Wednesday, February 6, 2019

स्त्री शूद्र गीता

गीता

कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन 
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगो'स्त्वकर्मणि।।2.47
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है , उसके फलों में कभी नहीं।  इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आशक्ति न हो।

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत 
अभ्युथानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् 
परित्राणाय साधूना विनाशाय दुष्कृताम् 
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। 4.8
हे भारत! जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रगट होता हूँ। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए , पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए मैं युग-युग में प्रगट हुआ करता हूँ। 



चातुर्वर्णयं  मया सृष्टं गुणकर्मविभागाश:
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।4.13
ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र; इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।  इस प्रकार उस सृष्टि-रचानादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।


मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये'पि स्यु: पाप योनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्ते'पि यान्ति परांं गतिम्।। 9.32
हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र और पाप योनी- चंडालादि जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। 

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