Sunday, March 4, 2012

Dadasaheb Bhau Rao Gayaikad


Dadasaheb Bhaurao Gaikwad
       प्रत्येक युग परिवर्तनकारी पुरुष के पीछे उनका शिष्य होता है, जो उनके   संदेश को जन-जन तक पहुंचता है. देश के  करोड़ों दलित-शोषित जातियों की मुक्ति के लिए बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने जो संघर्ष छेड़ा था, उसे जन-जन तक पहुँचाने का काम कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड ने किया. दादा साहेब गायकवाड को डा. आंबेडकर का उत्तराधिकारी कहा जाता है. बात चाहे, महाद चवदार  तालाब सत्यागृह की हो या नाशिक के कालाराम मन्दिर प्रवेश के आन्दोलन की या फिर, स्वतन्त्र मजदूर संघ अथवा शेड्यूल्ड कास्ट फेडेरशन  अथवा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के स्थापना की।  बाबा साहेब डा. आंबेडकर के द्वारा चलाये गए इन सभी आंदोलनों में उनकी अहम भूमिका थी. बिना दादा साहेब गायकवाड को विश्वास में लिए बाबा साहेब डा. आंबेडकर आगे नहीं बढ़ते थे और यही कारण है, दादा साहेब को बाबा साहेब का दाया हाथ कहा जाता था.
       दादा साहेब गायकवाड पर डा. आंबेडकर का प्रचंड विश्वास था. उनके गुरु शिष्य के संबंधों की झलक हमें  20  नव. 1937  को नाशिक के जिला युवक संघ द्वारा दादा साहेब गायकवाड की अमूल्य सेवाओं के लिए उनके अभिनन्दन  के अवसर पर बाबा साहेब डा. आंबेडकर के द्वारा प्रकट उद्गार से मिलती है. इस मौके पर विराजमान बाबा साहेब ने अपने भाषण में ने कहा था कि अगर उन्हें अपनी आत्म-कथा लिखने का अवसर आया तो उसका अधिकतम भाग भाऊराव गायकवाड का होगा.
Dadasaheb Bhaurao Gaikwad
 and other social activists
        कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड का जन्म 15 अक्टू. 1902  नाशिक जिले (महाराष्ट्र ) की दिंडोरी तहसील के आम्बेगावं में हुआ था. उनके पिता का नाम किसन राव और माँ का नाम पवळा बाई था.बालक के बचपन का नाम भाऊराव था. भाऊराव का पालन-पोषण संयुक्त परिवार में हुआ था. उनकी चार बहने थी.
       भाऊराव का जन्म दलित समाज की उस महार जाति में हुआ था जिसे छूना उच्च जाति के हिन्दू पाप समझते थे. बालकभाऊ राव को भी जाति की वह पीड़ा झेलनी पड़ी, जिस पर उसका कोई बस नहीं था. स्कूल के रजिस्टर में उनका नाम 'भावडया किसन महार' लिखा गया था. क्लास में जहाँ बच्चों की लाइन ख़त्म होती थी, उन्हें वहां बैठना होता होता था.सब बच्चों की तरह भाऊराव को अपना सवाल दिखाने के लिए स्लेट नीचे जमीन पर रख कर गुरूजी तरफ खिसकाना होता था. गावं के स्कूल के बाद नाशिक के स्कूल में उनका  नाम 'भाऊराव कृष्णाजी गायकवाड' लिखा गया था..
with Dr Ambedkar
 during his Nasik visit
         दस वर्ष की उम्र में भाऊराव ने  4  थी कक्षा पास कर ली थी. इसके बाद भाऊ राव ने अंग्रेजी स्कूल से 8 कक्षा पास की.इसी बीच महाराष्ट्र में प्लेग की महामारी फैली. भाऊराव की पढाई रुक गयी. भाऊराव के घर में गन्ने की खेती की जाती थी. उस समय गन्ना लगाना और काटने का काम महार दलित जाति के लोग तो कर लेते थे किन्तु, गन्ने का रस निकालना, गूढ़ बनाना आदि के काम करने की अछूत महारों को मनाही थी.

