Friday, September 14, 2018

बोधिसत्व; महायानी संकल्पना

बुद्ध पूजा-
गौतम बुद्ध एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। परन्तु सद्धर्म के विकास के साथ उनके दैवीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उनके दैवी गुणों, बलों आदि की कल्पना की गयी। विकास के इसी क्रम में उनके स्मरण और उनकी पूजा की परम्परा प्रारम्भ हुई(चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म, एक अध्ययन, पृ 306: डॉ अवधेश सिंह )।
बोधिसत्व: महायानी संकल्पना-
बोधिसत्व का 'भावी बुद्ध' के लिए प्रयोग पालि-साहित्य में बहुत स्थानों पर उपलब्ध होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले इसका प्रयोग केवल सम्बोधि से पूर्व शाक्य मुनि को सूचित करने के लिए ही होता था। शाक्य मुनि के असंख्य पूर्व-जन्मों की जातक-साहित्य के द्वारा प्रसिद्धि होने पर बोधि-सत्व चरित भी विस्तृत हो गया। साथ ही
शाक्य मुनि के अतिरिक्त अन्य अतीत बुद्धों की कल्पना के कारण सम्बोधि से पूर्व की अवस्था में उनके लिए भी बोधिसत्व शब्द का प्रयोग हुआ । प्राचीन पालि सन्दर्भों में सात बुद्धों के नाम मिलते हैं- विपस्सी, सीखी, वेस्सभू, ककुसन्ध,  कोनागमन, कस्सप और गौतम। दीघनिकाय के 'महापदानसुत्त' में इन बुद्धों के विषय में सूचना दी गई  है तथा उनके उत्पाद का समय और उनकी जाति, गोत्र, आयु, बोधि-वृक्ष, सावक-युग, सावक-सन्निपात, अग्र-उपस्थाता, माता-पिता तथा जन्म-स्थान का उल्लेख है। इसके अनन्तर विपस्सी बुद्ध का जीवन-चरित विस्तार से बताया गया है, जो कि सभी मुख्य बातों में शाक्य-मुनि के सदृश्य है। यह कहा गया है कि सभी बुद्धों की जीवनी सामान होती हैं, केवल विस्तार-भेद ही उनमें पाया जाता है(बौद्ध धर्म के विकास का इतहास:  गोविंद चंद्र पांडेय, पृ  355 )।

बुद्धों के जीवन की यह व्यापक समानता 'धम्मता' कही गई है।  यह धम्मता ही है कि बोधिसत्व तुषितलोक से च्युत होकर स्मृति-सम्प्रजन्य युक्त अवस्था में ही मातृ-कुक्षि में प्रवेश करते हैं।  बोधिसत्व के मातृ-कुक्षि में प्रवेश के समय समस्त लोकों में सहसा अनंत प्रकाश फ़ैल जाता है।  चार देव-पुत्र गर्भ में बोधिसत्व की रक्षा करते हैं।  उस समय उनकी माता शील का पालन करती है , काम-राग से मुक्त होती है और सब प्रकार से सुखी और निरोग होती है।  गर्भस्थ बोधिसत्व को उनकी माता स्पष्ट देख पति है। बोधिसत्व के जन्म के अनन्तर उनकी माता का देहांत हो जाता है और वह तुषित लोक में उत्पन्न होती है।  बोधिसत्व का जन्म ठीक दस मॉस गर्भ में रह कर होता है तथा उनके प्रसव के समय उनकी माता खड़ी रहती है। प्रसव के अनन्तर बोधिसत्व का पहले देवता और पीछे मनुष्य प्रति-ग्रहण करते हैं।  नवजात बोधिसत्व को चार देवपुत्र उनकी माता के सामने स्थापित करते हैं।  जब बोधिसत्व का जन्म होता है उन पर और उनकी माता पर अंतरिक्ष से दो उदक- धाराएं गिरती हैं- एक शीत और एक उष्ण।  तत्काल उत्पन्न बोधिसत्व सात पग धरते हैं तथा वाग उच्चारित करते हैं- 'मैं लोक में श्रेष्ठ हूँ, यह अंतिम जन्म है और अब पुनर्भव नहीं होगा।' उनके जन्म के समय पुन अनंत ज्योति प्रकट होती है((डॉ गोविंद चंद्र पांडेय, पृ  355, 356 )।

आगे चल कर लगभग दो दर्जन बुद्धों की कल्पना हुई।  खुद्दकनिकाय के अंतर्गत बुद्धवंश में शाक्य मुनि के पूर्व 24  बुद्धों का वर्णन किया गया है।  नए नाम इस प्रकार हैं - दीपंकर, कोण्डञ्ञ , मंगल, सुमन, रेवत, सोभित, अनोमदस्सी, पदुम, नारद, पदुमुत्तर, सुमेध, सुजात, पियदस्सी, अत्थदस्सी, धम्मदस्सी, सिद्धत्थ, तिस्स और फुस्स (डॉ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, पृ  356)।

बाद में असंख्य बुद्ध स्वीकार किए गए। बल्कि महायान सूत्रों में तो प्राय  यह वाक्य मिलता है कि गंगा के किनारे के बालू के कणों के समान बुद्ध असंख्य हैं। मानुषी बुद्ध केवल धार्मिक विश्वास में ही नहीं थे, बल्कि बाकायदा उनकी पूजा भी की जाति थी। साँची, भरहुत के स्तूपों में इनके भी प्रतीकों का अंकन है और अशोक के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने कनक मुनि के एक स्तूप का विस्तार करवाया था। शायद, मानुषी बुद्धों की कल्पना को आधार बना कर ही भविष्य में होने वाले मैत्रेय बुद्ध की कल्पना का विकास हुआ। इसका प्रथम उल्लेख दीघ निकाय में हुआ है। महायान सूत्रों में तो उनका प्राय उल्लेख है और लोक प्रियता में ये अवलोकितेस्वर और मंजुश्री आदि की समता करते हैं(डॉ अवधेश सिंह, 307)।

