दलितों की पीड़ा-2
'साहित्य समाज का दर्पण होता है' यह उक्ति, एक सवर्ण साहित्यकार की सवर्णों के लिए हो सकती है, भला इसमें अवर्ण क्यों अपना चेहरा देखते हैं ?
प्रेमचंद हो या हजारीप्रसाद द्विवेदी, काश ! ये साहित्यकार अपनी-अपनी जातियों के दड़बों से बाहर निकले होते ? चाहे 'ठाकुर का कुआ' हो या 'कबीर'; इन स्व-नाम धन्य साहित्यकारों ने वहीँ तक शूद्रों और दलितों के प्रति सहानुभूति दिखाई जहाँ तक उनके जातीय दर्प को खतरा न हो. जहाँ और जब उन्होंने खतरा देखा, अपने मान-सम्मान के लिए संघर्षरत दलित नायक/नायिका की बलि देने वे जरा भी नहीं हिचकें.
'साहित्य समाज का दर्पण होता है' यह उक्ति, एक सवर्ण साहित्यकार की सवर्णों के लिए हो सकती है, भला इसमें अवर्ण क्यों अपना चेहरा देखते हैं ?
प्रेमचंद हो या हजारीप्रसाद द्विवेदी, काश ! ये साहित्यकार अपनी-अपनी जातियों के दड़बों से बाहर निकले होते ? चाहे 'ठाकुर का कुआ' हो या 'कबीर'; इन स्व-नाम धन्य साहित्यकारों ने वहीँ तक शूद्रों और दलितों के प्रति सहानुभूति दिखाई जहाँ तक उनके जातीय दर्प को खतरा न हो. जहाँ और जब उन्होंने खतरा देखा, अपने मान-सम्मान के लिए संघर्षरत दलित नायक/नायिका की बलि देने वे जरा भी नहीं हिचकें.
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