   सन 1919  में भाऊराव की माताजी चल बसी. माताजी के देहांत के बाद भाऊराव नौकरी के लिए हाथ-पैर मारने लगे. इस समय तक उन्होंने मेट्रिक पास कर लिया था. शुरू में भाऊ राव को नाशिक के एक्साईज डिपार्टमेंट में नौकरी मिली. परन्तु, वह उसे रास नहीं आई. पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग में भाऊराव ने कुछ समय काम किया. मगर, यहाँ भी ज्यादा दिन वे टिक नहीं सके. सन 1920 के वर्ष में राजश्री छत्रपति शाहू छात्रावास नाशिक में नया नया खुला था. भाऊ राव को वहां नौकरी मिली.छात्रावास के अधीक्षक के रूप में भाऊराव ने नौकरी ज्वाइन की.यह उसे ठीक लगी.
        छात्रावास अधीक्षक के रूप में अपना कार्य समाप्त करने के बाद भाऊराव, सीधे छात्रावास के ग्रंथालय में जाते और अपना शेष समय यही बिताया करते थे. इस ग्रंथालय में उन्होंने गांधीजी,मार्क्स, एंजिल, लेनिन आदि के बारे में  खूब पुस्तके पढ़ी. छात्रों के साथ नित बैठ कर उन्होंने अपनी अंग्रेजी भाषा को समृध्द किया.
   
With Dr Ambedkar
Babu Jagjeevanram etc
  तब, महाराष्ट्र में यहाँ वहां समाज सुधार की चर्चाएँ हो रही थी. दलित जातियों के लोगों को सार्वजानिक पनघटों/कुओं से पानी भरने दिया जाना चाहिए,उनके साथ भेदभाव खत्म होना चाहिए जैसे मुद्दों पर मुम्बई की नगरपालिका परिषद  में जोरों से बहस छिड़ी थी. दूसरी ओर, विट्ठल रामजी शिंदे,शिवराम जानबाजी कामले ,चन्द्रावरकर आदि समाज सुधारकों के द्वारा दलित जाति के बच्चों के लिए स्कूल और छात्रावास खोले जाने जैसे कार्य किये जा रहे थे.तत्सम्बन्धी ख़बरों को  भाऊराव बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे.इसी समय 20 जुला. 1924 को मुम्बई में बाबा साहेब आंबेडकर के द्वारा बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया गया था.
       सन 1926  में बाबा साहेब डा. आंबेडकर कोर्ट के किसी काम से नाशिक आये थे. वे राजश्री छत्रपति शाहू छात्रावास में ठहरे थे. बाबा साहेब डा. आंबेडकर से भाऊराव की पहली मुलाकात यही हुई थी. डा.आंबेडकर के बारे में भाऊराव ने पहले से काफी  सुन रखा था.वे बाबा साहेब से रुबरुं मिलकर अत्यंत प्रभावित हुए थे. भाऊराव गायकवाड  इस छात्रावास के अधीक्षक जुला. 1929  तक रहे थे.
      भाऊराव जब 9 -10  वर्ष के थे तभी उनका ब्याह रखमाजी दानी की पुत्री सीताबाई से हुआ था. काफी समय तक भाऊराव को कोई सन्तान नहीं हुई थी. थक हार कर सीताबाई  ने भाऊराव को दूसरी शादी करने के लिए राजी किया. 20 मई 1928  को सीताबाई की छोटी बहन गीताबाई से भाऊराव का दूसरा ब्याह हुआ था.
      भाऊराव ने सामाजिक आंदोलनों में अपने भागीकारिता की शुरुआत शैक्षणिक कार्यों से की.उन्होंने मनमाड में बच्चों के लिए अनेक छात्रावास खोले. उन्होंने वहां एक 'अनाथ विद्यार्थी आश्रम' की स्थापना की थी. तब, गावों के सार्वजानिक पनघटों/कुओं से पानी भरने के लिए अस्पृश्य जातियों को मनाही थी. भाऊराव ने इसके लिए 'पनघट आन्दोलन'  शुरू किया.उन्होंने  कई आन्दोलन और सत्याग्रह किये. मगर, किसी भी तरह का सत्याग्रह या आन्दोलन  शुरू करने के पहले भाऊराव आवश्यक रूप से बाबा साहेब डा. आंबेडकर से सलाह जरुर लेते थे.
