याणदास बेदी था. राय भोई दी तलवंडी के मालगुजार राय बुलर भट्टी एक मुस्लिम थे. नानक के पिताजी कल्याणदास बेदी इस मालगुजार के पास पटवारी का काम  करते थे.
Guru Nanak
      6  वर्ष की उम्र में नानक ने स्कूल जाना शुरू किया था. बालक नानक बचपन से ही आम बच्चों से हट कर थे. एक बार जब नानक 12  वर्ष के थे, उनके पिताजी ने उन्हें  20  रूपये दिए और कहा कि कोई सौदा कर आए. नानक बाजार गए, बहुत सारा अनाज ख़रीदा और साधू-सन्यासी तथा गरीबों में बाँट आए. पिताजी ने पूछा, वह सौदा कर आए ? इस पर नानक ने जवाब दिया- हां, वह सच्चा सौदा कर आए. 
प्रथम गुरु के इस वाकये को याद रखने सिक्ख संगत ने यहाँ गुरुद्वारा बनाया है, जिसका नाम 'सच्चा सौदा' रखा गया है.
      एक और इसी तरह की घटना है. हिन्दू उच्च जातियों में 'द्विज-संस्कार करने का रिवाज है. बालक नानक का 13  वर्ष की उम्र में जनेऊ-संस्कार किया जा रहा था. किन्तु , नानक ने यह कह कर जनेऊ पहनने से इंकार कर दिया कि यह आदमी-आदमी में भेद पैदा करता है.
Virasat-e-Khalsa : Anandpur sahib
     नानक की इस तरह की प्रवृतियों से माँ-बाप चिंतित थे. उन्होंने 16  वर्ष की उम्र में नानक का विवाह बटाला के मूलचंद खत्री  की पुत्री बीबी सुलाक्षनी से कर दिया था. उनके दो पुत्र थे. नानक की बड़ी बहन के पति जयराम, सुलतानपुर( लाहौर ) के दौलतखान लोदी के दरबार में काम करते थे. नानक को इन्ही के देख-रेख में खजांजी के काम में लगा दिया गया था.
    नानक का मन घर गृहस्थी और संसारिक-कार्यों में नहीं लगता था.जब भी समय मिलता, वे अपने बचपन के दोस्त मरदाना के साथ निकल जाते और या तो आध्यात्मिक चर्चा करते या 'रबाब'  पर भजन गाते.
Nankana Sahib
     तलवंडी गावं का मुस्लिम मालगुजार राय बुलर, गुरु नानक के व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित थे. उन्होंने गुरु नानक की याद में गावं का नाम बदल कर  ननकाना साहिब  रखा था.
       गुरु नानक ने देश-विदेश की खूब की थी. उनके उपदेश गरीब दलित-पिछड़ी जाति के लोगों के लिए हितकारी थे. उनके प्रमुख चार शिष्य, भाई मर्दाना (मराशी), भाई लालो (बढई), भाई शिहान (टेलर ), भाई कोंडा (आदिवासी)  इन्हीं जातियों से थे. गुरु नानक के शिष्य मुस्लमान भी थे. क्योंकि, वे जाति/ धर्म के परे मनुष्य और मनुष्य के बीच बराबरी की बात करते थे. गुरु नानक ने मक्का-मदीने तक की यात्रा की थी. जब वे मक्का में थे तब, किसी ने उनसे काबे के तरफ पैर करके नहीं सोने की हिदायत दी थी. इस पर गुरु नानक ने कहा, क्या वे ऐसी दिशा या जगह हैं, जहाँ खुदा मौजूद न हो ?
      गुरु नानक ने अंध-विश्वासों, रीती-रिवाजों और कुप्रथाओं का पर्दा-फाश किया था. एक बार वे हरिद्वार गए थे. कुछ लोग पूर्व दिशा में खड़े हो कर सूर्य की ओर हाथ से पानी फैंक रहे हैं. उन को देख कर गुरु नानक ने पश्चिम की ओर पानी फैंकना शुरू कर दिया. लोगों ने उन्हें बड़े आश्चर्य से देखा. नानक ने कहा कि पश्चिम में पंजाब है, जहाँ उनका खेत है. अगर स्वर्ग में तुम्हारे पूर्वजों को ये पवित्र गंगा का पानी जा सकता है तो मेरे खेत में क्यों नहीं जा सकता ?
     गुरु नानक अपनी यात्राओं के दौरान विभिन्न धर्म/ सम्प्रदायों के आचार्यों से संगत करते और अपने संदेश का प्रचार करते थे. गुरु नानक का संदेश नया था. वह समाज में प्रचलित सड़ी-गली मान्यताओं और रीती-रिवाजों का विरोधी था.
