Thursday, August 16, 2018

बौद्ध-ग्रंथों में ब्रह्मा, स्वर्ग, देवता और राक्षस

बौद्ध-ग्रंथों में ब्रह्मा, स्वर्ग, देवता और राक्षस
बौद्ध-ग्रंथों में ब्रह्म, देवता, इंद्र, स्वर्ग आदि शब्दों की भरमार हैं।  ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें ये शब्द न चुभे हो, गले की फांश न बने हो। ऐसा नहीं है कि ये शब्द किसी वैदिक अथवा ब्राह्मण-ग्रंथों के कथोप-कथन को उद्धृत करने आए हो। दिक्कत ये है की ये शब्द धम्म-ग्रंथों में बुद्ध के उपदेशों में आए हैं। 

आप यह प्रश्न कर राहत की साँस ले सकते हैं कि सुत्त पिटक आदि ग्रंथों को पढ़ता कौन है ?  'बुद्धा एंड हिज धम्मा' ही पर्याप्त है, धम्म को जानने के लिए । धम्म-अध्येयताओं की बात छोड़िये, मुझ जैसा सामान्य उपासक भी जब घर में बुद्ध वंदना करता है तब कई बार झुंझला जाता है। अजीब-सी कोफ़्त होती है, जब हम 'इंद्र आदि देवताओं' की अभ्यर्थना करते हैं, 'ब्राह्मण' का गुण गान करते हैं-

निम्न गाथाएँ कुछ नमूना भर हैं, अपनी बात रखने की। किन्तु दरअसल, सारा ति-पिटक ऐसे शब्द और शब्द व्यंजनाओं से भरा पड़ा है।
देखें बुद्ध, धम्म, संघ वंदना में, यथा-
पुरिस-दम्म सारथि सत्था, देव' मनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति। अथवा
भंते जी के द्वारा कहे आशीर्वचन-
"भवतु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब 'देवता'
सब्ब बुद्धानुभावेन, सदा सोत्थि भवन्तु ते।"    अथवा
इद्धिमन्तो च ये 'देवता', वसंता इध सासने।
ते'पि तुय्हं अनुरक्खन्तु, आरोग्य सुखेन च।।  अथवा
महामंगल सुत्त की यह गाथा देखें-
बहू 'देवा' मनुस्सा च, मंगलानि अचिन्तयुं।
आकंखमाना सोत्थानं, ब्रूहि मंगलं उत्तमं।। अथवा
रतन सुत्त की यह गाथा देखें-
कोटि सत  सहस्ससु, चक्क वालेसु 'देवता'।
येसानं पटिग्गण्हन्ति, यं च वेसालिया पुरे।।
महामंगल गाथा में-
सक्कत्वा बुद्ध रतनं, ओसधं उत्तमं वरं।
हितं 'देव'-मनुस्सानं, बुद्ध तेजेन सोत्थिना।।

अब 'ब्रह्म' का गुणगान देखे-
'ब्रह्म' चरिया वेरमणी, सिक्खा पदं समादियामि। अथवा
सब्बेसु चक्कवालेसु, यक्खा 'देवा' च 'ब्रह्मुनो'।
यं अम्हे हि कतं पुञ्ञेन, सब्ब संपत्ति साधकं।।  अथवा
करणीय मेत्तं सुत्त में-
एतं सतिं अधिट्ठेय्य, 'ब्रह्म' मेत्तं विहार इध आहु।
स्वर्ग की प्रशंसा देखें-
आयु आरोग्य संपत्ति, 'सग्ग' संपत्ति येव च।
ततो निब्बान संपत्ति, इमिना ते समिज्झतु।।
आव्हान सुत्त में 'राक्षसों' से रक्षा-
अच्छ, तच्छ, सुकर, महिस, यक्ख, 'रक्खस'-आदि हि नाना भयतो वा नाना रोगतो वा---
अभी मैंने 'आटानाटिय सुत्त' की बात ही नहीं की है, जिसमें भूत-प्रेतों को भगाने की गाथाएं हैं। इस पर चिंतन और मुल्यांकन विद्वत पाठकों पर छोड़ दिया है। किन्तु , क्या कभी हमने इस पर गौर किया हैं कि जो कुछ हम  पाठ करते हैं अथवा भंतेजी कहते हैं,  उसका अर्थ क्या हैं ? और इन गाथाओं में वर्णित ये 'देवता' कौन है ? दरअसल, हम धार्मिक  संस्कारों में, क्रिया-कलापों में यंत्रवत काम करते हैं।

जैसे एक हिंदू के घर में होश आते से ही संस्कार देना शुरू हो जाता है, ये हनुमानजी हैं। इनके आगे नत-मस्तक होना है और इसीलिए बच्चा पढ़-लिख कर जब प्रोफ़ेसर/डाक्टर  बनता है तो सड़क पर अचानक ठिठक कर हनुमानजी को देख छाती पर क्रास बनाता है। यह बचपन के संस्कार ही हैं कि हम सोचने की जहमत नहीं उठाते कि  भंतेजी बोल क्या रहे हैं ? और अगर किसी ने टोकने की जुर्रत की तो हमें लगता है कि वह सिरफिरा है !