   
With Dr Ambedkar
मुखेड़ में दलित महारों ने  'पांडव प्रताप' के चार माह का धर्म-परायण कार्य-क्रम रखा. प्रोग्राम के बाद धर्म-ग्रन्थ की पालकी निकाली गई. किन्तु सवर्णों ने इसे गावं में निकालने नहीं दिया.बाद में कुछ कट्टर-पंथियों ने पालकी को जला दिया. भाऊराव ने इस घटना की कड़ी निंदा की. दादा साहेब गायकवाड ने हिन्दुओं से पूछा कि उनका धर्म एक, धर्म-ग्रन्थ एक. फिर, उनके साथ ऐसा अधर्मियों जैसा व्यवहार क्यों ?
         सन 1930  के दशक के दौरान  नाशिक नगर पालिका का सदस्य रहते हुए भाऊराव ने  दलित जातियों के सामाजिक और आर्थिक विकास के निमित्त कई प्रस्ताव पारित कराने में अहम् भूमिका निभायी. सफाई का काम दलित जाति के लोग करते हैं.पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम करने से उनकी मानसिकता भी उसी तरह की बन गयी है.दूसरी ओर, ब्राह्मण और उच्च जाति के लोग इस कार्य को हिकारत की नजर से देखते हैं. 28 मार्च 1932 को नाशिक नगरपालिका कार्यकारिणी की बैठक में भाऊराव ने मांग की कि इसमें बदलाव होना चाहिए. यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड की इस मांग को आज तक आजाद भारत में स्वीकारा नहीं गया.
With Dr Ambedkar
      महारों को गावों में सफाई के काम के बदले कोई मजदूरी नहीं दी जाती थी. इसके एवज में उन्हें गावं की पड़ती और अनुपजाऊ जमीन दी जाती थी.ये जमीन इतनी नहीं थी कि उनका परिवार पल सके .परिणाम स्वरूप महार, बड़ी लाचारी और बेगारी का जीवन जीते थे.वे मृत पशु का मांस कई-कई दिनों तक खाते थे.सवर्ण हिन्दुओं ने अपने घर/गावं से मृत पशुओं के उठाने का कार्य महारों के जिम्मे कर रखा था. इस बेढंगी और अमानवीय प्रथा से दुखी हो कर बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने 'महार वतन' आन्दोलन चलाया था. बाबासाहेब के इस आन्दोलन का उद्देश्य महारों को गंदे कामों से अलग कर खेती जैसे स्वत: के उत्पादनों के धंधे करने की ओर प्रवृत करना था.
With Dr Ambekar
      स्त्री शिक्षा पर दादा साहेब बहुत जोर देते थे.वे कहा करते थे कि बच्ची को स्कूल भेजो, तुम्हारा पूरा परिवार  शिक्षित हो जाएगा. नाशिक में उन्होंने सन 1944 में लडकियों के लिए 'रमाबाई आंबेडकर छात्रावास' की स्थापना की थी. इसके आलावा नारी जाग्रति के उन्होंने कई काम किये थे. सन 1938 में नाशिक के स्कूल बोर्ड कमेटी में उनकी पत्नी गीताबाई  निर्विरोध चुनी गयी थी..
    
  दादा साहेब गायकवाड  नाशिक जिला बोर्ड के चेयरमेन थे. वे राय साहेब मेश्राम के देहांत के बाद औरंगाबाद  के मिलिंद महाविद्यालय के निर्माण समिति के इंचार्ज रहे थे. उन्होंने बड़े-बड़े पदों को सुशोभित किया. मगर, एक बात है. उन्होंने अपनी ग्रामीण वेश-भूषा को कभी नहीं छोड़ा था. वे हमेशा टोपी और धोती में रहते थे.यह ग्रामीण वेश-भूषा उनकी पहचान थी. गावं-देहात से आये हुए लोगों को उनसे मिलने और बात करने में जरा भी दिक्कत पेश नहीं होती थी.वे बड़ी आत्मीयता से मिलते थे.लोग चाहे गावं के हो या देहात के, वे बड़ी सहजता से बात करते थे. उनके बात करने के लहजे में विनोद मगर, शालीनता होती थी.