Rakabganj Sahib:Delhi
 गुरु नानक ने उंच-नीच की जाति-पांति को नकारा था. उन्होंने अस्पृश्यता का विरोध किया. नानक ने ब्राह्मणवाद को जम कर लताड़ा. पंडा-पुजारियों की खूब खबर ली और इन सब से ऊपर उन्होंने नि:स्वार्थ सेवा का संदेश दिया.
    मगर, नानक ने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया. नानक ने ईश्वर को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि, यह भी कहा की वे जो संदेश दे रहे हैं, उस 'सत्ता' के हुक्म से दे रहें  हैं. उन्हें इस 'विशेष कार्य' के लिए भेजा गया है. अन्य तमाम अच्छे विचारों के, नानक का ईश्वर को मानना एक ऐसी बात थी जिसने ब्राह्मणवाद से उनके बिगड़ते सम्बन्धों को सम्भाल लिया. नानक के प्रेरणा स्रोत कबीर थे. मगर, कबीर  ने ईश्वर के साथ  समझौता नहीं किया और यही कारण है कि नानक का दर्शन एक मजबूत धर्म के रूप में सामने आया जबकि कबीर फगुआ ही गाते रहे.
      नानक के उपदेश 'शबद' के रूप में गुरु ग्रन्थ साहिब में समाहित है. उन्होंने 'नाम'  को तारक बताया.
गुरु नानक करीब 30 -35  वर्ष तलवंडी रहे. मगर, बाद में वे करतारपुर जा कर बस गए थे. बाकि के दिन यही रहते हुए 70  वर्ष की उम्र में 25 सित. 1539  को उन्होंने अपना शरीर छोड़ा था.

 गुरु अंगद देव  2nd Guru : (1504-1552) -
      गुरु नानक ने सन 1538  में इन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था. गुरु अंगद ने अपने गुरु नानक की रचनाओं को संकलित किया था.      कर 'आदि ग्रन्थ' की रचना की थी.
  गुरु अमरदास  3rd Guru : (1479-1574)  - 
       सिक्खों के गुरु अमरदास ने हिन्दू-कर्मकांड और देवी-देवताओं को मानने से इनकार कर दिया था.  उन्होंने छुआछूत और सती-प्रथा का भी विरोध किया था. उन्होंने अपने शिष्यों को राम के स्थान पर 'वाहे गुरु ' का उद्घोष करने को कहा था.
 गुरु रामदास  4rth Guru : (1534-1574)
      ये तीसरे गुरु अमरदास के दामाद थे. आपने हरमंदिर साहिब( स्वर्ण मन्दिर) की नीवं एक मुस्लिम संत मियां मीर से रखवाई थी. आपने हरमंदिर साहिब के चार दरवाजे रखवाए थे ताकि किसी भी जाति/ धर्म, समुदाय का व्यक्ति किसी भी दिशा से आ कर इबादत कर सके.
 गुरु अर्जनदेव  5th Guru : (1563-1606) -
      गुरु रामदास के पुत्र गुरु अर्जनदेव ने पूर्व गुरुओं की वाणी को 'आदि ग्रन्थ' के रूप में संकलित किया था. गुरु रामदास की हत्या लाहौर के ब्राह्मण राजा चंदूशाह ने करवाई थी.
हरिगोविन्द साहिब  6th Guru : (1595 -1644 ) - गुरु अर्जनदेव तक सिक्ख धर्म का स्वरूप भक्तिमय था. परन्तु, गुरु हरगोविंद साहिब ने भक्ति को शक्ति से जोड़ दिया और सिखों के हाथ में तलवार थमा दी.
  गुरु तेग बहादुर  6th Guru : (1621-1675) -
Sisganj Sahib:Delhi
   कश्मीरी पंडितों ने औरंगजेब के आतंक से निजात पाने के लिए गुरु तेग बहादूर से गुहार की थी. इस से मुग़ल बादशाह औरंगजेब खपा थे. औरंगजेब ने उन्हें कैद कर बाद में हत्या करवा दी थी.दिल्ली के चांदनी चौक का गुरुद्वारा सिस गंज साहिब उनकी स्मृति में बनाया गया है जहाँ उनकी हत्या की गयी थी. गुर तेग बहादूर ने सन 1665  में आनंदपुर साहिब शहर बसाया था.
गुरु गोविन्दसिंह   10th Guru : (1666-1708)  -
    गुरु गोविन्द सिंह के बचपन का नाम गोविन्द राय था. उनका जन्म पटना (बिहार ) में हुआ था. उनके पिता का नाम गुरु तेग बहादूर और माता का नाम गूजरी देवी था. उनकी तीन पत्नियाँ और चार पुत्र थे. वे  मात्र 9  वर्ष के थे जब उन के पिताजी गुर तेग बहादूर को मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने कैद कर हत्या करवा दी थी.