सवाल है,  धम्म-गाथाओं में उल्लेखित देवता क्या वही देवता हैं जो वेद और ब्राह्मण-ग्रंथों में वर्णित हैं ? बुद्ध कहते हैं कि वेद और उनमें वर्णित देवता इस योग्य ही नहीं कि उनसे कुछ सीखा अथवा ग्रहण भी किया जा सके। 'वेद, मन्त्रों अर्थात ऋचाओं या स्तुतियों का संग्रह है। इन ऋचाओं का उच्चारण करने वालों को ऋषि कहते हैं। मन्त्र 'देवताओं' को सम्बोधन करके की गई प्रार्थनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है जैसे इंद्र, वरुण, अग्नि, सोम, ईशान, प्रजापति, ब्रह्म, यम आदि(बुद्ध और उनका धम्म: डॉ बी आर अम्बेडकर, पृ. 121) । प्रार्थनाएं अकसर शत्रुओं से रक्षा वा शत्रुओं के विरूद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए है धन प्राप्ति के लिए है, भक्तों को भोजन, मांस और सुरा की भेंट स्वीकार करने के लिए है(वही)। लेकिन उन मन्त्रों में उन्हें ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया जो मानव के नैतिक उत्थान में सहायक हो। इसलिए बुद्ध ने वेदों को इस योग्य नहीं समझा कि उनसे कुछ सीखा अथवा ग्रहण भी किया जा सके(वही, पृ. 123)।

उपनिषदों में वर्णित 'ब्रह्म'-
बुद्ध ने पाया कि सभी उपनिषद वेदों को अपौरुषेय न मानने के समर्थक थे। ब्राह्मणी दर्शन की प्रधान-स्थापनाओं- जैसे यज्ञ और उसके फल, श्राद्ध और ब्राह्मण पुरोहितों को दिए जाने वाले दानों के महात्य्म को अस्वीकार करने में एकमत थे(वही, पृ. 132) । किन्तु यह कोई उपनिषदों का मुख्य विषय न था। उनकी चर्चा का मुख्य विषय है, ब्रह्म और आत्मा। ब्रह्म ही वह सर्व व्यापक तत्व है जो विश्व को बांधे हुए है और आदमी की मुक्ति भी इसी बात में है कि उसके आत्मा को इस बात का बोध हो जाए कि वह 'ब्रह्म' है। प्रश्न पैदा हुआ कि क्या 'ब्रह्म' एक वास्तविकता है ? उपनिषदों की सारी स्थापना इसी एक प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करती है। बुद्ध को 'ब्रह्म' की वास्तविकता का कोई प्रमाण नहीं मिला।  इसलिए उन्होंने उपनिषदों की स्थापना को अस्वीकार कर दिया(वही)। ईश्वर को सृष्टि-कर्त्ता और 'ब्रह्म' को विश्व का मूलाधार तत्व मानने का बुद्ध ने सर्वथा त्याग किया(पृ. 137)। उन्होंने इस सिद्धांत का खंडन किया किया कि किसी ईश्वर ने आदमी का निर्माण किया है अथवा वह किसी 'ब्रह्म' के शरीर का अंश है(वही, पृ. 138)।

बावीस प्रतिज्ञाओं का अंतर्विरोध-
और एक तीसरी बात, धम्म दीक्षा के अवसर पर डॉ बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा दी गई 22 प्रतिज्ञाओं में जब हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और राम, कृष्ण को ईश्वर न मानने की प्रतिज्ञा करते हैं, गौरी, गणपति आदि किसी भी देवी-देवता को नकारते हैं तब उक्त गाथाओं में आए ये 'देवता' और  'ब्रह्मा' कौन हैं, जिनकी हम अभ्यर्थना करते हैं ?

यह सुस्थापित तथ्य है कि ति-पिटक ग्रंथों में चीवरधारी ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद को घुसेड़ा और यह उनके लिए बहुत ही स्वाभाविक था। यह भी सही है कि संगीतियां होती रही किन्तु उठते सवालों को दबाने वाले भी तो वे ही थे। ब्राह्मण सब कर सकता है बस, अपना स्वार्थ नहीं छोड़ सकता। ब्राह्मणवाद के पोषण की कीमत पर ब्राह्मण, भिक्खु बन सकता है, दिगम्बरी साधु बन सकता है और तो और कबीर पंथी महंत भी बन सकता है, जिसने उसे भरे बाजार में गरियाया। और यही कारण है कि सभी गद्दियों पर ब्राह्मण विराजमान है। हम मजे से उनके गुण गाते हैं और ऐसा करते हुए खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं।

अपने उद्बबोधन मैं अकसर स्वर्ग का अर्थ निर्वाण, देवता का अर्थ सत्पुरुष और ब्रह्म का अर्थ विशुद्ध करता हूँ।  किन्तु कब ? कब तक हम खुद को बरगलाते  रहेंगे ?  

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