Saturday, September 1, 2018

सवाल, हमारी आस्था का है ?

धम्म में चीवर पूज्य है।  चीवर को जो धारण करता है, वह पूज्य है। पूजा का यह भाव हमारी आस्था का प्रतीक है। धम्म हमारी आस्था है। यह आस्था बतलाती है कि हम किन विचारों से संचालित हैं। आस्था हमारी सोच और संस्कारों का प्रतीक है।

धम्म में हमारी आस्था है। किन्तु यह आस्था किसी अन्धविश्वास का समर्थन नहीं करती। हमारी आस्था का सम्बन्ध धार्मिक जड़ता से नहीं है। धम्म में हमारी आस्था विचार-स्वातंत्र्य को  खुला स्पेस देती है। और इसलिए हमारी आस्था गैर-बुद्धिस्टोंं से भिन्न है। बुद्ध का धम्म प्रज्ञा से संचालित है। प्रज्ञा के बिना धम्म उसी प्रकार अन-उपयोगी है जैसे रथ बिना अश्व । बुद्ध ने कहा- कुल्लुपं वो भिक्खवे, धम्म देसियामि। नित्थरणत्थाय नो गहणत्थाय। धम्मा'पि  पहातब्बा पगेव अधम्मा(अलगद्दुपम सुत्त: मज्झिम निकाय)।

जैसे मैंने कहा, चीवर पूज्य है। किन्तु चीवर तो मात्र वस्त्र है ? चीवर को धम्म का प्रतीक, चीवरधारी बनाता है। यह चीवरधारी ही है जो चीवर को विनय में रखता है, सील में रखता है। धम्म में सील का बड़ा महत्त्व है। बुद्ध कहते हैं कि धम्म ही सील है। सील ही धम्म है। जब तक सील है, धम्म टिका रहता है। सील भंग होते ही धम्म पर आंच आने लगती है। दरअसल सील धम्म का आधार स्तम्भ है। इसलिए  धम्मपद में कहा है-  कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो। मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो।

सील एक भिक्खु के लिए उतना ही मायने रखता है जितना एक बौद्ध उपासक के लिए। किन्तु उपासक के लिए सील अनुकरणीय है, जबकि भंते  के लिए बंधनकारी। और इसलिए, भंते को अत्यंत सावधान रहने की जरुरत  है। सीलोंं में 'कामेसु मिच्छाचारा वेरमणि'  एक ऐसा सील है जिसका भंग होना जीवन भर की कमाई को क्षण भर में दूषित और कलंकित कर देता है।

सद्धम्म से डिगाने के लिए कई तरह के प्रलोभन है, जिस में काम-भोग का प्रलोभन अत्यंत आकर्षक है। यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु यह शरीर की स्वाभाविक मांग के अनुकूल भी है। और इसलिए इसमें फिसलने की संभावना प्रबल रहती है। आप, जाने-अनजाने इसमें एक बार फिसले कि गए काम से। काम-भोग का प्रलोभन अत्यंत विनाशकारी है। और इसलिए एक भिक्खु को अपनी संघाटी का खास ख्याल रखना होता है।

हमारे यहाँ भिक्खु दो तरह के हैं। एक वे हैं जो गृहस्थी से दूर हैं और दूसरे, जिन्हें गृहस्थी छूटे नहीं छूटती। जो गृहस्थी से दूर हैं, उनके लिए उक्त तीसरा सील भयावह है। चूँकि, भिक्खु समाज में ही रहते हैं, इसलिए इस सील के भंग होने का खतरा बना रहता है। अपने ग्रन्थ विशुद्धिमग्ग में बौद्धाचार्य बुद्धघोस कहते हैं- सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञो, चित्तं पञ्ञं च भावयं । आतापि निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जटं(भाग- 1: सील निर्देश) । चीवर सोच-समझ कर ही धारण करें। और एक बार धारण कर लिया तो फिर,  'पतिट्ठाय नरो सपञ्ञो' अर्थात दृढ़ता से उस पर स्थित हो तभी वह इस जटा को सुलझा सकता है ।

मुझे फक्र है कि बालाघाट मेरी जन्म-भूमि है । बालाघाट, धम्म के मामले में बाबासाहब के मुव्हमेंट के समय से ही अग्रज रहा है, पथ-प्रदर्शक रहा है। बालाघाट में कभी भंते अनोमदस्सी हुआ करते थे। वे एक कड़क धम्मधारी और कर्मठ भंते के रूप में जाने जाते थे। धम्म की व्याख्या वे जिस तरह करते थे, मैं नतमस्तक था। लोगों को उनसे अपेक्षा थी। किन्तु अफ़सोस कि उन्होंने चीवर उतार दिया।  ठीक भी है, आप अगर सील की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं तो बेहतर है, चीवर उतार दीजिए । उनके प्रशंसक अभी भी उनके पास जाते हैं, किन्तु वे अदब से उन्हें टा टा कर देते हैं।

अभी कुछ ही दिनों पहले, टीवी चेनलों पर प्रसारित खबर में बुद्धगया स्थित एक भिक्खु को यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार करते हुए दिखाया गया। यह खबर डरावनी है। चाहे जिस देश की यह धर्मशाला हो, अपराध हिला देने वाला है। यह दिलासा कतई पर्याप्त नहीं है कि ऐसा ही कोई आरोप कुछ दिनों पूर्व किसी जैन मुनि पर लगा था। यह बुद्ध की भूमि है। यहाँ बाबासाहब की कर्म-भूमि है। और इसलिए अन्य बुद्धिस्ट देशों की तुलना में हमारी महती जिम्मेदारी है कि हमारी आस्था हर हालत में प्रश्नांकित न हो ।       

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