    सन 1699  में गुरु गोविन्द सिंह ने 'खालसा' की स्थापना की थी. वैसाखी के दिन आनदपुर साहिब में गुरु गोविन्दसिंह सिख-संगत को संबोधित कर रहे हैं  -
" मैं क्या हूँ ?"
Guru Govind Singh
"आप हमारे गुरु हैं ." - संगत से आवाज आयी.
"आप लोग क्या हैं ?"  - गुरु ने पूछा.
"हम आपके सिक्ख ( शिष्य ) हैं.? - संगत से समवेत स्वर गूंजा.
" ठीक है. तब, गुरु को आज शिष्यों की जरुरत है." गुरु ने संगत की ओर देख कर कहा .
"हुकुम करो, सच्चे बादशाह. - सिक्ख  संगत से एक आवाज आयी.
 एकाएक म्यान से तलवार निकाल कर गुरु गोविन्द सिंह आगे बढे और कहा -
 "वाहेगुरु को ऐसे बंदे की जरुरत है, जो अपना सिर कटाने तैयार हो ?"
 वातावरण  में सन्नाटा छा गया. कहीं से कोई आवाज नहीं थी. तब, गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी बात को फिर दोहराई. मगर, कोई हरकत नहीं. तब, उन्होंने तीसरी बार.....
भीड़ में हरकत हुई. एक बंदा उठा, सामने आया और बोला-
"हुकुम करो सच्चे बादशाह, बन्दा हजिर है."
गुरु गोविन्द सिंह ने बन्दे की पीठ ठोकी. वे उसका हाथ पकड़ कर शिविर के अन्दर गए और थोड़ी ही देर में  खून से सनी तलवार के साथ बाहर आये. उन्होंने फिर, तलवार को लहरा कर कहा-
"वाहेगुरु को एक और सिर की जरुरत है ?"
 तब, बिना देर किये दूसरा बंदा सामने आया. गुरु गोविन्दसिंह ने उसका हाथ पकड़ा. अन्दर ले गए और फिर, बाहर आ कर बोले -  "वाहेगुरु को एक और सिर की जरुरत है......?"
...और जब पांचवीं बार गुरु गोविन्द सिंह शिविर से बाहर आये तो उनके साथ नए कपड़ों में वे पाँचों शिष्य थे जो गुरु के साथ अन्दर गए थे.
    गुरु गोविन्द सिंह ने एक लोहे की कढाई ली. उस में पानी डाला और कुछ बताशे मिलाए. फिर, अपनी  तलवार से हिलाकर उन पाँचों को थोडा-थोडा  चखाया. उन्होंने कहा, यह वाहेगुरु का  अमृत  है. आज से तुम 'पंच प्यारे' हो.
      सिक्खों का इतिहास साक्षी है, ये पञ्च प्यारे थे - भाई दयाराम, भाई धरम दास, भाई हिम्मत राय, भाई मोहकम चन्द और भाई साहिब चन्द थे. यह बड़ी अजीब बात है कि इन 'पञ्च प्यारों' में कोई उच्च जाति का बंदा नहीं था. गुरु गोविन्द सिंह ने इस केडेट कोर का नाम  खालसा रखा और उसकी उपमा 'सिंह' ( Lion ) से की.        
       तब, गुरु गोविन्दसिंह ने उन पाँचों और बैठी सिक्ख संगत के सामने एकाएक घुटनों के बल झुक कर अर्ज किया कि वे भी 'पञ्च प्यारों' की तरह 'वाहेगुरु' को अपना सिर न्यौछावर करते हैं. अतयव खालसा के 6  वे सदस्य के रूप में उन्हें स्वीकार किया जाए. इसके बाद गुरु ने कहा कि खालसा की सदस्या महिलाऐं भी होगी. खालसा महिला को 'कौर' कहा जाएगा. स्मरण रहे, खालसा फारसी के शब्द 'खालिस' से उत्पन्न है, जिसका अर्थ शुध्द होता है.
       इस अवसर पर गुरु गोविन्द सिंह ने सिख संगत से कहा, अब से तुम किसी जाति या किसी धर्म के नहीं हो. तुम किसी अन्धविश्वास/कुप्रथा को नहीं मानोगे. एक ईश्वर को मानोगे जो सभी का मास्टर और संरक्षक हैं. संगत का प्रत्येक सदस्य, दूसरे के लिए भाई होगा. कोई तीर्थ यात्रा नहीं करोगे और न साधू-सन्यासी बनोगे. एक अच्छा आदमी बनोगे जो समाज के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने हमेशा तैयार रहे. महिलाएँ, प्रत्येक मद में आदमी के बराबर होगी. अब से न पर्दा-प्रथा होगी और न ही सती-प्रथा. जो कोई अपनी बच्ची का कत्ल करेगा, खालसा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा.
