Monday, March 31, 2014

झूलेलाल

झूलेलाल

File:Jhulelal hindu deity.jpg
सिंधियों के इष्ट देवता झूलेलाल 

हम सभी ने यह कव्वाली हजार- हजार बार सुनी होगी -
'ओ लाल मेरी पत रखियो भला झूले लालन।  सिन्ध्री दा सेवन दा , सखी शहबाज़ कलंदर।  दमा दम मस्त कलंदर , अली दम दम के अंदर  ........  ।  दोस्तों , यह लेख पढने के बाद आप जरुर इस सूफियाना कव्वाली को एक बार और सूने। मेरा दावा है कि अब आपको एक नया मज़ा आएगा।    

सिंधी समाज में झूलेलाल का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। झूलेलाल का मतलब है , प्रकाश और जल का देवता।  झूलेलाल सिंधियों के लिए भगवान है। उनके तारक है , उद्धारक है।

14 अग 1947 को पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बाद लाखों की संख्या में हिन्दू और सिक्ख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए थे। ये शरणार्थी अधिकांशत: पाकिस्तान के सिंध प्रदेश और इसके आस-पास के भू-भाग की अपनी मातृ-भूमि छोड़ कर भारत आए थे। भारत सरकार की मदद से देश के विभिन्न भागों में इन्हे बसाया गया था।

यद्यपि , सिंध प्रदेश के आलावा हिन्दू पाकिस्तान के दूसरे इलाकों से भी शरणार्थी के रूप में भारत आए थे।  मगर, सिंध प्रदेश के निवासी ही सिंधियों के रूप में अपनी पहचान कैसे बचा पाए हैं , शोध का विषय है।

शोध का विषय तो यह भी है कि हिदुस्तान -पाकिस्तान बंटवारे को आज 67 वर्ष हो गए।  मगर, आज भी हमारे राष्ट्र गान में 'सिंध'  शब्द का समावेश है जो हमें लगातार स्मरण कराता है कि एक समय विश्व की महान सभ्यता रही 'सिंधु घाटी सभ्यता'(3300 -1700  ई पू )  के हम कभी वारिश थे , हैं और रहेंगे। सिंधी विद्वान् और लेखक दादाराम पंजवानी के शब्दों में,  निश्चित ही सिंधी,  हिन्दुस्थान और पाकिस्तान के अटूट दोस्ती की मिशाल है जिसे दोनों देशों के शासक चाहे भी तो नहीं मिटा सकते।
File:CiviltàValleIndoMappa.png
Source- Wikipedia

सिंध प्रदेश के निवासियों की एक खास संस्कृति रही होगी ।  नि:संदेह, सांस्कृतिक रूप से सिंधियों की अलग पहचान है । इनके धार्मिक संस्कारों में सूफी संतों और सिक्खों की गुरु नानक की शिक्षाओं का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इनका रहन-सहन, बोल-भाषा अलग है। इनके नाम के अंत में 'राम ' , 'मल' , ' चंद ' और उपनाम के अंत में  ' नी ' प्राय: देखा जा सकता है।

सन 1967 में भारत सरकार ने सिंधी को एक पृथक भाषा के रूप में मान्यता दी। भारत सरकार के सन 2001  के आकड़ों के अनुसार सिंधियों की आबादी  2,571, 526  दर्ज है।

यद्यपि, सिंधियों को गुजरात में बसाया गया था,  क्योंकि यहाँ की आबो-हवा सिंध प्रदेश से मिलती-जुलती थी।  तथापि , सिंधी किसी क्षेत्र विशेष में घनीभूत न बस कर जिसको जहाँ लगा , बस गए। आज सिंधी जहाँ भी हैं , जैसे भी हैं , किसी न किसी व्यवसाय में लगे हैं।  किराने से लेकर कपडा मार्किट में  सिंधियों का दबदबा है। वे स्वभाव से मेहनती होते हैं। अब तो राजनीति में भी आपको सिंधी मिल जाएंगे। आचार्य कृपलानी, एल के आडवाणी जैसी हस्तियां इसके उदहारण हैं।

