Wednesday, August 22, 2018

विपस्सना

विपस्सना
विपस्सना का अर्थ है, खुद को देखना। खाते-पीते, सोते-जागते सतत खुद को देखते रहना कि जो मैं देख रहा हूँ, वह कितना सही है अथवा जो मैं सोच रहा हूँ, वह कितना जायज है अथवा जो मैं कार्य कर रहा हूँ, उसमें किसी का अहित तो नहीं है। धम्म के सन्दर्भ में हम बात करें तो यही अष्टांग मार्ग है अर्थात सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प, सम्यक वाचा, सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजाविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। और यही कारण है कि विपस्सना को बुद्ध से जोड़ा जाता है।

किन्तु इसके लिए एकांतिक स्थान की क्या दरकार है ? जंगलों में शिविर लगा कर 10-10, 15-15 दिन बिताने  की क्या आवश्यकता है ? क्या इससे यह साबित नहीं होता कि यह निट्ठलों की दुकानें हैं ? जिसका भरा पेट है, जिसे काम नहीं है, उनके मन बहलाने का साधन है ?

यह सच है कि  इधर, हमारे समाज में अन्य समृद्ध समाजों की नक़ल पर अपेक्षाकृत समृद्ध तबका पैदा हो गया है। वह भी बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के अथक प्रयासों से प्राप्त आरक्षण के बदौलत। उनके पास पर्याप्त पैसा है। उनके पास समय भी है। वे चाहते हैं कि किसी एकांतिक स्थान में,  शहर से दूर जंगलों की आबोहवा में 10 -15 दिन नि:शब्द, शोरगुल से दूर रहें।

मुझे मेरे कई शुभ-चिंतकों ने सलाह दी कि मैं 10-15 दिन के विपस्सना का कोर्स कर लूँ। दरअसल, लोग आपको कमतर नजर से देखने लगते हैं।  वे चाहते हैं कि 3-4 दिन का ही सही, विपस्सना का कोर्स कर आप उनके साथ बतियाने और बैठने लायक हो जाए। किन्तु मुझे फुर्सत ही नहीं मिलती ?

बुद्ध का धम्म एकान्तिक नहीं है और न उसके लिए 'सतिपट्ठान' का कोर्स करने की जरुरत है। बुद्ध का धम्म 'चरथ भिक्खवे चारिकं  बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय है। बुद्ध आगे कहते हैं, 'मा एकेन द्वे अगमिथ'। भिक्खुओं, कभी भी एक साथ दो, एक रास्ते से मत जाना। एक भिक्खु को बुद्ध ने इसी बात पर डांट लगाईं। वह किसी ' ध्यान-साधना' के लिए जंगल में जाने की बात कर रहा था।  आज के सन्दर्भ में बात करें तो भदन्त जगदीश काश्यप को यही सलाह राहुल सांकृत्यायन ने दी थी। और नतीजन,  भंतेजी ने जो कार्य किए,  धम्म प्रसार में मील के पत्थर हैं।

बुद्ध का धम्म सामाजिक मुक्ति के लिए है। हमारा दुक्ख भेदभाव है, छुआछुत है, जातिवाद है, अशिक्षा है, आए दिनों  हमारी मा-बहनों से होता बलात्कार है। जो लोग इन दुक्खों से मुक्त हैं, वे बेशक विपस्सना में जा कर घंटों बैठ सकते हैं।  एक मित्र गर्व से बतला रहे थे कि उन्होंने इगतपुरी जा कर तीन महीने का कोर्स किया है। मुझे मित्र पर नहीं उन संस्थानों पर दया आती है जो क्रांति की आग को बुझाने का काम करते हैं ।

गोयनकाजी और बहुत ही कम समय में तीव्र गति से फैले उनके संस्थान विपस्सना के क्षेत्र में शोध करने के बजाय बुद्ध के क्रांतिकारी विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य करते तो समाज का बेहतर भला होता। सच पूछा जाए तो इन संस्थानों ने हमारे लोगों को क्रांति करने से रोक दिया है, क्रांति की धार को बोथरी कर दिया है।  बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का 'एजुकेट, एजिटेट, ऑर्गेनाइज' का लहू जो हमारी रगों में दौड़ रहा था, दलित वायस के सम्पादक वी.टी. राजशेखर के शब्दों में, उसे 'फ्रिज' कर दिया है।

मेरा यह सीधा सवाल विपस्सना के आचार्यों से हैं। आप धम्म का पाठ पढ़ाते हैं, उन्हें 'एजुकेट' करते हैं ।  अनिवार्य तौर पर  'एजुकेट' के बाद उसे 'एजिटेट' होना चाहिए। क्या वह होता है ? अगर वह 'एजिटेट' नहीं होता, तो आप निस्संदेह, धम्म की गलत व्याख्या कर रहे हैं। बेशक, बुद्ध  शांति का मार्ग है। मगर, हमें अपनी माँ-बहनों के आबरू की कीमत पर शांति नहीं चाहिए। आज, आए दिनों हमारी माँ-बहनों से बलात्कार होता है। आप ये खबरें पढ़कर विपस्सना के लिए किसी एकांतिक स्थान में नहीं बैठ सकते ?                 

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