Paonta Sahib:Sirmour HP
      अपनी बात को जारी रखते हुए गुरु गोविन्द सिंह ने आगे कहा, केश, कंगा, कड़ा, कच्छा और किरपान ये पञ्च 'क' जो तुम अब से धारण करोगे, तुम्हारी निष्ठां का मेरे प्रति सबूत होंगे.नशीली वस्तुओं के सेवन से दूर रहने की तुम शपथ लोगे. हथियार से तुम प्यार करोगे. शारीरिक शक्ति प्राप्त करना तुम्हारे लिए उतना ही पवित्र होगा जितनी की आध्यात्मिक. हिन्दू  और मुसलमानों के बीच तुम सेतु का काम करोगे.गरीब की सेवा करोगे इस बात की परवाह किये बगैर कि वह किस जाति और नस्ल का है. तुम्हारे सामाजिक जीवन का डेग (लंगर ) उतना ही अनिवार्य हिस्सा होगा जितना की तेग (तलवार). तुम अब से  वाहेगुरुजी कह कर एक-दूसरे का अभिवादन करोगे.
      गुरु गोविन्दसिंह के पिताजी गुरु तेग बहादूर ने आनंदपुर साहिब बसाया था. आनंदपुर साहिब शिवालिक पहाड़ियों के तराई में आता है.  तब, पंजाब कई रजवाड़ों में बंटा था. गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा की तर्ज पर फ़ौज को संगठित कर उस क्षेत्र में अच्छी धाक जमा ली थी. मगर, इससे हिन्दू रियासतों में इर्ष्या और जलन का वातावरण बन गया था. इन रजवाड़ों ने संयुक्त-फ्रंट बना कर गुरु गोविन्द सिंह को घेरने की भी कोशिश की थी. किन्तु , उन्हें मुंह की खानी पड़ी.
        तब, उन्होंने  दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब को भड़काया कि गुरु गोविन्द सिंह दिल्ली पर हमला करने की तैयारी में है. इस पर औरंगजेब ने भारी सेना भेज कर सूबा सरहिंद को हुक्म दिया कि आनंद पुर साहिब से गुरु गोविन्द सिंह को निकाल बाहर किया जाये.सूबा सरहिंद ने मुग़ल बादशाह की फ़ौज और अन्य हिन्दू  रियासतों के साथ गुरु गोविन्द सिंह पर हमला कर दिया.
         सूबा सरहिंद और हिन्दू रजवाड़ों के संयुक्त धावे से गुरु गोविन्द सिंह बुरी तरह घिर गए.  7 दिस.1705  के इस हमले में उन्हें अपने दो पुत्रों से हाथ धोना पड़ा . युध्द के मैदान जब उन्हें इसकी खबर लगी तो आपने कहा - "मुझे ये बच्चें ईश्वर ने दिए थे.   सकता है, ये वक्त उनके वापिस जाने का रहा हो."  गुरु गोविन्द सिंह पल भर के लिए उस तरफ मुड़े भी थे. कुछ सिक्ख  उनके बच्चों के शव के पास थे. आपने ने पूछा, वे क्या कर रहे हैं ? इस पर बताया गया कि गुरु-पुत्रों का अन्तिम संस्कार उचित ढंग से हो, इसकी व्यवस्था कि जा रही है. इस पर गुरु गोविन्द सिंह ने कहा-  क्या नादानी है. क्या ये तमाम शव जो युध्द-भूमि में पड़े हैं, उनके बच्चें नहीं हैं ?
      इधर, आनंदपुर में उनके पुराने अंगरक्षक गंगू नामक एक ब्राह्मण ने उनके साथ बड़ा विश्वासघात किया.  उसने गुरु गोविन्द सिंह के दो छोटे बच्चे और गुरुमाता को सूबा सरहिंद के हवाले कर दिया था. कहा जाता है कि सूबा सरहिंद के दरबार में इन बच्चों को इस्लाम धर्म कबूल करने कहा गया.मगर, जब बच्चों ने इंकार किया तो उन्हें जीवित ही दीवार में चिनवा दिया गया. यह लोमहर्षक घटना 13  दिस. 1705  की है. यह खबर जब गुरु-माता को पहुंची तो सदमे को बर्दाश्त न कर उसने औरंगजेब की कारगर में ही प्राण त्याग दिए.