सिंधी लोग झूलेलाल को बड़ी श्रद्धा से मानते हैं। 'चेती चाँद' का उनका धार्मिक महोत्सव इसका उदहारण है। वे उन्हें भगवान मानते हैं। बरहणा  साहिब (भ. झूलेलाल) की जब शोभायात्रा निकाली जाती है और छेजरिस (डांस में भाग लेने वाला दल ) गुजराती डांस 'डांडिया ' की तर्ज पर हाथों में डांडी लेकर जब गोलाकार  घूमते हुए डांस करता है तो राह चलते लोग जैसे थम जाते हैं । ये लोग 'पंजरा ' गाते हैं जो दरिया देवता के लिए स्तुति गान है।

भ. झूलेलाल को दरिया लाल , उदेरो लाल, दूल्हा लाल, लाल साईं , ज़िन्दाँ पीर  आदि कई नाम और विशेषणों से सम्बोधित किया जाता है। झूलेलाल का जन्म 10 वीं शताब्दी में हुआ था। सिंधी परम्परा अनुसार भ. झूलेलाल का जन्म  सन 951 के चैत्र शुक्ल द्वितिया को माना जाता है। चेती चाँद अर्थात चैत्र महीने का दूसरा दिन।

कहा जाता है कि बालक झूलेलाल को गोरखनाथ से दीक्षा दिलायी गई थी। गुरु गोरखनाथ ने झूलेलाल को  'अलख निरंजन ' का बीज मन्त्र दिया था।

 झूलेलाल के बारे में चमत्कारिक बातें कहीं जाती है। कहा जाता है कि सिंध (पाकिस्तान ) के ठट्टा नगर में मिरकशाह नामक मुस्लिम बादशाह था। मिरकशाह ने अपने राज्य में रह रहे हिंदुओं को आदेश दिया कि वे इस्लाम धर्म स्वीकार कर ले। हिंदुओं को इससे बड़ी ठेस लगी। वर्षों पुरानी उनकी संस्कृति और तहज़ीब वे बलात कैसे छोड़ सकते थे ?

एक दिन सारे हिन्दू ठट्टा नगर के पास से बहती सिंधु नदी के तट पर एकत्र हुए।  उन्होंने मन्नत मांगी की कि इस दुःख की घडी में कोई ईश्वरीय अवतार उनकी मदद करे । एकाएक नदी में लहरें उठने लगी। उन लहरों पर एक विशाल मछली के रूप में दिव्य पुरुष प्रगट हुए।  आकाशवाणी हुई कि सात दिन के बाद नसरपुर के भक्त रतनराय  की पत्नी देवकी के गर्भ में भगवान् अवतार लेंगे।

नीयत समय अर्थात सातवें दिन रतनराय उर्फ़ रतनचंद  की पत्नी देवकी के गर्भ में भगवान् ने जन्म लिया। बच्चे का नाम उदयचंद  रखा गया था। प्यार से बच्चे को 'दरिया लाल' या  'उदेरो लाल' (अर्थात पानी से जिसका उदय हुआ) तो कुछ 'अमर लाल'  कहने लगे । कहा जाता है कि जिस झूले पर बालक को रखा गया था , स्वत: अपने आप झूलने लगा था।  इसलिए बालक को 'झूलेलाल' के नाम से पुकारा जाने लगा।

झूलेलाल के जन्म के बाद ही माता का देहांत हो गया था। रतनराय उर्फ़ रतनचंद ने बाद में दूसरी शादी कर ली थी। बालक झूलेलाल या उदेरोलाल या अमर लाल के बारे में ऐसी कई चमत्कारिक घटनाएं बहु-श्रुत व प्रचलित हैं। बालक झूलेलाल जैसे-जैसे बड़ा होता है, चमत्कारिक घटनाओं की श्रंखला बढती जाती है।

