राजा ढाले जितना सहज और सुमुख थे उतना ही आक्रामक विचारक।
कई बार उनके बयानों ने, लेखों ने महाराष्ट्र और देश में हंगामा खड़ा किया था। उन्होंने 'दलितों, दलित महिलाओं' की पीड़ा के बरक्स तिरंगे के सम्मान को देखते हुए तिरंगे के खिलाफ बयान दिया था, उसे तुच्छ बताया था। कथित राष्ट्रवादी तब भड़क गये थे।
राजा ढाले ने बाला साहेब ठाकरे की सभा के दौरान हिन्दू पवित्र ग्रन्थों को जलाने की चेतावनी भी दी थी। ऐसा उन्होंने बाला साहेब के एक बयान के बाद किया था। बाला साहेब ने बयान दिया था कि बौद्ध युवक हिन्दू ग्रन्थों का सम्मान नहीं करते।
ढाले साहेब ने वेदों को पहले प्राकृत में लिखा गया बताया जिसे उनके अनुसार बाद में संस्कृत में प्रस्तुत किया गया। वे वेदों की अपौरुषेयता को चुनौती देते थे। वे रामायण और महाभारत के रचनाकारों को कोली समाज यानी मछुआरों के समाज का भी बताते थे।
ढाले साहेब अम्बेडकरवाद को वामपंथ के साथ जोड़ने के पक्ष में भी नहीं थे। नामदेव ढसाल वामपंथियों के ज्यादा करीबी थे जबकि राजा ढाले इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे।
उन्होंने 1972 में स्थापित दलित पैंथर को जल्द ही भंग करने की योजना बनाई। कार्यकर्ताओं को पोस्टकार्ड तक लिख दिया था जिसे बाद में रामदास आठवले ने अपने स्तर पर नेतृत्व दिया। इस बिंदु पर दोनो में मतभेद भी हुए। आठवले साहेब ने पिछले दिनों उन्हें सम्मानित किया।
दलित पैंथर ने महाराष्ट्र में दलित युवाओं को आत्मविश्वास से लैस किया। यह आंदोलन बाबा साहेब के बाद के नेतृत्व से मोहभंग से आक्रोशित युवाओं द्वारा खड़ा हुआ था-जिनमें राजा ढाले, नामदेव ढसाल, जेवी पवार, अरुण काम्बले आदि प्रमुख थे। रामदास आठवले भी उससे जुड़े, तब वे उनके कनिष्ठ कार्यकर्ता के रूप में जुड़े थे और बाद में नेतृत्व में आये।
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