         एक और दर्दनाक घटना का उल्लेख आता है. मुग़ल फ़ौज की जबरदस्त घेरा-बंदी में गुरु गोविन्द सिंह को छोड़ कर 40 सिक्ख युध्द के मैदान से चले गए थे. मगर, जब ये गावं में पहुंचे तो वहां उनकी बड़ी बेइज्जती हुई. तब, ये जवान एक खालसा सिक्ख महिला के कमांड में फिर वापिस आये. मगर, मुग़ल फौजों द्वारा ये बड़ी आसानी से मार दिए गए थे. गुरु गोविन्द सिंह को इस पर बड़ा पछतावा हुआ था.
      नि;संदेह, औरंगजेब के साथ गुरु गोविन्द सिंह की जाति दुश्मनी थी. क्योंकि, औरंगजेब से घिरने के  दौरान कई मुस्लिम शासकों ने गुरु गोविन्द सिंह की सहायता की थी. दूसरी ओर, हिन्दू शासकों ने उनके साथ धोका किया था. उनके पुराने अंग रक्षक हिन्दू ब्राह्मण गंगू ने उनके साथ विश्वासघात किया था. गुरु गोविन्द सिंह ने महसूस हुआ की वे और उनके पिताजी औरंगजेब के गुस्से का शिकार न सिर्फ अनावश्यक रूप हुए हैं बल्कि, उन पर जो अत्याचार किये गए, इस में सामान्य मानवीय धर्म का पालन नहीं किया गया ? कुछ इसी मनस्थिति में गुरु गोविन्द सिंह ने मुग़ल बादशाह औरंगजेब को एक पत्र लिखा जो 'जफरनामा' से प्रसिध्द है.
     'जफरनामा' पढ़कर मुग़ल बादशाह औरंगजेब को खेद हुआ. बादशाह को समझते देर न लगी की आनंद पुर का क्षेत्र हडपने के लिए वह हिन्दू राजाओं की साजिश थी. औरंगजेब ने पश्चाताप करते हुए लाहौर के डिप्टी गवर्नर मुनीम खान को भेजा था की वह गुरु गोविन्द सिंह को दरबार में ले कर आये. इसी बीच औरंगजेब की बिगडती सेहत देख कर उनके बड़े पुत्र ने दिल्ली पर हमला कर दिया. इस हमले में गुरु गोविन्द सिंह ने उसकी मदद की थी.हमले में मिली कामयाबी के बाद यही बहादूर शाह जफ़र के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा.
    उधर, सरहिंद के वाजिर खान, दिल्ली दरबार को गुरु की मदद से बेपरवाह नहीं थे. वाजिर खान ने गुरु की हत्या करने का षड्यंत्र रचा. इसके लिए उसने दो पठानों को नियुक्त किया. गुरु जब आराम कर रहे थे तब इन में से एक पठान ने गुरु पर प्राण घातक हमला किया जिससे गुरु गोविन्द सिंह को गंभीर चोट आयी थी. खबर पा कर मुग़ल बादशाह बहादूरशाह ने इलाज  के लिए एक्सपर्ट डाक्टरों की टीम भेजी थी.किन्तु, दुर्भाग्य से गुरु की हालत बिगड़ते गयी और 7 अक्टू. 1708 को उन्होंने अन्तिम साँस ली थी.
          अपनी मृत्यु को आसन्न जान कर गुरु गोविन्द सिंह ने सिख संगत के खास-खास लोगों को बुलाने को कहा. जब सब इकट्ठे हुए, गुरु ने 'गुरु-ग्रन्थ साहिब' को बीच में रखने कहा. तब, गुरु ने हाथ में नारियल ले गुरु-ग्रन्थ साहिब को देख कर अपना सर झुकाया और सिख संगत की ओर देख कर कहा, -यह मेरा आदेश है, 'गुरु-ग्रन्थ साहिब' को मेरी जगह  स्वीकार करो. वह जो इसे ऐसा मानेगा, वाहेगुरु उसकी रक्षा करेगा.
    स्मरण रहे,  'आदि ग्रन्थ' जिसे उनके दादा गुरु अर्जन दास ने संकलित किया था, गुरु गोविन्दसिंह के रहते कहीं गुम हो गया था. गुरु गोविन्द सिंह ने खुद और अन्य जानकार लोगो  के साथ बैठ कर नया ग्रन्थ तैयार करवाया था. गुरु गोविन्द सिंह के आदेश से गुरु-ग्रन्थ साहिब को जीवित गुरु की मान्यता दे कर  11  वें गुरु की स्थापना की गयी है, जो अब 'शब्द गुरु'  के रूप में स्थापित है.