Source-Sindh Festival
एक दिन बादशाह के आदेश पर झूलेलाल को दरबार में पेश किया गया।  झूलेलाल ने कहा कि मुस्लिम जिसे अल्लाह के नाम से पुकारते हैं और हिन्दू जिसे ईश्वर कहते हैं , दरअसल दोनों एक ही शक्ति के दो नाम हैं।और इसलिए हिन्दू और मुस्लिम कौम में सिर्फ नाम और पूजा पद्यति का फर्क है। झूलेलाल के तर्क का बादशाह को सलाह दे रहे मौलवियों में कोई फर्क नहीं पड़ा।  उलटे मौलवियों ने बादशाह को सलाह दी कि वह झूलेलाल को इस्लाम के अनुसार 'काफिर'  घोषित कर बंधक बनाने का सैनिकों को आदेश दे।

बादशाह ने सैनिकों को झूलेलाल को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। तभी वहाँ एकाएक समुद्री तूफान पैदा हुआ । जब उस समुद्री तूफान में बादशाह का महल डूबने लगा तो बाद्शाह ने झूलेलाल के आगे समर्पण कर दिया।

झूलेलाल के सोनाराम औए भेदोराम नाम के दो बड़े भाई और थे।  मगर , ऐसा लगता है , झूलेलाल से उनकी पटरी नहीं बैठती थी।  और यहीं कारण है , उन्हें अपने मिशन के आगे बढ़ाने के लिए अपने चचेरे भाई पगड़ गेतूराम का सहारा लेना पड़ा। भ. झूलेलाल ने जिस पंथ की नीवं रखी, उसे 'दरियाहि पंथ ' कहा गया ।

नसरपुर के करीब 10 की मी दूरी पर हाला गावं में 'उदेरोलाल-जो का मंदिर है।  कहा जाता है कि भ. झूलेलाल ने एक मुस्लिम परिवार से जमीन लेकर इसका निर्माण कराया था। बाद में ब्रिटिश हुकूमत में यहाँ एक रेलवे स्टेशन बना जिसका नाम 'उदेरोलाल '  है।

बारह वर्ष की उम्र तक आते-आते झूलेलाल ने भक्ति-भाव के अतिरिक्त हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काफी काम किया था। उनके हजारों- हजारों शिष्य हुए।  उन्होंने कई मंदिर बनवाए।

झूलेलाल जब 13 वर्ष पार किये तब उन्हें लगा कि जिस उद्देश्य के लिए उनका जन्म हुआ , वह पूर्ण हो चूका है। तब, उन्होंने अपने प्रिय शिष्य पगड गेतुराम को बुला कर आवश्यक निर्देश दिए। उन्होंने पंथ के काम को आगे बढ़ाने के लिए निर्देश दिए। उन्होंने पगड गेतुराम से कहा उनके वंशज आगे से  'ठाकुर' और खुद भ. झूलेलाल  के अनुयायी  'सेवक' (shewaks ) कहलाएंगे। मंदिरों में पूजा-अर्चना करने वाले ' बाबो' नाम से पुकारे जाएंगे।

और अंत में उन्होंने झिझन नामक स्थान पर समाधी ली,  जहाँ पर उनके हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के बड़ी मात्रा  में शिष्य उपस्थित थे।  यहाँ पर मुस्लिम बादशाह मिरकशाह  के प्रतिनिधि भी उपस्थित थे। सिंधी परम्परा के अनुसार यह तिथि  सन 964 के भाद्र पद चतुर्दशी थी।

हिन्दू मॅथोलॉजी में संत ज्ञानेश्वर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने 13 वर्ष में ज्ञानेश्वरी लिखकर समाधि ले ली थी। यद्यपि, न तो ज्ञानेश्वर और न ही झूलेलाल की प्रतिमा देखकर ऐसा लगता है।  

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