दलितों की पीड़ा
चाहे 'आर्टिकल 15' हो या 'अछूत कन्या', यह साहनभूति-जन्य साहित्य की परिधि में आता है.
फिल्म निर्माण पैसे वालों का काम है. दलितों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे इस क्षेत्र में उतरें. बाबासाहब अम्बेडकर के बाद, यह दूसरी पीढ़ी है जो शिक्षा और नौकरी में आयी है. निस्संदेह, दलितों को अपनी आपबीती परदे पर उकारने समय लगेगा. हो सकता है, तब फिर उनके नजरिये में भी बदलाव हों ?
बहरहाल, पर- अनुभूति और स्व अनुभूति में अन्तर तो होगा ही. दलितों की पीड़ा, फिर चाहे वे आर्थिक रूप से समृद्ध ही हो, अलग तरह की होती है. देश का राष्ट्रपति जब मंदिर की सीढियों पर पूजा करने विवश होता है, तो उसकी पीड़ा वह ही जानता है.
चाहे 'आर्टिकल 15' हो या 'अछूत कन्या', यह साहनभूति-जन्य साहित्य की परिधि में आता है.
फिल्म निर्माण पैसे वालों का काम है. दलितों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे इस क्षेत्र में उतरें. बाबासाहब अम्बेडकर के बाद, यह दूसरी पीढ़ी है जो शिक्षा और नौकरी में आयी है. निस्संदेह, दलितों को अपनी आपबीती परदे पर उकारने समय लगेगा. हो सकता है, तब फिर उनके नजरिये में भी बदलाव हों ?
बहरहाल, पर- अनुभूति और स्व अनुभूति में अन्तर तो होगा ही. दलितों की पीड़ा, फिर चाहे वे आर्थिक रूप से समृद्ध ही हो, अलग तरह की होती है. देश का राष्ट्रपति जब मंदिर की सीढियों पर पूजा करने विवश होता है, तो उसकी पीड़ा वह ही जानता है.
दर्शक दीर्घा में पीड़ा की अनुभूति सहानुभूति-जन्य प्रस्तुतीकरण में भी होती है. पीड़ा तो पीड़ा है. कांच चुभने की पीड़ा, राह चलते पथिक के पावं, नुकीले कांच पर पड़ते ही महसूस की जा सकती है और खुद का पावं पड़ते ही. बावजूद, स्व-अनुभूत पीड़ा अलग है और पर-अनुभूति जन्य पीड़ा अलग.
बेशक, आर्टिकल 15 जैसी फिल्मों से दलितों की पीड़ा का कुछ एहसास तो हो सकता है, ख़ास कर उनको जो अंधे नहीं है ?
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