       पेरूमल कमेटी के समय, दादा साहेब ने देश भर में दौरा कर तथ्यों को जुटाने के लिए जो काम किया, वह उनकी लगन,परिश्रम और समाज के कमजोर वर्ग के प्रति उनकी तड़प को बयां करता है.नाशिक और दिल्ली  में दादासाहेब के आवास दीन-दुखियों के लिए मन्दिर से कम न थे. दिन-दुखी और दलित समाज के प्रश्नों को उठाने का उनका एक खास अंदाज था.
        तत्कालीन लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और मऊ में डा. बाबा साहेब आंबेडकर राष्ट्रीय सामाजिक विज्ञानं संस्थान के पहले महानिदेशक रहे सहारे जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि एक दिन दादा साहेब ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा था कि 'भाऊसाहेब, हमारे लोग जो बड़े पदों पर पहुँच गए हैं, उन्हें अपनी स्वच्छ छवि और पारदर्शिता के प्रति सजग रहना चाहिए. उन्हें इसे अपनी सम्पत्ति के तौर पर देखना चाहिए. समाज में ऐसे लोगों का नाम रहता है'. सहारे ने लिखा हैं कि वे शासन में और भी बड़े-बड़े पदों पर रहे और अपनी पूरी सेवा में दादा साहेब के इस सलाह का पालन ईमानदारी से किया, इसका उन्हें गर्व है.
       जैसे कि बतलाया जा चूका है, दादा साहेब की दो पत्नियाँ थी. ये दोनों उनके यहाँ आने-जाने वाले कार्य-कर्ताओं का पूरा-पूरा  ध्यान रखती थी. दादा साहेब कार्य-कर्ताओं को अपने जीवन की पूंजी मानते थे. उन्होंने निर्देश दे रखा था कि बाहर से आये कार्य-कर्ताओं की भूख-प्यास का ख्याल रखा जाये.
With Dr Ambedkar at Nasik
        जहाँ कहीं से अन्याय और अत्याचार की खबर आती, वे तुरंत निकल पड़ते थे. जाने का साधन न होने पर वे पैदल ही रवाना हो जाते थे.गावं- देहातों का दौरा करते समय वे अपने कार्य-कर्ताओं का पहले ख्याल रखते थे. वे अपने कपड़े तक उन्हें दे देते थे. अन्य गुणों के अलावा दादा साहेब एक और खास बात के लिये जाने जाते थे. और वह था उनके भाषण करने की कला. उनके जैसे भाषण करने वाला कोई नहीं था.सम्बोधन की शैली उनकी बड़ी सहज हुआ करती थी. उनके बताने के ढंग में ऐसा अपनापन होता था की वे डाँटते तब भी बुरा नहीं लगता था.
          दादा साहेब गायकवाड जमीनी कार्य-कर्ता थे. गावं-देहात के लोगों के रोजमर्रा की समस्याओं से वे सीधे जुड़े थे.किसी दलित के खेत को मराठे ने जबरदस्ती जोत लिया हो या किसी दलित स्त्री को कुँए में पानी भरने नहीं दिया गया हो अथवा  किसी दलित जाति के बच्चे को स्कूल के बाहर ही बैठाल दिया गया हो या काम करने के बाद भी किसी गरीब को मजदूरी न मिली हो, ऐसे एक नहीं कई छोटे-बड़े कामों में दादा साहेब गायकवाड सुबह से शाम तक लगे रहते थे.
      दलित अस्मिता के प्रतीक महाड चवदार तालाब का पानी पीने के आन्दोलन में कर्मवीर भाऊराव की अहम् भूमिका थी. बाबा साहेब डा. आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इस संघर्ष ने देश की दलित जातियों के मुर्दा शरीरों में स्वाभिमान और आत्म-सम्मान की भावना को जाग्रत किया था. महाड़ के चवदार तालाब का पानी पीने के लिए 19-20 मार्च  1927  को सत्याग्रह हुआ था. किन्तु, कुछ ही दिनों बाद सनातनी हिन्दुओं ने तालाब के पानी में गाय का गोबर, मूत्र और घी डाल कर शुध्दिकरण किया. इस पर दलित जातियों की ओर से 25  दिस. 1927  को फिर सत्याग्रह हुआ. इसी दिन 'मनुस्मृति दहन' भी किया गया. क्योंकि, इसी ग्रन्थ के कारण ही तो दलितों को जानवरों से बदतर समझा जा रहा था.