Maharaja Ranjit Singh
महाराजा रंजीतसिंह   (1780 -1839 ) -
    महाराजा रंजित सिंह की बायीं आँख बचपन में चेचक की बीमारी के कारण जाती रही थी. महाराजा ने अफगानों को पीछे धकेल पेशावर, मुल्तान, जम्मू-कश्मीर, काँगड़ा आदि पहाड़ी क्षेत्र को जीत कर एक मजबूत  पंजाब  की नीवं रखी थी .
      महाराजा रंजित सिंह के पास बेशक, उनके पिता और दादा के समय में अफगानी शासकों के द्वारा किये गए ढेरों अत्याचारों का इतिहास था. मगर, महाराज ने बदले की भावना को जगह नहीं दी थी. उन्होंने हिन्दू और मुसलमान को बराबर समझा. महाराजा रंजित सिंह को  'शेर-ए-पंजाब' का खिताब मिला था. महाराजा रणजीत सिंह 'ब्राह्मण-धर्म' के चहेते थे. उन्होंने  दशम ग्रन्थ को प्रमोट किया था.
Golden Temple
      महाराजा ने हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मन्दिर ) को सजाया. आज जो स्वर्ण मन्दिर दीखता है वह महाराजा रंजित सिंह की देन है. उन्होंने गुरु गोविन्द सिंह की याद में तख़्त श्री पटना साहिब और सन 1708  को  महाराष्ट्र के नांदेड में तख़्त श्री हजूर साहिब का निर्माण किया.
     महाराजा रंजित सिंह के विभिन्न रानियों से 7  पुत्र थे. मगर, इन में से कोई योग्य शासक न बन सके. अपनी मृत्यु को आसन्न निकट जान कर महाराजा ने विश्व प्रसिध्द कोहनूर हीरा जो महाराजा के पास था, सन 1839   में को पूरी के जगन्नाथ मन्दिर को दान कर दिया था.
      महारानी मह्ताफ़ देवी जो काँगड़ा की राज कुमारी थी, के साथ कई रानियाँ महाराजा के शव के साथ जल कर सती हुई थी.स्मरण रहे, गुरु नानक से लेकर अब तक के सभी गुरुओं ने सती-प्रथा का निषेध किया है.  महाराजा की मृत्यु के बाद पारिवारिक आपसी संघर्ष से उनका राज-काज जाते रहा.
गुरुग्रंथ साहिब -
 सिख परम्परा में, गुरु ग्रन्थ साहिब को ही पवित्र माना जाता है. गुरु ग्रन्थ की भाषा गुरु मुखी (पंजाबी) है. सिखों से इस पवित्र ग्रन्थ में गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जन, गुरु तेगबहादूर ( 9  वे गुरु), गुरु गोविन्दसिंह ( 10 वे गुरु ) और 15  भगतों यथा: नामदेव, रविदास, जयदेव, त्रिलोकन, बेनी, रामानंद, सैनु, धन्ना, साधना, पीपा, सुर, भीखन, परमानन्द, फरीद और कबीर की बाणी को समाहित किया गया है.
  शुरुआत में इसकी रचना सुबह-साम की प्रार्थना के लिए हुई थी. मगर, बाद में गुरुओं की वाणी को मिलाने से इसका आकार बढ़ते गया. गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरुओं के व्यक्तित्व, उपदेश और तत्कालीन इतिहास की जानकारी मिलती है.
     गुरु ग्रन्थ साहिब 'शबद' रूप में संकलित है. शबद 'ग्रंथियों'( ज्ञानियों/वाचकों ) द्वारा विभिन्न रागों में गाए जाते हैं. यह गुरुमुखी अर्थात पंजाबी लिपि ( "ਸੱਬ ਸਿੱਖਣ ਕੋ ਹੁਕਮ ਹੈ ਗੁਰੂ ਮਾਨਯੋ ਗ੍ਰੰਥ" ) में संहिताबध्द किया गया है.
Guru Granth Sahib
     गुरु ग्रन्थ साहिब में छुआछूत और उंच-नीच की जाति-पांति का  कड़ा विरोध है. इस में सामाजिक-बराबरी और भाई-चारे का संदेश दिया गया  है. मूर्ति-पूजा, सती-प्रथा, कन्या-वध, पर्दा-प्रथा आदि का  निषेध किया गया है,
गुरु ग्रन्थ साहिब में ईश्वर को निराकार,निरंजन, अकाल,अजन्मा और अविनाशी माना गया  है. सिख धर्म में मदिरा और तम्बाकू सेवन पर सख्त पाबन्दी है.
