Wednesday, March 7, 2012

बी.एस.पी.की हार और उसके कन्स्ट्रैन्ट

     जैसे की आशंका  व्यक्त की जा रही थी, वही हुआ. बी एस पी के खाते में मात्र 80 सीटें आयी.खैर,यह हताशा का विषय नहीं है.आप राजनीति में है, तो यह स्वाभाविक है. उतार चढाव आते रहते हैं. आप इन सब से सीखते हैं. बी एस पी ही क्यों, बड़ी-बड़ी पार्टियों की दुर्गति हुई  है.
    जब लोगों की अपेक्षाए बढती है और आप अपने कन्स्ट्रैन्ट( constraints) की वजह से उन पर खरे नहीं उतरते, तब ऐसी परिणति पर पहुँचाना अवश्य-सम्भाव्य होता है.बेशक, कन्स्ट्रैन्ट थे और उनका विश्लेषण किया जाना चाहिए.बहन मायावती भी करेगी. निश्चित रूप से इस पर समग्र रूप से विचार होगा.मगर, यह कहना गलत होगा की बी एस पी के अपने कन्स्ट्रैन्ट की वजह से ही हार हुई है.बल्कि, सच तो यह है कि बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो बहन मायावती सवर्ण हिन्दुओं को, खास कर मिडिया को चुभ रही थी. वे जैसे तैसे बर्दाश्त कर रहे थे.
       काम करने के अपने-अपने ढंग होते हैं.जो हट कर काम करते हैं, वह लोगों की नज़रों में किरकिरी तो बनते हैं.मगर, सिर्फ इसी वजह से उसके काम करने के ढंग को नकारा नहीं जा सकता. हाँ, अगर उस ढंग विशेष के कारण दूसरे लोग प्रभावित होते हैं, जन-सामान्य प्रभावित होता है, तब बेशक, वह लताड़े जाने का हकदार बनता है.नि;संदेह, मिडिया से दूरी बनाये रखना, बहन मायावती के लिए बतौर  सी एम् और एक रूलिंग पार्टी के हेड के रूप में, सही नहीं कहा जा सकता. चाहे इस 'दूरी' के लिए के मिडिया खुद ही जिम्मेदार क्यों न हो. मिडिया से सम्बन्ध बनाये जा रखे सकते थे.
       जन-आलोचना का एक दूसरा बड़ा मुद्दा पार्कों में खुद की मूर्ति लगाने के आरोप का है. दलित महापुरुषों की मूर्ति लगाने की शायद ही आलोचना हुई हो. मगर, मान्यवर कांशीराम साहब के साथ बहन मायावती जी के खुद की मूर्ति लगाने की जम कर आलोचना हुई. मुझे लगता है, इस तरह के जो प्रस्ताव उनके सामने आये थे, बहन मायावती जी को नजर-अंदाज कर देना चाहिए था.आखिर, इस तरह के प्रस्ताव पर मौन रह कर जो स्वीकृति दी गयी, उसके पीछे क्या धारणा थी, समझ के परे है ?
      महापुरुष इतिहास गढ़ते हैं. उन्हें लिखने का काम आने वाली पीढ़ी करती है. बहन मायावती को चाहिए था की वह उस तरह का प्रस्ताव लाने वालों से कहती कि उनके स्वत: की  मूर्ति स्थापित करना उनका काम नहीं वरन आने वाले दिनों में उनके अनुयायियों का है. जहाँ तक हाथी और पार्कों का सवाल हैं, ये दलितों के प्रेरणा स्थल है. ये सब ऐतिहासिक धरोहर हैं.दलित समाज को इस पर नाज है.
         बहन मायावती को लोग एरोगेंट (arrogant ) कहते हैं. यह रिमार्क गैर दलितों से तो ठीक है, कई दलित चिन्तक और बहुजन समाज पार्टी के शुभ चिंतकों से कहते पाया गया है.  एरोगेंसी, जन-सामान्य को आपसे सहज रूप से जोड़ने को रोकती है.उसे खुल कर अपनी बात कहने से रोकती  है. जबकि जमीनी कार्य-कर्ता से फीड-बैक लेना उतना ही जरुरी है जितना कि आपके द्वारा स्थापित सूचना-तंत्र से.क्योकि, सूचना-तंत्र आगे जा कर जी-हजूर तंत्र के रूप में विकसित हो जाता है.
      कभी समय था की 'इंदिरा इज इण्डिया और इन्डिया इज  इंदिरा' लोग कहते थे.मगर, अब समय बदल गया है. केंद्रीकृत सत्ता का विकेंद्रीकरण हो चूका है.राज परिवार सडकों पर आ गए हैं. लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का इतना सरलीकरण हो गया है कि वह लोगों के घर में घुस गयी है. नि;संदेह, आज आप केन्द्रीभूत सत्ता के बारे में सोच नहीं सकते. और अगर आपने खुद को बदलती हवा के अनुकूल नहीं किया तो या तो आप खुद उखड़ जायेंगे या हवा आपको बहा ले जाएगी.
     उदाहरण के लिए मध्य-प्रदेश को ले. कुछ वर्ष पहले वहां के प्रदेश अध्यक्ष फूलचंद बरैया हुआ करते थे. नि;संदेह, बरैया काबिल आदमी थे. म.प्र. जहाँ बी. एस. पी. ने अच्छी पकड़ बनायीं थी, की बागडोर सही आदमी के हाथ  थी. ऐसे उर्वर जमीन पर उसने भी काफी मेहनत की थी. मगर, एकाएक पता नहीं क्या हुआ ? सारी मेहनत धरी रह गयी. वह इतना हताश हुआ कि बी.एस.पी. छोड़कर बी.जे.पी. में चला गया. विचारों में टकराहट अवश्य-सम्भाव्य है.आपके पास निपटने के लिए बरैया जैसे दसों व्यक्ति हो सकते हैं. मगर, उसे कन्विंस (convince)  करने का ढंग एक मात्र वही बचा था, नहीं कहा जा सकता. आज, बहुजन समाज पार्टी की मध्य-प्रदेश में  हालत यह है कि लोग नाम लेते से ही इरिटेट ( irritate ) होने लगते हैं.

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