With Karmveer Bhaurao Patil, Gadge Baba
Dr Ambedkar
      इसी बीच हिन्दुओं की ओर से कोर्ट को बतलाया गया कि चवदार तालाब, सार्वजानिक न हो कर निजी मिल्कियत है. कोर्ट ने स्टे दे दिया. तत्सम्बन्धी जानकारी जिला कलेक्टर ने डा. आंबेडकर को दी और कहा कि ऐसी स्थिति में उनका अगर कोई आदमी तालाब पर जाता है तब, उन्हें नियमानुसार कार्रवाई करनी पड़ेगी.यहाँ पर भाऊराव भी उपस्थित थे. कलेक्टर की बात सुन कर भाऊराव ने कहा कि वे मानवीय हक की लड़ाई में एक सैनिक के रूप में इस संघर्ष में उतरे हैं. हम इसे प्राप्त किये बिना  पीछे नहीं हटेंगे. भाऊराव की बात पर वहां उपस्थित सभी लोग तन कर खड़े हो गए.तब, डा. आंबेडकर ने भाऊराव को एक तरफ ले जा कर कहा कि वे कह सही रहे हैं. मगर, वे खुद एक फौजी की संतान हैं और युध्द नीति को बेहतर जानते हैं. बाबा साहेब ने समझाया कि ऐसे वक्त हम अगर शांत नहीं रहे तो सनातनी हिन्दू और स्थानीय प्रशासन एक तरफ होंगे और दूसरी तरफ दलित.परिणाम स्वरूप यह मानवीय हक की लडाई उनके विरुध्द भी जा सकती है.
           इसी तरह नाशिक के कालाराम मन्दिर का आन्दोलन था. यह आन्दोलन पांच वर्षों तक चला था. इस आन्दोलन के अध्यक्ष पतितपावन दास थे. दादा साहेब गायकवाड संघर्ष समिति के सचिव थे.
          चवदार तालाब का संघर्ष और नाशिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश का संघर्ष; इन दोनों आंदोलनों ने दलित समाज को जो सदियों से सो रहा था, एकाएक हडबडा कर जगा दिया था. इन दोनों आंदोलनों ने उसे एहसास कराया था कि वे अपने मानवी हकों की लड़ाई लड़ सकते हैं.बाबा साहेब डा. आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इन आंदोलनों में कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड की भूमिका सदैव याद रहेगी.
    सन 1932  के पूना करार के बाद हिन्दुओं की ओर से बाबा साहेब डा. आंबेडकर को जान से मारने की धमकियाँ मिल रही थी, इसके चलते सन 1934  के दौरान बाबा साहेब ने अपना मृत्यु-पत्र तैयार करवा लिया था और उसकी एक प्रति दादा साहेब गायकवाड को भेज दी थी कि कदाचित ऐसा होता है,तब भी उनके द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को बंद न रखा जाये. आन्दोलन चलाने का खर्च मुम्बई स्थित उनका राजगृह बेच पूरा किया जाये.
    दादा साहेब के व्यक्तित्व के जुझारूपन की झलक सन 1959  से 1965  के दौरान उनके द्वारा भूमिहीनों के बीच पड़ती भूमि बाँटने के लिए चलाया गया  आन्दोलन था.दादा साहेब की सोच थी की देश की सारी पड़ती जमीन को भूमिहीनों में बाँट देनी चाहिए. इससे न केवल ख़ाली पड़ती जमीन का उपयोग होगा वरन लोगों के द्वारा पड़ती भूमि पर खेती किये जाने से भूमिहीनों की हालत में सुधार आयेगा. इस सत्याग्रह में दादा साहेब गायकवाड कई बार जेल गए.
    दादा साहेब को उनकी अमूल्य सेवाओं के कारण उन्हें  26 जन. 1968  को पद्मश्री की उपाधि से नवाजा गया था. दादा साहेब को ब्लड प्रेसर और मधुमेह की बीमारी थी. इस बीमारी ने उन्हें  29 दिस. 1971 को हम से छीन लिया.राष्ट्र उनका सदैव ऋणी रहेगा.

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