Langar Hall:Keshargarh Sahi
 'गुरु ग्रन्थ साहिब' की मूल प्रति सन 1757 में मुग़ल फ़ौज ने जला डाली थी जब अहमद शाह दुर्रानी ने करतारपुर पर आक्रमण किया था.  सिखों के पांच तख़्त - अकाल तख़्त पर बैठ कर सिक्ख गुरु हुक्म देते हैं जिसका पालन करना प्रत्येक सिक्ख के लिए आवश्यक है. कुल पांच अकाल तख़्त हैं -  1. अकाल तख़्त (अमृतसर)  2. दमदमा साहिब (भटिंडा:पंजाब) 3. केशरगढ़ साहिब (आनंदपुर)  4.हजूर साहिब (नांदेड: महा.) 5. हरमंदिर साहिब (पटना : बिहार )
गुरु का लंगर  - सामाजिक गैर-बराबरी को ख़त्म करने के लिए लंगर की शुरुआत गुरु नानक ने की थी.यह व्यवस्था गुरु-दर-गुरु जारी रही और आज भी है. इसी लंगर से प्रभावित हो कर मुग़ल बादशाह अकबर ने कुछ गावं सिखों को जागीर में दिए थे जिस पर आज अमृतसर बसा है.
गुरुद्वारा आन्दोलन -       आरम्भ में गुरुद्वारे भी हिन्दू मन्दिरों की तरह महंतों/पंडों की पैतृक सम्पत्ति समझे जाते थे. इसके विरोध में लम्बा आन्दोलन चला और गुरुद्वारों को सिक्ख संगत( समाज ) की सम्पत्ति बना दिया गया. इसके लिए निर्वाचित गुरुद्वारा प्रबंध समितियां बनायीं गयी.
सिक्खों में जाती-पांति और छुआछूत - गुरु ग्रन्थ साहिब में जाति-पांति और छुआछूत का निषेध किया गया है. मगर. सिक्खों में छुआछूत है. रामदासिया और मह्जबिया सिक्खों को नीच माना जाता है. जाट, खत्री, अरोरा आदि उच्च जाति के सिक्ख  इन से छुआछुत बरतते हैं. यहाँ तक कि विदेशों में, जहाँ भी सिक्ख गए हैं, हिन्दुओं की जाति-पांति और छुआछुत साथ ले गए हैं. वाल्मीकि और रविदासिया सिक्खों के होटल और बार में उच्च जाति के सिक्ख जाना पसंद नहीं करते. दलित सिक्खों को जातिगत नामों से पुकारा जाता है. नीच समझी गयी सिक्ख  जातियों के अलग गुरुद्वारे हैं. सेना में दलित सिक्ख जातियों का  'सिखलीगर' नामक अलग रेजिमेंट है.
डा. आंबेडकर का धर्मान्तरण आन्दोलन और सिक्ख नेता -   सन 1935  में जब डा. आंबेडकर ने धर्मान्तरण की घोषणा की तब, अन्य धर्मों के आलावा सिक्ख धर्म पर भी उन्होंने गौर किया था. एक प्रसंग इस सन्दर्भ में बड़ा मजेदार है. इंद्र सिंह करवाल ने अकाली दल के वरिष्ठ नेता हरनाम सिंह झल्ला से जब यह पूछा कि डा. आंबेडकर ने सिख धर्म में शामिल होने का इरादा क्यों त्याग दिया तो उनका जवाब था, "ओय, तुम्हे इन बातों की जानकारी नहीं है ! क्या छ: करोड़ दलितों को सिक्ख बना कर हरमिंदर ( दरबार ) साहिब  पर चुहड़ों का कब्जा करा दे ?
मुस्लिम सिक्खों के मददगार  -  अमृतसर दरबार साहिब की नीवं एक मुस्लिम फकीर मीर ने रखी थी.
Akal Takht Sahib
ब्राह्मणवाद के विरुध्द जंग में गुरु नानक के साथ नीच करार की गयी जातियां चाहे हिन्दुओं में हो या मुसलमानों में,  बराबर के साझीदार थी. मगर, बाद में हम देखते हैं कि जो जंग ब्राह्मणवाद  के खिलाफ होनी थी, वह सिक्खों और मुसलमानों के बीच खड़ी हो गयी. मनुवादियों ने मुगलों के साथ रिश्ते जोड़ कर और गुरुओं पर हमले कर सिक्ख लहर को कमजोर किया.
