Friday, June 7, 2019

'ब्रह्म' या भ्रम

'ब्रह्म' या भ्रम 
हम बोल-चाल की भाषा में अकसर 'ब्रह्म' शब्द का प्रयोग करते हैं. दरअसल ,यह प्रायोजित शब्द है. वर्तमान में जिस प्रकार 'जय श्री राम' शब्द-समूह प्रायोजित है, ठीक उसी प्रकार 'ब्रह्म' शब्द भी प्रायोजित है.
राजनीति से हटकर भी, 'ब्रह्म' शब्द का प्रयोग विद्वता का परिचायक तो कतई नहीं है. जिसके बारे में स्वयं वेद अज्ञान है, उपनिषदों ने जिसे 'नेति-नेति' कहा है. बुद्ध ने जिस पर प्रश्न-चिन्ह लगाया है, कबीर ने जिसे 'नपुंशक' कहा है, संतो ने जिसे 'भ्रम' कहा है. भला 'उत्तम' अथवा 'सर्वोच्च' का भाव दर्शाने के लिए इसका प्रयोग कैसे न्यायपूर्ण और बुद्धि-संगत हो सकता है ? इसके लिए 'साधु' शब्द का प्रयोग सर्वथा उचित हैं. 
तदानुसार जिस अर्थ के लिए 'ब्रह्मचर्या' शब्द प्रचलित है, उसके लिए 'साधुचर्या' अधिक न्याय-संगत है. साधुचर्या अर्थात साधु का जीवन निस्संदेह अर्थपूर्ण है. अर्थहीन और मुर्दा शब्दों को कन्धों पर ढोते रहने का कोई औचित्य नहीं है.

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