अनेक बुद्ध -
बुद्ध के साथ-साथ अनेक बुद्धों की कल्पना का भी विकास हुआ। अनेक बुद्धों की यह कल्पना बुद्ध के पूर्व-जन्मों की कल्पना से भिन्न है। पूर्व-जन्मों की कल्पना का आधार यह था की बौद्ध धर्म में पूर्व-जन्म का सिद्धांत स्वीकृत था और बुद्ध कल्पना के विकास के साथ साथ यह माना गया कि बुद्ध पद की प्राप्ति महत्वपूर्ण उपलब्धि है जो मात्र एक जन्म के प्रयास से संभव नहीं हो सकती(डॉ अवधेशसिंह, 306)।

गौतम बुद्ध ने पूर्व-जन्मों के ज्ञान एवं तपस्या से इस परम पद को प्राप्त किया था। बौद्ध परम्परा में बुद्ध को उनके पूर्व जन्मों की अवस्था में बोधिसत्व कहा जाता है। स्वतन्त्र  बुद्धों की कल्पना का आधार क्या था, इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ कह पाना कठिन है।  इसका कोई ऐतिहासिक आधार तो नहीं लगता परन्तु हो सकता है कि अन्य धर्मों में तीर्थंकरों की कल्पना के अनुकरण में बौद्धों ने यह विकास किया हो। यह भी संभव है कि सृष्टि के सन्दर्भ में बौद्धों की कल्पना का भी सम्बन्ध हो। विकसित बौद्ध धर्म में यह अनुमान था था कि संसार अनेक होते हैं, अतएव उन में अनेक बुद्ध संभव हैं(डॉ अवधेशसिंह, 306 )।

फाहियान(यात्रा काल  399-414 ई.) और व्हेन सांग(यात्रा काल  629 -645  ई.) ने बुद्ध के अनेक पूर्व-जन्मों में बोधिसत्व जीवन का अभ्यास करने और अपना शरीर दूसरे को प्रदान कर देने का उल्लेख किया है। उनके द्वारा कबूतर की रक्षा, एक व्यक्ति को आँख का दान, एक व्यक्ति को सर का दान आदि उल्लेखनीय है। बोधिसत्व जीवन का अभ्यास करते हुए बुद्ध को 42 प्रश्नों का उत्तर देना पड़ा था। और बोधिसत्व जीवन में ही उन्होंने एक लड़की से फूल का डंढल ख़रीदा था और उसने इस शर्त पर फूल बेचना स्वीकार किया था कि दूसरे जन्म में वह बुद्ध की पत्नी होगी(डॉ अवधेशसिंह, 307 )।

उल्लेखनीय है कि यह जीवन उन्होंने मात्र मनुष्य जीवन में ही नहीं बल्कि पशु रूप में भी व्यतीत किया था। विभिन्न पूर्व जन्मों में उनके द्वारा हस्ति, सर्प, मृग और तक्षशिला के चन्द्रप्रभा राजा के रूप में बोधिसत्व जीवन के अभ्यास का उल्लेख है। सारनाथ, कुशीनगर और बैशाली में उनके द्वारा बोधिसत्व जीवन का अभ्यास उल्लेख प्राप्त होता है। तक्षशिला में बोधि-दशा को शीघ्र प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपना मस्तक काट डाला था और या भीषण कर्म उन्होंने लगातार एक हजार वर्षों तक किया था(डॉ अवधेशसिंह, 308 )।

सभी हीनयानी मानते थे कि साधकों की तीन कोटियां हैं- सावक, प्रत्येक बुद्ध और बोधिसत्व। सावक पुण्यात्मा पुरुष है और बुद्ध का उपदेश प्राप्त करके अर्हत तक प्रगति करता है। प्रत्येक बुद्ध बोधि प्राप्त करते हैं, किन्तु वे न शिष्य होते हैं और न ही गुरु।  बोधिसत्व अनेक जन्मों में अर्जित पुण्य और ज्ञान के सहारे सम्यक सम्बुद्ध होकर अर्हत और प्रत्येक बुद्ध से विशिष्ट होते हैं(डॉ अवधेशसिंह, 308 )

बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के पहले बुद्ध भी बोधिसत्व ही थे। बोधिसत्व शब्द का अर्थ है, वह सत्व या व्यक्ति जो बुद्ध पद प्राप्त करने का अधिकारी हो। ऐसा पुरुष बुद्धत्व प्राप्ति के मार्ग में स्थित माना जाता है। फाहियान और व्हेनसांग ने मुख्य रूप से क्रकुछन्द, कनकमुनि और कस्सप के शरीरावशेष के ऊपर स्तूप निर्माण और अनेक स्थानों पर इनके पद-चिन्हों का वर्णन किया है(डॉ अवधेशसिंह, पृ.309 )।

महायान/हीनयान -
दोनों सामान विनय का अनुशरण करते थे। जो बोधिसत्वों की पूजा तथा महायानी सूत्रों का पाठ करते थे, वे महायानी कहलाते थे।  जो ऐसा नहीं करते थे, वे हीनयानी कहे जाते थे( डॉ गोविंदर चंद्र पांडेय, पृ  455 )।

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