सिक्खिस्म  इन द माउथ आफ ब्राह्मनिस्म -  
       ब्रिटिश लेखक मेकालिफ (Max Arthur Macauliffe ) जो पंजाब में डिप्टी कमिश्नर रहे, ने सन 1909 के दौरान  'द सिक्ख रिलिजन' नामक पुस्तक लिखा है. मेकालिफ  ने अपनी पुस्तक में टिपण्णी की है कि सिक्ख धर्म, जिसकी उसके गुरुओं ने पृथक पहचान बनायीं थी, का तेजी से ब्राह्मण-धर्म में विलय हो रहा  है.ख्याति प्राप्त लेखक खुशवंत सिंह ने भी चिंता व्यक्त की है कि सिक्ख  अपनी 'पहचान' और 'सिक्ख-धर्म के मूल्यों' को निरंतर विस्मृत कर रहे हैं.
सिक्खिस्म , हिन्दू धर्म की सैनिक-शाखा  -    सिक्ख धर्म को पहले ही हिन्दू धर्म की शाखा करार कर दिया गया है. मास्टर तारा सिहं ने 14  अप्रेल 1948  को 'सिक्ख विद्यार्थी फेडरेशन' के दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए कहा था कि सिक्ख, हिन्दू धर्म की सैनिक शाखा है. सन 1999  के दौर में महाराजा रणजीतसिंह  की जगह नियुक्त अकाल तख़्त के जत्थेदार भाई पूरणसिंह ने कहा था कि सिक्ख जनता भगवान् राम के पुत्र लव-कुश की सन्तान हैं.
सिक्खों  के प्रति गांधीजी का दृष्टिकोण  -         गांधीजी ने अपनी पत्रिका 'हरिजन' में सिक्खों को हिन्दू बतलाया था. उन्होंने गुरु गोविन्दसिंह को गुमराह राष्ट्रभक्त कहा था. गांधीजी ने 'सिक्ख पहचान' को ख़त्म करने की हर सम्भव कोशिश की थी. उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब को हिन्दू धर्म-ग्रंथों पर आधारित बतलाया था.
Akal Takhat Damdama Sahib:Pan jab
 ब्राह्मण-सिक्ख   -     कश्मीर और पूंछ के सिक्ख मूलत: ब्राह्मण हैं. मजे की बात यह है कि ब्राह्मण-सिक्ख अपने सरनेम अब भी कायम रखे हुए हैं. हाल ही में आर.एस. एस. के संगठनों द्वारा आयोजित परसुराम जयंती में इन ब्राह्मण-सिक्खों ने जम कर शिरकत थी
 राष्ट्रीय सिक्ख संगत -   सन 1986  के दौर में  ब्राह्मण-सिक्खों ने आर. एस.एस. की मदद से 'राष्ट्रीय सिक्ख संगत' का गठन किया है. विश्व हिन्दू परिषद् के सहयोग से सन 1986  में जब आनंदपुर साहिब से पटना साहिब तक  'खालसा पंथ' की यात्रा निकाली गयी तब, इस  राष्ट्रीय सिक्ख संगत को आर.एस. एस. प्रमुख सुदर्शन ने सम्बोधित किया था. राष्ट्रीय सिक्ख संगत गुरु ग्रन्थ साहिब की जगह दशम ग्रन्थ के पाठ पर जोर देती है. दशम ग्रन्थ, वेद और गीता पर आधारित है. इसका बड़ा हिस्सा वैष्णवों और ब्राह्मणों द्वारा लिखा गया है. इसमें वर्ण-व्यवस्था का प्रचार किया गया है.
       इस अवसर पर जो पोस्टर वितरित किये गए थे, उनमें दशम गुरु गोविन्दसिंह की पृष्ठभूमि में भगवान्  राम को दिखाया गया था. यह ठीक वैसे ही है जैसे सन 1995 के दौरान अयोध्या में उन्होंने अपने प्रचार अभियान में डा. आंबेडकर का चित्र लगाया गया था
  सिक्ख बुध्दिजीवियों की चिंता -      ब्राह्मण-सिक्खों से आक्रांत सिक्ख बुध्दिजीवियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में यह राष्ट्रीय सिक्ख संगत गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनावों में उतर सकती है. और अगर ऐसा हुआ तो सिक्खों की सभी धार्मिक संस्थाओं पर आर.एस. एस. का कब्जा हो जाएगा. क्योंकि, पंजाब और भारत के अन्य प्रान्तों में सिक्खों के ग्रंथी (पुजारी ) अधिकतर ये ब्राह्मण-सिक्ख ही हैं. दूसरे,  90 % सिक्ख  जातियों पर  10 %  उच्च जातियों का कब्ज़ा है.
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Ref- 1.en.Wikipedia.org/wiki/Sikhism 
        2.Dalit Voice : Bangalore, May II/2000,Jul I/2000,Sept II/2000, Feb.I/2001 
        3. Lokmat : 21 May 2000

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