Monday, July 29, 2019

बुद्ध के मूल सिद्धांत

बुद्ध के मूल सिद्धांत
1. मनुष्य स्वयं अपना मालिक है।  यह सिद्धांत किसी ब्रह्मा/ईश्वर आदि मान्यता को अस्वीकार करता है।
2. अनित्यता सिद्धांत । यह सिद्धांत 'आत्मा' जैसी किसी चीज को नकारता है। बुद्ध का यही सिद्धात सिद्ध करता है कि 'जगत सतत परिवर्तनशील' है।
अनित्यता के सिद्धांत को ही प्रतीत्य-समुत्पाद (पटिच्च समुप्पाद) कहा जाता है। एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति। बुद्ध का प्रत्यय ऐसा हेतु है, जो किसी वस्तु या घटना के उत्पन्न होने के पहले के क्षण सदा लुप्त होते देखा जाता है। प्रतीत्य-समुत्पाद का नियम कार्य-कारण के नियम को अविछिन्न नहीं,  विछिन्न प्रवाह सिद्ध करता है(राहुल सांकृत्यायन : दर्शन- दिग्दर्शन,  पृ 514)। बुद्ध के अनुसार सारे धर्म प्रतीत्य-समुत्पन्न हैं।
आगे चलकर नागार्जुन ने इसे ही 'शून्यता' कहा. नागार्जुन के अनुसार विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएं किसी भी स्थिर अचल तत्व से बिलकुल शून्य हैं(विग्रह-व्यावर्तनी कारिका 22)। अर्थात विश्व घटनाएं हैं, वस्तु-समूह नहीं(दर्शन- दिग्दर्शन, पृ 572)।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन इसे बड़े सीधे और सरल अर्थ में बतलाते है- पटिच्च-समुप्पाद का अर्थ है; ऐसा होने पर ऐसा होता है, ऐसा नहीं होने पर ऐसा नहीं होता। उदाहरणार्थ, पानी होने पर भाप होती है, पानी नहीं होने पर भाप नहीं होती है। अथवा तेल होने पर दीपक जलता है, तेल न होने पर दीपक नहीं जलता। पटिच्च-समुप्पाद के नियम के अनुसार जो कुछ भी हमें दृष्टिगोचर होता है, हर वस्तु की, हर क्रिया की, हर धम्म की एक पूर्वावस्था होती है। यदि वह पूर्वावस्था न हो तो उसकी उत्तरकालीन अवस्था न हो। क्योंकि उसकी पूर्वावस्था होती है, इसलिए उसकी उत्तरावस्था होती है(संदर्भ- दर्शनः वेद से मार्क्स तक; डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन )।

प्रतीत्य-समुप्पाद का अर्थ है; प्रवाह(प्रत्यय) में विनाश(अत्यय) के साथ उत्पाद(समुप्पाद)। पहली वस्तु के विनाश के साथ दूसरी वस्तु की उत्पत्ति। जैसे दूध से दही का बनना। दूध जब दही हो जाता है, तब वह दूध नहीं रहता। और यह भी कि दूध के अलावा दूसरी वस्तु से दही नहीं बनता। यदि दूध है तो उसका दही हो सकता है। कलि में ही फूल है; कहना अयर्थाथ है। यर्थाथ कलि से ही फूल होता है। इस प्रकार प्रतीत्य-समुत्पाद अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह है(भगवान बुद्ध का इतिहास एवं धम्मदर्शन, पृ. 177-178)।

अस्तित्व का अर्थ है- होना। बौद्ध दर्शन में प्राणी एक ‘सन्तति-प्रवाह’ है। इस सन्तति-प्रवाह में पदार्थ और मानसिक कारक अर्थात ‘रूप’ और ‘नाम’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह ‘सत्व’ या प्राणी लोक-व्यवहार में ‘पंच-स्कन्धों का सम्बोधन है। इसके भीतर या बाहर इन स्कन्धों के अतिरिक्त उसको निर्देशित करने वाली कोई तत्व या कारक नहीं है। यही बौद्ध धम्म का प्रख्यात ‘अनत्ता’ या अनात्मवाद है।
 
3. किसी ग्रन्थ को स्वत: प्रमाण न मानना। यह सिद्धांत वेदों सहित अन्यन्य धर्म-ग्रंथों की प्रमाणिकता को प्रश्नांकित करता है। किसी ग्रन्थ का स्वत: प्रमाण मानना उसमें वर्णित विषयों पर संदेह न कर आगे की जिज्ञासा को रोक देता है। बुद्ध चाहते थे कि मनुष्य अपनी बुद्धि का इस्तेमाल स्वतंत्रता पूर्वक करें। वह किसी घेरे में कैद होकर न रह जाए।
4.     

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