Saturday, July 13, 2019

साक्षी, समाज, प्रतिक्रान्ति और मीडिया;संजीव चन्दन

साक्षी, समाज, प्रतिक्रान्ति और मीडिया...
भारत के समाज ने प्रतिक्रान्ति के प्रति अपनी कितनी ताकत लगाई है यह जानने के लिए कुछ मसले समय-समय पर सामने आते ही रहते हैं. हालांकि लोकतांत्रिक संस्थाएं क्रान्ति की पक्षधरता के लिए सैद्धांतिक रूप से बाध्य होती हैं, व्यवहार में उनका भी टेस्ट होता रहता है. इस बार भी मीडिया इसी सिद्धांत और व्यवहार के बीच संतुलन बनाने को बाध्य है. प्रतिक्रान्ति की तासीर को समझने का ढ़िया मुद्दे होते हैं जाति के लेकिन जब जाति और जेंडर दोनो मसले जुड़ जाते हैं तो वह सबसे बेहतर पैमाना होता है प्रतिक्रान्ति की तासीर, ऊर्जा को समझने का.
समाज ने हमेशा प्रतिक्रान्ति का पक्ष लिया है. ऐसा दुनिया के सारे देशों में होता रहा है भारत में कुछ ज्यादा ही है. 19 वीं सदी के सुधार आन्दोलन हों या 20 वीं सदी के महिला आन्दोलन. रूपकंवर सती काण्ड हो या शाहबानो- जाति और जेंडर के पैमाने पर समाज की जड़ता खूब उभर कर आयी है. रूपकंवर के दौरान मीडिया को याद करें-तब मीडिया में दोनों बाजू के स्वर थे. लेकिन जनसत्ता जैसे अखबार का सम्पादकीय राजपूत गरिमा से जोड़कर सती प्रथा को देख रहा था-राजाराम मोहन राय के लगभग 200 साल बाद सती को परम्परा से जोड़ रहा था.
अभी तो समय ही हिन्दू-गौरव का है. प्रतिक्रान्ति को सत्ता का ठौर मिल गया है-उन लोगों का जो तीन तलाक के जरिये भ्रमित क्रान्ति का स्वांग करते हैं और सबरीमाला में हिन्दुओं के मर्दवादी उन्माद का समर्थन. अभी हिंदुत्व की ऐसी गंगोत्री जटाधारी जी की जटा से बह रही है कि वे लाख तांडव की भूमिका बनायें उनकी गंगोत्री में प्रज्ञाठाकुर से लेकर बलात्कारी, व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, लम्पट सब डुबकी लगाकर हिंदुत्व के प्रतीक आत्माएं हुई जा रही हैं. गंगोत्री से इस पुनर्जन्म के बाद ठीक किनारे पर मीडिया की ललनाएं उनके लिए सोहर गान के लिए खड़ी हैं और जटाधारी के लिए वे स्तुति गान कर रही हैं.
मीडिया इस भूमिका के बावजूद साक्षी मिश्रा के मामले में रस्सी-संतुलन कर रही है. देख रहा हूँ कि आजतक जैसा घोर प्रतिक्रियावादी चैनल भी साक्षी मिश्रा के मामले में बेमन से ही सही एक सही पोजीशन में होने की कोशिश कर रहा है. और समाज- समाज को समझने के लिए सोशल मीडिया में आ रही प्रतिक्रियाएं देखे जाने लायक है. सवर्ण लम्पटों की आह और सवर्ण बुद्धिजीवियों की कराह देखते बन रही है. उधर गैर सवर्ण समूहों से भी ऐसे मसलों पर स्त्रीविरोधी और जातिवादी तेवर देखने को मिलते हैं. साक्षी और नुसरत के प्रसंग में कराह और वाह को देखकर इसे समझ सकते हैं. एक समूह के लिए वे कुलटा-काफिर हो जाती हैं और एक समूह की सामूहिक भाभी.
हालांकि नुसरत और साक्षियां क्रान्ति की दिशा में हमारा सुकून हैं.

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